बिहार की सियासत में उठापटक: क्या रंग दिखाएगी !

नीतीश कुमार
नीतीश कुमार

क्या भा.ज.पा. नीतीश को दबाने की कोशिश करेगी? क्या आरजेडी नया कुनबा बना पायेगा? क्या कुशवाहा एन.डी.ए. को झटका देंगे?

साल 2013 से बिहार की सियासत में उठा-पटक का जो दौर शुरू हुआ है, वो अगले लोक सभा चुनाव तक जारी रहने वाला है। इस समूचे परिदृश्य के केंद्रबिंदु में जो सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, वो हैं नीतीश कुमार.

आपको याद होगा कि 2013 में जब भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को 2014 के लोक सभा चुनाव के लिए अपना प्रधानमंत्री प्रत्याशी चुना तभी से ये बात नीतीश कुमार को खटकने लगी थी। हो सकता है उस समय नीतीश अंदरखाने खुद को भावी पीएम के दावेदार के रूप में देख रहे हों साथ ही शायद उन्हें ये भ्रम हो चुका था कि जिस तरह 2010 में उनकी पार्टी जेडीयू ने 115 सीटें जीतीं थी, भाजपा से अलग होकर वो अगले चुनाव में अकेले दम पर बहुमत पा लेंगे ! जो भी हो, नीतीश ने भाजपा के साथ अपना १७ साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया।

इसके बाद 2014 के लोक सभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की अप्रत्याशित लहर ने भी नीतीश का अहंकार तोड़ दिया और बिहार में भाजपा-एनडीए की भारी जीत के बाद नीतीश कुमार को मजबूरन हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए त्यागपत्र देना पड़ा था। उसके बाद नीतीश ने रबर स्टैम्प समझकर अपने महादलित विधायक जीतन राम मांझी को मई 2014 में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया। शुरुआत में तो जीतन राम मांझी, नीतीश के इशारे पर ही काम करते रहे लेकिन उसके बाद उनकी महत्वाकांक्षा जाग उठी और उन्होंने नीतीश के खिलाफ विद्रोही तेवर अख्तियार कर लिया। मांझी ने नीतीश को दुबारा मुख्यमंत्री बनने के लिए खुद के इस्तीफे से इंकार कर दिया था, जिसके बाद शरद यादव और नीतीश कुमार को बड़े दांव-पेंच आजमाने पड़े थे और जीतन राम मांझी के विधान सभा को भंग करने की सिफारिश को असफल करते हुए नीतीश कुमार को पार्टी का नेता चुनकर उनके नेत्तृत्व में फिर से सत्ता का नाटकीय तरीके से हस्तांतरण करवाया गया था।

इस तरह फरवरी 2015 में नीतीश कुमार ने बिहार विधान सभा चुनाव के 9 महीने पहले नए जोश के साथ फिर से गद्दी सम्हाल ली। 2014 से आरजेडी-जेडीयू-कांग्रेस के महागठबंधन की पहल पर रंग चढ़ना शुरू हो गया. इसके पीछे बिहार के जमीनी नेता और आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव का ही दिमाग था। बिहार की सत्ता को करीब डेढ़ दशक तक भोगने वाले लालू तो ऐसे मौके की तलाश में पहले से ही बैठे थे। भाजपा और जेडीयू की टूट ने उन्हें ये मौका दे दिया। इस महागठबंधन के पीछे लालू का गणित सीधा था कि साल 2010 में भाजपा को 16.46%, जेडीयू को 22.6%, आरजेडी को 18.84% और कांग्रेस को 8.38% वोट मिले थे। ऐसे में अगर नीतीश, जेडीयू को लालू की आरजेडी और कांग्रेस के साथ लेकर आते हैं तो तीनों का कुल वोट प्रतिशत भाजपा और उसके सहयोगी दलों से ज्यादा होगा।

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नतीजा भी यही रहा। तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा को 2015 में महज 53 सीटें मिलीं जबकि एम-वाई समीकरण और जेडीयू के वोट बैंक के सहारे चुनाव लड़ने वाले महागठबंधन में आरजेडी को 2010 में मिले 22 के मुकाबले 80, जेडीयू को 115 के मुकाबले महज 100 सीटों पर लड़ने पर 71 जबकि कांग्रेस को 04 के मुकाबले 27 सीटों पर जबरदस्त जीत मिली. नतीजतन वादे के मुताबिक लालू ने नीतीश को फिर से मुख्यमंत्री बनवाया और अपने छोटे बेटे तेजस्वी को उप-मुख्यमंत्री तो बड़े बेटे तेज प्रताप को स्वास्थ्य मन्त्री बना दिया।

अब जरा साल 2010 और 2015 के बीच के आंकड़ों में आये फर्क को देखिये:-

पार्टी 2010 में वोट % 2015 में वोट %
भाजपा 16.46 24.8
जेडीयू 22.6 16.8
आरजेडी 18.84 18.5
कांग्रेस 8.38 6.7

