आप ही नहीं, कोई भी विस्वास नहीं करेगा की कलयुग में भी ईश्वर अथवा ईश्वर-तुल्य मनुष्य जन्म लेता है “चैतन्य महाप्रभु” जैसा मथुरा-वृन्दावन में। परन्तु जब आप कृष्ण की नगरी, राधा की नगरी मथुरा-वृन्दावन में कृष्ण से मिलने, उनके प्रेम-पिपासु सहस्त्रकाल से प्रतीक्षा करती चली आ रही विधवाओं को देखेंगे, जो अपने जीवन की एक-एक साँस को जोड़ते-छोड़ते जी रही हैं, उन विधवाओं से मिलकर पूछेंगे की आखिर जीवन के अन्तिम बसन्त को वे क्यों देखना चाहती हैं? क्यों अब जीना चाहती हैं ? क्यों जीने की अभिलाषा मरने के समय बढ़ती जा रही है? क्यों उनसे मिलने के लिए मन बेचैन रहता हैं? आपको उत्तर मिल जायेगा – क्योंकि उनका “अभागा” सन्तान अपनी “विधवा माता” को मथुरा-वृन्दावन की तंग गलियों में, सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिया है और अब उनकी रक्षा ”कलयुग के चैतन्य” कर रहे हैं, जो उनके लिए “महाप्रभु” हैं।
भले भारत के लोगों के ह्रदय में, खासकर उन सन्तानों के ह्रदय में जीवन के अन्तिम बसंत में सांस- जोड़ती, सांस-तोड़ती माताओं के लिए कोई स्पन्दन नहीं हो, और अगर होता तो चैतन्य महाप्रभु के युग से आजतक मथुरा-वृन्दावन में विधवाएं नहीं आतीं रहतीं, पटकी नहीं जाती सड़कों-गलियों में भीख मांगने के लिए। लेकिन इसी देश का एक सन्तान उन विधवा माताओं को जीवन के अंतिम दिनों में वह सभी सुख दे रहा हैं जो दसकों बाद उन्हें जीने की लालच बढ़ा रही है। कलयुग के चैतन्य महाप्रभु है सुलभ इंटरनेशनल सोसल सर्विस ऑर्गेनिजेशन के संस्थापक पद्मश्री-पद्मभूषण उपाधि से अलंकृत डॉ बिन्देशवर पाठक।
भारत में विद्वानों की कमी नहीं है। धनाढ्यों की किल्लत नहीं है। नेताओं का अपार भण्डार है। समाजसेवियों का कारखाना है – लेकिन जिनके ह्रदय में मानवता और मानवीयता हो, ऐसे महापुरुषों का भारत-राष्ट्र में घोर अकाल है। और अगर ऐसा नहीं होता तो १२५ करोड़ की आवादी देश में भारत का सर्वोच्च न्यायालय डॉ पाठक और उनके संस्थान “सुलभ” के सामने यह प्रस्ताव क्यों लाती – क्या आप उन विधवाओं को दो वक्त की रोटी का बंदोबस्त उनकी मृत्यु तक कर सकते हैं? क्या आप बीमारी की उन्हें दबाइयाँ दे सकते हैं ? क्या आप उनकी मृत्यु के पश्चयात सम्पूर्ण विधि-विधान से उनका दाह – संस्कार कर सकते हैं ? बहुत ही विचित्र, परन्तु सत्य बात है।
कहा जाता है कि विधवाओं की बुरी हालत को देखकर कृष्ण भक्त मध्यकालीन कवि चैतन्य महाप्रभु ने विधवाओं को जीवन के आखिरी पल वृंदावन में कृष्ण भक्ति करते हुए गुजारने की परम्परा डाली और विधवाओं को लेकर वृंदावन आ गए। तब मकसद यह था कि अपने परिवारों की उपेक्षा झेल रही विधवाओं को मन्दिर और आश्रम आसरा देंगे और उनकी जिन्दगी गुजर जाएगी। लेकिन कालांतर में हालात सामान्य नहीं रहे। परिवारों ने अपनी ही अजीज रही विधवाओं को खुद पर बोझ मानना शुरू किया और वृंदावन लाकर उन्हें अपने हाल पर जीने के लिए छोड़ने लगे। कुछ साल पहले तक वृंदावन में विधवाएँ सड़कों पर भीख माँगते दिख जाती थीं।
इतना ही नहीं “अमानवीयता का पराकाष्ठा इस बात से लगाया जा सकता है कि गरीबी के कारण जब उनकी मौत हो जाती थी तो उन्हें सामान्य और सहज अन्तिम संस्कार भी नसीब नहीं होता था। उनके शव को टुकड़ों में काटकर बोरी में बाँधकर यमुना में फेंक दिया जाता था।
इस बात की खबर एक स्वयंसेवी संगठन को पता चली तो उसने सुप्रीम कोर्ट में विधवाओं की हालत सुधारने के लिए जनहित याचिका दायर कर दी। इसी जनहित याचिका पर सुनवाई करते वक्त जब विधवाओं की बदहाली की जानकारी हुई तो सुप्रीम कोर्ट ने साल 2012 में राष्ट्रीय महिला आयोग, उत्तर प्रदेश महिला आयोग, उत्तर प्रदेश सरकार, मथुरा जिला प्रशासन और सम्बन्धित विभागों को जबर्दस्त लताड़ लगाई थी। इसी सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और यूयू ललित की सामाजिक पीठ ने कोर्ट के एमिकस क्यूरी से पूछा कि क्या विधवाओं को राहत दिलाने के लिए सुलभ इंटरनेशनल से बात की जा सकती है।
