दिल्ली / पटना : “नेता नहीं बन पाए आर.सी.पी, गजब का शब्द है । वैसे देश के अनेकानेक भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय राजस्व सेवा, प्रदेश के अधिकारी, प्राधिकारी जो सेवा प्रारम्भ करने से पहले कई किताबों पर हाथ रखकर “किरया” खाते हैं कि वे जनता की सेवा करेंगे। भारतीय संविधान के एक-एक शब्दों को जीवन पर्यन्त पालन करेंगे। लेकिन जैसे ही कुर्सी पर चिपकते हैं, चतुर्दिक देखने लगते हैं कि किस राजनीतिक पार्टी और उसके मुखिया को कुर्सी की टंगरी थमा दे, ताकि वे भी खुश रहें और अपनी जिंदगी भी टनाटन रहे। जनता को क्या, जन्म लिया है तो 18 वर्ष की होगी ही और जब 18 की हो जाएगी तो जैसे ही “लवणच्युस” दिखाएंगे, दौड़कर वोट डाल देगी। पढ़ने-पढ़ाने से दूर-दूर तक कोई वास्ता न जनता हो होगी और राजनेता, राजनीतिक पार्टियां तो कभी चाहेगी ही नहीं की आवाम शिक्षित हो। बेचारे आर सी पी सिंह भी वही सोचे होंगे।
आर सी पी शायद यह सोचे कि जब तक कुर्सी पर विराजमान है उनके मातहत कार्य करने वाले अधिकारी, पदाधिकारी, कर्मचारी, जनता जिस प्रकार ‘जी-हुज़ूरी” करते थे; शायद सेवा निवृत होने के बाद, स्वेछा से सेवा त्यागने के बाद, यानी कुर्सी से मुक्त होने के बाद भी वही “सम्मान” मिलेगा। गजबे सोच रखे थे आर सी पी साहेब। शायद भूल गए यह बिहार है। यहाँ नेतागण आँखों से भले ‘दिव्यांग’ हों, कान बहुत तेज होता है। वे देखने की अपेक्षा सुनने पर अधिक विश्वास करते हैं। भारत सरकार का गुप्तचर विभाग और उसके अधिकारी जितने कर्मठ नहीं होते हैं, इन राजनेताओं के ‘सूत्र’ उतने ही पक्के होते हैं। वैसे कब “पलटनिया” मार देगा “स्वहित” में यह कहा नहीं जा सकता, लेकिन नेताओं के पास इसके सिवा कोई विकल्प नहीं है।
पटना से वरिष्ठ पत्रकार कमला कान्त पाण्डेय जी बहुत बेहतरीन शब्दों में बिहार की वर्तमान राजनीतिक चरमराहट को शब्दबद्ध किये हैं। उन्होंने बहुत बेहतरीन पांच शब्दों में आर सी पी साहेब का चारित्रिक विवरण लिख दिए। कमला कान्त जी लिखते हैं: “नेता नहीं बन पाये आरसीपी” – जिस प्रकार से आरसीपी सिंह ने नीतीश कुमार को खुलेआम अघोषित रूप से भाजपा के इशारे पर चुनौती दिया, स्वाभाविक है कि किसी भी नेता को यह मंजूर नहीं हो सकता है। आरसीपी सिंह नीतीश कुमार के शागिर्द बनकर सदन तो पहुंच गए, लेकिन नेता नहीं बन पाए। आरसीपी सिंह राष्ट्रीय पार्टी के चाल को नहीं समझ पाए कि कैसे राष्ट्रीय दल ‘क्षेत्रीय क्षत्रप’ को तोड़कर , आपस में लड़वाकर , राज करना चाहती है। पढ़े-लिखे लोग जब राजनीति में ढुकते हैं तो ऐसा ही करते हैं, वे समझ नहीं पाते कहाँ ‘तैरना’ है, कहाँ ‘गोंता’ लगाना है, कहाँ ‘चित्त’, हो जाना है, कहाँ ‘पेट के बल’ हो जाना है, कहाँ ‘करवट’ लेना है। आरसी पी को कम से कम प्रदेश में ‘जीवित’ राजनीतिक धनुर्धरों से मसलन लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार से सीखना चाहिए था कि लालू प्रसाद यादव ने कैसे कांग्रेस को हमेशा बिहार में दबाकर रखा, ठीक उसी प्रकार नीतीश कुमार ने भी चाहे परिस्थिति कितनी ही विकट क्यों ना हो, भाजपा को दबाकर रखा।
