नरेन्द्र मोदी की शान में नीतीश कुमार चाहे जितने क़सीदें पढ़ें, उन्हें 2019 के लिए चाहे जैसे अपराजेय बताते रहे, लेकिन बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री की हैसियत अब उस बकरे जैसी हो चुकी है, जिसकी माँ कब तक ख़ैर मनाएगी! अब तो राजनीतिक क्षितिज पर ये लिखा दिखायी दे रहा है कि नीतीश और उनकी जनता दल यूनाइटेड (JDU) को 2019 के आम चुनाव से पहले ही इतिहास बना दिया जाएगा! संघ के रणनीतिकारों के सामने अब ऐसे ‘मिशन बिहार’ का कोई विकल्प नहीं हो सकता। इसीलिए, यही उनका अगला लक्ष्य भी रहेगा।
राजनीति में जिस बात का महत्व सबसे अधिक है, उसे छवि यानी Perception कहते हैं। हरेक नेता अपनी छवि के सहारे जीता है। हालाँकि, अक्सर छवि झूठी ही होती है! लेकिन नेतागिरी में छवि ही सर्वोपरि होती है। हरेक पार्टी और नेता अपनी छवि को बढ़िया और विरोधियों की छवि को घटिया साबित करने के अन्तहीन सिलसिले से जुड़े होते हैं। इस काम को जो ज़्यादा सफलतपूर्वक कर लेता है, वो सत्ता पाता है। जबकि पिछड़ने वाले को विपक्ष में रहना पड़ता है। 2013 के उत्तरार्ध से अभी तक नरेन्द्र मोदी और उनका संघ भी तरह-तरह के झूठ फैलाकर जहाँ अपनी ज़ोरदार ब्रॉन्डिंग करने में सफल रहा है, वहीं विरोधियों की छवि का मर्दन करने में भी उसे भरपूर क़ामयाबी मिली है। वैसे इतिहास गवाह है कि झूठा छवि-निर्माण जब अपनी सीमा को पार करता हुआ घोर अविश्वसनीय हो जाता है, तो सारी छवि और समूची नेतागिरी भरभराकर ढह जाती है।
नीतीश की छवि यानी उनके दीये का तेल अब समाप्ति पर है। उनके दीये का तेल कई तत्वों से मिलकर बना था। जैसे, सुशासन बाबू! अब ये छवि बहुत खोखली हो चुकी है। इसका जायज़ा उनके नये मंत्रियों के दाग़ी चेहरों की तादाद को देखकर आसानी से लिया जा सकता है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़, नीतीश के नव-नियुक्त 29 मंत्रियों में से 22 के ख़िलाफ़ गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज़ हैं। ख़ुद नीतीश भी हत्या जैसे सबसे बड़े अपराध के आरोपी हैं। वैसे दाग़ी मंत्रियों की कमी महागठबन्धन सरकार में भी नहीं थी। अलबत्ता, अब ये कलंक नये शिखर पर जा पहुँचा है।
नीतीश के तेल का अगला तत्व है, उनकी ‘सेक्यूलर’ छवि। 17 साल तक बीजेपी के साथ रहने के बावजूद वो किसी न किसी तरह से इस छवि संजोये रहे। इस दौरान लालू को जंगलराज का प्रतीक बताकर उनका राज चलता रहा। उधर, 2015 में बिहार में मुँह की खाने के बावजूद देश में संघ-बीजेपी का फैलाव होता रहा। इससे उत्साहित होकर बीजेपी ने नीतीश से भी दो-दो हाथ करने की रणनीति बनायी। बीजेपी को लगा कि यदि वो नीतीश की सुशासन बाबू वाली छवि पर ज़ोरदार हमला करेगी, वो इससे पूरे महागठबन्धन पर एक ही तीर से निशाना साधा जा सकता है। लिहाज़ा, सुशासन के विलोम भ्रष्टाचार को फिर से मुद्दा बनाकर इसे ज़ोरदार हवा दी गयी। नीतीश को भी धमकाया गया कि महागठबन्धन तोड़कर वापस आ जाओ, वर्ना भ्रष्टाचार के आरोपों से छलनी-छलनी कर दिये जाओगे।
नीतीश में बहादुर नेता की तरह डटकर चुनौतियों का मुक़ाबला करने वाला ज़ज़्बा कभी नहीं रहा। संघ-बीजेपी को नीतीश के डरपोक और सत्ता के लालची होने के बारे में अच्छी तरह से पता था। दोनों एक-दूसरे के साथ 17 साल तक हम-बिस्तर रहे हैं। लिहाज़ा, संघ ने बिहार को मुट्ठी में करने की व्यापक रणनीति बनायी। उसी पटकथा पर क़रीब साल भर से काम चल रहा था। इससे उपजा पहला बड़ा संकेत नोटबन्दी के वक़्त सामने आया। तब भी अपनी जान बचाने के लिए, अपने ख़ेमे से दग़ाबाज़ी करके नीतीश, नोटबन्दी का गुणगान करने लगे। फिर जीएसटी की दरें और राष्ट्रपति चुनाव के मोर्चे पर भी बेसुरा राग ही आलापा। ये सब कुछ अनायास नहीं था! इसी पटकथा के मुताबिक, सुशील मोदी को आये दिन लालू यादव को निशाना बनाने की भूमिका दी गयी। ताकि नीतीश के लिए महागठबन्धन से बाहर आने का उपयुक्त अवसर पैदा किया जा सके। अब उसी पटकथा का ‘क्लाईमेक्स’ है कि 2019 के आम चुनाव से पहले नीतीश कुमार और उनके जनता दल यूनाइटेड का ख़त्म होना तय है। संघ-बीजेपी ज्यादा दिनों तक बिहार में जूनियर पार्टनर बनकर नहीं रहना चाहता। इसीलिए नीतीश और जेडीयू की बलि ली जाएगी!
