
आजकल बिहार “लालटेन” और “तीर” में शब्दों का निशानेबाजी हो रहा है। प्रदेश के मुख्य विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल एवं प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी प्रसाद यादव कहते हैं कि राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सत्ता मोह खत्म नहीं हुआ है और इसलिए वह और पांच साल का समय मांग रहे हैं जबकि उन्हें तो अब सेवानिवृत्त हो जाना चाहिए।
इधर “लालटेन” के “अधिष्ठाता” ट्वीटर पर भोर, दुपहरिया, सांझ, रात जब-तब लिख-लिख के चिपका रहे हैं कि “बिहार तेजस्वी भवः” – यानि पिताजी अपने पुत्र मोह में फंसे हैं और मोह का पराकाष्ठा यह है कि उसे सत्ता के उत्कर्ष पर, मुख्य मन्त्री की कुर्सी पर बैठे देखना चाहते हैं। यही राष्ट्रीय जनता दल के संस्थापक लालू प्रसाद यादव “सपरिवार” अपने पुत्र की सफलता की कामना कर रहे हैं। वैसे कौन पिता नहीं चाहेगा की उसका पुत्र “उत्कर्ष” पर हो।
इधर तेजस्वी यादव ने शुक्रवार को जिले के सनोखर में कहलगांव विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के प्रत्याशी शुभानंद मुकेश के पक्ष में आयोजित सभा को संबोधित करते हुए कहा कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और जनता दल यूनाइटेड (जदयू) की डबल इंजन की सरकार होने के बावजूद कल-कारखाने नहीं लगे। वहीं, बेरोजगारी की भी समस्या है लेकिन मुख्यमंत्री एवं जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री कुमार कहते हैं कि वह यह दोनों काम नहीं हो सकते। इससे जाहिर होता है कि जिम्मेवारी लेने की बजाय उन्होंने अपने हाथ खड़े कर दिये हैं।
उधर, लालू प्रसाद ट्विटर सुवह, दोपहर, रात जब मर्जी लिखकर, चिपकाकर प्रदेश की जनता को विस्वास दिला रहे हैं कि वे प्रदेश के विकास में चार चाँद लगा देंगे; बस उनकी पार्टी को, उनके बुतरू को वोट देकर विधान सभा भेज दीजिये । लालू जी यह भी पोस्ट किये की वे “सौगन्ध” खाये हैं कि बिहार के हित में सदैव कार्य करेंगे। हर बिहारी को उनका अधिकार मिलेगा। किसानों को, व्यपारियों को, मजदूरों को उनकी खुशियां मिलेगी। रोजगार मिलेगा। महिलाओं को सुरक्षा भी मिलेगा।
बिहार विधान सभा चुनाव: आस्वस्त होकर ही चुनाव में उँगलियों में कालिख लगाएं
लेकिन समझ में यह नहीं आया की यह ज्ञान लालूजी को 1990 में क्यों नहीं आया या फिर 10 साल तक, जब तक खुद और पत्नी कुर्सी पर चिपके थे, उस समय क्यों नहीं आया? क्यों नहीं अमल किये ? अब तक तो बिहार वाशिंगटन डीसी बन गया होता। कोई पढ़ने के लिए प्रदेश की सीमा को नहीं लांघता, नौकरी के लिए बाहर नहीं जाता। खैर चुनाव का समय है – जो मर्जी बोले, स्वतंत्रता है।
वार्ता के अनुसार, बिहार विधानसभा के लिए 28 अक्टूबर को प्रथम चरण की 71 सीटों पर होने वाले चुनाव में सुल्तानगंज, अमरपुर, डुमरांव, मखदुमपुर (सु) और अरवल पांच सीटें ऐसी हैं, जहां राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) और महागठबंधन के नवोदित प्रत्याशियों के बीच टक्कर देखने को मिलेगी।
बाबा की नगरी के रूप में प्रसिद्ध भागलपुर जिले के सुल्तानगंज सीट से राजग के घटक जनता दल यूनाइटेड (जदयू) ने प्रो.ललित नारायण मंडल को पार्टी का उम्मीदवार बनाया है। वहीं महागठबंधन की ओर से कांग्रेस की टिकट पर ललन यादव अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) की नीलम देवी मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश में लगी हुयी है। वर्ष 2015 के चुनाव में इस सीट से जदयू प्रत्याशी और पूर्व सांसद सुबोध राय ने बीएलएसपी उम्मीदवार हिमांशु प्रसाद को 14033 मतों के अंतर से पराजित किया था।
बांका जिले के अमरपुर सीट से जदयू ने निवर्तमान विधायक जर्नादन मांझी की जगह उनके पुत्र जयंत राज को टिकट दिया है, जो पहली बार चुनावी रणभूमि में किस्मत आजमायेंगे। वहीं, कांग्रेस के टिकट पर जीतेन्द्र सिंह उम्मीदवार बनाये गये हैं। श्री सिंह भी पहली बार चुनावी संग्राम में उतरे हैं। वर्ष 2015 में श्री जनार्दन मांझी ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) उम्मीदवार और पूर्व मंत्री गुणेश्वर प्रसाद सिंह के पौत्र मृणाल शेखर को 11773 मतों के अंतर से पराजित किया था। भाजपा से टिकट नहीं मिलने से नाराज मृणाल शेखर ने इस बार लोजपा का दामन थाम लिया और इस सीट पर लोजपा के उम्मीदवार भी बनाये गये हैं।
बक्सर जिले की डुमरांव विधानसभा सीट से जदयू ने पार्टी की प्रवक्ता अंजुम आरा को उम्मीदवार बनाया है, जो पहली बार चुनाव लड़ रही हैं। वहीं, महागठबंधन की ओर से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी (भाकपा-माले) के टिकट पर अजित कुमार सिंह पहली बार किस्मत आजमा रहे हैं। वहीं, जदयू से टिकट नहीं मिलने के बाद निवर्तमान विधायक ददन यादव उर्फ ददन पहलवान निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनावी अखाड़े में उतर आये हैं। उन्होंने वर्ष 2015 के चुनाव में जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ा था और बीएलएसपी उम्मीदवार राम बिहारी सिंह को 30339 मतों के अंतर से मात दी थी। डुमरांव से महाराज कमल बहादुर सिंह के पौत्र शिवांग विजय सिंह भी निर्दलीय चुनाव लड़कर मुकाबले को रोचक बनाने में जुटे हैं।
बहरहाल, कोई भी पार्टी हो, कोई भी नेता हों, किसी भी ऊंचाई के हों, ठेंघुना कद के हों या आदम कद के – मतदातागण अपना-अपना एक पैमाना बना लें। चाहे आप पढ़े-लिखे हैं नहीं। उस पैमाने पर अपने चुनाव क्षेत्र के अभ्यर्थी को नापें । आकें उसे, परखें उसे – कहीं बरगला तो नहीं रहा है ? कहीं झूठ तो नहीं बोल रहा है ? जब पूरा विस्वास हो जाय “तभी उँगलियों में कालिख” लगाएं – अगर ऐसा नहीं किये तो अगले पांच साल तक आपके चेहरे पर, आपके क्षेत्र में ये नेतागण कालिख़ पोतते रहेंगे।