‘सीता की नगरी मिथिला’ में माता-पिता अब अपनी बेटियों का नाम ‘सीता’ नहीं रखते 😢 कभी सोचे हैं? आप नेता बनें, ‘आलू-बालू’ जपते रहें

मिथिला: सीता-राम विवाह

पटना / नई दिल्ली : इंटरनेट पर जब लिखा देखा कि विष्णुपुराण के मिथिला-माहात्म्य में मिथिला एवं तीर भुक्ति दोनों नाम कहे गये हैं, मन खुश हो गया। शायद मिथिला क्षेत्र से आने वाले किसी भी राजनीतिक पार्टी के नेतागण, चाहे जिला परिषद् में बैठते हों या प्रदेश के विधानसभा और विधान परिषद् में या फिर भारत के ऊपरी और निचली संसद में कुर्सियां तोड़ते हों ‘नहीं जानते होंगे, नहीं पढ़े होंगे।’ वजह भी है। मिथिला क्षेत्र में शैक्षिक दर 55 फीसदी से अधिक नहीं होने दिए ‘महात्मनों’ ने। क्योंकि अगर मतदाता पढ़ेगा तो सोचने की शक्ति बढ़ेगी, वाद-विवाद करने में सामर्थ्यवान होगा और मतदान करने से पहले नेता को परखेगा – जो महात्मन नहीं चाहते रहे हैं, नहीं चाहेंगे।

‘मिथि’ के नाम से मिथिला तथा अनेक नदियों के ”तीर’ पर स्थित होने से तीरों से पोषित होने से तीरभुक्ति नाम माने गये हैं।इस ग्रंथ में गंगा से लेकर हिमालय के बीच स्थित मिथिला में मुख्य 15 नदियों की स्थिति मानी गयी है तथा उनके नाम भी गिनाये गये हैं। यह तीरभुक्ति मिथिला सीता का निमिकानन कहा गया है। आज स्थिति ऐसी है कि मिथिला के माता-पिता अपनी बेटियों का नाम “सीता” नहीं रख रहे हैं। उस पुराण में मिथिला को ‘ज्ञान का क्षेत्र’ है और ‘कृपा का पीठ’ कहा गया है। आज मिथिला में पुरुष-महिला का शैक्षिक दर 55 फीसदी है। आज मिथिला मैथिली भाषा भाषी भी अपनी भाषा में बात नहीं करते। खैर। जानकी कि यह जन्मभूमि मिथिला निष्पापा और निरपेक्षा है।

सैद्धांतिक रूप से जैसे साकेत नगरी संसार के कारण स्वरूप है वैसे ही यह मिथिला समस्त आनंद का कारण स्वरूप है। इसलिए महर्षिगण समस्त परिग्रहों को छोड़कर राम की आराधना के लिए प्रयत्न पूर्वक यहीं निवास करते हैं। श्रीसावित्री तथा श्रीगौरी जैसी देव-शक्तियों ने यही जन्म ग्रहण किया। स्वयं सर्वेश्वरेश्वरी श्रीसीता जी की जन्मभूमि यह मिथिला यत्नपूर्वक वास करने से समस्त सिद्धियों को देने वाली है। मिथिला की सीमा (चौहद्दी) का स्पष्ट उल्लेख करते हुए कहा गया है कि

कौशिकीन्तु समारभ्य गण्डकीमधिगम्यवै।
योजनानि चतुर्विंश व्यायामः परिकीर्त्तितः॥
गङ्गा प्रवाहमारभ्य यावद्धैमवतम्वनम् ।
विस्तारः षोडशप्रोक्तो देशस्य कुलनन्दन॥

अर्थात् पूर्व में कोसी से आरंभ होकर पश्चिम में गंडकी तक 24 योजन तथा दक्षिण में गंगा नदी से आरंभ होकर उत्तर में हिमालय वन (तराई प्रदेश) तक 16 योजन मिथिला का विस्तार है। महाकवि चन्दा झा ने उपर्युक्त श्लोक का ही मैथिली रूपांतरण करते हुए मिथिला की सीमा बताते हुए लिखा है कि

