सुलभ द्वारा “विधवा” ​विनीता का विवाह ​राजा राममोहन रॉय और ईश्वरचन्द विद्यासागर के विचारों का पुनःस्थापना है।

विनीता और राकेश परिणय सूत्र में
विनीता और राकेश परिणय सूत्र में

गुप्तकाशी (उत्तराखण्ड) आपदा की पीड़िता विनीता महज एक विधवा नहीं थी बल्कि राजा राममोहन रॉय और ईश्वरचन्द विद्यासागर ​का एक “विषय” भी थी, जिसका बीजारोपण राममोहन रॉय और विद्यासागर कोई दो से अधिक शताब्दी पूर्व समाज, विशेषकर महिलाओं के उत्थान के लिए किया था – महिलाओं का सर्वांगीण विकास और विधवा विवाह की शुरुआत। आज राजाराम मोहन रॉय का २४६ वां जन्मदिन है। ​

​दुष्यन्त कुमार ने कहा था : “कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता – एक पथ्थर तो तबियत से उछालो यारो।” चौदह शब्द और जीवन की पूरी दास्तान। लेकिन उनके लिए जिन्हे अपनी परिश्रम, सोच और विस्वास पर नाज़ है और जो समाज में आमूल परिवर्तन लाना चाहते हैं।

शायद आज की पीढ़ी महान दार्शनिक और समाजसेवी राजा राममोहन रॉय और ​ईश्वरचन्द विद्यासागर को नहीं जानता हो या उनके नामों से परिचित नहीं हो, लेकिन इतिहास साक्षी है कि आज से कोई १६२ साल पूर्व, इधर जब मेरठ में मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिगुल बजाया था; उधर भारतीय सामाजिक व्यवस्था में एक महान परिवर्तन के लिए ईश्वरचन्द विद्यासागर भारत में एक उच्च जाति की विधवा महिला की दोबारा विवाह कराया था। वर्ष था १८५६ और तारीख ७ दिसंबर।

​इससे पहले भारतीय समाज में उच्च जातियों में विधवा को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी।

​पश्चिम मिदनीपुर के बिरसिंघा गांव में 26 सितंबर 1820 जन्म लिए ईश्वरचंद विद्यासागर के प्रयासों से 26 जुलाई 1856 को विधवा विवाह को कोलकाता (तब कलकत्ता) के तत्कालीन गवर्नर जनरल ने मंजूरी दी थी। उनकी उपस्थिति में 7 दिसम्बर 1856 को उनके मित्र राजकृष्ण बनर्जी के घर में पहला विधवा विवाह सम्पन्न हुआ ​था ।

कहा जाता है कि १८५३ में हुए एक सर्वे के ​अनुमान कलकत्ता में लगभग १२ हज़ार से भी अधिक ​वेश्याएं रहती थीं। ईश्वरचन्द विद्यासागर उनकी इस हालत को परिमार्जित करने के लिए हमेशा प्रयासरत रहते थे। अक्षय कुमार दत्ता के सहयोग से ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह को हिन्दू समाज में स्थान दिलवाने का कार्य प्रारंभ किया। उनके प्रयासों द्वारा १८५६ में अंग्रेजीसरकार ने विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित कर इस अमानवीय मनुष्य प्रवृत्तिपर लगाम लगाने की कोशिश की।

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विद्यासागर नारी शिक्षा के समर्थक थे और उनके प्रयास से ही कलकत्ता में लड़कियों के लिए कई जगह स्कूलों की स्थापना ​हुयी थी ​। उन्हें सुधारक के रूप में राजा राममोहन राय का उत्तराधिकारी माना जाता ​है। इतिहास साक्षी है कि 1856-60 के बीच इन्होंने 25 विधवाओं का पुनर्विवाह ​कराये थे।

