‘माछ-भात’, ‘तिलकोर’, ‘चर्चरी’ पर चर्चा तो सुने, मंच पर अपनी ‘पत्नी’ को ‘अनुपस्थिति’ देख महाराजाधिराज ‘अन्तःमन से दुःखी’ अवश्य हुए होंगे। 

दरभंगा: आज दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह जीवित होते तो 114 वर्ष के होते। उनकी शारीरिक हड्डियां भले कमजोर हो गयी होती, लेकिन मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक शक्तियां अपने उत्कर्ष पर होती। बदलते वक्त में इस बात का एहसास उन्हें भी हो गया होता कि समाज में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिये सिर्फ ईंट-पत्थर से बने भवनों को दान देने से, या भवनों को बनाने से नहीं होता, बल्कि अपने राज्य और चारदीवारी के अंदर रहने वाले पुरुष-महिलाओं को भी शिक्षा के उत्कर्ष पर रहना होगा, पर्याप्त अवसर देना होना होता है, शिक्षा के प्रति पिपाशु बनाना होता। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। मंच पर ‘माछ-भात’, ‘तिलकोर’, या ‘चर्चरी’ की चर्चा भले हुई हो, अपने ‘जन्मदिन समारोह’ में अपनी विधवा को मंच पर अनुपस्थित देख दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह अन्तःमन से दुःखी अवश्य हुए होंगे। 

इसका दृष्टान्त आज महाराजाधिराज की मृत्यु के 59-साल बाद भी, उनके 114 वे जन्मदिन पर आयोजित ‘जयंती समारोह’ में एहसास किया। उनकी तीसरी और अंतिम ‘जीवित’ पत्नी के आवास-सह-महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन कार्यालय भवन में फाउंडेशन के तत्वावधान में आयोजित समारोह में महरानीअधिरानी कामसुन्दरी का मंच पर ‘अनुपस्थित’ रहना। लोग कहते हैं, ‘महारानी सार्वजनिक रूप से, अपने परिवार के लोगों के अलावे कभी किसी से नहीं मिलते हैं।  

महाराज अधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु के 26 वर्ष बाद महाराज के सम्मानार्थ, उनके कार्यों को आगे ले जाने के इरादे से, उनकी गरिमा और प्रतिष्ठा को बरकरार रखने के लिए ‘महाराज अधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फॉउंडेशन’ का निर्माण हुआ था और महरानीअधिरानी इस फॉउंडेशन के ‘डोनर ट्रस्टी’ हैं।

फॉउंडेशन के ‘वेबसाइट’ पर लिखा है:  Maharaniadhirani Kam Sundari, the widow of the late Maharajadhiraja Kameshwar Singh (the last Maharaja of Darbhanga), established the Maharajadhiraja Kameshwar Singh Kalyani Foundation (A Public Trust) by a deed of trust (No 5699 of 16 March 1989). इतना ही नहीं, आगे यह भी लिखा है: “Since its inception in the Mughal period, Darbhanga Raj has been known more as an upholder of the traditions of Indian Culture than as a dynasty. Inspired by the world-view of Mahamahopadhyay Mahesh Thakur, the founder of the dynasty, as well as his worthy successors, Maharaniadhirani Kam Sundari, widow of the late Maharajadhiraja Kameshwar Singh (the last Maharaja of Darbhanga Raj), established the Maharajadhiraja Kameshwar Singh Kalyani Foundation as a Public Trust at Darbhanga (Bihar) in 1989 at her residence, for sustaining the spirit and mission of the Khandavala dynasty even after its end.” लेकिन फाउंडेशन के अधिष्ठाता की अनुपस्थिति में कुछ अच्छा नहीं लगा।

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कार्यक्रम की शुरुआत भगवती वंदना से हुई और बाद में, अतिथियों, न्यास के सदस्यों एवं उपस्थित गणमान्य लोगों द्वारा महाराजाधिराज के तैल चित्र पर माल्यार्पण कर श्रद्धांजलि अर्पित की गई। सभा की अध्यक्षता डॉ पुष्पेन्द्र कुमार सिंह, प्रोफेसर, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, पटना ने किया। इस वर्ष कामेश्वर सिंह बिहार हेरिटेज सिरीज के तहत 1810 में प्रख्यात अंग्रेज प्रशासक एवं भाषा विज्ञानी, फ्रांसिस बुकानन द्वारा तैयार की गई तुलनात्मक शब्द कोश, जो पिछले दो सौ वर्षों से पांडुलिपि के रूप में ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन में उपेक्षित पड़ा था, को प्रकाशित किया गया। इस पुस्तक का संपादन प्रख्यात भाषा विज्ञानी प्रोफेसर रामावतार यादव, काठमांडू, नेपाल ने किया है, जिसका शीर्षक है “हिस्टोरियोग्राफी ऑफ मैथिली लेक्सिकोग्राफी एंड फ्रांसिस बुकानन्स कम्पेरेटिव भोकैबलरीज : फेसिमेलि एडिशन ऑफ द ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन मैनुस्क्रिप्ट ” (मैथिली कोश विज्ञान और फ्रांसिस बुकानन की तुलनात्मक शब्दावली का इतिहास लेखन : ब्रिटिश पुस्तकालय, लंदन की पांडुलिपि का प्रतिकृति संस्करण)। यह पुस्तक मैथिली कोश विज्ञान एवं भाषा विज्ञान के लिए मील का पत्थर साबित होगा। यह बिहार हेरिटेज सिरीज के तहत कल्याणी फाउंडेशन का तेइसवां प्रकाशन है।

