लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक़ बन चुकी मोदी-शाह की बीजेपी से यशवन्त का अलविदा!

यशवन्त सिन्हा
यशवन्त सिन्हा

आख़िरकार, यशवन्त सिन्हा ने बीजेपी को अलविदा कह दिया! घटा तो महीनों से छायी हुई थी! नोटबन्दी के बाद से मेघ, जब-तब गरज तो रहे थे, लेकिन बरसे आज! आज मोदी-शाह के अन्ध-भक्तों ने राहत की साँस ली होगी! आज भक्तों से ज़्यादा ख़ुश तो शायद ही कोई और हुआ होगा! बहुतों का मन-मयूरा ख़ुशी से झूम रहा होगा! बहुतेरे संघी तो दिवाली भी मना रहे होंगे! उच्च कोटि के भक्तों ने तो घी के दीपक भी जलाये होंगे! क्योंकि यशवन्त सिन्हा लम्बे अरसे से, ख़ासकर नोटबन्दी के मूर्खतापूर्ण फ़ैसले के बाद से अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियों की वजह से मोदी-शाह-भागवत वाली मौजूदा बीजेपी के लिए आँखों की किरकिरी बने हुए थे!

उम्र के 80 बसन्त देख चुके वयोवृद्ध नेता यशवन्त सिन्हा अब भी वैसे ही स्वस्थ हैं, जैसे उनकी पीढ़ी वाले लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, अरूण शौरी, शत्रुघ्न सिन्हा वग़ैरह हैं। मोदी-शाह-भागवत के राज में घर में ही तिरस्कार तो सबका हो रहा था, लेकिन सिन्हा साहब की अन्तर्आत्मा ने उन्हें जितना कचोटा, वैसा अन्य नेताओं के साथ अभी तक नहीं हुआ है। शायद, औरों में बर्दाश्त करने की शक्ति ज़्यादा हो। लेकिन इस ‘अलविदा’ में ‘न दैन्यम्, न पलायनम्’ का भाव है। यानी, न तो दासता स्वीकार करूँगा और ना ही पलायन करूँगा, बल्कि युद्ध करूँगा! वो भी किसी राज-पाट को पाने की ख़ातिर नहीं, बल्कि उस लोकतंत्र की रक्षा की ख़ातिर, जिसकी बुनियाद गाँधी-नेहरू-पटेल-आम्बेडकर जैसे महापुरुषों ने बनायी थी, और जिसे पतित संघी विचारधारा तथा उसके प्रवर्तक तार-तार करने पर आमादा हैं!

बीजेपी को अलविदा कहने के साथ ही यशवन्त सिन्हा ने साफ़ कर दिया कि मोदी-शाह-जेटली-राजनाथ-सुषमा-गडकरी-पीयूष-सीतारामन-प्रभु वग़ैरह की काली छाया में पल रहा भारतीय लोकतंत्र ख़तरे में है! ये कोई साधारण टिप्पणी नहीं है। इसे ‘डेथ वारंट’ भी कह सकते हैं। इसका साफ़ मतलब है कि मौजूदा बीजेपी और इसका मस्तिष्क यानी संघ, भारतीय लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक हैं, विनाशकारी हैं! विपक्ष तो सवा करोड़ भारतवासियों को आगाह करता ही रहा है, लेकिन अफ़ीम के नशे में झूम रहे मन्दबुद्धि हिन्दुओं को सच्चाई समझ में आती होती तो आज देश को ऐसे दिन क्यों देखने पड़ते!

यशवन्त सिन्हा का भगवा को अलविदा कहना वैसा ही है, जैसे हस्तिनापुर के राजदरबार से महामंत्री विदुर का बहिर्गमन! अब सिर्फ़ यही प्रश्न अनुत्तरित है कि बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा और कीर्ति आज़ाद जैसे लोग यशवन्त सिन्हा के नक्श-ए-क़दम को अपनाते हुए कब नज़र आएँगे! सिन्हा साहब के इस्तीफ़े ने लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे वयोवृद्ध नेताओं को भी अघोषित तौर पर लताड़ लगायी है। उन्होंने अव्यक्त शब्दों में ये कौतूहल ज़ाहिर किया है कि क्या वो लोग, पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्य की तरह भरे दरबार में चल रहे द्रौपदी के चीरहरण यानी लोकतंत्र के पतन को निगाहें नीची करके ही यूँ ही देखते रहेंगे, जैसा कि वो अभी तक करते आये हैं! अब वो नीति और नैतिकता में से किसे तरज़ीह देंगे! क्या वो भी यशवन्त सिन्हा की तरह ये ऐलान करने की हिम्मत दिखाएँगे कि कलियुग में द्वापर वाली धूर्तताएँ अब और बर्दाश्त नहीं की जाएँगी!