पांडे जी का कहना है कि “आरसीपी ने यह भी नहीं सोचा कि भाजपा के कारण 2014-15 में तत्कालीन मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का क्या हश्र हुआ था? भाजपा के बहकावे में आकर जीतन राम मांझी जदयू को तोड़ने चले थे, उन्हें पूरा भरोसा था कि भाजपा साथ खड़ी रहेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ, भाजपा ने ही जीतन राम मांझी को तबाह कर दिया। तात्कालिक लाभ ने आरसीपी का पूरा राजनीतिक भविष्य हीं दांव पर लगा दिया। अगर आरसीपी सिंह भाजपा के इशारे पर न रहकर अर्थात यूं कहें तो “संघी” बनकर न रहकर “समाजवादी” बनकर रहते, तो शायद बिहार के भविष्य हो सकते थे। दिग्विजय सिंह, जार्ज फर्नांडिस, शरद यादव, प्रशांत किशोर के बाद, नीतीश ने अपने से बगावत करने वाले आरसीपी को निपटा दिया। दो कार्यकर्ताओं को राज्यसभा भेजे हैं इससे उनके दल ही नहीं दूसरे दलों के कार्यकर्ताओं का भी मनोबल ऊंचा होगा।
भाजपा ने भी एक साधारण कार्यकर्ता को राज्यसभा भेजा है और जदयू के पारंपरिक कुर्मी वोटर में सेंध लगाने की जबरदस्त कोशिश किया है। भाजपा के बढ़ने और कांग्रेस के लुढ़कने का मुख्य कारण यह भी है की भाजपा छोटे छोटे दलों को चटनी चटाते रहा। सभी जाति आधारित छोटे दलों को मिलाया और कांग्रेस आज भी ब्राह्मणवादी सोच से ग्रसित है।
बहरहाल, जब रंजन प्रसाद यादव ने लालू प्रसाद यादव से बगावत की थी, तब अजेय लालू यादव से भाजपा, समता पार्टी और मीडिया को थोड़े दिनों के लिए परम आनंद मिल रहा था। संभवत यह घटना साल 2001 के आसपास की हैं। तब राजद में रंजन यादव वैसे ही ताकतवर हुआ करते थे जैसे जदयू में आरसीपी सिंह। रंजन यादव राज्यसभा में राजद के नेता थे। मीडिया ने ऐसा माहौल खड़ा किया था कि लालू यादव-राबड़ी सरकार को हटाने के लिए तैयार नेता और जनता को परम आनंद एक सप्ताह तक मिलता रहा। लेकिन थोड़े ही दिनों में रंजन यादव के खेमे में एक भी विधायक नहीं बचे। लालू प्रसाद यादव की सरकार और मजबूती से काम करती रही।
कमला कांत पांडे आगे लिखते हैं कि “नीतीश कुमार को उपराष्ट्रपति बनाने और नित्यानंद, तारकिशोर प्रसाद, आरसीपी सिंह से लेकर सम्राट चौधरी तक को मुख्यमंत्री बनाने की खबर चला कर उन लोगों को एक बार फिर थोड़े दिनों के लिए परम आनंद मिला है। लाख चतुराई के बाद भी नीतीश कुमार को हटाने में नाकामयाब रहे तो आरसीपी का सहारा लिया गया। मज़े की बात है कि आरसीपी के साथ भी 30-31 विधायक ही थे। पढ़ाई लिखाई के मामले में आरसीपी नीतीश कुमार से आगे हैं तो डॉ रंजन यादव भी लालू प्रसाद यादव पर भारी हैं। बिहार की राजनीति में घटित इन दोनों घटनाओं में थोड़ा बहुत समानता है, किन्तु सवर्णवादी मीडिया का परम आनंद 2001 और 2022 में बिल्कुल एक जैसा है।
पांडे जी कहते हैं कि “इधर,जदयू संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने कहा कि केंद्रीय इस्पात मंत्री आरसीपी सिंह को राजनीतिक संदेश पर ध्यान देते हुए नैतिकता के आधार बिना विलंब केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देना चाहिए। श्री सिंह को हाल में जदयू ने राज्यसभा में एक और कार्यकाल से वंचित कर दिया है। उनका कार्यकाल सात जुलाई को समाप्त हो रहा है. कुशवाहा ने आरसीपी के मंत्री पद पर बने रहने को लेकर पत्रकारों के सवाल का जवाब देते हुए कहा कि नियमों के अनुसार, एक मंत्री अधिकतम छह महीने की अवधि के लिए पद पर बने रह सकता है जब तक कि वह संसद के किसी भी सदन के लिए निर्वाचित नहीं हो जाता. उन्होंने कहा कि अगर वह (सिंह) अपनी कुर्सी पर बने रहते हैं तो कोई तकनीकी समस्या नहीं है. लेकिन अगर वह संदेश पर ध्यान देते हैं और राजनीतिक स्थिति को भांपते हैं तो अच्छा होगा कि वह बिना विलंब किए इस्तीफा दे दें।
