सरकार को छोड़िये, बिहार के दस करोड़ लोग सचिवालय के सात शहीदों, उनके वंशजों को नहीं पहचानते

​शहीद जगपति कुमार का घर। नितीश जी देख रहे हैं न ?
​शहीद जगपति कुमार का घर। नितीश जी देख रहे हैं न ?

​बिहार की आवादी आज 10 करोड़ से ज्यादा है जो देश में जनसंख्या की दृष्टि से तीसरे स्थान पर आता ​हैं। दस करोड़ आवादी मतलब एक फिलीपीन्स। लेकिन क्या बिहार के लोग ​पटना सचिवालय के सामने 11 अगस्त, 1942 को अंग्रेजी हुकूमत की गोलियों से छल्ली-छल्ली हुए सात नौजवान शहीदों उनके जीवित वंशजों को जानते हैं? पहचानते हैं? नहीं न। फिर आएं ‘मानसिक रूप’ से गोईठा पाथें। वैसे उन सात शहीदों में एक के घर ​की दीवारों पर बिहार के लोग गोईठा पिछले ७६ वर्षों से पाथते चले आ रहे हैं।

जब​ उन सातों को नहीं जानते तब तो आप ​दिवंगत राम कृष्णा सिन्हा साहेब को भी नहीं पहचानते होंगे !​ मेरा मानना है ९८ फीसदी लोग “नहीं” कहेंगे। शेष दो फीसदी लोगों में जिनकी आयु ​76 वर्ष से अधिक होगी, शायद “स्मरण” कर पाएं। परन्तु इसमें भी शक है। पटना सचिवालय के सामने जिन सात शहीदों की मूर्तियां हैं, वे तिरंगा फहरा नहीं सके सचिवालय पर और जिसने फहराया वह जीवन भर गुमनाम रहा !! नितीश कुमार जी आप सुन रहे हैं न ?

कहा जाता है कि जो समाज अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणो की आहुति देने वाले क्रान्तिकारियों, शहीदों का कद्र नहीं करता, उनके वंशजों के प्रति कृतज्ञता के साथ-साथ संवेदनशील नहीं होता, वह समाज कभी “मानवीय” नहीं कहला सकता। व्यवस्था अथवा सरकार तो महज एक संस्था का नाम है जो ईंट-पथ्थर से बना होता है, जो निर्जीव होता है। उस ईंट-पथ्थर से बने भवन के छत के नीचे रहने वाले मनुष्य अगर अगर संवेदनशील हैं, मानवीय हैं तो व्यवस्था अथवा सरकार भी मानवीय होगी और वह भवन भी “जीवित” कहलायेगा ।

परन्तु क्या पटना सचिवालय के सामने शहीद-स्मारक जो सात क्रांतिकारी छात्रों की शाहदत का प्रतिक है, उसके परिवार और परिजनों के प्रति बिहार की सरकार और बिहार के लोग “संवेदनशील” हैं ? यह बहुत बड़ा सवाल है। वैसे भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान बिहार में 134 क्रान्तिकारी शहीद हुए थे।

प्रख्यात मूर्तिकार देवी प्रसाद रायचौधरी जी इसे इटली से बनाकर लाया था और आज भी ऐसा प्रतीत होता है कि ये प्रतिमा कहीं बोलने न लगे, कहीं चलने न लगे – आज भी यह प्रतिमा जीवित लगता है।परन्तु, इन 76 वर्षों में पटना ही नहीं बिहार के लोगों कीआत्मा शायद मर गयी, नहीं तो क्या वे इन नौजवानो के वंशजों को, विधवा को, उनकी आज की पीढ़ियों को पहचानते नहीं ?