गंगा बहथि जनिक दक्षिण दिशि पूब कौशिकी धारा।
पश्चिम बहथि गंडकी उत्तर हिमवत वन विस्तारा॥

इस प्रकार उल्लिखित सीमा के अंतर्गत वर्तमान में नेपाल के तराई प्रदेश के साथ बिहार राज्य के पश्चिम और पूर्वी चम्पारण, शिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, वैशाली, समस्तीपुर, बेगूसराय, दरभंगा, मधुबनी, सुपौल, मधेपुरा, सहरसा, खगड़िया जिले का प्रायः पूरा भूभाग तथा भागलपुर और पूर्णिया जिले का आंशिक भूभाग आता है।

लेकिन राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं को इन तथ्यों से क्या लेना-देना? कल तक राष्ट्रीय जनता दल के सभी नेतागण, यहाँ तक कि लालू यादव से लेकर नीचे के सभी तो पोथी-पतरा फाड़ो, जेनऊ उतारो का नारा लगा रहे थे। कोई चौदह वर्ष सत्ता के सिंहासन पर बैठने के बाद भी मिथिला क्षेत्र के लिए कुछ नहीं करने वाले के मन में अकस्मात् मन में यह ख्याल क्यों आया कि मिथिला राज्य बनना चाहिए?

बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी भले सात वर्ष 190 दिनों तक मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान रहीं, अब तक के 23 मुख्यमंत्रियों में राबड़ी देवी का कालखंड तीसरे स्थान पर रहा, लेकिन यह भी उतना ही कटु सत्य है कि आज की राजनीतिक माहौल में श्रीमती राबड़ी देवी का राजनीतिक वजूद महज राष्ट्रीय जनता दल के एक विधायक के अलावे कुछ नहीं है ? बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री होने के बाद भी विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता उनके कनिष्ठ पुत्र तेजस्वी यादव है। दो सौ तैंतालीस सदस्यों वाली विधान सभा में आरजेडी को मात्र 73 स्थान है। वैसी स्थिति में उनका यह कहना कि “अलग मिथिला राज्य बनना चाहिए” – कितना मोल रखता है। शायद शून्य।

सात वर्ष 130 दिन प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले, बाद में हज़ारों करोड़ रुपये वाला ऐतिहासिक चारा घोटाला काण्ड के मुख्य अभियुक्त बनने वाले लालू प्रसाद यादव, जब प्रदेश में सत्ता का बागडोर हाथ में लिए तो सबसे पहले ‘पोथी जलाओ, पत्तरा फाड़ो, जेनऊ फेको नारा के साथ अपना कार्य कलाप प्रारम्भ किये। यह सभी तत्कालीन दस्तावेजों में दर्ज है और जो उन दिनों पत्रकार थे, लिखने में विश्वास रखते थे, वे सभी जानते हैं, लिखे भी थे । यह नब्बे काल खंड था और सत्तारूढ़ पार्टी के बाहर जितनी भी राजनीतिक पार्टियां थी, स्वयं को मजबूत बनने के लिए दंड पेल रहे थे।

जैसे ही लालू यादव चारा घोटाला काण्ड के अभियुक्त हुए, अपने हाथों से जाती सत्ता को दांत से पकड़ने के लिए अपनी पत्नी को आगे कर दिए। बिहार के मतदाताओं के साथ-साथ मिथिला के लोग भी चश्मदीद गवाह थे। यह नब्बे के दशक में लालू प्रसाद यादव ‘महिला सशक्तिकरण’ के नाम पर अपनी पत्नी को सशक्त किये – मुख्यमंत्री कार्यालय में श्रीमती राबड़ी देवी अवतरित हो गयी। अपने कालखंड में उन्होंने भी वही कार्य किया जो उनके पति अधूरे छोड़े थे।गंगा के उस पार, यानि मिथिला क्षेत्र को अपना राजनीतिक अखाड़ा तो सभी बनाये, लेकिन मिथिला क्षेत्र को वहां के मतदाताओं में मन की भिन्नता और लोभी स्वभाव के कारण वह सम्मान नहीं मिला सका, जिसका वह हकदार था। स्वाभाविक भी था।

