दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा: आम आदमी पार्टी के २० विधायकों की बात तो सुनेंगे न चुनाब आयोग जी

दिल्ली हाई कोर्ट

दिल्ली में आम आदमी पार्टी के विधायकों को लाभ का पद दिए जाने के कारण उनकी सदस्यता खत्म करने के चुनाव आयोग के फैसले को दिल्ली हाईकोर्ट ने उलट दिया है। हाईकोर्ट ने कहा है कि चुनाव आयोग 20 आप विधायकों की दलील दोबारा सुने।

कहने की जरूरत नहीं है कि इस फैसले से चुनाव आयोग और उसके फैसले की आनन-फानन में पुष्टि करने वाले राष्ट्रपति की भी किरकिरी हुई है। ऐसा नहीं है कि राष्ट्रपति के लिए इससे बचना बहुत मुश्किल था। सच तो यह है कि राष्ट्रपति भवन और चुनाव आयोग इस मामले से अलग रह सकता था और चूंकि यह मामला उलझा हुआ, पुराना तथा कई राज्यों के ऐसे मामलों से मिलता-जुलता है इसलिए सभी मामलों पर एक साथ एक जैसी कार्रवाई की जरूरत कहकर इसे टाला जा सकता था।

अगर इस मामले में केंद्र की भाजपा सरकार को जल्दी फैसला चाहिए था तो चुनाव आयोग और राष्ट्रपति के कार्यालय की निष्पक्षता का तकाजा था कि वे ऐसे दूसरे मामलों पर भी एक साथ फैसला देते। अगर तब अदालत में फैसला पलटा जाता तो कम से कम केंद्र की भाजपा सरकार के दबाव में जल्दबाजी में निर्णय लेने का आरोप तो नहीं लगता। लेकिन चुनाव आयोग और राष्ट्रपति भवन ने अपनी निष्पक्षता पर लोगों को उंगली उठाने का मौका दे दिया।

वह भी तब जब दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार देश के आम राजनीतिक दलों से अलग नई पार्टी है और अलग तरह की राजनीति करने का दावा करके सत्ता में आई है। अपने दावों पर वह कितना अमल कर पाई और किसी आम राजनीतिक दल के कितने करीब हो गई है इसपर विवाद हो सकता है पर पांच साल के लिए चुनी गई नई पार्टी की पहली सरकार को पांच साल आराम से काम करने का मौका देने के बाद ही उसपर टीका टिप्पणी की जानी चाहिए। पर केंद्र की भाजपा सरकार इसे अपना दुश्मन नंबर एक मानती लगती है और परेशान करने का कोई मौका नहीं चूकती है।

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इससे ऐसा लगता है कि भाजपा भी मानती है कि अगर आम आदमी पार्टी को काम करने का मौका दिया गया तो उनके लिए खतरा बन सकती है। इसलिए उसे तरह-तरह से परेशान करना जारी है और 20 विधायकों को निलंबित करने की यह ऐतिहासिक कार्रवाई चुनाव आयोग और राष्ट्रपति भवन की अपनी नहीं, भाजपा की इच्छा पर की गई लगती है। राष्ट्रपति और चुनाव आयोग को अगर निष्पक्ष माना जाए तो देश की राजनीति में पेशेवरों के आने के इस प्रयोग को उनका समर्थन मिलना चाहिए था तो उलटे इसका बेशर्म विरोध किया गया जिसकी पोल कुछ ही महीने में खुल गई।

हाईकोर्ट के फैसले के बाद चुनाव आयोग और राष्ट्रपति भवन कोई सफाई देने की स्थिति में भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि फैसला देने के समय दोनों संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को यह अनुमान ही नहीं रहा होगा कि हाईकोर्ट में फैसला पलट सकता है। जाहिर है, इसके बारे में सोचा जाना चाहिए था और अगर कुछ सोचकर जल्दबाजी में विधायकों को अयोग्य करार दिया गया था तो उसपर अमल होना चाहिए था।