वैसे पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे उपेन्द्र कुशवाहा ने स्पष्ट किया कि वह कोई सलाह नहीं दे रहे हैं और न ही कोई इच्छा व्यक्त कर रहे हैं बल्कि केवल यह बताना चाहते हैं कि ऐसी परिस्थिति में मंत्री पद पर बने रहने का कोई औचित्य नहीं है। जदयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे सिंह के मंत्री पद छोड़ने पर उनको पार्टी में क्या जिम्मेदारियां दी जा सकती हैं, इसके बारे में पूछे जाने पर कुशवाहा ने कहा कि यह उन्हें तय करना है।
बहरहाल, प्रवक्ता डॉ अजय आलोक सहित कई कथित आरसीपी समर्थकों के निष्कासन के बारे में जदयू नेता ने कहा कि यह स्पष्ट करता है कि कोई भी पार्टी से ऊपर नहीं है। जो कोई भी पार्टी लाइन का पालन नहीं करेगा उसे परिणाम भुगतने होंगे। माना जाता है कि सिंह सहयोगी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बहुत करीब हो गए हैं और कहा जाता है कि उन्होंने केंद्र में मंत्री पद स्वीकार करने से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सहमति नहीं ली थी। नीतीश भाजपा द्वारा सहयोगी दलों को दिए जा रहे सांकेतिक प्रतिनिधित्व का विरोध करते रहे हैं. 2020 के विधानसभा चुनाव के कुछ महीने बाद नरेंद्र मोदी कैबिनेट में आरसीपी सिंह शामिल हुए थे. 2005 में गठबंधन के सत्ता में आने के बाद पहली बार भाजपा विधानसभा में जदयू की तुलना में कहीं अधिक बड़ी संख्या में सामने आई। जदयू तब से लगातार यह संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि विधानसभा में संख्या कम होने के बावजूद पार्टी और उसके नेताओं के बीच किसी प्रकार की खींचतान नहीं है।
इधर, उक्त प्रकरण को दरकिनार करते हुए जदयू सांसद रामचंद्र प्रसाद सिंह उर्फ आरसीपी सिंह उत्तराखंड में मंदिर, मठ, आश्रम के दौरे कर रहे हैं और वहां बाबा और दीदी से आशीर्वाद ले रहे हैं। राजनीति में बिहार के सीएम नीतीश कुमार के उपकार से फिलहाल के लिए वंचित हो चुके। आरसीपी सिंह अब आध्यात्मिक चमत्कार की ओर मुखातिब दिख रहे हैं। पिछले दो-तीन दिनों में उत्तराखंड के सरकारी दौरे के दौरान आरसीपी सिंह कम से कम 4 साधु-संतों और एक दीदी से मिल चुके हैं. ज्यादातर मुलाकात की फोटो उन्होंने खुद ही ट्वीट की है।
नरेंद्र मोदी कैबिनेट में आरसीपी सिंह की पारी कब तक चलेगी, इसका फैसला 7 जुलाई के बाद या पहले भी हो सकता है। आरसीपी सिंह को नीतीश ने दोबारा राज्यसभा नहीं भेजा जिसकी वजह से वो 7 जुलाई को अपना टर्म पूरा होने के बाद सांसद नहीं रह जाएंगे। और सांसद नहीं रहते 6 महीने से ज्यादा मंत्री बने रहना संभव नहीं है। आरसीपी सिंह राजनीति में पहली बार इस तरह के संकट में फंसे हैं। जो आदमी कभी पार्टी चलाता था, आज उसकी पूछ खत्म होने की कगार पर है। जदयू की मौजूदा व्यवस्था में आरसीपी सिंह इस समय किस कदर अलग-थलग पड़ गए हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 12 साल से पटना के जिस बंगले में वो रह रहे थे वो बंगाल भी उनको खाली करना पड़ेगा। विधान पार्षद संजय कुमार सिंह उर्फ संजय गांधी के नाम पर आवंटित इस बंगले में आरसीपी सिंह ही रहते थे जिसे अब राज्य के मुख्य सचिव आमिर सुबहानी को आवंटित कर दिया गया है। पार्टी ने उनके करीबी समझे जाने वाले प्रदेश महासचिव अनिल कुमार और विपिन कुमार यादव, प्रदेश प्रवक्ता अजय आलोक और समाज सुधार सेनानी प्रकोष्ठ के अध्यक्ष जितेंद्र नीरज को पार्टी से निकाल दिया है।