संघ-बीजेपी की ओर से जल्द ही जेडीयू में बाग़ी तत्वों को हवा दी जाएगी। बाग़ियों को भारी-भरकम थैलियों और टिकट की गारंटी देकर वैसा ही खेल खेला जाएगा, जैसा अभी हमने गुजरात और उत्तर प्रदेश में देखा है! या जैसा असम के चुनाव के वक़्त हुआ था, या जैसा अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड और मणिपुर में हम देख चुके हैं! थैलियों और टिकट के अलावा सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग जैसे सरकारी लठैतों के बल पर विधायकों और सांसदों का होश ठिकाने लगाया जाएगा। राजनीति में ‘साम-दाम-भेद-दंड’ का दस्तूर भी यही है। फ़िलहाल, बीजेपी इन्हीं हथकंडों को वैसे ही अपनाएगी जैसे मध्यकाल में तैमूर लंग और मोहम्मद ग़ोरी जैसे लुटेरों को क़त्लेआम से कोई गुरेज़ नहीं होता था। लोकलाज़ और नैतिकता को ये अरसे पहले ताक़ पर रख चुके हैं।
नीतीश की नयी सरकार बमुश्किल साल भर भी नहीं चल पाएगी कि जनता दल में बाग़ी तत्वों को हवा दी जाएगी।
पटकथा के मुताबिक़, पहले तो नीतीश को जेडीयू का बीजेपी में विलय कर लेने के लिए कहा जाएगा। ना-नुकुर हुई तो फ़ौरन बाग़ियों और सरकारी लठैतों के ज़रिये उन पर धावा बोल दिया जाएगा। जैसे ही बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बन जाएगी वैसे ही नीतीश को सत्ता से बाहर करके भगवा मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। यदि नीतीश ज़्यादा नहीं फ़नफ़नाएँगे तो उनको बाक़ी ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए किसी भी राजभवन में भेज दिया जाएगा। बिहार ही नहीं, ऐसे मिशन उड़ीसा और तमिलनाडु में भी चलाये जाएँगे। सरकारी लठैतों का ख़ौफ़ दिखाकर अन्नाद्रमुक को एनडीए में लाने का काम तो इन दिनों अपने आख़िरी दौर में है। किसी भी इसका ऐलान सामने आने वाला है। उड़ीसा में बीजू जनता दल को भी तोड़ने का अभियान छेड़ दिया गया है। वहाँ भी सही वक़्त पर नतीज़े सामने आ जाएँगे। ममता के मामले में भी खेल तो यही होना है, लेकिन फ़िलहाल, बंगाल में धीरे-धीरे आगे बढ़ा जाएगा। 2019 से पहले बंगाल पर तगड़ा हमला नहीं किया जाएगा क्योंकि ऐसा होने से विपक्ष एकता को फ़ायदा हो सकता है।
दरअसल, संघ को अच्छी तरह से पता है कि 2019 में मोदी सरकार की छवि को तगड़ा झटका लगेगा। क्योंकि चुनावी वादों को निभाने, उम्दा सरकार देने और अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर इसकी उपलब्धियाँ बेहद मायूसी भरी रही हैं। हालाँकि, संघ को अपने अफ़वाह फ़ैलाने वाले तंत्र की बदौलत, मन्द-बुद्धि हिन्दुओं को लगातार अफ़ीम चटाने में सफलता अब भी मिल रही है। लेकिन चुनावी इतिहास ये कहता है कि 2014 में जिन-जिन राज्यों में बीजेपी ने तक़रीबन पूर्ण विजय पायी थी, वहाँ 2019 में सत्ता-विरोधी भावना (Anti incumbency factor) अपना असर ज़रूर दिखाएगी।
