दरभंगा/पटना/नई दिल्ली: आज ही नहीं, आने वाले समय में जब देश के बच्चों, नौजवानों से पूछा जायेगा की भारत के तीसरे प्रधान मन्त्री कौन थे? तब बच्चे गर्दन घुमाकर गुगुल करेंगे। अगर संघ लोक सेवा आयोग द्वारा संचालित भारतीय प्रशासनिक सेवा के अन्तर्वीक्षा में टेबुल के दूसरे तरफ बैठे महानुभाव अभ्यर्थी से पूछ बैठें की “यौ !! अहाँक गामक पांच टा ऐतिहासिक स्थान/पुरातत्वक नाम की? (अपने गाँव या जिला का कोई ऐतिहासिक पुरातत्व का नाम बताएं), तो अभ्यर्थी कहीं गलती से किसी पूर्ववर्ती – मृत नेता का नाम न बता बैठें। सुनने में अटपटा लगता है, पढ़ने में तो बुरा लगेगा ही; परन्तु जब आराम से सोचेंगे तो “यथार्थ” लगने लगेगा। क्योंकि मिथिलांचल में घर-घर नेता पनपते हैं, पंचायत से विधानसभा, विधान परिषद् के रास्ते संसद में बैठने के लिए, लेकिन प्रदेश के रक्षार्थ, सम्मानार्थ बिरले कोई कदम बढ़ाते हैं।
आंकड़ों के अनुसार देश में तक़रीबन 3645 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। अगर औसतन भारतीयों से पूछा जाय की वे अपने ही राज्य में स्थित न्यूनतम 10 ऐतिहासिक पुरातत्व और घरोहरों का नाम बताएं, तो उम्मीद है वे पांच अथवा छठे नाम बताते-बताते दम तोड़ देंगे। वजह यह है कि उन्हें उन ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहरों में कोई दिलचस्पी नहीं है (अपवाद छोडकर्) यदि इन आंकड़ों का विश्लेषण करें तो देश के सम्पूर्ण क्षेत्रफल में औसतन प्रत्येक 892 किलोमीटर पर एक न एक ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर है। इनमे सबसे अधिक 743 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर उत्तर प्रदेश में हैं, यानि उत्तर प्रदेश के 324 प्रति किलोमीटर क्षेत्रफल पर एक न एक ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर है।
उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा स्थान कर्णाटक का है जहाँ 506 राष्ट्रीय स्तर के ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। तीसरा स्थान तमिलनाडू का है जहाँ 413 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। पांचवा स्थान गुजरात (293 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर); छठा स्थान मध्य प्रदेश (292 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर); सातवां स्थान महाराष्ट्र (285 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर), आठवां स्थान राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली जहाँ174 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। भौगोलिक क्षेत्रफल के दृष्टि से राजस्थान बहुत बड़ा भूभाग है, लेकिन यहाँ 162 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। पश्चिम बंगाल में 136 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; आंध्र प्रदेश में 129 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; हरियाणा में 91 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; ओडिसा में 79 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; बिहार में 70 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; जम्मू-कश्मीर में 56 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; असम में 55 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; छत्तीसगढ़ में 47 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; उत्तराखंड में 42 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; हिमाचल प्रदेश में 40 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; पंजाब में 33 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; केरल में 27 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; गोवा में 21 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; झारखण्ड में 13 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं और अंत में दमन-दीव में 12 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर स्थित हैं।
