‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के लिए ‘मैं ना भूलूंगा – मैं ना भूलूंगी’ लिखने वाले को कल बिलखकर रोते देखा, सब भूल गए उन्हें 

हिचकी लेते, बिलखते, रोते संतोष जी कहते हैं: "मैं जीना चाहता हूं बहुत अच्छी तरह।

विगत दिनों “मैं ना भूलूंगा – मैं ना भूलूंगी”  के लेखक को बिलखकर, हिचकी मार कर रोते देखा । कौन कहता है लोग ‘लोगबाग’ को नहीं भूलते? तेरहवीं ख़त्म होते ही लोगबाग माँ – बाप को भूल जाते हैं, ये गीतकार संतोष आनंद किस खेत की मूली हैं ? रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का पार्थिव शरीर भी तो दक्षिण भारत से न तो  दिल्ली आ पाया जहाँ उन्हें पद्मश्री, साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ पुरस्कारों से अलंकृत किया गया था बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव पहुंच पाया था, जहाँ वे जन्म लिए थे क्योंकि भारत के लोग मुस्कुराकर कहते:  “लाईफ गोज ऑन” !!!!

“आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम” के अनुसार, “काश आज दरभंगा के ‘अन्तिम’ महाराजा सर कामेश्वर सिंह जीवित होते तो शायद गीतकार संतोष आनंद का कलेजा बंजर भूमि जैसा फटा नहीं होता। गंगा और कोशी की धाराओं जैसा आँखों से अश्रुपात नहीं हुआ होता। क्योंकि महाराजा साहेब ‘कला-संस्कृति-गीत-गायन’ का ही नहीं, उसे संभालकर रखने वालों को भी “धरोहर” जैसा ही “सुरक्षित” और “संरक्षित” रखते थे। अब तो न “बांस” है और न “बांसुरी” और जो हैं उन्हें मानवीय धरोहरों को सुरक्षित और संरक्षित रखने की सोच ही नहीं है। हो भी कैसे?”

मैं बहुत भाग्यशाली हूँ कि मैं रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को देखा हूँ, मिला हूँ उनके आर्य कुमार रोड के नुक्कड़ वाले मकान में, जहाँ दस कदम पर पटना नगर निगम का दफ्तर था (आज भी होगा ही) और सम्पूर्ण खुले मैदान में एक पीपल और बरगद के बृक्ष के नीचे सुवरों का विशाल क़ायनात सुवह पौ फटने के साथ शाम सूर्यास्त तक चहल कदमी करता था। सम्पूर्ण वातावरण महकता रहता था। किसे चिंता थी आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि दिनकर की। साहित्य अकादमी, पद्मभूषण, ज्ञानपीठ अलंकरणों से सज्ज रामधारी सिंह दिनकर आधिकारिक रूप से कभी “राष्ट्रकवि” नहीं बने। बने भी तो कैसे “हिन्दी”  भी तो कभी “राष्टभाषा” नहीं बन पायी। कभी आँख मूँदकर जरूर सोचिये। 

अगर कभी फुर्सत हो तो रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के मुखमण्डल को गौर से देखिये, उनके आक्रोश में आपको भारतीय गीतकार श्री संतोष आनंद जी का चेहरा मिलेगा । बसर्ते चेहरों का मिलान करते समय मन के किसी भी कोने में “राजनीति” को स्थान नहीं देंगे। दोनों चेहरों में, भावों में समाज के प्रति आक्रोश दिखेगा। लेकिन भारत के लोगों को क्या? आप पिज्जा खाएं ।

संतोष आनंद ही तो लिखा था “एक प्यार का नगमा है – मौजों की रवानी है।” इतना ही नहीं,  “पुरवा सुहानी आई रे पुरवा” भी तो उन्होंने ही शब्दबद्ध किये थे। लेकिन जिस ज़माने में वे अपने खून से लथपथ कलम से उन शब्दों का विन्यास किये थे, मेरी मुलाकात नहीं हुयी थी उनसे और सोसल मीडिया विश्व के गर्भ में भी नहीं आया था, नहीं तो उन्हें जरूर कहता: “हुज़ूर !! आपके शब्दों को लोगबाग बेचकर पैसे छापने के मशीन बना लेंगे, लेकिन आज़ाद मैदान, मुंबई के चौराहे पर, अथवा दिल्ली के राजपथ पर कभी आमने-सामने हुआ तो वे सभी नजर छुपाकर निकल जायेंगे – लेकिन अख़बारों के पन्नों पर, रेडियो पर, टीवी पर स्वयंभू गीतकार कहते जीवन के अंतिम सांस तक नहीं थकेंगे । 

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यह मेरा तजुर्बा है 18-वर्षों का – देश की आवादी 130 करोड़ है, सभी राष्ट्रभक्त हैं, लेकिन किसी शहीद के घर में दो-जून की रोटी के लिए बंदोबस्त करने के लिए हाथ फैलाएं, उनके हाथ ठिठुरने लगेंगे, जैसे तापमान माईनस 40 डिग्री हो सियाचीन ग्लेसियर जैसा।  सैकड़ों-हज़ारों-लाखों क्रान्तिकारी, जिन्होंने जंगे आज़ादी में अपने-अपने प्राणों को उत्सर्ग कर दिए, आज भारत की गलियों में अंतिम साँसे गईं रहे हैं। एक तो आज की पीढ़ियां जानती नहीं और दूसरे यह भी कहती है की वे तो स्वतंत्र भारत में जन्म लिए, उन्हें क्या करना?