इसके अलावा 2015 में लोजपा को 4.8%. जीतन राम मांझी की हम को 2.3% और उपेन्द्र कुशवाहा की रालोसपा को 2.6% वोट मिले थे।

2014 की मोदी लहर के बाद एक तरफ भाजपा और एनडीए का वोट प्रतिशत बढ़ा लेकिन सीटें कम हुई जबकि जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस का वोट प्रतिशत घटा मगर सीटें बढ़ गयी. 2015 के विधान सभा चुनाव में महागठबंधन ने भाजपानीत एनडीए से 12 प्रतिशत ज्यादा वोट पाए थे. यही लालू के साधारण गणित और सोशल इंजीनियरिंग का कमाल था।

खैर, इस महागठबंधन को शुरू से ही अस्वाभाविक माना जा रहा था और आरजेडी के सत्ता में साथ आने की वजह से बिहार की जनता में फिर से जंगलराज का खौफ़ पैदा होने लगा था जबकि लालू हर हालत में नए दौर के हिसाब से चीजें सेट करने की कोशिशों में लगे हुए थे। अप्रत्यक्ष रूप से एक बार फिर लालू सत्ता की कमान अपनी मुट्ठी में करने की कोशिशों में लगे हुए थे तो दूसरी ओर उनके समर्थक, युवा तेजस्वी को बिहार का भावी मुख्यमंत्री घोषित करने में जुटने लगे। ये सारी परिस्थितियां नीतीश कुमार को क्रमशः असहज बनाये जा रही थीं। इसी बीच जगह-जगह पर लालू के समर्थकों की गुंडागर्दी, बढ़ते हुए अपराध भी नीतीश के सुशासन के वादे को चुनौती देने लगे थे।

बात साफ़ थी कि इस महागठबंधन ने नीतीश को फिर से मुख्यमंत्री तो जरुर बना दिया लेकिन वो लालू के बुने जाल में चारों तरफ से फंसकर खुद को असहज महसूस करने लगे।

इसके बाद बिहार की राजनीति में खेल बदलना फिर शुरू हुआ। लालू यादव, राबड़ी देवी, मीसा भारती और नीतीश की कैबिनेट में उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव पर आर्थिक अनियमितताओं, बेनामी संपत्ति और भ्रष्टाचार के आरोपों का पिटारा बिहार भाजपा के कूटनीतिज्ञ कहे जाने वाले सुशील मोदी ने खोलना शुरू किया। जल्द ही मामला राष्ट्रीय स्तर पर लालू और उनके परिवार द्वारा किये गए भ्रष्टाचार के रूप में छा गया. देशभर में लालू के परिवार की संपत्तियों पर कई जगह छापे पड़े। नतीजतन तेजस्वी के इस्तीफे की बात उठने लगी जबकि लालू हर तरह से तेजस्वी को बेक़सूर बता, उन्हें बचाने में लगे रहे. नीतीश कुमार पर तेजस्वी यादव को हटाने का दबाव था जबकि तेजस्वी ये चाहते थे कि नीतीश उन्हें खुद बर्खास्त कर दें ताकि अपनी पार्टी के समर्थकों की सहानुभूति उन्हें मिल सके।

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राजनीतिक पंडितों की मानें तो तेजस्वी इस्तीफा न देकर खुद को हीरो बनाने का एक सुनहरा मौका चूक गए जबकि उनकी पार्टी के लोगों का मानना था कि अगर तेजस्वी इस्तीफा दे देते तो लोग उन्हें वाकई दोषी मान लेते।

खैर, जुलाई 2017 का महीना भारी ऊहापोह से भरा रहा। एक तरफ लालू के घर पर सीबीआई छापे मार रही थी, वहीँ उसी दौरान नीतीश कुमार बीमार होने का हवाला देकर राजगीर में स्वास्थ्य लाभ करने चले गए थे. निश्चित था कि खाई बहुत चौड़ी हो चुकी थी।

अचानक 26 जुलाई 2017 की शाम को नीतीश कुमार ने एक बार फिर से सबको स्तब्ध करते हुए तेजस्वी को बर्खास्त करने की जगह खुद का इस्तीफा दे दिया। नीतीश ने इस्तीफे के बाद कहा था कि इस सरकार में उनका दम घुट रहा था, वे असहाय महसूस करने लगे थे और भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद तेजस्वी के इस्तीफा न देने और उनकी पार्टी जेडीयू को आरजेडी की तरफ से तोड़ने की कोशिश की वजह से वे इस्तीफा दे रहे हैं।

तटस्थ लोगों को अपेक्षा थी कि शायद इस्तीफे के बाद नीतीश कुमार या तो अपनी पार्टी से नया नेता चुनने को कहेंगे या फिर विधान सभा भंग कर फिर से चुनाव कराने की सिफारिश करेंगे लेकिन जो हुआ वो अप्रत्याशित था।