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राम कृष्णा सिन्हा ही एक मात्र व्यक्ति थे जो अपनी उच्च शिक्षा के दौरान पटना सचिवालय के माली के रूप में सचिवालय प्रांगण में प्रवेश कर अंग्रेज भारत छोडो आंदोलन के दौरान ११ अगस्त १९४२ को पटना सचिवालय के ऊपर तिरंगा फहराया था। शेष सात छात्र तब तक अंग्रेजीहुकूमत की गोलियों के शिकार ​हो चुके थे और मातृभूमि को उनके रक्त सिञ्चित कर चुके थे। श्री सिन्हा उस वक्त पटना कालेज के तृतीय वर्ष के छात्र थे। सितम्बर २२, १९४८ को पटना के तत्कालीन जिलाधिकारी के कार्यालय से निर्गत पत्र इस बात की पुष्टि करता है।

इस घटना के बाद सिन्हा साहेब को गिरफ्तार कर लिया गया था। इन्हे बांकीपुर जेल में बंद किया गया। बांकीपुर जेल से फुलवारी शरीफ जेल जाने सहयोगी छात्रों की मदद से ये भाग निकले थे। वैसे इनकी गिरफ्तारी फिर २९ नबम्बर १९४२ को हो गयी, परन्तु इस बीच इनके घर की सभीसम्पत्तियों को जब्त कर लिया गया था। भारतीय दंड संहिता २२५ बी के तहत इन्हे गिरफ्तार किया गया। इस दौरान इन्हे बहुत यातनाएं दी गयी, परन्तु इन्होंने कभी अपना मुंह नहीं खोले। सात वर्ष पहले सिन्हा साहेब की मृत्यु २०१० में हुयी। भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान बिहारमें 134 क्रान्तिकारी शहीद हुए थे।

११ अगस्त​, १९४२ को पटना के सचिवालय के सामने​तत्कालीन जिलाधिकारी डब्ल्यू जी आर्थर को नौजवानों पर गोली चलाने का आदेश दिए ​थे जिसमे सात ​छात्र – उमाकांत प्रसाद सिंह ​(राम मोहन राय सेमिनरी में नौंवी कक्षा के छात्र थे​ और नरेंद्रपुर सारण के रहने वाले थे​), रामानंद सिंह ​(राम मोहन राय सेमिनरी में नौंवी कक्षा के छात्र थे​ और शहादत नगर पटना के निवासी ​थे), सतीश प्रसाद झा ​(पटना कालेजियट स्कूल​ के कक्षा दस के छात्र थे​ और खडहरा भागलपुर के रहने वाले थे​), जगतपति कुमार ​(बीएन कालेज के ​द्वितीय वर्ष के छात्र थे​ और खराती औरंगाबाद के रहने वाले थे​), देवीपद चौधरी ​(मिलर हाईस्कूल पटना में नौंवी कक्षा के छात्र थे​ और सिलहट जमालपुर के रहने वाले थे​), राजेंद्र सिंह ​(पटना इंगलिश हाई स्कूल में दसवीं कक्षा के छात्र थे​ और बनवारी चक, सारण जिला के रहने वाले थे​) तथा रामगोविंद सिंह ​(पुनपुन हाईस्कूल मेंनौंवी कक्षा के ​छात्र थे​ और पटना जिले के दसरथ गांव के रहने वाले थे​)​।

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​​इन सात शहीदों की आदम-कद प्रतिमा प्रख्यात मूर्तिकार देवी प्रसाद रायचौधरी जी इसे इटली से बनाकर लाया ​थे, को बिहार के पहले राज्यपाल जयरामदास दौलतराम ने 15 अगस्त 1947 को इस स्मारक की नींव रखी थी। ​देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने 1956 में इसआदमकद प्रतिमा का औपचारिक अनावरण किये थे।​ परन्तु लोग उन्हें भूल गए जो तिरंगा लहराए थे। इन ७५ वर्षों में इन शहीदों के वंशज “अनावरित” नहीं हो पाए और गुमनामी जीवन जीते रहे। स्थानीय सरकार भी कभी इनके दुःख-दर्द को अपना नहीं समझा। लोगों की बात तो पूछिए हीनहीं।

​सिन्हा साहेब पटना के कंकरबाग इलाके में रहते थे। कुछ दिन पूर्व सिन्हा साहेब के पुत्र नवेन्दु शर्मा, जो पटना से पत्राकाशित एक अंग्रेजी अखबार में वर्षों कार्य अवकाश प्राप्त किये, अपने प्रयास से अपने घर सामने पार्क में अपने क्रांतिकारी पिता की मूर्ति स्थापित करने का बहुत प्रयासकिये, परन्तु कामयाबी नहीं मिली। वैसे पिता की मृत्यु के बाद तत्कालीन मुख्य मंत्री (आज भी मुख्य मंत्री हैं) इनके आवास पर आये थे और विस्वास दिलाया था की प्रतिमा की स्थापना अवश्य होगी। दुर्भाग्य यह है कि उस स्थान पर किसी और की प्रतिमा का अनावरण हो गया।