तभी तो बॉलीवुड के नायक-नायिका कोई भगत सिंह बनकर, कोई चंद्रशेखर आज़ाद बनकर, कोई सुखदेव बनकर, कोई कल्पना जोशी बनकर, कोई प्रीतिलता बनकर, कोई सूर्य सेन बनकर, कोई खुदी राम बोस बनकर, कोई जगपति कुमार बनकर, कोई देवीपद चौधरी बनकर फिल्म बनाते हैं, अरबों-खरबों कमाते हैं।  लेकिन ये क्रांतिकारी अथवा शहीद किस जिले के, किस गाँव के थे, किनका संतान थे – कुछ नहीं जानते। इतना ही नहीं, अगर तनिक पूछताछ करने का दुःसाहस करेंगे तो गर्दनिया देकर/दिलवाकर नौकर से, सुरक्षा कर्मियों से दरवाजे के बाहर सड़क पर फेंकवा देंगे। मानवता, मानवीयता, संवेदना नहीं है समाज में। विलुप्त हो गयी है। सुनते हैं कुछ कॉर्पोरेट घराना मानवता, मानवीयता, संवेदना इत्यादि विलुप्त होते अदृश्य अमानतों को इंटरनेट के माध्यम से विभिन्न बाज़ारों में लाने जा रहे हैं जहाँ प्लेटिनम के भाव लोगों को प्राप्त होगा। सभी तो नेहा कक्कड़ है नहीं। विरले पैदा होती है नेहा कक्कड़ जैसी लड़की जो रोना भी जानती है, आंसू बहाना भी जानती है, गलों पर बहते आंसू को जमीन पर गिरने देती है और फिर अवरुद्ध गले से, हिचकी लेते मदद के लिए हाथ भी बढाती है, खुद भी बढ़ती है मंच पर और देश के दर्शक स्थिति और परिस्थिति का अवलोकन करते रहते हैं। 

“घर फूंक दिया हमने, अब राख उठानी है – जिंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है।” संतोष जी कहते हैं: ”मैं जीना चाहता हूं बहुत अच्छी तरह। पैदल जाते थे देवी यात्राओं पर, गर्मी में पीले कपड़े पहनकर। राम जी ने मुझपर कृपा भी बहुत की थी। बहुत कुछ दिया भी था। सबकुछ कैसे कैसे चला गया। राम जी का कपाट किसने बंद कर दिए, मुझे आजतक पता नहीं। अब वो दौर तो नहीं, लेकिन एक बार जरूर कहना चाहता हूं, जो बीत गया है वो अब दौर न आएगा, इस दिल में सिवा तेरे कोई और न आएगा।

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“इंडियन आइडल शो” के एपिसोड में मशहूर गीतकार संतोष आनंद पहुंचे। उन्होंने शो में अपनी दर्द भरी बातें सुनाया। पिछले कई सालों से वह खराब आर्थिक स्थिति से गुजर रहे हैं। वह चल-फिर भी नहीं पाते हैं। जब शो में उन्होंने अपनी हालत के बारे में बताया तो सभी आंखें नम हो गईं। संतोष जी कहते है:”बरसों बाद मैं मुंबई आया हूं। अच्छा लग रहा है। एक उड़ते हुए पंक्षी की तरह मैं यहां आता था और चला जाता था। रात-रात भर जग के मैंने गीत लिखे। मैंने गीत नहीं, अपने खून और कलम से लिखा है यह सबकुछ। इतना अच्छा लगता है वो दिन याद करके। कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे दिन भी रात हो गया है।”

संतोष आनंद का जन्म 5 मार्च 1940 को सिकंदराबाद में हुआ. युवा अवस्था में ही एक दुर्घटना में ये एक टांग से विकलांग हो गए थे। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से लाइब्रेरी साइंस की पढ़ाई की। शुरुआत में संतोष ने दिल्ली में बतौर लाइब्रेरियन काम किया। उन्हें कविताओं का बड़ा शौक था। वह दिल्ली में होने वाले कवि सम्मेलनों में हिस्सा लेते थे। कविताएं लिखते थे।  इन्होने अपने करियर की शुरुआत फिल्म “पूरब और पश्चिम” से वर्ष 1970 में की. इस फिल्म का संगीत कल्याण जी आनंदजी द्वारा निर्माण किया गया था। इस गाने को इतना पसंद किया गया कि उन्हें और ऑफर मिलने लगे। वर्ष 1972 में इन्होने फिल्म शोर के लिए “एक प्यार का नगमा” गीत लिखा था। यह गीत उनका सबसे पसंदीदा गीत था। इस गीत का संगीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल द्वारा बनाया गया था। और इस गीत को स्वर कोकिला लता मंगेशकर और मुकेश ने अपनी आवाज दी थी।  सौभाग्यवश श्री लक्ष्मीकांत जी अपनी पत्नी के साथ भी मंच पर उपस्थित थे। 

