“नारों” से सल्तनत बनता है, ढ़हता है क्योंकि किस्सा-कहानी तो सिर्फ कुर्सी के लिए है

सब कुर्सी के लिए मारा-मारी है - जमीन पर भी और आसमान में भी
सब कुर्सी के लिए मारा-मारी है - जमीन पर भी और आसमान में भी

“सोच बदलो – देश बदलेगा” नहीं कहिए हुज़ूर !!! “सोच बदलो – सरकार बदलेगी” कहिये हुकुम !!!! ​दिल्ली मेट्रो में एक हिन्दी साहित्य के हस्ताक्षर बुदबुदा रहे थे, शायद आने वाले आम-चुनाब के लिए “शब्दों का कशीदाकारी” कर रहे थे ….

नई दिल्ली: इधर चुनाब का घोषणा हुआ नहीं की सम्पूर्ण देश में हिन्दी के मूर्धन्य लोग अपने-अपने शब्दों को राजनीतिक बाज़ार में बेचने के लिए, अपने पसन्दीदा राजनेताओं, राजनीतिक पार्टियों को जिताने हेतु आकर्षक “नारों” को बनाने में शब्दों का कशीदाकारी करना शुरू कर दिए हैं। कहते हैं की वे सभी बजट का इंतज़ार कर रहे थे। चुनाबी दौर में नारों का विशेष महत्व है। नारों के बिना भला कैसे हो सकता है चुनाब । चुनावी नारे सिर्फ प्रचार के लिए नहीं होते। इन नारों से सरकारें बनती और गिरती भी हैं।

सामान्यतया आम चुनाब और विधान सभाओं के चुनाब में नारों के नब्ज में अंतर होता है। जहाँ देश में आम चुनाब में देश का मतदाता भारत भाग्य विधाता को नजर में रखकर नारों की रस्सी को कसता है, वहीँ विधान सभाओं के चुनाब में पंचायत से उठने वाला गर्जन प्रदेश की राजधानी की सड़कों पर आकर दम तोड़ देती है। जो साँसे बचती है उन्ही साँसों के बलपर प्रदेश मुख्य मंत्री शपथ ग्रहण करते हैं – भले ही बंद कमरों में विधायकों की खरीद-बिक्री में सफल नहीं होने पर उनकी सरकार जमीन पर लेटने लगे। परन्तु, आम चुनाब में दम तोड़ती आवाज भी दिल्ली के राजपथ तक आती ही है – मेराथन की तरह – और इस आवाज में देश के धनाढ्य, व्यापारी, निवेशक, बनिया, चोर-उचक्के, बाहुबली सबों का भरपूर समर्थन होने के कारण कोई निकल जाता है तो कोई पिछड़ जाता हैं।

देश की राजनीति में नारों की ताकत से उम्मीदवारों का खेल बनता और बिगड़ता है। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से अटल बिहारी वाजपेयी, नरेन्द्र मोदी सभी नारों की बदौलत सत्ता को प्राप्त किये और देश पर राज किया, प्रधानमंत्री बने।

दिल्ली के एक हिन्दी दैनिक के हस्ताक्षर, जिन्होंने पिछले कई चुनाबों में शब्दों के साथ कुस्ती लड़कर अपने पसंदीदा पार्टी के नेताओं को नार्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक, प्रधान मंत्री कार्यालय, शास्त्री भवन, कृषि भवन में लाल-बत्ती वाली गाड़ी से स्वयं उताड़कर कुर्सी पर बैठाये हैं, कहते हैं: “नारा तो शब्दों का खेल है। हम शब्दों से राजनीतिक पार्टी (आप समझें एक महिला) को सजाते हैं, सवांरते हैं, हॉट बनाते हैं; ताकि लोग उसे देखें, आकर्षित हों और उसके जाल में फंसकर अपने मत का प्रयोग उसके पक्ष में करें। यह एक प्रकार का सम्मोहन है जो मतदाता हो कुछ और सोचने नहीं देने को विवश करता है। आप इसे वशीकरण मन्त्र भी कह सकते हैं।”

