![तुम रूठा न करो-मेरी जान मेरी जान निकल जाती है। एक पुरुष एक महिला की छवि निकालते दिल्ली के कर्तव्य पथ पर](http://www.aryavartaindiannation.com/wp-content/uploads/2025/02/Dilli.jpg)
आईटीओ चौराहा (दिल्ली) : आगामी विधान सभा चुनाव में दिल्ली के तक़रीबन 15524858 मतदाता हिस्सा लेने जा रहे हैं। यह कहना कठिन है कि विधान सभा के 70 सीटों के लिए जिन-जिन राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवारों ने अपनी-अपनी टोपियां चुनावी मैदान में उछाले हैं, उनमें कौन-कौन विजय होंगे और कौन-कौन पराजित; लेकिन एक बात तय है कि इस चुनाव में 7173952 महिला मतदाताओं के साथ-साथ 1261 ‘थर्ड जेंडर’ मतदाता यह तय करेंगे कि किस अभ्यर्थी को विधानसभा में बैठने दिया जाय और किसे वापस घर भेजा जाय – फूलों के गुलदस्ता के साथ ।
दिल्ली में 5 फरवरी को सभी 70 सीटों पर मतदान होने जा रहा है और 8 फरवरी को नतीजे घोषित किए जाएंगे। 70 विधानसभा सीटों के लिए कुल 699 उम्मीदवार मैदान में हैं। विधानसभा का मौजूदा कार्यकाल 23 फरवरी को खत्म हो रहा है। राजनेता या राजनीतिक विश्लेषक दिल्ली की मतदाताओं के बारे में जो भी कहें, लिखें, लेकिन प्रदेश के कुल मतदाताओं में महिलाओं की संख्या अच्छी-खासी है और जिन्हें रिझाने के लिए सभी पार्टियां भरसक प्रयास कर रही है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि दिल्ली की महिलाओं की एक बहुत बड़ी संख्या आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविन्द केजरीवाल के साथ हैं – आप छाहे कुछ भी कह लें।
अरविंद केजरीवाल, जो लगातार तीन चुनावों से जीत हासिल कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने भले ही देश के अन्य हिस्सों में अच्छा प्रदर्शन किया हो, लेकिन दिल्ली विधानसभा में पार्टी लगातार दो चुनावों से 70 सीटों में से दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई है। दिल्ली में लगातार छह बार चुनाव हारने के बाद सातवीं बार उसे जीतने के इरादे से बीजेपी मैदान में उतर रही है। पहले बीजेपी तीन बार कांग्रेस के हाथों हार का सामना कर चुकी है और फिर आम आदमी पार्टी ने उसे विजयी बढ़त नहीं लेने दी। सवाल उठता है कि क्या इस बार बीजेपी कुछ कमाल कर पाएगी? शायद ना, शायद हाँ।
मतदाताओं का यह भी मानना है कि अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को तिहाड़ में बंद करना शायद भाजपा के लिए मंहगा सावित हो सकता हैं इस चुनाव में । वैसे केजरीवाल के विरुद्ध जो भी तथाकथित साजिश रची गयी हो, या रची जा रही हो दिल्ली सल्तनत पर कब्ज़ा करने के लिए, लेकिन नैतिकता के दृष्टिकोण से केजरीवाल का मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना और मतदाताओं के बीच सम्मान के साथ खड़े रखना, डेट रहना – उनके राजनीतिक चरित्र को मजबूत बना दिया है। 2013 में नवगठित आम आदमी पार्टी की सरकार बनने से पहले कांग्रेस ने लगातार पंद्रह साल तक दिल्ली पर शासन किया था। वैसे केजरीवाल को लगभग 12 साल बाद कई मुद्दों पर एंटी-इनकंबेंसी का सामना करना पड़ रहा है, जो चुनाव की दिशा को प्रभावित कर सकता है।