औसतन वैसे ऐतिहासिक पुरातत्वों को छोड़कर, जो “दुधारू गाय” है, देश के हज़ारों-हज़ार पुरातत्वों की स्थिति, “सोचनीय” ही नहीं, “निंदनीय” भी है। वर्तमान वित्तीय वर्ष में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को लगभग 1273.91 करोड़ रुपये का आवंटन हुआ था ताकि देश में ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों को, पुरातत्वों को सुरक्षित और संरक्षित रखा जा सके। पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में यह राशि 142.83 करोड़ अधिक थी। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय का एक हिस्सा है जिसका अहम् कार्य ऐतिहासिक स्थानों और पुरातत्वों को बचाना है। यह तो केंद्रीय स्तर की बात हुई देश में प्रत्येक राज्यों का संस्कृति मंत्रालयों के साथ साथ देश के कुल 787 जिलों के जिलाधिकारियों का भी यह दायित्व है कि स्थानीय रूप से उनके अपने-अपने क्षत्रों के ऐसे स्थानों और पुरातत्वों की देखभाल करे।
विगत दिनों पूर्व में कोसी से आरम्भ होकर पश्चिम में गंडक तक 24 योजन और दक्षिण में गंगा से आरम्भ होकर उत्तर में हिमालय की तराई तक 16 योजन में फैले मिथिला इलाके को अपनी साइकिल के पहियों से नापने वाले ललित नारायण मिथिला विश्वविदयालय, दरभंगाके प्राचीन भारतीय इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग के शोधार्थी मुरारी कुमार झा से बात हुई। झा बाबू अपने नाम के आगे ‘पुरातत्व’ लिखते हैं । मेरे बाबूजी कहते थे कि अगर एक मनुष्य अपने जीवन काल में अपने नाम का ही अर्थ समझ लिया, अथवा अपने नाम का सार्थकता सिद्ध करने का यत्न-प्रयत्न किया, तो इससे बेहतर जीवन उद्देश्य और कुछ नहीं हो सकता है। मुरारी बाबू अपने जीवन के इस अल्पायु में अपने नाम का सार्थकता लगभग 90 फीसदी सिद्ध कर लिए हैं।
मेरा मानना है पढ़ना-लिखना, नौकरी-पेशा करना, घर-परिवार होना, घन कामना यह सभी जीवन का एक दूसरा पक्ष है जो पहले (उपरोक्त) पक्ष की तुलना में द्वितीय स्थान पर है। मुरारी बाबू अपने सामर्थ्य भर मिथिला क्षेत्र में गुमनाम ऐतिहासिक स्थलों, पुरातत्वों को न केवल ढूंढ रहे हैं, बल्कि वर्तमान ही नहीं, आने वाली पीढ़ियों को भी दस्तावेज के रूप में उन खोजों को, तस्वीरों के साथ, फिल्मों के साथ समर्पित करेंगे। मिथिला में मुझे अभी तक ऐसे कोई भी युवक अथवा युवती नहीं दिखे हैं। श्री मुरारी बाबू और उनका कार्य अद्वितीय हैं।
आज अगर दरभंगा के महाराजा डॉ. कामेश्वर सिंह जीवित होते तो शायद मुरारी बाबू को अपने सर पर बैठाकर सम्मानित करते – अर्थ से, सामर्थ्य से, महाराजा मुरारी बाबू के पीछे खड़े हो जाते क्योंकि उस काल खंड में मिथिला में विचारवान लोगों की किल्लत नहीं थी। आज राज परिवार में उस सोच के लोग नहीं हैं, अतः उनसे उम्मीद करना मूर्खता होगी। मिथिला में आज ‘सामर्थ्यवान’ लोगों की तो बाढ़ है, गली-कूचियों में नेताओं का जमघट है, प्रत्येक नेता अरबपति, खरबपति है; परन्तु दुर्भाग्यवश ‘विचारवान’, ‘संवेदनशील’, ‘पुरातत्वों के प्रति प्रेम’ लोगों की सुखाड़ है। खैर।
मुरारीजी शायद देश का पहला शोधार्थी है जो साइकिल को अपने शोध का हिस्सा बनाकर मिथिलांचल के ऐतिहासिक पुरातत्वों को ढूंढकर दस्तावेज बना रहे हैं। उधर राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए 55 फीसदी शैक्षिक दर वाले मिथिलांचल में मैथिली भाषा भाषी मतदाताओं को अपनी भाषा में संविधान का ज्ञान प्राप्त करने के लिए संविधान दिवस पर मैथिली भाषा में संविधान का लोकार्पण किया गया और पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से लेकर उनके मंत्रिमंडल के आला मंत्री-संत्री-अधिकारीगण दांत निपोड़ रहे हैं, कह रहे हैं “अच्छा !!!! वह आर्यन काल का है…. अच्छा गुप्ता काल का है, अच्छा वह…. क्योंकि न उन्हें पुरा से मतलब है और ना ही तत्व से। फिर मिथिला का इतिहास बचेगा कैसे?