उस समय हिन्दू समाज में विधवाओं की स्थिति बहुत ही शोचनीय थी। विधवा-पुनर्विवाह कानून पारित तो हुआ था ​लेकिन समाज में इसे लागू कराना आसान नहीं ​था। तब विद्यासागर ने अपने इकलौते पुत्र का विवाह एक विधवा से करवाया ​था।

इतने वर्षों में इतनी सामाजिक क्रांति के बाद आज भी समाज में विधवाओं को वो दर्जा नहीं मिलता, जिनकी वे हकदार ​हैं। आम औरतों के तरह वे समाज में चैन से नहीं रह ​पातीं। ​बहरहाल, राजाराम मोहन रॉय और ​ईश्वरचन्द विद्यासागर को प्रवर्तक मानने वाले आधुनिक भारत में विधवाओं के मशीहा और सुलभ संस्था के संस्थापक डॉ बिन्देश्वर पाठक भी इस क्रांति के प्रवल समर्थक हैं और अगर ऐसा नहीं होता हो केदारनाथ की आपदा में पति को खो चुकी 24 वर्षीय विनीता की जिन्दगी में नया उजाला ​नहीं आया होता। ​पिछले वर्ष विनीता एक नए जीवनसाथी के साथ एक बार फिर सात फेरे लेकर १६१ साल बाद भी ईश्वरचन्द विद्यासागर के प्रयास को पुनः जीवित की ।

2013 में केदारनाथ त्रासदी में उत्तराखंड के भनीग्राम पंचायत में गुप्तकाशी के पास देवली नामक गांव के रहने वाले 32 नौजवान भी बाढ़ में बह गए थे। ये सभी आजीविका कमाने निकले थे। इनमें विनीता का पति महेशचंद्र भी था। विनीता की छह महीने पहले ही शादी हुई थी। रुद्रप्रयाग जिले के गांव तिलवाड़ा निवासी टैक्सी ड्राइवर राकेश की विनीता से मुलाकात हुई। इसके बाद दोनों ने शादी करने का फैसला किया। राकेश ने बताया कि 26 अगस्त 2014 को उन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली। अब दोनों के दो बच्चे भी हैं।

डॉ पाठक कहते हैं : इस युवक द्वारा लिया गया यह कदम आज के लोगों के लिए एक सन्देश भी है और प्रेरणा भी। आम तौर पर हमारे समाज में विधवाओं को एक तरह से अलग-थलग कर दिया जाता है। यहां तक कि उन्हें किसी शुभ समारोह में भी शामिल नहीं किया जाता।

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​उनका जीवन दूभर हो जाता है। कभी-कभी तो उनके बच्चे बनारस-मथुरा-वृन्दावन की तंग गलियों में मरने के लिए भी छोड़ आते हैं। और अगर ऐसा नहीं होता तो आज बनारस-मथुरा-वृन्दावन में ऐसी विधवाएं नहीं होतीं। हम और हमारा संस्थान ऐसे हज़ारों विधवाओं का परवरिश कर रहे हैं।”

डॉ पाठक फिर कहते हैं : “विनीता का विवाह होना ईश्वरचन्द विद्यासागर और राजा राममोहन रॉय के प्रयासों को जीवित रखना है ताकि समय के साथ-साथ समाज की सोच में बदलाव आये। सम्पूर्ण वैदिक और सामाजिक रीती-रिवाजों के साथ विनीता का विवाह करवाना एक देशव्यापी अभियान है और ​हमें उम्मीद है यह अभियान समाज में एक क्रांति अवश्य लाएगा, ​इसे पूरे देश में जारी रखा जाएगा।​”​

सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के दिशा में अपनी तरह से सुलभ ऐसे सकारात्मक कदम उठा रहा है। सदियों से अंधेरी जिंदगी गुजार रहीं विधवाओं की जिंदगी रोशन करने की कोशिश संस्था पिछले तीन साल से लगातार कर रही है।