साल 2024 में हुए लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने एक साथ चुनाव लड़ा था, लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में दोनों ही पार्टी अलग-अलग चुनाव लड़ रही हैं। इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच का यह टकराव भारतीय जनता पार्टी के लिए फ़ायदेमंद साबित हो। जब कांग्रेस दिल्ली में अपने शीर्ष पर थी तब उसके पास 40 फ़ीसदी तक का वोट शेयर था, लेकिन 2020 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सिर्फ़ 4.26 प्रतिशत ही वोट हासिल कर सकी ।
दिल्ली को 69वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1991 से विशेष राज्य का दर्जा मिला था। इसी के प्रावधान से दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र घोषित किया और उपराज्यपाल को दिल्ली का प्रशासक नामित किया गया था। दिल्ली के पहले उपराज्यपाल आदित्य नाथ झा (एक आईसीएस) थे, जबकि दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री चौधरी ब्रह्म प्रकाश यादव थे। वैसे शैक्षिक दृष्टि से देखा जाय तो श्री ब्रह्म प्रकाश से लेकर श्री गुरुमुख निहाल सिंह, मदन लाल खुराना, साहब सिंह वर्मा, सुषमा स्वराज, शीला दीक्षित, यहाँ तक की अरविंद केजरीवाल सहित, दिल्ली में अब तक जितने भी मुख्यमंत्री बने हैं, उनमें आतिशी मार्लेना सिंह शैक्षिक योग्यता सबसे अधिक है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शैक्षिक योग्यता के मामले में जितनी भी चर्चार्यें हुयी, खोजबीन हुआ, आतिशी मार्लेना सिंह की शैक्षिक योग्यता खुली किताब है। प्रोफेसर विजय सिंह तोमर और त्रिप्ता वाही के घर में जन्म ली आतिशी सिंह के नाम के बीच मार्लेना शब्द का सृजन इसलिए हुआ कि ज्योतिषी सहित घर के बड़े-बुजुर्गों ने उसकी भाग्य और जीवन रेखा में एक क्रांति की रेखा भी देखे। ज्ञातव्य है कि भारत के महिला मुख्यमंत्रियों में आतिशी मार्लेना सिंह का नाम भी अच्छे अक्षरों में लिखा जायेगा और इसका वजह यह है कि 2025 विधानसभा चुनाव तक उनके विरुद्ध कोई भी लांछना नहीं लगा।
बहरहाल, विगत दिनों सोशल मीडिया के लिंक्डइन प्लेटफॉर्म पर पत्रकारिता के एक छात्र प्रशांत पाल ने विकास पत्रकारिता के तहत दिल्ली की राजनीति में महिलाओं की सहभागिता पर अपने कार्यों का एक विस्तृत विवरण पोस्ट किये। वैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर दिग्गज से दिग्गज पत्रकारों की किल्लत नहीं है और ना ही कमी है विचारों की; परन्तु पत्रकारिता पढ़ने वाला एक छात्र जिस तरह दिल्ली चुनाव को, दिल्ली की राजनीति में महिलाओं की स्थिति को, उसकी भागीदारी को शब्दबद्ध किया, कबीले तारीफ है।
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पाल ने लिखा है चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ ही राज्य में सियासी पारा बढ़ चुका है। चुनाव में भाग ले रहीं सभी राजनीतिक पार्टियां मतदाताओं को अपने पाले में लाने की जोर आजमाइश में जुटी हुई हैं। खासकर महिला मतदाताओं को (71.73 लाख महिला मतदाता हैं दिल्ली में), दिल्ली चुनाव में अभी तक घोषित तीन बड़ी राजनीतिक पार्टियों के चुनावी घोषणा पत्र पर नजर डालें तो एक रणनीति साफ समझ आती है कि तीनों ही अधिक से अधिक महिला मतदाताओं का मत पाना चाहती हैं। जिसके लिए कई लोकलुभावन योजनाओं की भी घोषणा की गई है लेकिन जब बात उन्हें शासन में ,राज्य की राजनीति में प्रतिनिधित्व देने की बात आती है तो यह तस्वीर बिल्कुल उल्टी है।
