२३ मार्च : आजादी के दीवाने और गुलामी के मतवाले

भगत राजगुरु सुखदेव स्मारक
भगत राजगुरु सुखदेव स्मारक

आजादी के दीवाने मार दिये गए अथवा रास्ते से हटा दिये गए । गुलामी के मतवालों को ग़ुलामी की व्यवस्था को निरंतर जीवित रखने के लिये बढ़ावा दिया गया । आज भारत की संपूर्ण व्यवस्था, सारे नियम, सारी न्याय व्यवस्था, सभी कानून, आदि सभी फिरंगियों की गुलामी की व्यवस्था को ही आगे ले जा रहे हैं । हम मात्र कहने भर के हैं कि हम विश्व के सबसे बुद्धिमान संस्कृति एवं सभ्यता से आये हैं जबकि सही अर्थों में हमने अपने आप को गुलामी की व्यवस्था में जकड़ लिया है और उससे बाहर नही आना चाहते ।

२३ मार्च, १९३१ । आज ८७ वर्ष बीत गए । २३ मार्च, १९३१ को शाम ७.३० बजे तीन क्रान्तिकारियों को फांसी पर लटकाया गया था । इन विगत वर्षों में भारत की जनसंख्या लगभग १२९ करोड़ तक पहुँच गयी और लोगों की चौथी पीढ़ी भी । उस घटना के १६ वर्ष बाद दिल्ली के लाल किले पर राष्ट्रध्वज लहराया । देश आज़ाद हुआ । आज़ादी के पहले देश का विभाजन हुआ । आज़ादी के बाद राज्यों के टुकड़े हुए । सन १९४७ से अब तक १६ बार भारत में संसद का गठन हुआ । जिन क्रान्तिकारियों ने अपनी मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए अपने-अपने प्राणों की आहुति दी, स्वतन्त्र भारत के राजनीतिक बाज़ार में जिन क्रान्तिकारियों का नाम बिक पाया, वे मरने के बाद भी आज जीवित हैं, जिनके नाम नहीं बिक पाए, वे गुमनाम होते चले गए ।

भारत सरकार के गृह मंत्रालय के पास ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है, सुचना नहीं है जिसके आधार पर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव या अन्य सभी क्रांतिकारी जिन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन सन १८५७ – १९४७ के समय मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए अपने-अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया, “शहीद” के ख़िताब से अलंकृत किया जाय । इतना ही नहीं, स्वतन्त्रता संग्राम पेन्शन योजना के तहत सूचीबद्ध लोगों के नामों को (क्रांतिकारियों) जिनके वंशज आज भी अन्य सुविधाओं को छोड़कर प्रतिमाह २०,०००/- से अधिक राशि (केंद्रीय आवंटन) (राज्य सरकारों द्वारा दी जाने वाली राशि को छोड़कर) प्राप्त करते हैं; शायद वे भी दूसरे क्रान्तिकारियों और उनके वंशजों को नहीं जानते, नहीं पहचानते। हाँ, यदा-कदा विभिन्न संस्थाओं द्वारा “सम्मानित होते समय”, एक दूसरे से कुछ गप – शप अवश्य कर लेते हैं।
भगत सिंह की आयु मात्र २३ वर्ष थी, लेकिन इतनी सी उम्र में उन्हें पता था कि बिखरे हुए भारत को कैसे एक साथ खड़ा किया जा सकता है । वे सदैव कहा करते थे, ‘हमारी शहादत में ही हमारी जीत है ।’

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भगत सिंह ने गांधी का सम्मान किया, किंतु कई मामलों पर उनके मतभेद थे ये बात सभी जानते हैं, लेकिन २३ के भगत सिंह उस समय अंग्रेजों के लिए गांधी से भी बड़ी चुनौती बन गये थे । भगत सिंह ने बिना कोई पद यात्रा किए, बिना हजारों लोगों को जुटाए सिर्फ अपने और चंद साथियों के दम पर अंग्रेजों को लोहे के चने चबाने को मजबूर कर दियाथा । शायद यही कारण रहा कि अंग्रेजों ने न केवल उन्हें फांसी पर चढ़ाया बल्कि उनके शवों को भी क्षत-विक्षत किया और टुकड़ों में शवों को काटकर अधजली हालत में सतलुज नदी में बहा दिया ।