पिता यशवन्त सिन्हा ने अपने बेटे और लोकतंत्र की हत्यारिन मोदी सरकार में मंत्री बने बैठे जयन्त सिन्हा के सामने भी भारी धर्म-संकट पैदा कर दिया है! बेचारे जयन्त को अब ये तय करना होगा कि वो कब तक अपने तुच्छ स्वार्थों की ख़ातिर दुर्योधनों की चाकरी करना जारी रखना चाहेंगे, वो भी राष्ट्रहित और लोकतंत्र की क़ीमत पर! जयन्त को राजनीति में जो भी जगह मिली है, वो उसी पिता की विरासत की बदौलत है जो आज संन्यास के नैतिक बल से आलोकित है! पिता ने उस महल का परित्याग कर दिया, जिसे वो चार दशकों तक अपने ख़ून-पसीने से वैभवशाली बनाते रहे। वो इस ऐलान के साथ कि अब वो किसी भी सियासी तालाब में डुबकी नहीं लगाएँगे, बल्कि सीधे सामाजिक क्षेत्र में काम करके लोकतंत्र को बचाने के लिए काम करेंगे।

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दलगत राजनीति से संन्यास लेने का सीधा-सीधा मतलब है कि अब वो मोदी-शाह के चंगुल से भारतीय लोकतंत्र को मुक्त करवाने के लिए अपना जीवन ख़पाना चाहेंगे। चुनावी राजनीति से तो उन्होंने 2014 में विदा ले लिया था। लेकिन इसके बावजूद भक्तों ने उन पर लाँछन लगाया कि वो दरकिनार किये जाने से आहत होकर विपक्ष की कठपुतली बन गये हैं! सिन्हा ने साबित कर दिया कि अन्तर्आत्मा की हत्या करके वो सियासी नहीं बने रह सकते! इसमें कोई शक़ नहीं हो सकता कि बीजेपी में अपने योगदान की वजह से यशवन्त सिन्हा को ‘शानदार-विदाई’ का हक़दार होना चाहिए था, लेकिन उनके नसीब में तो ‘शर्मनाक-विदाई’ लिखी थी। आख़िर, नसीब का लेखा कभी कोई बदल पाया है! फिर भी उनकी ऐसी गति को देख, यदि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की निग़ाहों में ज़रा भी शर्म-ओ-हया हो तो उन्हें चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए।

विदाई से पहले मोदी-शाह की शह पर भगवा अन्ध भक्तों ने अपने ही परिवार के बुज़ुर्ग पर ऐसे-ऐसे लाँछन लगाये कि उनका ज़िक्र करना भी अफ़सोसनाक है। सिन्हा ने उस दौर में राजनीति और सत्ता से जुड़ी शीर्षस्थ ऊँचाईयों को हासिल किया जब मोदी-शाह की टके भर की भी औक़ात नहीं थी! दौर बदला तो अगली पीढ़ी के पतित नेताओं ने सिन्हा साहब के प्रति वैसा ही सलूक किया, जैसे कुछ लोग अपने माता-पिता का तिरस्कार करते हुए उन्हें वृद्धाश्रम के सहारे छोड़ देते हैं! सिन्हा साहब, जैसे लोगों की अहमियत के बारे में महर्षि वेद व्यास ने महाभारत (5-35-58) में लिखा है:> आख़िरकार, यशवन्त सिन्हा ने बीजेपी को अलविदा कह दिया! घटा तो महीनों से छायी हुई थी! नोटबन्दी के बाद से मेघ, जब-तब गरज तो रहे थे, लेकिन बरसे आज! आज मोदी-शाह के अन्ध-भक्तों ने राहत की साँस ली होगी! आज भक्तों से ज़्यादा ख़ुश तो शायद ही कोई और हुआ होगा! बहुतों का मन-मयूरा ख़ुशी से झूम रहा होगा! बहुतेरे संघी तो दिवाली भी मना रहे होंगे! उच्च कोटि के भक्तों ने तो घी के दीपक भी जलाये होंगे! क्योंकि यशवन्त सिन्हा लम्बे अरसे से, ख़ासकर नोटबन्दी के मूर्खतापूर्ण फ़ैसले के बाद से अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियों की वजह से मोदी-शाह-भागवत वाली मौजूदा बीजेपी के लिए आँखों की किरकिरी बने हुए थे!