लखनऊ विश्वविद्यालय के मुकुल श्रीवास्तव ने राजनीतिक नारों का बहुत ही बारिकी के साथ विश्लेषण किया है। उनके अनुसार भारतीय लोकतंत्र में कोई भी चुनाव बगैर नारों के सम्पन्न नहीं हो सकते। नारे न तो कविता हैं न ही कहानी, इन्हें साहित्य की श्रेणी में रखा गया है, पर वे नारे ही हैं जो लोगों को किसी दल और उसकी सोच को जनता के सामने लाते हैं। नारों को अगर परिभाषित करना हो तो कुछ ऐसे परिभाषित किया जा सकता है – राजनीतिक, वाणिज्यिक, धार्मिक और अन्य संदर्भो में, किसी विचार या उद्देश्य को बारंबार अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त एक यादगार आदर्श वाक्य या सूक्ति को नारा कहा जाता है। इनकी आसान अभिव्यक्ति विस्तृत विवरणों की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती है और इसलिए शायद वे अभीष्ट श्रोताओं के लिए प्रक्षेपण की बजाय, एकीकृत उद्देश्य की सामाजिक अभिव्यक्ति के रूप में अधिक काम करते हैं।

ये भी पढ़े   17वीं लोकसभा की बैठक समाप्त, 18वीं की तैयारी, आम चुनाव के लिए नेता और मतदाता सज्ज

पहले के चुनाव नारों पर लड़े जाते थे, पर अब चेहरों पर लड़े जा रहे हैं। सत्ता में आने के बाद राजनीतिक दल शासन का कैसा चेहरा देंगे जोर इस पर नहीं, बल्कि कौन सा चेहरा शासन करेगा जोर इस पर है। जब चेहरे शासन करने लग जाएं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोकतंत्र में कैसे राजतंत्र प्रवेश कर गया है। नारे तो अभी भी गढ़े जा रहे हैं, लेकिन न तो उनमें वो वैचारिक स्पष्टता और न ही नैतिक प्रतिबद्धता है जिससे मतदाता उनसे प्रभावित हो या वोट देते समय नारे उसके निर्णय को प्रभावित करें। गरीबी हटाओ जैसा नारा आज भी लोगों को याद है। भले ही व्यवहार में गरीबी देश से न खत्म हुई हो, लेकिन कहा जा सकता है कि गरीबी जैसे विषय को सरकार की प्राथमिकता जरूर मिली।

भ्रष्टाचार के विरोध में जब पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस पार्टी छोड़ी तो ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’ जैसे नारों से उनका स्वागत किया गया और उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू की, भले ही इसके लिए उन्हें अपनी सरकार कुर्बान करनी पड़ी। कथनी करनी के अंतर की यह कहानी सारी हकीकत खुद बयां कर रही है। अब तो यह आलम है कि सुबह नेता टिकट के लिए किसी दल की लाइन में लगे हैं और वहां से निराश होने पर शाम को किसी और दल की लाइन में लग लिए। इंदिरा गांधी जहां अपने ‘गरीबी हटाओ’ जैसे नारों के लिए जानी जाती हैं वहीं उनके खाते में कुछ ऐसे नारे भी हैं जो आपातकाल की भयावहता को बताते हैं- ‘जमीन गई चकबंदी में, मकान गया हदबंदी में, द्वार खड़ी औरत चिल्लाए, मेरा मर्द गया नसबंदी में।’