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कल जब राबड़ी देवी मैथिली भाषा में संविधान पर टिपण्णी कर रही थी तो यह भी कह दी कि ‘मिथिला क्षेत्र को राज्य का दर्जा दिया जाना चाहिए।’ यह सवाल उनसे कोई नहीं पूछा कि जब लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री मंत्री थे या फिर वे स्वयं मुख्यमंत्री थी, तो इस दिशा में कौन सा पहल की? कुछ नहीं। यह महज एक राजनीति है अख़बार की सुर्ख़ियों में बने रहने का। दो दशक पूर्व जब झारखण्ड राज्य बना, लालू यादव बार-बार, लगातार कहते रहे कि “बिहार का बँटबारा या झारखण्ड राज्य का निर्माण उनके लाशों पर होगा।” वह भी राजनीति ही था क्योंकि विधान सभा में यह भी कहते उन्हें देर नहीं लगा कि “झारखण्ड राज्य बनाना जरुरी हैं।”

वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति में ऐसा लगता है कि राबड़ी देवी डर गई हैं कि मिथिला क्षेत्र में आज उनकी पार्टी की जो भी उपस्थिति है, कल कहीं भारतीय जनता पार्टी या जनता दल (युनाइटेड) द्वारा कब्ज़ा न हो जाय और विधान सभा में उनकी वही स्थिति न हो जाए जो कल कांग्रेस पार्टी की थी। विगत दिनों मिथिला (दरभंगा में) अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) का भूमि पूजन (भले आने वाले विधान सभा चुनाव के मद्दे नजर यह लॉलीपॉप ही क्यों न हो), मैथिली और संस्कृत भाषाओँ में “भारत का संविधान” या फिर मैथिली भाषा को “विशिष्ठ भाषा” के रूप में स्वीकार्यता के बारे में सरकारी पहल आदि को देखकर कोई भी राजनीतिक पार्टियां अपने को सुरक्षित रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं। और इस दृष्टि से राबड़ी देवी भी वही कार्य की।

सात वर्ष 190 दिन, यानी अपने पति लालू प्रसाद यादव से 60 दिन अधिक, तक मुख्यमंत्री कार्यालय में होने के बावजूद कभी राबड़ी देवी के मुख से यह शब्द नहीं निकला था। आज चुकि कुछ कर नहीं सकती, मिथिला क्षेत्र में उनकी राजनीति भी हाथ से फिसलती दिख रही है, अतः मिथिला के लोगों को लुभाने, अपना मतदाता बनाये रखने के लिए एक सगूफा छोड़ दीं। कहा भी जाता है कि ‘लोभी गाँव में ठग भूखा नहीं मरता।’ इसका ज्वलंत दृष्टान्त हैं लालू यादव का सम्पूर्ण परिवार का राजनीति में विधायक और सांसद होना क्योंकि उनसे अधिक सक्षम लोग तो पूरे प्रदेश में कोई है ही नहीं। खैर।

संवाददाताओं के प्रश्न का उत्तर देती राबड़ी देवी कहती हैं: “हां, मैंने कहा था कि मिथिला को एक अलग राज्य बनाया जाना चाहिए। वे (ट्रेजरी बेंच के सदस्य) संविधान के अनुवाद के लिए केंद्र और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा करने में व्यस्त थे, जो ठीक है। लेकिन हमें कुछ और ठोस चाहिए।” लालू यादव-राबड़ी देवी की सरकार कुल 14 वर्ष 320 दिन बिहार में रही। पति-पत्निद्वय मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान रहे। लेकिन उस कालखंड में कभी “ठोस” कार्य मानस पटल पर नहीं आया। आज कभी मुख्यमंत्री कार्यालय की ओर राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं को नहीं आने आने वाला रुख देखकर उन्हें “ठोस” कार्य का ख्याल आना लाजिमी है।