जब इस पर सहमति बनी तो डॉक्टर पाठक के पास वृंदावन की विधवाओं की मदद के लिए अगस्त 2012 में चिट्ठी आई। तब डॉक्टर पाठक को द्वारका में प्रसाद मिली कृष्ण की बाँसुरी की याद आई और उन्होंने अपने सुलभ होप फाउण्डेशन के जरिए वृंदावन की विधवाओं को पहले एक हजार रुपए महीना और बाद में दो हजार रुपए महीने की सहायता देनी शुरू की। इससे वृंदावन की विधवाओं की हालत सुधर गई है। अब उन्हें भोजन के लिए भीख माँगने की जरूरत नहीं पड़ती। वृंदावन में उदासीन बाबा का आश्रम अब सुबह-शाम सुलभ की सहायता से चलने वाले भजन कार्यक्रमों से गूंजता रहता है। इतना ही नहीं इनमें जो जवान और काम करने लायक हालत में विधवाएँ हैं, उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए सिलाई-कढ़ाई जैसे कामों की ट्रेनिंग दी जा रही है। इसके अलावा अशिक्षित विधवाओं को पढ़ाने का काम भी किया जा रहा है।

वृंदावन की तरह काशी भी विधवाओं के लिए मशहूर रहा है। हालाँकि यहाँ विधवाओं की संख्या वृंदावन की तुलना में कम है। काशी के बारे में एक कहावत भी मशहूर है- रांड़, सांड़, सीढ़ी, सन्यासी / इनते बचैं तो सेवैं काशी… लेकिन यह भी सच है कि यहाँ की विधवाओं की हालत वृंदावन की विधवाओं जितनी खराब नहीं है और ना ही वृंदावन जितनी विधवाएँ यहाँ हैं भी। फिर भी सुलभ होप फाउण्डेशन वाराणसी की भी विधवाओं को मासिक सहायता देता है।
विधवाओं की नगरी के रूप में वृन्दावन शहर में अब हालात बदल रहे हैं। कुछ वर्ष पहले तक जहाँ मथुरा-वृन्दावन में गलियों में, सड़कों पर, चौराहों पर,
शहर के हर कोने और चौक पर वृद्ध विधवा स्त्रियां दिखाई देती थी अपने-अपने जीवन-मरण को देखती, महसूस करती, अब नहीं हैं। अब सभी विधवाएं आश्रमों में रहती हैं, टीवी देखती हैं, भजन गाती हैं। उनके लिए वहां जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध हैं।’
सुलभ ने वृंदावन के मंदिरों में सुबह भजन गाकर जीविका कमाने वाली विधवा स्त्रियों को सम्मान दिलाने और कई कदम उठाये हैं। देश में स्वच्छता अभियान चलाने वाली प्रमुख गैर सरकारी संस्था सुलभ ने वृंदावन की विधवाओं की मूलभूत जरूरतों भोजन से लेकर स्वास्थ्य का ध्यान रखने लगा है। उनके रहने खाने की व्यवस्था मुफ़ है। विधवाओ को सिलाई बुनाई इत्यादि का भी प्रशिक्षण दिया जाता है।
इसके आलावा अगरबती बनाना, कपडे सिलना, फूल के माला बनाना, मोमबती बनाना। इससे जो आमदनी होती है वह उनके सर्वांगीण विकास पर खर्च की जाती है ताकि उन चेहरे पर प्रसन्नता रहे।
गौरालब है की कुछ वर्ष पहले तक वृंदावन में बड़ी संख्या में विधवा स्त्रियां सफेद साड़ी में मंदिरों में भटकते हुए और भीख मांगते देखी जाती थीं। भगवान कृष्ण की नगरी कहे जाने वाले शहर में निर्धन और कुपोषण की शिकार इन विधवाओं में से कई इतनी कमजोर थीं कि सिर्फ हड्डियों और मांस का ढांचा मात्र रह गई थीं।
संडेपोस्ट से बातचीत करते डॉ पाठक कहते हैं: “यह सुलभ आंदोलन के लिए सौभाग्य की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने विधवाओं की दुर्दशा पर सुनवाई के वक्त सुलभ को महत्व दिया। सरकार से सुलभ से पूछकर बताने को कहा गया कि हम बदहाल विधवाओं को खिलाने का इंतजाम कर सकती है या नहीं। न्यायमूर्ति के जेहन से इस नेक काम के लिए सुलभ का जिक्र होना हमारे लिए गौरव की बात है। हम मैला ढोने वाली महिलाओं को समाजिक हक दिलाने के लिए पहले से सक्रिय थे। सर्वोच्च न्यायालय ने समाज की परित्यक्ता बनकर जीने के विवश वृंदावन औऱ वाराणसी की विधवाओं की मदद के लिए हमें उतार दिया। यहां की आश्रमों में रहने वाली विधवाओं के लिए खाने- पीने, पहनने ओढने की समस्या के साथ अंतिम संस्कार तक में समुचित सम्मान नहीं मिलने की मुसीबत थी। सर्वोच्च न्यायालय में मरने के बाद इन विधवाओं के शरीर को बोटी बोटी कर यमुना में फेंके जाने के मामले की सुनवाई के लिए पहुंचा था। सुलभ के प्रयास से आज यहां के आश्रमों में रहने वाली विधवाओं को दो हजार रुपए प्रतिमाह का अनुदान दिया जा रहा है। हालत में बदलाव के लिए हिंदी, अंग्रेजी और बांगला में शिक्षा का इंतजाम किया गया है। पुनर्वास के अन्य जरूरी सुविधाओं का ख्याल रखा जा रहा है।”