​इतना ही नहीं, शहीद जगपति कुमार और शहीद राम गोविन्द जी के घरों की स्थिति देखकर बिहार के लोगों को शर्मसार होना चाहिए ​.शहीदों के घरों को देखने वाला कोई नहीं है। सरकार और समाज को इन घरों को धरोहर बनाने के बजाय इनपर, इनके दीवारों पर गोबर पाथते हैं।

सन १९४२ के ११ अगस्त को दो बजे दिन में पटना के सचिवालय पर झंडा फहराने निकले थे। महात्मा गाँधी का ऐलान था – अंग्रेज भारत छोडो। उस समय पटना शहर के जिलाधिकारी थे डब्ल्यू जी आर्थर। क्रांतिकारियों का अपारसमूह पटना सचिवालय पर तिरंगा फहराना चाहते थे।परन्तु जिलाधिकारी को यह स्वीकार नहीं था और उन्होंने पुलिस को गोली चलाने का आदेश निर्गत कर दिया। लगभग 13 से 14 राउंड गोलियों की बौछार हुयी और उमाकांतप्रसाद सिंह, रामानंद सिंह, सतीश प्रसाद झा, जगपति कुमार, देवीपद चौधरी, राजेन्द्र सिंह और राम गोविंद सिंहवहीँ ढ़ेर हो गए। उनका रक्त मातृभूमि की स्वतंत्रता को सींचने में न्योछावर हो गया।

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​​देवीपद चौधरी​ इस अभियान का नेतृत्व कर रहे थे ​। देवी पद चौधरी की उम्र 14 साल की थी। ​चौधरी जब सचिवालय की ओर बढ़ रहे थे तो ​पहली गोली का शिकार देवीपद ​हुए जो ​तिरंगा थामे आगे बढ़ रहे थे, अपने क्रांतिकारी साथी देवीपद को गिरते देख पटना जिले के दशरथा गांव केरामगोविंद सिंह ​ने तिरंगा संभाला। रामगोविंद सिंह उस समय पुनपुन के हाईस्कूल में दसवीं कक्षा ​के छात्र थे। ​भीड़ अपार हो गयी थी। ​रामगोविंद सिंह ​जैसे ही तिरंगा के साथ ​आगे ​बढ़ने की कोशिश किये, वे भी गोली के शिकार हुये। बाद में रामानंद ​सिंह, राजेंद्र सिंह और जगपति कुमार सँभालते रहे परतु ये सभी गोली के शिकार होते गया।जगपति कुमार को एक गोली हाथ में लगी दूसरी गोली छाती मे और तीसरी गोली जांघ में लगी फिर भी तिरंगा नहीं झुका। ​इस बीच सतीश झा​ जो पटना ​कॉलेजिएट स्कुल में पढ़ते थे​, तिरंगा ​लेकर आगे बढ़ने, ​फहराने की कोशिश ​कियेपरन्तु वे भी गोली के शिकार हो गए। फिर उमाकान्त सिंह​ जो पटना के बी.एन.काॅलेज के द्वितीय वर्ष के छात्र थे​, इसअथक प्रयास का नेतृत्व किया। पुलिस दल ने उन्हें भी गोली का निशाना बनाया​ परन्तु शाहदत से पूर्व वे इतिहास केपन्नो पर अपना और अपने क्रान्तिकारी साथियों का नाम लिख दिया।

आज भी बिहार के गाँव में ऐसे क्रांतिकारियों और शहीदों के वंशज जीवित हैं। परन्तु तकलीफ इस बात की है की वे सभी गुमनामी जीवन जी रहे हैं। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता की आज के भाग-दौड़ और आर्थिक-कलह वाली जीवन में लोग भूलते जा रहे हैं, लेकिन दूसरी ओरइस बात से भी इंकार नहीं कर सकते की अधिकांश क्रांतिकारियों और शहीदों के वंशज स्वयं भी उतने ही जिम्मेदार हैं, जितना समाज के लोग।

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