विदित हो कि राज्य सरकार ने हाल ही में केंद्र को पत्र लिखकर उत्तर बिहार के मिथिला और पड़ोसी नेपाल के कुछ हिस्सों में बोली जाने वाली मैथिली को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने का अनुरोध किया था। मिथिला राज्य के निर्माण की मांग इस क्षेत्र के सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं द्वारा समय-समय पर उठाई जाती रही है। लेकिन ‘फिसलती राजनीति’ में राबड़ी देवी द्वारा मिथिला राज्य का निर्माण हो, कहना ‘भय’ का एक दृष्टांत है। उल्लेखनीय है कि राबड़ी देवी का बयान बिहार के विभाजन पर उनके पति लालू प्रसाद द्वारा लिए गए रुख के विपरीत है, जिन्होंने राज्य से झारखंड के निर्माण की मांग पर कहा था कि वे अपने प्राणों की आहूति देंगे पर ऐसा नहीं होने देंगे, लेकिन बाद में वह सहयोगी दल कांग्रेस के दबाव में मान गए थे। उस समय कांग्रेस राबड़ी देवी की अल्पमत सरकार का समर्थन कर रही थी।

​नीतीश कुमार

उधर प्रदेश के मुख्यमंत्री और राबड़ी देवी के ‘मुंहबोले देवर’, नीतीश कुमार के तरफ से लालू परिवार पर शब्दों से हमला भी किया जा रहा है। लोगबाग यह कहते नहीं थकते (जो सच भी है) कि लालू परिवार ने मिथिला का हमेशा अपमान किया। लालू प्रसाद के कार्यकाल में ही मैथिली भाषा को अपमानित करते हुए इसे बिहार लोक सेवा आयोग से बाहर कर दिया गया था। पोथी-पतरा फाड़ो का नारा भी लालू प्रसाद ने ही दिया था। दो दशक पूर्व 2005 में नीतीश कुमार जब बिहार की कमान संभाली, तब उन्होंने आयोग में दोबारा शामिल करके मैथिली को न सिर्फ उसका हक दिलाया, बल्कि उचित सम्मान भी दिया। इतना ही नहीं, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल मंत्री रहते हुए नीतीश कुमार ने कोसी नदी पर महासेतु बनवाकर 1934 के भूकंप में दो हिस्सों में बंट चुके मिथिला का एकीकरण किया।

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अंतराष्ट्रीय मैथिली परिषद् और नेशनल मेडिकल ऑर्गेनाइजेशन के संस्थापक डॉ. धनाकर ठाकुर कहते हैं: “मैं मिथिला राज्य के पक्ष में आने के लिए राजद नेताओं का स्वागत करता ​हूँ, हालांकि अतीत में उन्होंने 29.2.1992 को बीपीएससी से मैथिली को हटाकर मिथिला को बहुत नुकसान पहुंचाया है। राजद के लिए, यह एक वोट बैंक हो सकता है – लालू यादव मिथिला के दिल मधेपुरा से चुनाव लड़ते थे।​” डॉ. ठाकुर आगे कहते हैं कि “मैं 1993 से लगातार काम कर रहा ​हूँ। अंतर्राष्ट्रीय मैथिली परिषद, 1995 में मिथिला राज्य संघर्ष समिति और मिथिला से संबंधित कई अन्य संगठनों की स्थापना की। मुझे याद है कि लालू प्रसाद ने गांधी की तर्ज पर कहा था कि देश का बंटवारा उनकी लाश पर होगा। लालू कहते थे कि बिहार का बंटवारा उनकी लाश पर होगा, लेकिन वे झारखंड के पक्ष में आए।​”