११ घंटे पहले लिया गया फांसी का फैसला :
अंग्रेज सरकार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी देने का मतलब अच्छी तरह से जानती थी । उसे पता था कि इन तीनों नौजवानों को फांसी देने से पूरा देश उठ खड़ा होगा, लेकिन उसे ये भी पता था कि अगर ये तीनों जिंदा रहे तो जेल में बैठे-बैठे ही क्रांति का बिगुल बजा देंगे, इसलिए भगतसिंह को फांसी देने के लिए पूरा सीक्रेट प्लान तैयार किया गया और २३ मार्च मतलब फांसी के दिन से सिर्फ ११ घंटे पहले ये तय किया गया कि भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को फांसी देनी है । अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को उसी दिन फांसी की खबर दी, जिस दिन उन्हें फांसी पर चढ़ाया जाना था।

शाम ७.३३ बजे दी गई फांसी :

२३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगतसिंह, सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई । फांसी पर जाने से पहले वे लेनिन की नहीं बल्कि राम प्रसाद बिस्मिल की जीवनी पढ़ रहे थे । कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फांसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- “ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले”। फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले -“ठीक है अब चलो”।
रात के अंधेरे में शवों के साथ वहशियाना सलूक :
अंग्रेजों ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी की खबर को बहुत गुप्त रखा था, लेकिन फिर भी ये खबर फैल गई और लाहौर जेल के बाहर लोग एकत्रित होने लगे । अंग्रेज सरकार को डर था कि इस समय अगर उनके शव परिवार को सौंपे गए तो क्रांति भड़क सकती है । ऐसे में उन्होंने रात के अंधेरे में शवों के टुकड़े किये और बोरियों में भरकर जेल से बाहर निकाला गया । शहीदों के शवों को फिरोजपुर की ओर ले जाया गया, जहां पर मिट्टी का तेल डालकर इन्हें जलाया गया, लेकिन शहीद के परिवार वालों और अन्य लोगों को इसकी भनक लगी तो वे उस तरफ दौड़े जहां आग लगी दिखाई दे रही थी । इससे घबराकर अंग्रेजों ने अधजली लाशों के टुकड़ों को उठाया और सतलुज नदी में फेंककर भाग गये । परिजन और अन्य लोग वहां आए और भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के शवों को टुकड़ों को नदी से निकालाकर उनका विधिवत अंतिम संस्कार किया ।

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शहादत के बाद भड़की चिंगारी :
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत की खबर को मीडिया ने काफी प्रमुखता से छापा । ये खबर पूरे देश में जंगल की आग तरह फैल गई । हजारों युवाओं ने गांधी को काले झंडे दिखाए । सच पूछें तो देश की आजादी के लिए आंदोलन को यहीं से नई दिशा मिली, क्योंकि इससे पहले तक आजादी के कोई आंदोलन चल ही नहीं रहा था । उस वक्त तो गांधी समेत अन्य नेता अधिकारों के लिए लड़ रहे थे, लेकिन भगत सिंह पूर्ण स्वराज की बात करते थे, जिसे बाद में गांधी ने भी अपनाया ।

१३ मार्च १९२६ को जब भगत सिंह ने लाहौर के नॅशनल कालेज में नौजवान भारत सभा की स्थापना की, सुखदेव भगत सिंह के संपर्क में आये और तुरंत ही उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ सचिंद्रनाथ सान्याल द्वारा स्थापित हिंदुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिक आर्मी के सदस्य बन गए । इधर देश में आन्दोलन को गति देने के लिए भगत सिंह की देख रेख में जतिंद्र नाथ दास द्वारा आगरा की ‘हिंग की मंडी’ क्षेत्र में बम्ब बनाया जाता था जिसका परिक्षण झाँसी के जंगलों में किया जाता था । कहा जाता है की लाहौर के मक्लोइड रोड पर स्थित कश्मीर बिल्डिंग में एक कमरा भगवती चरण वर्मा ने किराये पर ले रखा था जो क्रांतिकारियों का गढ़ था । फिर एक दूसरी घटना घटी – दिल्ली के सेन्ट्रल असेंबली में ८ अप्रैल १९२९ को बम्ब फेंका गया। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की भूमिका सर्वोपरि थी ।