यदि देखा जाय तो इसी विधानसभा चुनाव में महिलाओं की भागीदारी पुरुष प्रत्याशियों की तुलना में न के बराबर है। सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी ने कुल प्रत्याशियों में से सिर्फ 10% महिला प्रत्याशियों को ही मौका दिया। वहीं भाजपा और कांग्रेस केवल 13% है। यानी आम आदमी पार्टी की तरफ से केवल 7 महिला प्रत्याशी चुनावी मैदान में हैं। जबकि भाजपा और कांग्रेस ने अपने कुल प्रत्याशियों में से केवल 9 महिला प्रत्याशियों को मौका दिया है।
राजनीतिक पार्टियों यह जानती है कि दिल्ली की सत्ता की कुंजी पाने में दिल्ली की महिला मतदाताओं का अहम योगदान है। दिल्ली के चुनाव में महिला फैक्टर को नजरअंदाज करना किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए बड़ा नुकसान साबित हो सकता है। यही वजह है कि चाहे आम आदमी पार्टी हो बीजेपी हो या कांग्रेस हो तीनों ने ही महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए कई घोषणाएं की हैं। आम आदमी पार्टी ने राज्य की महिला को लुभाने के लिए उनके खाते में प्रति माह 2100 रुपए जमा कराने की बात कही है। इसी के साथ महिलाओं के लिए दिल्ली की सरकारी बसों और मेट्रो में आरक्षित सीटें जैसी सुविधा आम आदमी पार्टी के द्वारा पहले से ही महिलाओं को दी जा रहीं हैं।
वहीँ आम आदमी पार्टी की तर्ज पर ही कांग्रेस ने भी दिल्ली की महिला मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए 2500 रुपये प्रतिमाह उनके खाते में जमा कराने संबंधी प्यारी दीदी योजना की घोषणा की है। इसी के साथ उन्हें राशन किट नि शुल्क उपलब्ध कराने के साथ 500 रुपए में गैस सिलेंडर उपलब्ध कराने से संबंधित घोषणाएं की हैं। जबकि दिल्ली की महिलाओं के लिए जारी की गई घोषणाओं में बीजेपी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी से भी एक कदम आगे निकल गई है। भाजपा ने महिला सम्मान राशि के तहत 2500 रुपए प्रति माह उनके बैंक खाते में जमा करने, गर्भवती महिलाओं के लिए 21 हजार रुपए के साथ 6 पोषण किट, 500 रुपए में गैस सिलेंडर उपलब्ध कराने के साथ होली, दिवाली पर एक एक मुफ्त गैस सिलेंडर और राशन किट जैसी घोषणाएं शामिल हैं।
1951 में दिल्ली विधानसभा के गठन के साथ दिल्ली का राजनीतिक इतिहास काफी उतार-चढ़ाव से भरा हुआ है। 1952 में पहले चुनाव होने के बाद ब्रह्म प्रकाश दुबे दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बने । लेकिन कुछ समय के बाद दिल्ली में विधानसभा को भंग हो गया केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया और उपराज्यपाल के रूप में दिल्ली की सत्ता केंद्र के हाथों आ गई। कुछ समय तक केंद्र शासित प्रदेश बने रहने के बाद ,दिल्ली की जनता की मांग के आधार पर पुनः 1991 में दिल्ली में विधानसभा की स्थापना की गयी । परिसीमन के बाद 1993 में एक बार फिर चुनावों का आयोजन किया गया । जिसमें भाजपा 49 सीटें जीती थी, वहीं कांग्रेस को 14 सीटें मिली थी और 4 सीटों के साथ जनता दल, जो तीसरी पार्टी के रूप में आयी थी। भाजपा के मदन लाल खुराना नए मुख्यमंत्री बने ।