नारों में आक्रामकता जरूर रहती थी पर राजनीतिक चुहल भी खूब चलती थी। जली झोपड़ी भागे बैल, यह देखो दीपक का खेल (साठ के दशक में जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीपक था जबकि कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी थी)। इसका जवाब कुछ इस तरह दिया गया- ‘इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं।’ आज के नारों को अगर समाजशास्त्रीय नजरिये से देखा जाए तो ये चुनावी नारे कुछ शब्दों का संग्रह मात्र हैं जिनमें लफ्फाजी ज्यादा है। देश बदलना सुनने में भले ही अच्छा लगे पर यह होगा कैसे, इसकी कोई रूपरेखा कोई भी दल नहीं दे पा रहा है। साठ के दशक में राम मनोहर लोहिया ने जब नारा दिया था- ‘सोशलिस्टों ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’ तो ये महज नारा नहीं एक बदलाव की पूरी तस्वीर थी।

जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के नारे ने 1970 के दशक में पूरे देश की राजनीति को व्यापक तौर पर प्रभावित किया था जिसकी चरम परिणिति सरकार परिवर्तन के रूप में सामने आई। श्रीकांत वर्मा ने अपने संग्रह ‘मगध’ में इसी वैचारिक खालीपन को कुछ यूं बयान किया था- राजसूय पूरा हुआ, आप चक्रवर्ती हुए, सिर्फ कुछ प्रश्न छोड़ गए हैं, जैसे कि यह कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता, कोसल में विचारों की कमी है।

राजनीतिक दलों के नारे अक्सर देश की जनता का मूड भांपने की किसी दल की क्षमता को स्पष्ट करते हैं। एक अच्छा नारा धर्म, क्षेत्र, जाति और भाषा के आधार पर बंटे हुए लोगों को एक सूत्र में बांध सकता है जिनसे एक नागरिक के तौर पर प्राथमिकताएं स्पष्ट होती हैं, लेकिन एक खराब नारा राजनीतिक महत्वाकांक्षा को बर्बाद भी कर सकता है। भारत में राजनीतिक नारों में से कई ऐसे भी हुए हैं जो यादगार रहे हैं, मसलन ‘गरीबी हटाओ’, ‘इंडिया शाइनिंग’, ‘जय जवान, जय किसान’।

ये भी पढ़े   लोहियावादी समतामूलक संघर्ष का एक बलिष्ट स्तम्भ नहीं रहा....

अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को मौका मिला भी था. पर 2004 में अटल को काउंटर करने के लिए नारा निकला – तुमको देखा एक ही बार, तुम निकले सबसे मक्कार. ये बड़ा डैमेजिंग था. इसी मुकाबले में कांग्रेस ने नारा दिया – कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ. ये इफेक्टिव रहा. पर 2014 के चुनाव में अबकी बार मोदी सरकार सब पर भारी रहा. ‘अच्छे दिन आने वाले हैं, मोदी जी आने वाले हैं’ भी था. तुरंत कनेक्ट कर लेता था ये नारा.

पर आज की राजनीति जैसे विचार शून्यता की शिकार हो चली है। नेता तो आ रहे हैं दल भी बढ़ रहे हैं, पर विचार खत्म हो रहे हैं। परिवारवाद हर राजनीतिक दल में बढ़ता जा रहा है। हमें यह बिल्कुल नहीं भूलना चाहिए कि नारे किसी भी लोकतंत्र के शासन के प्राथमिक माध्यम हैं। ऐसे में नारे अगर विचार केंद्रित न होकर व्यक्ति केंद्रित हो जाएं तो हमें समझ लेना चाहिए कि सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। किसी भी लोकतंत्र में नए विचारों का न आना एक तरह की राजनीतिक शून्यता पैदा कर देता है जो शासन की दृष्टि से उचित नहीं होगा। नारे लोकतंत्र के शासन के प्राथमिक माध्यम हैं। नारे अगर विचार केंद्रित न होकर व्यक्ति केंद्रित हो जाएं तो समझ लेना चाहिए कि सामाजिक राजनीतिक स्तर पर सब दुरुस्त नहीं है। (क्रमशः)

आजादी के बाद कांग्रेस ​पार्टी ने सरकार बनायी। लेकिन विपक्ष को संतोष नहीं था इसलिए विपक्ष में बैठे कम्युनिस्टों ने एक नारा दिया था​:

​”​देश की जनता भूखी है यह आजादी झूठी है​”​
​उस ज़माने में ​कम्युनिस्टों​ ​का एक और नारा बहुत लोकप्रिय ​हुआ था :
​”​लाल किले पर लाल निशान मांग रहा है हिन्दुस्तान​”.