उम्र के 80 बसन्त देख चुके वयोवृद्ध नेता यशवन्त सिन्हा अब भी वैसे ही स्वस्थ हैं, जैसे उनकी पीढ़ी वाले लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, अरूण शौरी, शत्रुघ्न सिन्हा वग़ैरह हैं। मोदी-शाह-भागवत के राज में घर में ही तिरस्कार तो सबका हो रहा था, लेकिन सिन्हा साहब की अन्तर्आत्मा ने उन्हें जितना कचोटा, वैसा अन्य नेताओं के साथ अभी तक नहीं हुआ है। शायद, औरों में बर्दाश्त करने की शक्ति ज़्यादा हो। लेकिन इस ‘अलविदा’ में ‘न दैन्यम्, न पलायनम्’ का भाव है। यानी, न तो दासता स्वीकार करूँगा और ना ही पलायन करूँगा, बल्कि युद्ध करूँगा! वो भी किसी राज-पाट को पाने की ख़ातिर नहीं, बल्कि उस लोकतंत्र की रक्षा की ख़ातिर, जिसकी बुनियाद गाँधी-नेहरू-पटेल-आम्बेडकर जैसे महापुरुषों ने बनायी थी, और जिसे पतित संघी विचारधारा तथा उसके प्रवर्तक तार-तार करने पर आमादा हैं!

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बीजेपी को अलविदा कहने के साथ ही यशवन्त सिन्हा ने साफ़ कर दिया कि मोदी-शाह-जेटली-राजनाथ-सुषमा-गडकरी-पीयूष-सीतारामन-प्रभु वग़ैरह की काली छाया में पल रहा भारतीय लोकतंत्र ख़तरे में है! ये कोई साधारण टिप्पणी नहीं है। इसे ‘डेथ वारंट’ भी कह सकते हैं। इसका साफ़ मतलब है कि मौजूदा बीजेपी और इसका मस्तिष्क यानी संघ, भारतीय लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक हैं, विनाशकारी हैं! विपक्ष तो सवा करोड़ भारतवासियों को आगाह करता ही रहा है, लेकिन अफ़ीम के नशे में झूम रहे मन्दबुद्धि हिन्दुओं को सच्चाई समझ में आती होती तो आज देश को ऐसे दिन क्यों देखने पड़ते!

यशवन्त सिन्हा का भगवा को अलविदा कहना वैसा ही है, जैसे हस्तिनापुर के राजदरबार से महामंत्री विदुर का बहिर्गमन! अब सिर्फ़ यही प्रश्न अनुत्तरित है कि बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा और कीर्ति आज़ाद जैसे लोग यशवन्त सिन्हा के नक्श-ए-क़दम को अपनाते हुए कब नज़र आएँगे! सिन्हा साहब के इस्तीफ़े ने लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे वयोवृद्ध नेताओं को भी अघोषित तौर पर लताड़ लगायी है। उन्होंने अव्यक्त शब्दों में ये कौतूहल ज़ाहिर किया है कि क्या वो लोग, पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्य की तरह भरे दरबार में चल रहे द्रौपदी के चीरहरण यानी लोकतंत्र के पतन को निगाहें नीची करके ही यूँ ही देखते रहेंगे, जैसा कि वो अभी तक करते आये हैं! अब वो नीति और नैतिकता में से किसे तरज़ीह देंगे! क्या वो भी यशवन्त सिन्हा की तरह ये ऐलान करने की हिम्मत दिखाएँगे कि कलियुग में द्वापर वाली धूर्तताएँ अब और बर्दाश्त नहीं की जाएँगी!

पिता यशवन्त सिन्हा ने अपने बेटे और लोकतंत्र की हत्यारिन मोदी सरकार में मंत्री बने बैठे जयन्त सिन्हा के सामने भी भारी धर्म-संकट पैदा कर दिया है! बेचारे जयन्त को अब ये तय करना होगा कि वो कब तक अपने तुच्छ स्वार्थों की ख़ातिर दुर्योधनों की चाकरी करना जारी रखना चाहेंगे, वो भी राष्ट्रहित और लोकतंत्र की क़ीमत पर! जयन्त को राजनीति में जो भी जगह मिली है, वो उसी पिता की विरासत की बदौलत है जो आज संन्यास के नैतिक बल से आलोकित है! पिता ने उस महल का परित्याग कर दिया, जिसे वो चार दशकों तक अपने ख़ून-पसीने से वैभवशाली बनाते रहे। वो इस ऐलान के साथ कि अब वो किसी भी सियासी तालाब में डुबकी नहीं लगाएँगे, बल्कि सीधे सामाजिक क्षेत्र में काम करके लोकतंत्र को बचाने के लिए काम करेंगे।

