​”वो” आयीं और “वो” निकाले गए यानि ​प्रियंका का आना और जेटली का जाना

प्रियंका गाँधी वाड्रा - राहुल गाँधी (फोटो दी विक के सौजन्य से)
प्रियंका गाँधी वाड्रा - राहुल गाँधी (फोटो दी विक के सौजन्य से)

नई दिल्ली: ​सियासत के सत्य को समझना आसान नहीं। कहीं उदय, तो कहीं अस्त हो रहा होता है। उदय और अस्त की घटना परिघटना अगर कहीं से जुड़ रही हों तो जोड़कर परखना चाहिए। तब सियासत की उलझी गुत्थी थोड़ी बहुत सुलझती नजर आ सकती है। इधर कांग्रेस पार्टी ने बहुप्रतीक्षित फैसला लिया। प्रियंका गांधी पूर्वी उत्तर प्रदेश की महासचिव बनाई गई। पूर्वी उत्तर प्रदेश के सीमित दायरे में उनको सक्रिय करने के बड़े मायने हैं।

उधर वित्त मंत्री के पद से अरुण जेटली की छुट्टी कर दी गई। बीमारी के बाद से जेटली ने जैसे तैसे सक्रिय रहकर वित्त मंत्री की कुर्सी बचाई थी। मगर उनके वित्त मंत्रालय की एजेंसियों को बीते साढे चार साल में राबर्ट बाड्रा के खिलाफ लंबित शिकायतों पर जो वांछित कार्यवाही कर लेनी चाहिए थी वह नही कर पाई। पार्टी के अंदरुनी फोरम में इसकी आलोचना होती रही।

23 जनवरी की शाम जैसे ही अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश का महासचिव बनाए जाने की अधिसूचना जारी की। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यालय ने अरुण जेटली से वित्त मंत्रालय का प्रभार छीनकर रेल मंत्री पीयूष गोयल को सौंपने का फैसला कर लिया। जेटली के बीमारी के दिनों में यह प्रभार पीयूष गोयल के पास रहा था। तथ्य है कि उन दिनों राबर्ट बाड्रा को लेकर वित्तीय अनियमितताओं की जांच करने वाले प्रवर्तन निदेशालय और इकॉनोमिक ऑफेंस की एंजेंसियां खासी सक्रिय थीं।

अब देखना होगा कि प्रियंका के सियासत में आने के चंद घंटों के अंदर वित्त मंत्री के पद से अरुण जेटली की छुट्टी की एकमात्र वजह बाड्रा के खिलाफ शिथिल जांच रफ्तार ही रही है या फिर कोई उलट डाक्टरी सलाह ने अतिसक्रिय जेटली के सियासी सफर पर ठहराव लाने का काम किया है। आरंभिक झलक में बाड्रा के खिलाफ सुस्त जांच रफ्तार और कार्यवाही के ऐन केन प्रकारेन टलने का ढीकरा वित्त मंत्री अरुण जेटली के सिर पर फूटता नजर आ रहा है।

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बॉय -बॉय अरुण जेटली जो अब वित्त मंत्री नहीं रहे (फोटो इण्डिया टुडे के सौजन्य से)
बॉय -बॉय अरुण जेटली जो अब वित्त मंत्री नहीं रहे (फोटो इण्डिया टुडे के सौजन्य से)

आखिरकार जब राबर्ट बाड्रा की पत्नी प्रियंका गांधी का परदे की पीछे से निकलकर सक्रिय राजनीति में पदार्पण हो गया है, तो बाड्रा के खिलाफ किसी कार्यवाही के अलग राजनीतिक निहितार्थ लगाए जाएगें। यह भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए खास सिरदर्दी का कारण है। चुनाव के वक्त ऐसी वांछित कार्यवाही को रफ्तार देने या रोकने की जिम्मेदारी अब नए वित्त मंत्री पीयूष गोयल पर आ गई है।