2019 में यदि जनता का मोदी राज की झूठी छवि और ब्रॉन्डिंग से मोहभंग हो गया तो इन्हें भी वैसे ही सत्ता से बाहर होना होगा, जैसे 2004 में इंडिया शाइनिंग का झूठ, जनता को हज़म नहीं हुआ था। संघ-बीजेपी भी इस पहलू को अच्छी तरह समझते हैं। उन्हें पता है कि यदि 2014 जैसी मोदी लहर 2019 में भी रही, तो भी गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, हिमाचल, झारखंड और बिहार जैसे राज्यों में उसे कुछ न कुछ सीटों का नुकसान तो झेलना ही पड़ेगा। क्योंकि हरेक चुनाव में पार्टियाँ जहाँ कुछ नयी सीटें जीतती हैं, वहीं कुछ मौजूदा सीटें गँवाती भी हैं। फिर, यदि किसी राज्य में आप सर्वाधिक या सारी सीटें जीत चुके हैं, तो अगली बार उसमें कमी आना तय है। इसके अलावा, हरेक चुनाव में सबसे ज़्यादा मंत्री ही हारते हैं। कई उलटफेर भी होते हैं।
लिहाज़ा, सत्ता पक्ष के लिए जहाँ हारने वाली सीटों की भरपायी नयी सीटों को जीतकर करने की होती है, वहीं विपक्ष अपनी पुरानी साख को फिर से पाने के लिए जूझता है। इस हिसाब से 2019 में बिहार में एनडीए की दशा बहुत पेंचीदा होने वाली है। नीतीश की वापसी से पहले एनडीए में बीजेपी के साथ, राम विलास पासवान, उपेन्द्र कुशवाहा और जीतन राम माँझी अपनी-अपनी पार्टियों के साथ मौजूद थे। इन सबके बीच सबसे ज़बरदस्त टकराव सीटों के बँटवारे के वक़्त होगा। नीतीश यदि अपना क़द सबसे बड़ा रखना चाहेंगे तो उन्हें कितनी सीटों का लक्ष्य रखना होगा? 2014 में जेडीयू ने राज्य की सभी 40 सीटों पर चुनाव लड़ा था। लेकिन खाते में आयी सिर्फ़ 2 सीट। जबकि बीजेपी ने 22, पासवान ने 6 और कुशवाहा ने 3 सीटें जीती थीं। बाक़ी 9 सीटें यूपीए को मिलीं।
अब सवाल ये है कि ऐसी क्यों होगा कि बीजेपी सभी सहयोगियों की सीटों की माँग को पूरा करके सिर्फ़ बचा-खुचा से सन्तोष कर लेगी? एनडीए का हर सहयोगी चाहेगा कि उसे पिछली बार से ज़्यादा सीट मिलें। जबकि बाँटने के लिए तो सिर्फ़ 9 सीटें ही होंगी। इसी बात को लेकर ज़ोरदार टकराहट होगी। इसलिए भी यदि वैसी नौबत आने से पहले जेडीयू का बीजेपी में विलय हो जाए और नीतीश को दरकिनार कर दिया जाए तो सारा का सारा खेल बीजेपी की मुट्ठी में बना रहेगा! जेडीयू का बीजेपी में विलय इसलिए भी सहज और आसान होगा कि अब जेडीयू के विधायकों के पास विचारधारा नाम का कोई तत्व बचा नहीं है। जेडीयू के पास अब ऐसा कुछ भी नहीं रहा जिससे वो ख़ुद को बीजेपी से अलग पार्टी की तरह पेश कर सकें। ऐसी जो भी गुंज़ाइश है, उस जगह को पासवान, कुशवाहा और माँझी भी घेरकर बैठे हैं। कुलमिलाकर, अगले कुछ महीनों में जेडीयू के विधायकों की मानसिकता ऐसी बना दी जाएगी कि उन्हें लगेगा कि जब गूँ ही खाना है तो कुत्ते का क्यों खायें, हाथी का क्यों नहीं! जब साम्प्रदायिकता और दग़ाबाज़ी का ही कलंक झेलना है कि नीतीश के पीछे खड़े रहने से अच्छा है मोदी के पीछे खड़े रहना! नीतीश और जेडीयू के ख़ात्मे के लिए ये सब पर्याप्त आधार हैं।
(सौजन्य: मुकेश ओपाइंस)