भाजपा कल ‘राज्यपाल’ पद को समाप्त करने के पक्ष में थी, आज तो रायसीना हिल पर ही है, फिर राजभवन का रूपांतर वृद्धाश्रम में क्यों?

देश के राष्ट्रपति के साथ राज्यों के राज्यपाल

नई दिल्ली : सत्तर के दशक में समाजवादी नेता मधु लिमये देश में हल्ला बोल दिए थे और चतुर्दिक कहा फिरते थे कि ‘लाट साहब’ (राज्यपाल) की कुर्सी को ध्वस्त कर देनी चाहिए, पद समाप्त कर देनी चाहिए, कार्यालय बंद कर देनी चाहिए, दरवाजे पर ताला लगा देनी चाहिए। जानते हैं क्यों? उनका कहना था कि देश के राज्यपालों पर सरकारी कोष से बेतहाशा पैसा खर्च होता है। राज्यपाल और उनका कार्यालय एक सफ़ेद हाथी है। देश के राज्यों में पदस्थापित राज्यपालों को “महामहीम” कहा जाता है, जब की वे “लाट साहब” कहलाते हैं। “लाट साहब” सम्पूर्णता के साथ एक “विवेकहीन” प्राणी के रूप में कार्य करते हैं क्योंकि शरीर से तो वे देश के राज्यों में पदस्थापित होते, उनकी ‘गति’ अथवा ‘अवगति’ दिल्ली से चलायमान होते हैं। जो दिल्ली चाहती है वे ही वे करते हैं। अब इस प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में आखिर “लाटसाहब” भी क्या करें। 

तभी तो मराठी पत्र ‘लोकसत्ता’ राज्यपाल कार्यालयों को ‘वृद्धाश्रम’ शब्द से सम्बोधित किया है। विगत दिनों मराठी पत्र ‘लोकसत्ता’ ने अपने सम्पादकीय में एक अहम् सवाल उठाया है। “वृद्धाश्रमों के राज्यपालोद्योग” शीर्षक के साथ अख़बार ने लिखा है कि “राज्यपाल एक संवैधानिक पद है । प्रश्न है कि क्या उस पद का व्यक्ति उस दर्जे का है ?”

भारत के संविधान के आर्टिकिल 154 के अनुसार, राज्यपाल, देश के सभी 28 राज्यों का संवैधानिक प्रमुख होता है, जिनकी नियुक्ति पांच वर्षों की अवधि के लिए राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। साथ ही, ये सभी राज्यपाल ‘प्रेजिडेंट’स प्लेज़र ‘ पर दफ्तर में रहते हैं। यह मन जाता है कि राज्य में जितनी भी प्रशासनिक निर्णय लिए जाते हैं, वे राज्यपाल के नाम पर ही लिए जाते हैं। बहुत सारे नियम-कानून हैं, जो राज्यपालों की कुर्सियों से चिपके हैं। जो नहीं करना चाहिए उसे करने की हमारे राज्यपालों की पुरानी परंपरा है । 

अटल बिहारी वाजपेयी, चरण सिंह, जगजीवन राम, मधु लिमये – फोटो इंडियन एक्सप्रेस के सौजन्य से

लोकसत्ता के अनुसार, सन 1952 में तात्कालीन मद्रास प्रांत के राज्यपाल श्रीप्रकाश ने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई थी जबकि राजगोपालाचारी ने उस समय ना कोई चुनाव लड़ा था ना ही वे विधानसभा सदस्य थे । सन 1959 में इ. एम. एस. नंबूदरीपाद के केरल राज्य शासन को राज्यपाल ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के केंद्र सरकार के दबाव के अंतर्गत बर्खास्त कर दिया था ।

सन 1982 में हरियाणा के राज्यपाल गणपतराव तपासे ने अपने कांग्रेस पार्टी के लाभ के लिये चौधरी देवीलाल के लोकदल सरकार को बर्खास्त करके भजनलाल को मुख्यमंत्री बनाया था । उसके दो वर्ष बाद आंध्र प्रदेश के राज्यपाल राम लाल ने मुख्यमंत्री एन. टी. रामाराव की सरकार को बर्खास्त करके कांग्रेस की सहमति वाले तेलगू देशम पार्टी के बागी भास्कर राव को मुख्यमंत्री बनाया था । उस समय रामाराव अपनी शल्यक्रिया कराने के लिये विदेश गये थे । 

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सन 1989 में कर्नाटक के राज्यपाल पी. वेंकटसुबैया ने मुख्यमंत्री एस. आर. बोम्मई को विधानसभा पटल पर बहुमत सिद्ध करने की संधि दिये बिना ही उनकी सरकार बरखास्त कर दी । सन 1994 में गोवा के राज्यपाल भानु प्रकाश सिंह ने मनमर्जी अनुसार मुख्यमंत्री विल्फ्रेड डिसूजा की सरकार को बर्खास्त करके रवी नाईक को मुख्यमंत्री बना दिया । बाद में केंद्रीय गृहमंत्री शंकरराव चव्हाण ने सिंह को पद से हटा दिया था । 