राजगुरु की अंग्रेजी बहुत अच्छी नहीं थी । चौदह वर्ष की अवस्था में जब वे अंग्रेजी विषय में फेल हो गए तो उनके बड़े भाई ने उनसे कहा की वे अंग्रेजी विषय उनकी पत्नी से सीखे । राजगुरु को यह शब्द कुछ अच्छा नहीं लगा और उन्होंने घर से भाग जाने का मन बना लिया । राजगुरु माँ के नौ पैसे और बहन के दो पैसे (कुल ११ पैसे की जमा पूंजी) लेकर घर के चौखट से बहार निकल गए। पहला पड़ाव महाराष्ट्र के ही नासिक में हुआ । नाशिक से सीधे पहुँच गए काशी । काशी में वे अधिकांश समय या तो लोकमान्य तिलक पुस्तकालय में बिताते थे या फिर महाराष्ट्र विद्या मंडल में या फिर भारत सेवा मंडल के अखाड़े में। काशी में उनकी मुलाकात चन्द्रशेखर आज़ाद जी से हुई ।

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जब भारत में साइमन कमीशन आया था और लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में इसका बहिष्कार किया गया। इस आन्दोलन में लाला लाजपत राय हताहत हुए और अंत में उनका देहांत हो गया । यह भले ही तत्कालीन आन्दोलन को एक झटका दिया, लेकिन इसने आन्दोलन की दिशा बदल दी । १८ दिसंबर १९२८ को सैंडहर्स्ट की हत्या कर दी गयी ।

इस घटना के बाद भगत सिंह और राजगुरु लाहौर भाग गए । यहाँ से भी निकलना आवश्यक था इसलिए भगवती चरण वोहरा की पत्नी दुर्गा भाभी के साथ बेटा, नौकर और पुजारी के वेश में भगत सिंह, राजगुरु और चन्द्रशेखर आज़ाद लाहौर से राजकोट निकल गए । वैसे बहुत दिनों तक पुलिस और क्रांतिकारियों, विशेषकर राजगुरु के साथ आँख-मिचौनी का खेल चलता रहा, लेकिन अंत में सितम्बर १९२९ में राजगुरु पुलिस द्वारा पकडे गए और लाहौर जेल में अन्य साथियों भगत सिंह और सुखदेव के साथ बंद रहे। जेल में भी तीनो ने कई बार हड़ताल की और स्वाधीनता संग्राम की गति को जेल से ही प्रज्वलित रखते रहे ।

अन्ततः ७ अक्तूबर १९३० को इस मुकदमो को देखने-सुनने के लिए गठित ट्रिब्यूनल ने ३०० पेज में अपना फैसला सुनाया और जे पी सैंडहर्स्ट की हत्या में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को दोषी करार कर दिया और तीनो को मृत्यु की सजा दी गयी । इस मुक़दमे में १२ अन्य क्रांतिकारियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी ।

आज आदरणीय स्वतंत्रता सेनानी राममनोहर लोहिया जी (१९१०), सुभद्रा जोशी जी (१९१९) एवं क्रांतिकारी हेमू कालाणी जी (१९२३) की जयंती भी है ।

श्री शिवनाथ झा जी वविशेषतः अभिनंदन के पात्र हैं कि उन्होंने कई वर्षों के अथक प्रयास द्वारा ७० से अधिक गुमनाम शहीदों एवं क्रांतिकारियों के वंशजों को खोज कर उन्हें हर संभव सहयोग कर रहे हैं ।

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