मुरारी जी कहते हैं कि वे मूलतः मिथिला परिक्षेत्र के दरभंगा जिला स्थित लवानी गाँव(बिहार) के निवासी हैं और वर्तमान समय में ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा से पुरातत्त्व विषय में Ph.D. उपाधि हेतु शोध कार्य कर रहे हैं। वे कहते हैं कि आज से नौ वर्ष पूर्व जब वे पुरातत्त्व के क्षेत्र में शोध के उद्देश्य से भ्रमण का योजना बनाये, तब साधन और संसाधन का अभाव सामने था। किंतु, उन्होंने भ्रमण हेतु अपने साइकिल को साधन के रूप में प्रयोग में लाना आरंभ किया।मुरजी जी कहते हैं: “आज तक में मैं अपने साइकिल से लगभग 1.5 लाख किलोमीटर सफ़र तय करते हुए पुरास्थल, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व के गाँव, प्राकृतिक सम्पदा आदि के अन्वेषण के उद्देश्य से लगभग 600 से अधिक यात्रा किया हूँ, जिसमें एक दिन में सबसे लम्बी दूरी 202 किमी. रही है। इस बार लगभग 300 किमी. दूरी तय करते हुए एक शोधपूर्ण यात्रा वृत्तांत प्रकाशित कराने की योजना है।”
उनका मानना है कि “मिथिला, भारत के सबसे प्राचीन और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध क्षेत्रों में से एक है, जिसे ऐतिहासिक, धार्मिक और प्राकृतिक धरोहरों का केंद्र माना जा सकता है। इस क्षेत्र में प्राचीन मंदिरों, पुरास्थलों, नदियों, झीलों और सांस्कृतिक धरोहरों का भंडार है। हमारी कोशिश है कि सभी स्थलों तक पहुंचकर उसका व्यापक रूप से शोध और दस्तावेज़ीकरण किया जाय।”
मुरारी जी कहते हैं: “मेरी साइकिल यात्रा (300किमी) दिसंबर 2024 के प्रथम सप्ताह में होगी और इसमें लगभग 3000 से अधिक पुरास्थल, प्राचीन मंदिर, प्राकृतिक धरोहर, क्षेत्रीय आयूर्वेद, गाँव, नदी, नहर, पोखर, झील, पक्षी अभ्यारण, कृषि, पशुपालन सहित अन्य महत्त्वपूर्ण स्थलों का विवरण और सूचीकरण किया जाएगा। इस परियोजना के अंतर्गत प्रकाशित होने वाली पुस्तक में इन सभी स्थलों का विवरण और चित्रण सहित उनसे जुड़ी सांस्कृतिक व्याख्या सम्मिलित होगी। यह परियोजना मिथिला की धरोहर और संस्कृति को संरक्षित और प्रचारित करने के साथ ही आम जनमानस को धरोहर संरक्षण के प्रति जागरूक करने हेतु एक व्यापक प्रयास का हिस्सा है।”
आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम जब परियोजना का उद्देश्य पूछा तो मुरारी जी कहते हैं कि “इस परियोजना का उद्देश्य एक साइकिल यात्रा के माध्यम से मिथिला क्षेत्र के पुरास्थलों, प्राचीन मंदिरों, प्राकृतिक धरोहरों और सांस्कृतिक विरासतों का गहन अध्ययन और उनका सूचीकरण के साथ ही इस वृत्तांत को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करना है, ताकि इन धरोहरों के बारे में शोधपूर्ण जानकारी अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचना है ताकि लोगों में अपने क्षेत्र के सांस्कृतिक विरासतों के बारे में पता चले। इससे स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर धरोहर और संस्कृति के प्रति जागरूकता बढ़ेगी।”