60 के दशक में ही जनसंघ ने नारा दिया था​:

“जली झोंपड़ी भागे बैल, यह देखो दीपक का खेल​”​
इसका करारा जवाब हुए कांग्रेस ने नारा दिया था​:
​” इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं​”​

​उस ज़माने में ​‘दो बैल’ कांग्रेस का चुनाव चिह्न हुआ करता था और ‘दीपक’ जनसंघ ​का। जनसंघ ने एक और नारा दिया था गोरक्षा को लेकर​:

“गाय हमारी माता है, देश धर्म का नाता है​”
जनसंघ का एक और नारा ​बहुत प्रचलित हुआ था:
“हर हाथ को काम, हर खेत को पानी, हर घर में दीपक, जनसंघ की निशानी​”.

​जब शश्रीमती इंदिरा गाँधी राजनीति में प्रवेश लीं तो सम्पूर्ण राजनीतिक परिवेश ही बदल गया। ​नारे भी ​आग उगलने लगे। उन दिनों विपक्षों ने इंदिरा गाँधी के खिलाफ एक नारा दिया था देश में चीनी, किरासन तेल और पेट्रोल की कमी को लेकर, जो बहुत ही प्रचलित हुआ, वाबजूद इसके की इंदिरा गाँधी को ही लोगों ने चुना :