बहरहाल, जदयू के प्रवक्ता अजय आलोक समेत कई नेताओं को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निष्कासित करने का आदेश जदयू के प्रदेश अध्यक्ष उमेश सिंह कुशवाहा ने जारी किया था। इन नेताओं को आरसीपी कैंप का माना जा रहा है और इस बात की भी चर्चा है कि यह नेता लगातार राष्ट्रीय नेतृत्व की चिंता किए बगैर आरसीपी सिंह के पक्ष में आवाज बुलंद कर रहे थे। अजय आलोक के अलावे सेवा दल से जुड़े रहे अनिल कुमार और समाज सुधार प्रकोष्ठ के प्रमुख रह चुके जीतेंद्र नीरज को भी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया। लेकिन अब इस कार्रवाई के बाद आरसीपी सिंह के करीबी माने जाने वाले नेताओं ने जवाब देना शुरू कर दिया है।
कहा जाता है कि जदयू के इन नेताओं के ऊपर जब एक्शन हुआ तो ज्यादातर नेता पटना से बाहर थे। पार्टी के प्रवक्ता रह चुके अजय आलोक विदेश दौरे पर थे। उन्होंने थैंक्यू कह कर फैसले का स्वागत किया लेकिन दिल्ली से पटना पहुंचे जीतेंद्र नीरज ने आज प्रदेश नेतृत्व से लेकर पार्टी के नेता नीतीश कुमार तक को आईना दिखा दिया। जीतेंद्र नीरज ने कहा है कि पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने वाले प्रदेश अध्यक्ष उमेश सिंह कुशवाहा ने इस बात की जानकारी नहीं दी है कि आखिर उनके ऊपर एक्शन क्यों लिया गया? उन्होंने कौन सा ऐसा कसूर किया है कि पार्टी से निष्कासित करना पड़ा? ना तो कोई शो कॉज जारी किया गया और ना ही यह बताने की कोशिश की गई कि उनका अपराध क्या है! जितेंद्र नीरज ने कहा है कि प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा मनमाना फैसला कर रहे हैं और जितने अरसे से वह पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं उससे पुराने दौर का रिश्ता हम जैसे नेताओं का जदयू और समता पार्टी से रहा है। जितेंद्र नीरज ने प्रदेश नेतृत्व की मौजूदा कार्रवाई पर सवाल खड़े करते हुए नीतीश कुमार तक को लपेटे में ले लिया है। जितेंद्र नीरज ने कहा है कि क्या वाकई नीतीश कुमार धृतराष्ट्र बन गए हैं? उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है।
अंततः, आरसीपी कैंप से जुड़े इन नेताओं ने खुला ऐलान कर दिया है कि वह कभी जदयू के लिए पार्टी जोड़ो का अभियान चलाते थे लेकिन अब पार्टी छोड़ो का अभियान चलाएंगे। जदयू का भविष्य अंधेरे में जा रहा है और कुछ नेता पार्टी को लगातार नुकसान पहुंचा रहे हैं, यह आरोप भी जितेंद्र नीरज ने लगाया है। जितेंद्र ने कहा है कि आरसीपी सिंह ने पार्टी के फैसले को हंसते-हंसते स्वीकार किया उन्हें जहर दिया गया लेकिन उन्होंने विष पान किया। खैर, बिहार में लोग कहते हैं आरसीपी ‘नेता’ नहीं बन पाए, जबकि दिल्ली में हवाएं उन्हें “मंत्री” बनाने के पक्ष में च रही है। तभी तो कहते हैं “पुरुषस्य भाग्यम देवो न जानाति’ सम्मानित नरेंद्र मोदी जी को छोड़कर।