जब उनसे पूछा कि इस यात्रा, शोध और पुस्तकी की छपाई के लिए आर्थिक श्रोत क्या है? मुरारजी जी कुछ क्षण रुके, लम्बी सांस लिए और फिर कहते हैं: “यही बिडम्बना है। यही हमारा दुर्भाग्य है। हम वीरसातों की महत्ता को तो समझते हैं, उसे उजागर करने के लिए सतत प्रयन्तशील हैं और चाहते हैं कि वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक दस्तावेज छोड़े जो उनके गान, प्रखंड, अंचल, जिला, क़स्बा के धरोहरों का जिवंत दृष्टान्त होगा। अर्थ के मामले में हम हैं कमजोर जो जाते हैं। हम एक शोधार्थी हैं। हम जानते हैं कि जिस कार्य को हम कर रहे हैं वह न केवल जिला प्रशासन के लिए, प्रदेश की सरकार के लिए या फिर केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय, भारतीय पुरातत्व संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है, इस कार्य से करोड़ों रूपये कमाए जा सकते हैं। हम अपने प्रदेश के, देश के लोगों से, जो देश से बाहर रहते हैं, उसने प्रार्थना कर रहे हैं कि इस कार्य में वे सभी हमारा हाथ पकड़ें। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि मिथिला में लोग हाथ पकड़ते नहीं, हाथ झटक देते हैं।”
झा का जन्म 15 फरवरी 1994ई० को दरभंगा जिले के ही बेनीपुर प्रखंड अंतर्गत आने वाले लवानी गाँव के एक साधारण किसान परिवार में हुआ और इनका लालन-पालन एवं सम्पूर्ण पढाई जिले के ही बहादुरपुर प्रखंड अंतर्गत देकुली गाँव स्थित नाना-नानी के घर से हुआ। स्नातकोत्तर के दौरान ही 02 दिसंबर 2015 को तत्कालीन विभागाध्यक्ष डॉ मदन मोहन मिश्र, शिक्षक डॉ अयोध्या नाथ झा और विभागीय कर्मचारी श्री कैलाश प्रसाद के समक्ष प्राचीन इतिहास विभाग(मोतीमहल परिसर) से प्राप्त हुए 1341ई० के “मोती महल स्तंभ लेख” के ऐतिहासिक खोज के साथ ही इन्होंने पुरातत्व के दुनिया में अपना पहला कदम रखा। किंतु, आगे की खोज जारी रखने हेतु इनके सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में साधन और संसाधन का अभाव था, बावजूद इसके; इन्होंने अपना खोज-कार्य जारी रखा। चूंकि, नवीन खोज करना इनका प्रथम पसंद था; इसीलिए तत्काल इन्होंने भ्रमण हेतु अपने साइकिल को ही साधन के रूप में उपयोग किया।
स्वतंत्र भारत में, खासकर मिथिला क्षेत्र में मुरारी जी शायद पहला शोधार्थी है जो साइकिल से ही पुरास्थलों को खोजने हेतु दूर-दूर तक जाते हैं। दरभंगा के आनंदपुर से विदा होकर चार घंटे पुरास्थल (गिरिजा स्थान फुलहर) पर कार्य करने के उपरांत कुल 13 घंटे में पुनः आनंदपुर आ गए थे, यानी कि 202 किमी की दूरी अपने साइकिल से 9 घंटे में तय किए। ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व के स्थलों को खोजने के लिए अपने साइकिल से ये अभी तक दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, बेगूसराय, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, वैशाली, पटना आदि जिलों के लगभग 400 से 500 पुरास्थलों का भ्रमण कर चुके हैं। इससे संबंधित इनके दर्जन भर से अधिक आलेख भी प्रकाशित हैं। इनके सहयोग से देकुली (बहादुरपुर, दरभंगा) से एक शिवलिंग, ओझौल (बहादुरपुर, दरभंगा) से विष्णु प्रतिमा, भटौरा मठ (शिवाजीनगर, समस्तीपुर) से विष्णु प्रतिमा को दरभंगा जिला स्थित महाराजाधिराज लक्ष्मीश्वर सिंह संग्रहालय में संगृहीत किया जा चूका है। धरोहर संरक्षण हेतु, इन्हें विगत वर्ष मार्च महीने में चंद्रगुप्त साहित्य महोत्सव के दौरान ‘पुरातत्व भूषण सम्मान-2023′ से सम्मानित किया गया।