वर्ष 1974 में फिल्म रोटी, कपडा और मकान के लिए कई गीत लिखे थे।  इस फिल्म के गीत “मैं ना भूलूंगा” के लिए इन्हें अपने करियर का पहला फिल्म फेयर अवार्ड मिला था। और 1983 में ‘प्रेम रोग’ फिल्म के ‘मोहब्बत है क्या चीज’ गाने के लिए फिल्म फेयर अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। साल 2016 में यश भारती अवॉर्ड से नवाजे गए। बेटे और बहू की मौत के बाद टूट गए थे संतोष आनंद साल 2014 में संतोष के बेटे संकल्प और बहू ने खुदकुशी कर ली थी। संकल्प, गृह मंत्रालय में आईएएस अधिकारियों को सोशियोलॉजी और क्रिमिनोलॉजी पढ़ाते थे, लेकिन एक वक्त ऐसा आया है कि वह मानसिक रूप से परेशान रहने लगे। संकल्प और उनकी पत्नी ने कोसीकलां कस्बे के पास रेलवे ट्रैक पहुंचकर ट्रेन के सामने कूदकर अपनी जान दे दी थी। संतोष के लिए इस सदमे से निकल पाना बहुत मुश्किल रहा।

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वर्ष 1981 में इन्होने क्रांति फिल्म के गीत लिखे थे। यह फिल्म उस वर्ष की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म थी। इसी साल इन्होने फिल्म प्यासा सावन के लिए गीत “तेरा साथ हैं तो” और “मेघा रे मेघा” लिखा था।  जिसके बाद इन्हें प्रेम रोग फिल्म के गीत के लिए फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया। संतोष आनंद ने कुल 26 फिल्मों – पूरब और पश्चिम के गीत (1971), शोर (1972), रोटी कपडा और मकान (1974), पत्थर से टक्कर (1980), क्रांति (1981), प्यासा सावन (1981), गोपीचंद सावन (1982), प्रेम रोग (1982), ज़ख़्मी शेर (1984), मेरा जवाब (1985), पत्थर दिल (1985), लव 86 (1986), मजलूम (1986), बड़े घर की बेटी(1989), नाग नागिन (1989), संतोष (1989), सूर्या (1989), दो मतवाले (1991), नाग मणि (1991), रणभूमि (1991), जूनून (1992), संगीत (1992), तहलका (1992), तिरुंगा (1993) संगम हो के रहेगा (1994), प्रेम अगन (1998) – में 109 गाने लिखे हैं. इनके गीतों को लता मंगेशकर, महेंद्र कपूर, मोहम्मद अजीज, कुमार शानू और कविता कृष्णमूर्ति जैसे प्लेबैक सिंगर्स ने आवाज दी हैं. शोमैन राजकपूर और अभिनेता मनोज कुमार की अनेक फिल्मों में इन्होने गाने लिखे। 

बहरहाल, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के गुमनाम क्रांतिकारियों के जीवित, परन्तु समाज से उपेक्षित, वंशजों की खोज और किताबों से उन्हें समाज की मुख्यधारा में जोड़ने वाला प्रयास “आंदोलन: एक पुस्तक से” अब भारतीय संस्कृति, भाषा, संगीत, वाद्य संगीत के क्षेत्रों में गुमनाम हस्ताक्षरों को भी अपने प्रयास के अधीन ले आया है। अब प्रयासों के तहत किताबों से न केवल शहीदों के वंशजों को, बल्कि कला-संस्कृति और संगीत के क्षेत्रों में गुमनाम मूर्धन्यों को भी नया जीवन देने का संकल्प लिया गया है ताकि वे अपने जीवन के अंतिम वसंतों में आँसू नहीं, हंसी बटोर सकें। 

संतोष आनंद अपनी पत्नी व बेटी शैलजा के साथ सुखदेव विहार डीडीए फ्लैटस पॉकेट ए फ्लैट नंबर 48 में रहते हैं। पड़ोसियों ने बताया कि शादीशुदा शैलजा पिछले काफी समय से यहीं रहती हैं। जिस किसी पड़ोसी ने संकल्प के अपनी पत्नी के साथ आत्महत्या की बात सुनी वह भौचक्का रह गया। पड़ोसियों की मानें तो संकल्प खुशमिजाज था। बुधवार सुबह संतोष आनंद को फोन आया कि उनके बेटे एवं बहू के साथ हादसा हो गया है। पड़ोसियों से संतोष आनंद व उनके बेटे के बारे में पूछा गया तो किसी के पास जानकारी नहीं मिली। पड़ोसियों ने कहा कि वह अकेले ही रहते थे, उनका बेटा यहां नहीं रहता था। पड़ोसियों को यह भी नहीं मालूम की संतोष आनंद कितने बड़े गीतकार हैं। उन्हें बस इतना पता था कि वह पहले फिल्मों के लिए काम करते थे।

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