​उस विवाह के ​मौके पर सुलभ संस्था द्वारा विधवाओं को गिफ्ट के तौर पर साड़ियां भी दी गईं। विधवाओं ने मंदिर में रंगों से रंगोली सजाई, साथ ही दीये भी जलाए। उत्सव में शामिल हुईं सभी वृद्ध विधवाओं के चेहरे से खुशी झलक रही थी।

विनीता और राकेश को आशीष देते लोग
विनीता और राकेश को आशीष देते लोग

​विनीता की न केवल धूम-धाम से शादी कराई गई ​थी ​बल्कि उसमें 500 से भी अधिक विधवाओं ने भाग लिया और दांपत्य जीवन की सफलता के लिए दंपती को आशीर्वाद भी दिया। खास बात यह थी कि विवाह में सारी रस्में विधवा महिलांओं ने ही संपन्न कराई। इस आयोजन में मेहंदी, हल्दी तेल की रस्म के साथ गीतों का आयोजन भी विधवाओं द्वारा हुआ । मंदिर प्रांगण में सजे मंडप में विनीता ने अपने जीवन साथी के साथ सात फेरे लेकर अपना नए वैवाहिक जीवन की शुरुआत की।

मेंहन्दी लगवाती विनीता
मेंहन्दी लगवाती विनीता

​​​विधवाविवाह अधिनियम १८५६ ब्रिटिश भारत में ब्राह्मण, राजपूतों, बनिया और कायस्थ जैसे कुछ अन्यजातियों के बीच मुख्य रूप से विधवापन अभ्यास पर रोक लगाने हेतु पारित किया गया था| यह कानून बच्चे और विधवाओं के लिए एक राहत के रूप में तैयार किया गया था जिसके पति की समय से पहले मृत्यु हो गई हो|

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विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 हिंदू जाति में जो पूर्व की विवाह परंपरा थी उसमें विवाह अधिनियम १८५६ के अधिनियम के द्वारा सभी अड़चने द्वेष आदि को इस अधिनियम के तहत समाप्त कर दिया गया और इसमें नवीन पद्धतियों को जन्म दिया गया उस समय भारत ब्रिटिश अधीन था इसलिए भारत को ब्रिटिश भारत कहा जाता था यह सुधार हिंदू विवाह के विधवाओं केलिए सबसे बड़ा सुधार था पुरातन समय में किसीऔरत के पति की मृत्यु हो जाने पर उसे उसकी चिता के साथ जलना होता था या सरमुंडवाना होता था आदि ऐसी जटिल प्रक्रियाएं थी लेकिन इस अधिनियम के तहत कुछ प्रमुख सुधार लाए गएमसलन यदि किसी स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती हैतो वह पुनर्विवाह कर सकती हैं।

इस विवाह में उसके सगे संबंधी अर्थात माता पिता भाई दादा नाना नानी आदि संबंधियों के द्वाराबात करके दूसरे विवाह को मंजूरी दी जा सकती है यथा पुनर्विवाह करने वाली महिला अल्पवयस्क ​है। ​

जिस घर कि वह पहले बहु थी अर्थात उसके मृत्यु वाले पति का घर उस पर उसका कोई संपत्ति के तौर पर अधिकार नहीं होगा जहां वह पुनर्विवाह के बाद जाएगी वहां उसका अधिकार माना जाएगा

निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिंदू जाति कि जो पुरातन समय के अनुसार जोविवाह की परंपरा थी वह कई रूप से आज की अपेक्षा बिखरी हुई थी जिससे कि उस मेंकई बंधित नियम थे जिसमें एक पति की मृत्यु होने के पश्चात उसकी पत्नी को उसकी चिता पर जिंदा जलना या बाल मुंडवा देना या दूसरी शादी ना करना आदि कई
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सारी परंपराएं सम्मिलित थी जिसके अनुसार १८५६ में ब्रिटिश इंडिया हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बनाया गया जिसमें कई सुधार लाए ​गए।

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