इतना ही नहीं लालू प्रसाद ने ​मैथिली की संस्कृति जैसे हमारे ग्रंथ जनेऊ आदि का कड़ा विरोध किया और अब उन्हें यह एहसास हो रहा है कि बिहार के 120 से अधिक विधानसभा क्षेत्र मिथिला में हैं ​ स्वाभाविक है यह एक तरह से राजनीतिक मजबूरी ​बन रही है सभी दलों की। “मैंने मिथिला में 290 से अधिक मिथिला जागरण यात्राएं करके अपने 1447 दिन और रात मिथिला के कोने-कोने में बिताकर प्रचार किया है कि आज मिथिला के कट्टर विरोधियों को भी मिथिला की राजनीतिक ताकत का एहसास हो रहा है। वे यह नहीं समझ रहे हैं कि उपरोक्त 20 से अधिक लोकसभा क्षेत्रों के अलावा मिथिला के वोट अन्य लोकसभा क्षेत्रों (राज्य के सभी राजधानियों की तरह) में भारी पलायन के कारण जीत या हार का कारण बन सकते हैं, जिसका मुख्य कारण लगातार आने वाली बाढ़ की तबाही है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय मैथिली परिषद ने 2008 से कई बार भारत के राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपा ​है।”

​डॉ. ठाकुर कहते हैं कि “मैंने 25 मार्च 2008 को मिथिला राज्य के लिए प्रतिनिधित्व किया ​था। बीच की अवधि में बिहार का मिथिला क्षेत्र कोशी बाढ़ से तबाह हो गया था और इसलिए हमने इसके लिए जनता पर दबाव नहीं डाला, बल्कि हमने मानवता की सेवा की। कोशी क्षेत्र में भारी नुकसान के कारण मिथिला से संबंधित सभी डेटा खराब हो गए हैं और हालांकि इसे राष्ट्रीय आपदा कहा गया था, लेकिन भारत सरकार और बिहार सरकार ने इस मोर्चे पर भी संतोषजनक काम नहीं किया है।​”

वैसे वैदिक काल से भारत में एक प्रतिष्ठित सांस्कृतिक क्षेत्र मिथिला अपनी उपजाऊ भूमि और दार्शनिकों और रचनात्मक प्रतिभा की समृद्ध विरासत के लिए जाना जाता है। कई वैदिक शास्त्रों का श्रेय मिथिला में रहने वाले ऋषियों और विद्वान पंडितों को दिया जाता है। मिथिला एक अलग राज्य या जनपद था और 1329 में गियासुद्दीन तुगलक ने इसे बिहार (जो गंगा के दक्षिण का क्षेत्र था) में मिला दिया। हालाँकि आधुनिक काल में, मिथिला क्षेत्र की पहचान महान भाषाविद् और समर्पित शोधकर्ता सर जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा 1902 में भारत के भाषाई सर्वेक्षण के परिणामस्वरूप स्थापित की गई थी। ​सितम्बर 26​, 2002 को दिए गए सिविल रिट अधिकार क्षेत्र मामले संख्या 7505 के 1998 के फैसले में पटना के माननीय उच्च न्यायालय द्वारा पुष्ट किया गया। इस दस्तावेज़ में कहा गया था, “मैथिली बिहार और झारखंड में बोली जाने वाली एक अलग भाषा है।”