कुछ समय तक सफल शासन करने के बाद उन पर 1996 में हवाला स्कैम का आरोप लगा कि वे हवाला करोबारी जैन बंधुओ से 3 लाख रुपये लिए । आरोप में नाम आने के बाद विपक्ष उनकी पार्टी पर हावी न हो सके और जांच में सहयोग देने के रूप में उन्होंने नैतिकता के आधार पर मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। वह मात्र 2 वर्ष 86 दिन तक ही दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे थे। खुराना के इस्तीफा देने के बाद भाजपा के ही साहिब सिंह वर्मा को नया मुख्यमंत्री बने। जैन हवाला डायरी कांड में सर्वोच्च न्यायालय से क्लीन चिट मिल जाने के बाद भाजपा के कई बड़े नेता और कार्यकर्ताओं खुराना को दोबारा से मुख्यमंत्री बनाने के पक्षधर थे, लेकिन वे सत्ता में वापस नहीं हो पाए। प्रदेश की राजनीति बदल रही थी। नेपथ्य में पृष्ठभूमि भी बदल रहा था। अगले विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा साहिब सिंह वर्मा को भी मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाकर सुषमा स्वराज कुछ दिनों के लिए मुख्यमंत्री बनी।
कांग्रेस की दिल्ली की सत्ता में शुरुआत 1998 के विधानसभा चुनाव से हुई जब कांग्रेस ने शीला दीक्षित के नेतृत्व में लड़े चुनाव में जीत हासिल करके भाजपा को सत्ता से बेदखल कर दिया था और शीला दीक्षित खुद दिल्ली की नई मुख्यमंत्री बनी थी। 1998 से 2013 तक लगातार तीन कार्यकाल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने कार्य किया। उनका कार्यकाल दिल्ली के विकास और आधुनिकीकरण के लिए जाना जाता है। शीला दीक्षित के कार्यकाल में राजधानी दिल्ली में अनेकों विकास कार्य संपन्न हुए और दिल्ली को देश की के रूप में एक बेहतर स्तर के शहर बनाने में उनके शासनकाल की काफी अहम भूमिका रही थी। लेकिन इसी दौरान उनकी सरकार पर कई आरोप भी लगे जैसे 2010 में उनके नेतृत्व में दिल्ली में आयोजित हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार संबंधित कई आरोप लगे। सत्ता विरोधी लहर और बिजली, पानी संबंधी कुछ बुनियादी जरूरत में होती अव्यवस्था के चलते दिल्ली की जनता का उनकी सरकार से मोह भंग हो गया। जिसकी वजह से उन्हें 2013 के विधानसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा।
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दिल्ली की राजनीति में यह एक बेहद अनोखा मोड़ था क्योंकि दिल्ली के राज्य बन जाने के बाद अभी तक केवल दिल्ली में भाजपा, कांग्रेस और जनता दल तीन ही मुख्य राजनीतिक पार्टियों थी। लेकिन लोकपाल बिल और क्रांतिकारी अन्ना हजारे के नेतृत्व में राजनीति के गुण सीखने वाले अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में एक नया राजनीतिक मोर्चा तैयार करने में सफलता हासिल कर ली थी। आम आदमी पार्टी का गठन उसी का परिणाम था। इसे कट्टर ईमानदार छवि वाली राजनीतिक पार्टी के रूप में इसे खूब प्रचारित किया गया और शीला दीक्षित सरकार में हुए कथित तौर पर कई भ्रष्टाचार को चुनावों में उजागर किया। जनता को दिल्ली में बदलाव के एक नये विकल्प के रूप में खुद को प्रदर्शित कर दिल्ली की सत्ता में अपनी पार्टी को काबिज किया। हालांकि पहले कार्यकाल में वह ज्यादा दिन तक दिल्ली की सत्ता में नहीं रह पाए क्योंकि कांग्रेस द्वारा दिए गए बाहरी समर्थन को वापस लिए जाने के कारण उनकी सरकार गिर गई । अरविंद केजरीवाल की यह सरकार केवल 49 दिन तक ही चली।