सन 1998 में मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की सरकार, लोकतांत्रिक कांग्रेस एवं जनता दल द्वारा समर्थन वापस लेने के कारण अल्पमत में आ गई थी । उस समय परराष्ट्र सेवा के निवृत्त अधिकारी रोमेश भंडारी गोल्फ खेल रहे थे । उन्होंने कल्याण सिंह के बहुमत को बिना जांचे परखे, सरकार बर्खास्त कर दिया एवं लोकतांत्रिक कांग्रेस के जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया । उस समय उत्तर प्रदेश में दो दो मुख्यमंत्री थे । न्यायालय ने पाल को बर्खास्त करके पुनः कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाने का आदेश दिया । पाल उस समय मात्र 72 घंटे मुख्यमंत्री रहे । 

सन 2005 में झारखंड के राज्यपाल सैद सिब्ते राझी ने बहुमत ना होने पर भी झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री बना दिया । जबकि उस समय विधानसभा के 81 में से 41 विधायक भाजपा के पास थे । सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतः के देखरेख में विश्वासदर्शक प्रस्ताव संपन्न करवाया जिसमे शिबू सोरेन को पीछे हटना पड़ा । 

अभी 2016-18 काल में गोवा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड, कर्नाटक, बिहार, मेघालय, आदि राज्यों के राज्यपालों ने विविध रूप में संविधान से परे कार्य किये हैं । जिनमें अधिकांश प्रकरणों में न्यायालय ने राज्यपालों के निर्णयों को बर्खास्त किया है । सन 2018 में कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला ने बी. एस. येदियुरप्पा को अन्य पक्षों के विधायकों के तोड़फोड़ के लिये चाहिये उतना समय दिया । विरोधी पक्षों के संख्याबल पर जानबूझकर दुर्लक्ष किया । बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने तत्काल बहुमत सिद्ध करने का आदेश दिया और राज्यपाल को अच्छी फटकार लगाई ।

राज्यपालों के असंवैधानिक कृतियों को समझकर ही विख्यात संसदपटु मधु लिमये जी ने राज्यपाल पद को ही समाप्त करने की मांग की थी जिसे उस समय भाजपा ने समर्थन दिया था । अब तो राजभवन का रूपांतर वृद्धाश्रम में कर दिया गया है ।

इसी तरह दृष्टि(डॉट)कॉम के अनुसार, बीते दिनों एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने कहा था कि “राज्यपाल राज्य का संरक्षक और मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है और देश के संघात्मक ढाँचे में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।” हालाँकि विगत कुछ दिनों में महाराष्ट्र के राज्यपाल द्वारा की गई कार्रवाई ने देश में राज्यपाल के पद को जाँच के दायरे में ला दिया है। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री द्वारा ली गई शपथ और बहुमत सिद्ध करने से पूर्व इस्तीफे के पूरे घटनाक्रम में राजभवन (राज्यपाल का आवास) विवाद का केंद्र बना रहा। गौरतलब है कि इस वर्ष के शुरू में कर्नाटक विधानसभा चुनावों के तुरंत बाद कर्नाटक के राज्यपाल द्वारा की गई कार्रवाई को भी विवेकाधीन शक्तियों के पहलुओं पर न्यायिक जाँच के दायरे में माना गया था। ऐसी स्थिति में देश के अंतर्गत राज्यपाल के पद और उसकी प्रासंगिकता पर विचार करना अनिवार्य हो जाता है।

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वेबसाइट ने लिखा हैं कि जिस प्रकार केंद्र में राष्ट्र का प्रमुख राष्ट्रपति होता है उसी प्रकार राज्यों में राज्य का प्रमुख राज्यपाल होता है। उल्लेखनीय है कि राज्यपाल राज्य का औपचारिक प्रमुख होता है और राज्य की सभी कार्यवाहियां उसी के नाम पर की जाती हैं। प्रत्येक राज्य का राज्यपाल देश के केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है एवं यह राज्य के मुख्यमंत्री की सलाह से कार्य करता है। सामान्यतः राज्यपाल का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है, परंतु वह इस अवधि से पूर्व भी राष्ट्रपति को इस्तीफा देकर सेवानिवृत्त हो सकता है। 

गौरतलब है कि राज्यपाल का कार्यालय पिछले पांच दशकों से सबसे विवादास्पद रहा है। यह विवाद 1959 में राज्य और केंद्र सरकार के बीच राजनीतिक मतभेद के कारण केरल के तत्कालीन राज्यपाल द्वारा केरल सरकार की बर्खास्तगी से शुरू हुआ था। इस विवाद ने 1967 में उत्तरी राज्यों में कई गैर-कांग्रेसी सरकारों के उभरने के बाद सबसे खराब रूप धारण कर लिया। 