मुरारीजी कहते हैं: “केवल दरभंगा जिला को ही लें तो, शंकरपुर डीह, खैरा-सिरुआ, कुर्सों-नदियामी, इनाई, महथावन आदि पुरास्थलों से प्राचीन सिक्के, भच्छी, कोर्थू, पिपरौलिया, पंचोभ, तिलकेश्वर मठ, दरभंगा राज परिसर आदि पुरास्थलों से अभिलेख, बहेरा, बरई, शंकरपुर डीह, देवकुली, रतनपुर, ब्रह्मपुर, हावीडीह, कोर्थू आदि पुरास्थलों से प्राचीन भवनों मंदिरों के प्रमाण, रमौली, हरहच्चा, कोइलवाड़ा, महथावन, वाराही आदि पुरास्थलों से टेराकोटा और समस्त दरभंगा जिला से सैकड़ों प्रतिमाएं प्राप्त हुए हैं और समय-समय प्राप्त होते रहते हैं। इस जिले के 300 से अधिक ऐसे पुरास्थल और गांव हैं, जहां विभिन्न प्रकार के पुरावशेष बिखरे पड़े हैं। ये सभी पुरावशेष ईस्वी पूर्व से आधुनिक काल तक के हैं, जिसका वैज्ञानिक परीक्षण और अध्ययन होना अति आवश्यक है। मेरी कोशिश है कि अपनी यात्रा के दौरान ऐतिहासिक धरोहर, प्राकृतिक धरोहर, मानव स्वास्थ्य, जल संचयन एवं संरक्षण, संस्कृति के संरक्षण, जैविक कृषि आदि के महत्व को बताते हुए स्थानीय लोगों को जागरूक करते रहें क्योंकि जीवन में निरंतरता, लगन, एकाग्रता, सहनशीलता और बुद्धिमता सबसे आवश्यक है।’
मुरारी जी एक समर्पित और बहु-आयामी शोधकर्ता और पुरातत्वविद हैं, जो मिथिला क्षेत्र की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और प्राकृतिक धरोहरों को संरक्षित करने में गहरी रुचि रखते हैं। मुरारी जी का मुख्य शोध मिथिला क्षेत्र की पुरातात्विक धरोहर पर केंद्रित है। उनके शोध का उद्देश्य दरभंगा जिले और इसके आस-पास के क्षेत्रों में छिपी प्राचीन धरोहरों और स्थलों की पहचान करना और उन्हें संरक्षित करना है। उन्होंने कई अज्ञात और अपरिचित स्थलों का अन्वेषण किया है, जिन्हें अब तक नजरअंदाज किया गया था।
उनके शोध कार्य का सबसे अनोखा पहलू यह है कि उन्होंने किसी विशेष साधन के बजाय अपनी साइकिल का उपयोग करके हजारों किलोमीटर की यात्रा की। उन्होंने अपनी साइकिल को ‘हवाई जहाज’ नाम दिया और अब तक लगभग 1,50,000 किलोमीटर की दूरी तय की है। इस यात्रा के दौरान उन्होंने मिथिला की सांस्कृतिक धरोहरों का गहन अध्ययन किया और उन्हें संरक्षित करने का प्रयास किया। इतिहास और पुरातत्व के अलावा, मुरारी कुमार झा भूगोल और प्रकृति में भी गहरी रुचि रखते हैं। उन्होंने मिथिला के भौगोलिक परिदृश्य, नदियों, झीलों, और प्राकृतिक संसाधनों का अध्ययन किया है। वे इन प्राकृतिक धरोहरों के संरक्षण और संवर्धन के प्रति भी समर्पित हैं, खासकर जल प्रबंधन और पारिस्थितिक संतुलन के क्षेत्रों में।
मिथिला की पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली और कृषि पद्धतियों का भी मुरारी ने गहन अध्ययन किया है। वे आयुर्वेद, कृषि, और पशुपालन में पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान के समन्वय की वकालत करते हैं। उन्होंने स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर आयुर्वेदिक पौधों और पारंपरिक कृषि तकनीकों का संरक्षण और प्रोत्साहन किया है। मुरारी कुमार झा एक कुशल लेखक भी हैं। उन्होंने मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर, पुरातात्विक स्थलों, और स्थानीय परंपराओं पर कई लेख और पुस्तकों का लेखन किया है। उनकी लेखनी में गहराई और स्पष्टता है, जो पाठकों को मिथिला की समृद्ध धरोहर के प्रति आकर्षित करती है। इसके अलावा, कला में उनकी रुचि, खासकर मिथिला पेंटिंग्स और अन्य पारंपरिक कलाओं में, उन्हें एक बहु-आयामी व्यक्तित्व बनाती है।