इस अवसर पर देश के वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक चिंतक श्री संकर्षण ठाकुर ने महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह स्मृति व्याख्यान “मिथिलाज इनएलीयेनबल बट कॅमप्लेक्स रिलेशनशिप विथ बेंगाल” (बंगाल के साथ मिथिला के अटूट लेकिन जटिल सम्बन्ध) विषय पर दिया।

अपने उद्बोधन में श्री संकर्षण ठाकुर ने कहा कि मिथिला और बंगाल का संबंध “वस्तु और दर्पण” की तरह है। ये दोनों संस्कृतियां एक दूसरे में अपने आपको देख सकती हैं। भोजन में माछ-भात, तिलकोर, या चर्चरी हो या दुर्गा पूजा जैसा वार्षिक उत्सव हो, दोनों ही काली के पूजक हैं। सुजनी को सुजनी और फूफी को पीसी दोनों कहते हैं और तो और दोनों मसनद पर सोना पसंद करते हैं। ये एकरुपताएं इतनी अधिक हैं कि आप इन्हें नकार नहीं सकते हैं। मैथिलों को भ्रम होता है कि उन्हें उनके अपने इतिहास ने ही धोखा दिया है। परम्परा, धर्म, दर्शन, साहित्य, खान-पान, पारिवारिक संबंध हर विरासत जो संस्कृति का निर्माण करते हैं, का बंगाल से इतना गहरा लगाव और निकटता है कि इन्हें बरबस बंगाल की देन या प्रभाव मान लिया जाता है। यहां तक कि दुर्गा पूजा और काली पूजा, खान-पान, वेश-भूषा को बंगाली संस्कृति का विस्तार मान लिया जाता है। इस भ्रम का मूल कारण काफी हदतक मैथिलों की हीनभावना है। यह जटिलता काफी हदतक मिथिला और बंगाल के इतिहास की देन है, जिसे वर्तमान ने पुख्ता कर दिया है।

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यह तय है कि मिथिला मिथिला है न कि दर्पण में दिखने वाला बंगाल है। किन्तु सांस्कृतिक साम्यता के चलते विश्व इसे भ्रमवश बंगाली संस्कृति का विरासत मान लेता है। प्रायः मिथिला चित्रकला ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र है जिस पर ‘बंगाल का होने’ का ठप्पा नहीं लगा है। खासियत है कि जब हम बंगाली संस्कृति के तह तक उद्भेदन करते हैं तो वो हर सांस्कृतिक वस्तु/क्षेत्र जो आज बंगाली माना जाता है, का उद्गम स्थल मिथिला ही पाते हैं। किन्तु राजनीतिक प्रभुता ने बंगाल को अवसर दिया कि वह मिथिला का सांस्कृतिक अपहरण कर ले। विद्यापति हों या नव-न्याय बंगाल ने इन्हें हस्तगत कर ही लिया था। आज निश्चित रूप से इतिहास ने सांस्कृतिक रूप से बंगाल को मिथिला का बड़ा भाई बना दिया है। 

सभा की अध्यक्षता करते हुए डॉ पुष्पेन्द्र कुमार सिंह ने मिथिला और बंगाल में इतनी सांस्कृतिक साम्यता है कि दोनों में विभेद करना कठिन है। बंगाल की श्रेष्ठता का मुख्य कारण बंगालियों का प्रगतिशील होना है। बंगाल निश्चित रूप से भारत के किसी भी क्षेत्र से अधिक प्रगतिशील है और यही प्रगतिशीलता उसे मिथिला पर श्रेष्ठता प्रदान करती है। अभी भी मिथिला के सांस्कृतिक इतिहास पर शोध करने की आवश्यकता है ताकि मिथिला की सांस्कृतिक विरासत और श्रेष्ठता स्थापित हो सके। धन्यवाद ज्ञापन पंडित श्री रामचन्द्र झा ने किया। मंच संचालन डॉ मंजर सुलेमान ने किया।

कल पढ़िए: महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह के पिता महाराजा रामेश्वर सिंह चाहते थे समाज के निम्न जाति और तबके के लोगों को आगे आने का पर्याप्त अवसर मिले, दरभंगा के बच्चे, महिला, पुरुष, अपने घर के बच्चे तो बढ़ें ही, सोच भी बदले…..लेकिन ऐसा नहीं हुआ  

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