वैसे राज्यपाल का चुनाव न तो सीधे आम लोगों द्वारा किया जाता है और न ही कोई विशेष रूप से गठित निर्वाचक मंडल इसका चुनाव करता है। इसके विपरीत राज्यों के गवर्नर की नियुक्ति प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति द्वारा की जाती है जिसके कारण उसे केंद्र सरकार का प्रतिनिधि भी कहा जाता है। संविधान निर्माण के समय मसौदा समिति ने यह निर्णय संविधान सभा पर छोड़ दिया था कि देश में राज्यपालों के लिये चुनाव किये जाने चाहिये या फिर उनका मानांकन किया जाना चाहिये। इस विषय पर संविधान सभा का मानना था कि राज्यपालों के चयन के लिये चुनाव किया जाना चाहिये, परंतु राज्यपाल और मुख्यमंत्री की शक्तियों के बीच टकराव की आशंका ने राज्य में राज्यपाल के नामांकन की प्रणाली को जन्म दिया।

कुछ महत्वपूर्ण निर्णय जिन्होंने राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को आकार दिया, उसमें ‘एस.आर. बोम्मई बनाम भारत सरकार’ प्रमुख है। इसके अनुसार ‘सर्वोच्च न्यायालय के कई ऐसे फैसले हैं, जिनका समाज और राजनीति पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है। इन्हीं में से एक है 11 मार्च, 1994 को दिया गया ऐतिहासिक फैसला जो राज्यों में सरकारें भंग करने की केंद्र सरकार की शक्ति को कम करता है। गौरतलब है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई के फोन टैपिंग मामले में फँसने के बाद तत्कालीन राज्यपाल ने उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया था, जिसके बाद यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचा था। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 356 के व्यापक दुरुपयोग पर विराम लगा दिया।इस फैसले में न्यायालय ने कहा था कि “किसी भी राज्य सरकार के बहुमत का फैसला राजभवन की जगह विधानमंडल में होना चाहिये। राष्ट्रपति शासन लगाने से पहले राज्य सरकार को शक्ति परीक्षण का मौका देना होगा।”

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इसी तरह ‘रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत सरकार’ के मामले में वर्ष 2006 में दिये गए इस निर्णय में पाँच सदस्यों वाली न्यायपीठ ने स्पष्ट किया था कि यदि विधानसभा चुनावों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता और कुछ दल मिलकर सरकार बनाने का दावा करते हैं तो इसमें कोई समस्या नहीं है, चाहे चुनाव पूर्व उन दलों में गठबंधन हो या न हो। फिर, ‘नबाम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष’ के मामले में वर्ष 2016 में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया था कि राज्यपाल के विवेक के प्रयोग से संबंधित अनुच्छेद 163 सीमित है और उसके द्वारा की जाने वाली कार्रवाई मनमानी या काल्पनिक नहीं होनी चाहिये। अपनी कार्रवाई के लिये राज्यपाल के पास तर्क होना चाहिये और यह सद्भावना के साथ की जानी चाहिये। 

वैसे, देश में राज्यपाल के पद के दुरुपयोग के कई उदाहरण देखने को मिले हैं, आमतौर पर माना जाता है कि चूँकि राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है इसलिये वह राज्य में केंद्र के निर्देशों पर कार्य करता है और यदि केंद्र व राज्य में एक ही दल की सरकार नहीं है तो राज्य की कार्यप्रणाली में काफी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। कई मामलों में एक विशेष राजनीतिक विचारधारा के साथ जाने-माने राजनेताओं और पूर्व नौकरशाहों को ही सरकार द्वारा राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया है। गौरतलब है कि इसके परिणामस्वरूप कई बार राज्यपालों को पक्षपात करते हुए भी देखा गया है। 

इसी वर्ष राजस्थान के राज्यपाल पर आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था। सत्ताधारी दल को समर्थन प्रदान करना किसी भी संवैधानिक पद पर काबिज़ व्यक्ति से अपेक्षित नहीं होता है, परंतु फिर भी समय-समय पर ऐसी घटनाएँ सामने आती रहती हैं। राज्य में चुनावों के बाद सरकार बनाने के लिये सबसे बड़ी पार्टी या गठबंधन को आमंत्रित करने हेतु राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का अक्सर किसी विशेष राजनीतिक दल के पक्ष में दुरुपयोग किया गया है। कार्यकाल की समाप्ति से पहले ही राज्यपाल को पद से हटाना भी हाल के दिनों में एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा रहा है।राज्यपाल को इस आधार पर नहीं हटाया जा सकता कि वह केंद्र की सत्ता में मौजूद दल की नीतियों और विचारधाराओं के साथ तालमेल नहीं रखता।

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