डॉ. ठाकुर कहते है कि “मिथिला क्षेत्र को गंगा नदी द्वारा उत्तर और दक्षिण मिथिला में विभाजित किया गया है। इस प्रकार, मैथिली भाषी जिले नदी के दक्षिण और उत्तर दोनों तरफ पड़ते हैं। बिहार में वर्तमान में चौबीस मैथिली भाषी जिले हैं। वे हैं: अररिया, बांका, बेगुसराय, भागलपुर, दरभंगा, पूर्वी चंपारण, जमुई, कठिहार, खगड़िया, किशनगंज, लखीसराय, मधेपुरा, मधुबनी, मोंगहियर, मुजफ्फरपुर, पूर्णिया, सहारासा, समस्तीपुर, शेखपुरा, शिवहर, सीतामढी, सुपौल, वैशाली, पश्चिमी चंपारण। वर्तमान में झारखंड में प्रस्तावित मिथिला राज्य के छह मैथिली भाषी जिले हैं। वे हैं: देवघर, दुमका, गोड्डा, जामताड़ा, पकौर और ​साहेबगंज। झारखंड में शामिल मिथिला जिले शेष झारखंड से कोई सांस्कृतिक समानता नहीं रखते हैं। हालाँकि, बिहार के जिले मिथिला जिलों से अधिक प्रभावित हैं। प्रस्तावित मिथिला राज्य के तीस जिलों के लोग मैथिली बोलते हैं, जो मौखिक और लिखित दोनों परंपराओं में समृद्ध भाषा है। 1950 के दशक में प्रथम राज्य पुनर्गठन समिति के समय, मैथिली को भारत सरकार की मान्यता प्राप्त भाषाओं की अनुसूची में नहीं रखा गया था। तब से, इसे अनुसूची में पुनः शामिल करने के लिए जोरदार प्रयास किया गया है। 2003 में यह प्रयास सफल रहा और मैथिली को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में मान्यता दी गई और एक बार फिर इसे एक प्रमुख भारतीय भाषा के रूप में उचित दर्जा दिया गया।​”

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डॉ. धनाकर ठाकुर

डॉ. ठाकुर का कहना है कि “इस तथ्य के बावजूद कि 2001 की भारतीय जनगणना में मिथिला की आबादी का केवल एक हिस्सा ही गिना गया था, 12,179,122 मैथिली भाषी लोगों की पहचान की गई, जिससे मैथिली भारत में तेरहवीं सबसे लोकप्रिय बोली जाने वाली भाषा बन गई । भारतीय संघ के 28 राज्यों में से 25 की स्थापना भाषा के आधार पर की गई थी। तीन नए राज्यों की स्थापना आर्थिक पिछड़ेपन और संस्कृति के आधार पर की गई थी। भाषा, संस्कृति और आर्थिक आवश्यकता तीनों मानदंडों के आधार पर मिथिला राज्य के लिए एक मजबूत तर्क दिया जा सकता है। एक मिथिला राज्य एक क्षेत्र को गहरे भाषाई और सांस्कृतिक संबंधों के साथ एक साथ बांधेगा, और साथ ही उन लोगों में गर्व वापस लाएगा जो वर्तमान सरकारों के तहत कई वर्षों से वंचित हैं। मिथिला के अतीत के प्रतीक जैसे अशोक स्तंभ जिससे हमारा राष्ट्रीय प्रतीक बना है और यह तथ्य कि यह क्षेत्र माता सीता का घर था, एक बार फिर नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा बनेंगे। जनसंख्या और क्षेत्र 2001 की भारतीय जनगणना के अनुसार पहचाने गए मिथिला क्षेत्र की जनसंख्या 5,68,12,422 है, जिसमें से 5,12,20,017 मैथिल बिहार में रहते हैं और 55,92,405 मैथिल वर्तमान में झारखंड में रहते हैं। प्रस्तावित मिथिला क्षेत्र का कुल क्षेत्रफल 66,049 वर्ग किमी है, जिसमें से 54,232 वर्ग किमी बिहार में और 11,817 वर्ग किमी झारखंड में स्थित ​है।