भाजपा से 17 बरस पुराना गठबंधन तोड़ने के बाद ये नीतीश कुमार ही थे जिन्होंने कहा था कि – “मैं मिट्टी में मिल जाना पसंद करूंगा लेकिन फिर से भाजपा के साथ नहीं जाऊंगा।”

रातों-रात सियासत ने खेल दिखाया। नीतीश के इस्तीफे के फ़ौरन बाद पीएम मोदी ने नीतीश को ट्वीट करते हुए बधाई दी। उसी रात नीतीश ने जेडीयू का फिर से भाजपा के साथ जाना तय कर लिया और राज्यपाल को अगले दिन सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया जबकि इधर तेजस्वी पटना की सड़क पर आंदोलन करने लगे और आरजेडी, कांग्रेस ने नीतीश पर विश्वासघात का आरोप लगाया. शरद यादव के नीतीश के इस कदम के विरोध की परिणति भी सबके सामने आ गई।

अगले दिन 27 जुलाई 2017 को जब नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बने तो उम्मीद के मुताबिक ही सुशील मोदी को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया।

गौर कीजियेगा कि बिहार की राजनीति के तीन मुख्य ध्रुव हैं, जिनके तार आपस में जुड़े मिलेंगे। ये हैं लालू यादव, सुशील मोदी और नीतीश कुमार। पिछले 28 सालों से बिहार की सत्ता के केन्द्र में ये तीन चेहरे ही आपको दिखाई देंगे। एक तरफ जहां लालू सबसे बड़े मास लीडर हैं तो नीतीश और सुशील मोदी अपनी कूटनीति की बदौलत बिहार की राजनीति को प्रभावित करते रहे हैं।

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बहरहाल, जुलाई 2017 में नीतीश जिस तरह घुटने टेककर भाजपा की बैसाखी के सहारे फिर से कुर्सी पर आये तब ये माना जाने लगा था कि अब 2019 तक नीतीश या तो पूरी तरह से भाजपा के सामने सरेंडर कर देंगे या फिर मोदी-शाह के नियंत्रण वाली भाजपा नीतीश की चुनौती को ही खत्म कर देगी।

लेकिन लालू यादव को चारा घोटाले के विभिन्न मुकदमों में मिलती जा रही सजाओं के बीच तेजस्वी और अन्य वरिष्ठ आरजेडी नेताओं के नेत्तृत्व में एक बार फिर बिहार की राजनीति में उठापटक का दौर शुरू कर दिया है। कई उप-चुनावों में भाजपा की हार के बाद उसके ही सहयोगी दलों ने जिस तरह से रवैया बदला है, वो भी अपना रंग दिखाने लगा है।

पहले से असंतुष्ट चल रहे जीतन राम मांझी ने एनडीए छोड़कर आरजेडी से हाथ मिला लिया जबकि दूसरी तरफ नीतीश ने मांझी की ही पार्टी को दो टुकड़ों में तोड़ दिया और नरेंद्र सिंह के धड़े को अपने साथ ले लिया। उधर पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चौधरी भी अपने धड़े के साथ कांग्रेस छोड़कर जेडीयू का दामन थाम चुके हैं।

मौके बे मौके रालोसपा के अध्यक्ष और मोदी सरकार में मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा का एनडीए से असंतुष्ट होने का मामला सामने आता रहता है, शायद वो भी मौके की तलाश में ही खामोश बैठे हैं। राजनीति में मौसमी पूर्वानुमान लगाने में माहिर खिलाड़ी लोजपा के अध्यक्ष और केन्द्र में मोदी के एक और मंत्री राम विलास पासवान ने भी अपनी टिप्पणी दे ही दी है।

तो कुल मिलकर बिहार का लब्बोलुआब जो सामने आता दिखाई दे रहा है वो ये है कि अगले लोक सभा चुनाव के लिए एक तरफ आरजेडी फिर से अपना कुनबा बढ़ाना चाहता है ताकि वो भाजपा-जेडीयू को सीढ़ी टक्कर दे सके, जैसा कि हाल ही में हुए बिहार के लोक सभा और विधान सभा चुनाव में उसने साबित भी कर दिया है। दूसरी ओर नीतीश कुमार ने इन परिस्थितिओं के मुताबिक खुद को पहले से मजबूत बना लिया है क्योंकि अब अगर चुनावों में भाजपा उन्हें ज्यादा दबाने की कोशिश करेगी तो वो भले अकेले दम पर कुछ खास सीटें न जीत पायें लेकिन उनका करीब 17 प्रतिशत का वोट शेयर भाजपा को हरवाने का काम जरूर करेगा।

इसलिए, लोक सभा चुनाव चाहे इस साल के अंत में हों या 2019 में, बिहार की राजनीति फिर से इसे बहुत नजदीकी बनाएगी, इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए।

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