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दलगत राजनीति से संन्यास लेने का सीधा-सीधा मतलब है कि अब वो मोदी-शाह के चंगुल से भारतीय लोकतंत्र को मुक्त करवाने के लिए अपना जीवन ख़पाना चाहेंगे। चुनावी राजनीति से तो उन्होंने 2014 में विदा ले लिया था। लेकिन इसके बावजूद भक्तों ने उन पर लाँछन लगाया कि वो दरकिनार किये जाने से आहत होकर विपक्ष की कठपुतली बन गये हैं! सिन्हा ने साबित कर दिया कि अन्तर्आत्मा की हत्या करके वो सियासी नहीं बने रह सकते! इसमें कोई शक़ नहीं हो सकता कि बीजेपी में अपने योगदान की वजह से यशवन्त सिन्हा को ‘शानदार-विदाई’ का हक़दार होना चाहिए था, लेकिन उनके नसीब में तो ‘शर्मनाक-विदाई’ लिखी थी। आख़िर, नसीब का लेखा कभी कोई बदल पाया है! फिर भी उनकी ऐसी गति को देख, यदि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की निग़ाहों में ज़रा भी शर्म-ओ-हया हो तो उन्हें चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए।

विदाई से पहले मोदी-शाह की शह पर भगवा अन्ध भक्तों ने अपने ही परिवार के बुज़ुर्ग पर ऐसे-ऐसे लाँछन लगाये कि उनका ज़िक्र करना भी अफ़सोसनाक है। सिन्हा ने उस दौर में राजनीति और सत्ता से जुड़ी शीर्षस्थ ऊँचाईयों को हासिल किया जब मोदी-शाह की टके भर की भी औक़ात नहीं थी! दौर बदला तो अगली पीढ़ी के पतित नेताओं ने सिन्हा साहब के प्रति वैसा ही सलूक किया, जैसे कुछ लोग अपने माता-पिता का तिरस्कार करते हुए उन्हें वृद्धाश्रम के सहारे छोड़ देते हैं! सिन्हा साहब, जैसे लोगों की अहमियत के बारे में महर्षि वेद व्यास ने महाभारत (5-35-58) में लिखा है:

न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा, वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
धर्म स नो यत्र न सत्यमस्ति, सत्यं न तद् यद् छलमभ्युपैति॥

अर्थात्, “वह सभा नहीं हो सकती जहाँ वृद्ध या विवेकशील व्यक्ति मौजूद न हों। उन्हें वृद्ध नहीं माना जा सकता जो न्याय की बात नहीं करें। वह न्याय नहीं है जो सत्य पर आधारित नहीं हो। और, वो सत्य नहीं है जिसकी उत्पत्ति छल से हुई हो।”

किसी सभा के सदस्यों की विशेषता को बताने वाले इस सूक्ति वाक्य को भारतीय संसद के मुख्य भवन के गेट नम्बर-2 के पास मौजूद लिफ़्ट नम्बर-1 के गुम्बद पर भी उकेरा गया है। लेकिन मोदी-शाह वाली बीजेपी में इन बातों को जानने-समझने और अपनाने वाला चाल-चरित्र और चेहरा तो कभी दिखा ही नहीं। याद है ना कि जून 2013 में नरेन्द्र मोदी को चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाने के बाद आडवाणी ने भी बीजेपी के हरेक पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। बीजेपी, किस तरह से लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक़ बनती गयी, इसका ज़िक्र आडवाणी के इस्तीफ़े में था। बहरहाल, ग़नीमत है कि आस्तीन के साँपों ने जैसी गति आडवाणी की की, वैसे दिन यशवन्त सिन्हा को नहीं देखने पड़े! फ़िलहाल, सिन्हा साहब ने जो आग़ाज़ किया है, वो 2019 में अंज़ाम पर पहुँचकर ही शान्त होगा। धीरे-धीरे कई नेताओं को बीजेपी से विदा लेने के लिए आगे आना पड़ेगा! वैसे भी सिन्हा साहब ने अपने एक ताजा लेख में भविष्यवाणी ​की है कि बीजेपी के आधे से ज़्यादा सांसद 2019 में संसद नहीं पहुँच पाएँगे!

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