बहरहाल, प्रदेश के राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि मिथिला क्षेत्र का शोषण और दोहन श्रीकृष्ण सिन्हा के कालखंड से ही प्रारम्भ हुआ था। करीब 17 वर्ष 51 दिन मुख्यमंत्री कार्यालय में बैठने वाले श्रीकृष्ण सिन्हा कभी भी मिथिला के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया। विशेषज्ञों का कहना है कि “उस ज़माने से ही राजनेता, खासकर कांग्रेस पार्टी के लोग, दिल्ली को हमेशा यह कहते रहे कि आप चाहे मिथिला क्षेत्र को कुछ दें अथवा नहीं, वे कांग्रेस के पीछे-पीछे ही रहेंगे। यानि चुनाव के समय उनका मत कांग्रेस पार्टी के पक्ष में भी रहेगा। ऐसा हुआ भी। फरक्का बराज का उदहारण देते वे कहते हैं कि इस बराज का निर्माण बिहार में होना था, लेकिन इसे बंगाल भेज दिया गया। प्रथम आम चुनाव से लेकर आज तक मिथिला क्षेत्र में विकास का दर शून्य रहा। आज भले बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ का नारा देश में गन रहा हो राजनीतिक लाभ के लिए, आज हालात यह है कि मिथिला में कोई माता-पिता (अपवाद छोड़कर) अपनी बेटी का नाम “सीता” नहीं रहते। जिस देवी के नाम से मिथिला है, जिसकी पूजा-अर्चना होती है, उसी मिथिला में आज लोग अपनी बेटी का नाम ‘सीता’ नहीं रखते। सीता को बहुत दर्द सहना पड़ा था।

इतना ही नहीं, मिथिला में चाहे देवी-देवता की पूजा-अर्चना हो या गीत नाद, शब्दों की खोज, शब्दों का विन्यास कुछ इस कदर होता है, गीतों का बोल, मुखरा कुछ इस कदर होता है कि उन दिनों में ‘ख़ुशी’ कम और दुःख अधिक प्रतीत होता है। ऐसी बात नहीं है कि मिथिला में ख़ुशी नहीं है, लेकिन हम, हमारा समाज दुःख झेलने में माहिर हो गया है और राजनेता विगत 78 वर्षों में स्वहित के अलावे गाँव-घर, प्रखंड, पंचायत के लोगों के विकास के बारे में कभी सोचते ही नहीं। यहाँ तक कि मुख होने के बाद भी मतदाता बोलना नहीं चाहते। मुख-बधिर बने रहते हैं। कभी मिथिला की जीवनरेखा कही जाने वाली कोसी नदी जब उत्तर बिहार, खासकर मिथिला क्षेत्र की नहीं हुई, तो इन नेताओं से क्या अपेक्षा करनी है। आठ बार तोड़ चुकी है तटबंध जब कोसी रौद्र रूप धारण करती है, सब कुछ तबाह हो जाती है, सब कुछ उसमें समां जाती है। लाखों लोगों को बेघर हो जाते हैं। खेतों में रेत के टीले बन जाते है।

परिणाम यह हुआ कि कल जीवन रेखा कही जाने वाली कोसी का मिथिला क्षेत्र एक शोक / अभिशाप बन गयी हैं। कोसी नदी वैसे तो हर साल तबाही मचाती है। अब तक आठ बार कोसी का तटबंध टूट चुका है। पिछली बार 2008 में नेपाल के कुसहा में बांध टूटा था। 2008 की तबाही भला कौन भूल सकता है। 526 लोगों की जान गई थी। इससे पहले 1991 में भी नेपाल के जोगनिया में,1987 में गण्डौल में, 1984 सहरसा जिले के नवहट्‌टा में, 1981 में बहुआरा में, 1971 में भटनियां में, 1968 में जमालपुर में और 1963 में डलवां में तटबंध टूटा। लेकिन राबड़ी देवी क्या समझेंगी उस पीड़ा को ?

क्रमशः आगे पढ़िए ….कोसी नहीं, बाढ़ नहीं, मिथिला का हाल ‘बेहाल’ तो नेता लोग ही किये

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