फ्रंटफुट पर सियासी बल्लेबाजी करने वाले और नंबर दो जैसा व्यवहार करने वाले अरुण जेटली को मैच से हटाकर बिना प्रभार का केंद्रीय मंत्री बना दिया गया है। उनके जाने के बाद पार्टी के कोषाध्यक्ष रहे पीयूष गोयल पर पहली फरवरी को संसद में अंतरिम बजट पेश करने की जिम्मेदारी आ गई है। जेटली के हटने के बाद अब प्रधानमंत्री के लिए अंतरिम बजट को बेरोकटोक तैयार करवाना आसान होगा। इससे एकबार फिर सांसद कीर्ति आजाद के चेहरे पर मुस्कान लौटी होगी, जो जेटली से असमय लोहा लेने की वजह से सस्पेंडेड हैं और फिलहाल दरभंगा संसदीय सीट उनके हाथ से गया मानकर जी रहे हैं।

जेटली को उस वक्त हटाया गया है जब बजट को आकर्षक बनाने की तैयारी का मसला अंतिम चरण है। यह बजट भले ही अंतरिम हो लेकिन मोदी सरकार का पांचवां और कामकाज को निरुपित करने वाला आखिरी बजट है। अंतरिम बजट की लोकलुभावन घोषणाओं को लेकर ही भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव में उतरना है। ऐसे में इस महत्वपूर्ण काम के लिए वित्त मंत्री के तौर पर परिचित चेहरे अरुण जेटली को हटाने के कई मतलब हैं। उनमें से एक है कि भारतीय जनता पार्टी आगामी चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एकमात्र चेहरे को लेकर उतरना चाहती है।

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बाड्रा के खिलाफ कार्यवाही के संभावित सियासी लाभ लुटने की उम्मीद के अलावा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने बहन प्रियंका गांधी के साथ मुसीबत के मित्र ज्योतिरादित्य सिंघिया को महासचिव बनाने का महत्वपूर्ण फैसला लिया है। खास पोर्टफोलियो तैयार करा दोनों को बराबर का महत्व दिया है। प्रियंका पूर्वी उत्तर प्रदेश की महासचिव बनाई गई हैं, तो सिंघिया को पश्चिम उत्तर प्रदेश का महासचिव बनाया गया है। मध्य प्रदेश की राजनीति में कमलनाथ के हाथों मुख्यमंत्री का तमगा गंवाने के बाद से सिंघिया को केंद्रीय राजनीति में खास जगह दिए जाने की उम्मीद लगाई जा रही थी।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रियंका की सक्रियता भारतीय जनता पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन सकता है।

मौजूदा भाजपा का अवलंब पूर्वी उत्तर प्रदेश की सियासत है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संसदीय क्षेत्र वाराणसी, रेलराज्य मंत्री मनोज सिन्हा का गाजीपुर, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गोरखपुर,उप मुख्यमंत्री केशव मोर्य का फुलपुर और उत्तर प्रदेश के भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष महेन्द्रनाथ पांडे का चंदोली आता है। 2014 लोकसभा चुनाव में इस इलाके में भाजपा को कोई ठोस चुनौती देने वाला नहीं था। समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव की जीती गई एक संसदीय क्षेत्र आजमगढ को छोड़कर शेष सभी सीटों पर भारतीय जनता पार्टी का भगवा पताका लहराया था।
यह दीगर है कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनाने के बाद गोरखपुर और फुलपुर संसदीय उपचुनाव में समाजवादी पार्टी ने जीत दर्ज कर चौंकाने का काम किया था। इसके लिए समाजवादी पार्टी ने उपचुनाव नहीं लड़ने वाली बहुजन समाज पार्टी के साथ रणनीतिक गठजोड़ किया था।

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उसके फलितार्थ अब जाकर सामने आए हैं और उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद का महागठबंधन बना है। इसमें कांग्रेस को शामिल नहीं किया गया। भाजपा हटाने के लिए बने विपक्षी गठजोड़ से कांग्रेस को अलग थलग रखने की रणनीति ने अतिरिक्त दबाव बनाने का काम किया। उत्तर प्रदेश के इस सियासी प्रयोग का असर पड़ोसी बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ में पड़ना लाजिमी है। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंघिया की सक्रियता से अजित सिंह के तोलमोल में फंसी विपक्ष की राजनीति का सफाया होने की उम्मीद बढेगी। उसका असर उत्तराखंड, हरियाणा और दिल्ली की राजनीति पर पड़ना लाजिमी है। इस प्रयोग के निहितार्थ हैं कि विपक्षी गठजोड़ में अलग थलग पड़ती कांग्रेस के लिए अकेले दम पर चुनाव में उतरने का साहस मिला है।

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