अगर यह सब नहीं हो पाया तो साफ है कि चुनाव आयोग का फैसला बहुत ही मनमाना और अन्यायपूर्ण था जिसे राष्ट्रपति की सहमति मिलने के बाद भी हाईकोर्ट ने न्यायपूर्ण नहीं माना। यह सब किसी व्यक्ति या गैर राजनैतिक मामले में हुआ होता दोनों संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को शक का लाभ दिया जा सकता था। पर यहां तो बच्चा-बच्चा जानता है कि मामला राजनैतिक है और केंद्र की भाजपा सरकार आम आदमी पार्टी को नीचा दिखाने का कोई मौका चूकना नहीं चाहती है। भाजपा या केंद्र की सरकार राजनीति करे। उसका काम है। पर इसमें राष्ट्रपति और चुनाव आयोग को कूदने की कोई जरूरत नहीं थी और उनकी जल्दबाजी निहायत बचकानी तथा शर्मनाक है।

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आप जानते हैं कि 19 जनवरी को दिल्ली के 20 विधायकों को लाभ का पद लेने के आरोप में अयोग्य घोषित किया गया था। चुनाव आयोग की ओर से विधायकों के अयोग्य करार दिए जाने के बाद आयोग की सलाह पर खुद राष्ट्रपति ने इस पर मुहर लगाई थी। दूसरी ओर, अब दिल्ली हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग को सुनवाई पूरी होने और फैसला आने तक उपचुनाव नहीं कराने के लिए कहा है।

आप जानते हैं कि लाभ का पद भी कोई नया, अलग या इकलौता मामला नहीं है। ऐसा दिल्ली समेत कई राज्यों में होता रहा है और अब भी है। पर उन मामलों को निपटाने की कोई जल्दी नहीं दिखाई जा रही है और सिर्फ दिल्ली में 20 विधायकों की सदस्यता किसी तरह खत्म हो जाए इसकी हर संभव कोशिश चल रही है। ऐसा नहीं है कि इससे सरकार गिर जाएगी, फिर भी। आरोप है कि 20 विधायकों को अयोग्य ठहराए जाने के बाद केंद्र सरकार तोड़-फोड़ कर आम आदमी पार्टी की सरकार गिराने की कोशिश करेगी।

यह सब तब किया जा रहा है जब दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार अच्छा काम कर रही है और केंद्र की भाजपा सरकार के दबाव में है – यह अक्सर दिखता रहता है। मीडिया का पक्षपातपूर्ण रुख भी साफ दिखाई देता है फिर भी आम आदमी पार्टी की सरकार अच्छी टक्कर दे रही है। दिल्ली का बजट बढ़कर 50,000 करोड़ रुपए से ऊपर हो गया है। यह 17 प्रतिशत की वृद्धि (सीएजीआर) है। वह भी किसी टैक्स में किसी खास बढ़ोत्तरी के बिना। इसका मतलब है टैक्स कलेक्शन में गड़बड़ी रुक गई है। इससे साबित होता है कि कायदे से काम किया जाए तो दूसरे राज्य भी बेहतर कर सकते हैं। पर भाजपा सरकार आम आदमी पार्टी के बेहतर काम को खराब कहकर उसपर आरोप लगाकर या लगे हुए आरोप पर पक्षपातपूर्ण कार्रवाई करवाकर निर्वाचित सरकार को परेशान करने की बेशर्म कोशिश कर रही है।

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वैसे तो 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाने के अरविन्द केजरीवाल सरकार के फैसले के खिलाफ वकील प्रशांत पटेल ने चुनाव आयोग में अर्जी दायर की थी। लेकिन केंद्र सरकार को यह मामला इतना अनुकूल लगा कि उसने इसे लपक सा लिया है और दूसरे राज्यों के ऐसे मामले लंबित होने के बावजूद पिछले चुनाव आयुक्त रिटायरमेंट से पहले इस मामले में फैसला कर गए। राजौरी गार्डन के विधायक जरनैल सिंह ने पंजाब में चुनाव लड़ने के लिए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। इसलिए अब इस मामले में 20 विधायकों पर ही सदस्यता रद्द होने की तलवार लटकी हुई है। इस मामले में आप ने ठीक ही कहा है कि चुनाव आयो को प्रधानमंत्री कार्यालय का लेटरबॉक्स नहीं बनना चाहिए।

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