कांग्रेस द्वारा बाहरी समर्थन वापस लिए जाने की चुनावी चाल को पहले ही भाप जाने के कारण केजरीवाल ने नैतिकता के आधार पर मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद दिल्ली में लगभग एक साल तक राष्ट्रपति शासन लागू रहा। लेकिन अगले ही चुनाव में वह अपनी पार्टी द्वारा पूर्ण बहुमत लाकर दिल्ली की सत्ता में खुद के लंबे समय तक रहने के विचार को स्पष्ट कर दिया ।
1993 से 2020 तक देश की राजधानी दिल्ली ने 7 विधानसभा चुनाव देखे हैं। इन सात विधानसभा चुनावों में केवल तीन महिला मुख्यमंत्री ही दिल्ली को मिल पाई हैं। साल 1998 में भाजपा ने सुषमा स्वराज को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया था और उनके बाद 1998 से 2008 तक लगातार तीन बार कांग्रेस की शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं और फिर 2024 में आम आदमी पार्टी ने आतिशी को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया ।
साल 1998 का ही वह विधानसभा चुनाव था जिसमें दिल्ली में सबसे अधिक 9 महिला विधायक चुनी गई थी। जिसमें आठ महिला विधायक कांग्रेस और एक महिला विधायक के रूप में सुषमा स्वराज भाजपा से संबंधित थी। यह रिकॉर्ड आज तक नहीं टूट पाया है। 2003 के विधानसभा चुनाव में यह आंकड़ा इस रिकॉर्ड के थोड़ा पास था जब 7 महिलाएं विधायक बनकरविधानसभा पहुँच थी। इसी के साथ इन सातों विधानसभा चुनावों में केवल 39 महिला ही विधायक बन पाई जिसमें कांग्रेस की सर्वाधिक 20 विधायक, आम आदमी पार्टी की 17 और भाजपा की 2 महिला विधायक शामिल हैं।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में महिलाओं की सहभागिता की स्थिति में कोई ज्यादा बड़ा बदलाव नहीं आया है। वर्तमान चुनाव की बात करें तो इसमें आम आदमी पार्टी ने 7 महिला प्रत्याशियों जबकि भाजपा और कांग्रेस ने 9 महिला प्रत्याशियों पर अपना विश्वास जताया है। यानी आम आदमी पार्टी ने कुल प्रत्याशियों में से केवल 10% महिला प्रत्याशी को टिकट दिया है। वहीं भाजपा और कांग्रेस में यह आंकड़ा 13% के करीब है। आज तक एक भी निर्दलीय महिला उम्मीदवार विधायक नहीं बन पाई दिल्ली की राजनीति में महिलाओं की सहभागिता को आप इस बात से समझ सकते हैं की राजधानी में आज तक हुए विधानसभा चुनाव में से किसी में भी एक निर्दलीय महिला उम्मीदवार विधायक नहीं बन पाई है। केवल राज्य की बड़ी राजनीतिक पार्टियों जैसे:- आम आदमी पार्टी ,भाजपा और कांग्रेस से ही महिला विधायक अभी तक चुनी गई हैं।
दिल्ली की राजनीति में महिलाओं की इतनी कम सहभागिता होना बेहद दुख है। यह स्थिति तब है जबकि राज्य में लगभग 71.23 लाख महिला मतदाता हैं। और उनके प्रति नेतृत्व के रूप में महिलाओं की संख्या बेहद कम है। राजनीतिक पार्टियों को न केवल उनके मत को अपनी और आकर्षित करने संबंधी योजनाएं बननी चाहिए बल्कि उनके राजनीतिक और शासन में सहभागिता की वृद्धि को भी सुनिश्चित करना चाहिए क्योंकि यह राज्य में लगभग आधी आबादी का नेतृत्व करती है। क्योंकि केवल संसद से महिला प्रतिनिधित्व संबंधी अधिनियम पारित करने से कुछ नहीं होता बल्कि ऐसे नियमों को यथार्थ के धरातल पर उतरना जरूरी होता है। जिससे वास्तविक बदलाव सुनिश्चित हो सकें।