​”​ये देखो इंदिरा का खेल, खा गई शक्कर पी गई तेल​”.
​विपक्ष के नारों का जबाब देती कांग्रेस एक ऐसा नारा दिया जो जान-मानस के मस्तष्क पर छा गया :
​”आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा जी को लाएंगे​”
​फिर आया १९७१ का चुनाब और कांग्रेस “गरीबी ह‍टाओ​”​ का नारा देकर ​चुनाब जीत गयी और इन्दिरागांधी की सरकार बनी।
​आपातकाल के दौरान विपक्षों ने इंदिरागांधी और कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए अनेकानेक नारों की रचना ​किया। सम्पूर्ण देश इंदिरा गाँधी के खिलाफ बगावत कर दी। जय प्रकाश नारायण नेतृत्व कर रहे थे आंदोलन का। उस समय बहुत नारे मशहूर हुए और कांग्रेस को सत्ताहीन होना पड़ा।
​”​सम्पूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास तुम्हारा है​”
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता की पंक्तियाँ भी नारे में इस्तेमाल हुए:
“सिंहासन खाली करो कि जनता आती है​”
उसी दौरान नसबंदी के खिलाफ भी जबरदस्त नारेबाजी हुए:
“जमीन गई चकबंदी में, मकान गया हदबंदी ​में।
द्वार खड़ी औरत चिल्लाए, मेरा मर्द गया नसबंदी ​में ।।”
​आपातकाल के दौरान दी ​कांग्रेस नेता देव कांत बरुआ ​द्वारा दिया गया नारा बहुत मशहूर हुआ:
“इंदिरा भारत हैं और भारत इंदिरा ​है”
​विपक्षों की राजनीतिक अपरिपक़्कता को देखते श्रीकांत वर्मा ने जब नारा दिया​:
“जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मोहर लगेगी हाथ पर​”
तो ​यह नारा सम्पूर्ण राजनितिक माहौल को बदलकर इंदिरा​ गाँधी को पुनः सत्ता में लाया।
फिर 1980 के चुनावों से पहले चिकमंगलूर के उपचुनाव में जब इंदिरा​ गाँधी जीत गईं तो नारा बना​:
“एक शेरनी सौ लंगूर, चिकमंगलूर, चिकमंगलूर​”
इसके बाद जनता पार्टी की अस्थिरता को लेकर इंदिरा ने नारा दिया​:
“मजबूत सरकार​”
​सन १९८४ में ​इंदिरा गांधी की हत्या ​के बाद कई नारे विपक्षों को दूर फेंका और कांग्रेस सत्ता में बनी रही:
​”इंदिरा तेरी यह कुर्बानी याद करेगा हिंदुस्तानी​”
“जब तक सूरज चांद रहेगा, इंदिरा तेरा नाम रहेगा​”’
​इसके बाद राजीव गांधी के लिए नारे लगे​:
​”​पानी में और आंधी में, विश्वास है राजीव गांधी में​”
​”उठे करोड़ों हाथ हैं, राजीव जी के साथ हैं​”​
पर जब वी पी सिंह राजीव के खिलाफ खड़े हुए तो नये नारे गढ़े गए​:
​”​राजा नहीं फकीर है​ -​ देश की तकदीर है​”​
इसके जवाब में कांग्रेस ने नया नारा बना लिया​:
​”​फकीर नहीं राजा है, सीआईए का बाजा है​”
इसके बाद 80 और 90 के दशक में देश में राजन्मभूमि विवाद ने तूल पकड़ ​लिया। हर बात में हिंदुत्व खींच लाया ​जाता और अधिकांश नारे हिन्दू – ​हिंदुत्व को लेकर गढ़े जाने लगे:
​”आपका वोट राम के नाम​”
​”​सौगंध राम की खाते हैं मंदिर वहीं बनाएंगे​”
​”​कल्याण सिंह कल्याण करो मंदिर का निर्माण करो​​
​”​राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे​”​
​”​ये तो केवल झांकी है, काशी मथुरा बाकी है​”​
और उसी के बाद अटल बिहारी वाजपेयी को देश का सबसे बड़ा नेता साबित करने की जुगत में ये नारा दिया गया, जो कि सफल भी हुआ​:
​”सबको देखा बारी-बारी, अबकी बार अटल बिहारी​”​
इसके बाद जब सत्ता में वापस लौटना हुआ तो भाजपा ने नया नारा दिया-
​”​कहो दिल से, अटल फिर से​”
“इंडिया शाइनिंग​” ​
पर ये नारे चले नहीं. क्योंकि कांग्रेस ने नई चीज खोज ली ​थी। महंगाई और बेरोजगारी से त्रस्त जनता को ये चीजें लुभा ​गईं :
​”कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ​”​
“कांग्रेस को लाना है देश को बचाना है​”​
​”उठे हजारों हाथ सोनिया जी के साथ​”
“सोनिया नहीं ये आंधी है, दूसरी इंदिरा गांधी है​”
​ये नारे कांग्रेस ने 2014 के चुनाव में भी इस्तेमाल किए, पर चले ​नहीं।
“कट्टर सोच नहीं, युवा जोश”
“हर हाथ शक्ति, हर हाथ तरक्‍की”
“जनता कहेगी दिल से, कांग्रेस फिर से”
जवाब में ये नारे भी बनाये गये थे​:
​”​सोनिया जिसकी मम्मी है वो सरकार निकम्मी है​”
​”देखो देखो कौन आया, हिंदुस्तान का शेर आया​”​
“अबकी बार मोदी सरकार​”​

ये भी पढ़े   लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक़ बन चुकी मोदी-शाह की बीजेपी से यशवन्त का अलविदा!

​अब २०१९ का चुनाब दस्तक दे रहा है और देखना है कि भारत की जनता सही में अपना वर्तमान सोच बदलकर बदलाव लाती है या फिर…….. जो भी हो चुनाब तो निर्णायक होगा ही। (​मुकुल श्रीवास्तव​ और लल्लनटॉप के सहयोग से)​

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here