दरभंगा हवाई अड्डे का नाम महाराजा के नाम पर हो, कोई ‘आधिकारिक प्रस्ताव/पहल नहीं है केन्द्र सरकार के पास

महारानी अधिरानी कामसुन्दरी जी अपने पति महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के साथ

लोग माने अथवा नहीं, परन्तु सत्य यही है कि महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की “आकस्मिक मृत्यु” के बाद परिवार में “उचित नेतृत्व” का पूर्णतया अभाव हो गया। “दूरदर्शिता” की किल्लत हो गयी। आकस्मिक धन की प्राप्ति सबों को धनाढ्य तो बना दिया, लेकिन जो मानवता, मानवीयता, सामाजिकता का गुण और यश की रेखाएं महाराजाधिराज के हाथों में लिखा था, अगली पीढ़ी अपने-अपने हाथों तक नहीं खींच पायी। अगर ऐसा नहीं होता तो आज दरभंगा में प्रारम्भ होने वाला हवाई अड्डा का नाम महाराजाधिराज के नाम पर करने हेतु घुटने और ठेंघुने कद के नेताओं तथा सरकारी कर्मचारियों का हाथ-पैर पकड़ना पड़ता।

गृह मंत्रालय के एक आला अधिकारी को यदि माने तो उनके अनुसार दरभंगा राज परिवार के तरफ से “आधिकारिक रूप में महाराजा के नाम पर नामकरण के लिए किसी भी तरह का कोई पहल अथवा प्रस्ताव उचित दस्तावेजों के साथ नहीं आया है।”

महाराजाधिराज “व्यवसायी” नहीं थे, तभी उन दिनों भारत में शायद ही कोई राजनेता रहे होंगे, जो उनके उपकार के ऋण के नीचे दबे नहीं होंगे। चाहे महात्मा गाँधी हों, राजेंद्र प्रसाद हों, सुभाष चंद्र बोस हों यह उस ज़माने के कोई भी राज नेता हों, कोई भी राजनीतिक पार्टियां हो – उनके सामने सबों का हाथ नीचे ही रहा है।”

प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया का एक रिपोर्ट (1962) इस बात का गवाह है कि सन 1937 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह से “जेनेरस फिनांसियल असिस्टेन्स’ प्राप्त किये थे। कांग्रेस के रामबाग सेशन में पार्टी के आला नेता और स्वागत समिति को आर्थिक सहायता का दरकार था। डॉ राजेन्द्र प्रसाद को कामेश्वर सिंह, ‘जेनेरस डोनेशंस” दिए थे। सन 1930-1932 के आन्दोलन में बिहार के तत्कालीन नेताओं को जो आज़ादी की लड़ाई में स्वयं को सुपुर्द कर दिए थे, उम्मीद से अधिक आर्थिक मदद किये थे।” अनन्त गाथाएँ हैं जब महाराजाधिराज समाज के लिए, प्रदेश के लिए, राष्ट्र के लिए “समर्पण” में कभी अपना हाथ नहीं खींचे। समाज की मानसिकता में भी गिराबट भी नहीं था, राजनीति भी नहीं थी। इसलिए जीवन की समाप्ति तक जो हाथ उनके हाथ के सामने नीचे रहा, उसका मष्तिष्क भी उनके सम्मानार्थ झुका रहा।

परन्तु, पहली अक्टूबर सं 1962 के बाद, यानि उनकी “आकस्मिक मृत्यु” के बाद क्यों ऐसा हुआ जो दरभंगा राज प्रति सम्मान उत्तरोत्तर कम होता गया। उनका सम्मान उस शिखर जैसा था की भारत के राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद भी, गाँधी भी, सुभाष बोस भी “ससम्मान उनके सामने खड़े होते थे। मानवता का पराकाष्ठा थे दरभंगा महाराज।

लेकिन आज जब दरभंगा हवाई अड्डे के नामकरण का प्रश्न आता है तो क्या गृह मंत्रालय, क्या नागर विमानन मंत्रालय, क्या प्रदेश के मुख्य मंत्री मंत्रालय – इन कार्यालयों में कार्य करने वाले चपरासी और अधिकारी भी सीधा-मुंह बात नहीं करता। महत्व नहीं देता। महज कुछ सालों में ऐसा क्यों हुआ जो सम्मान को शिखर से उतार कर जमीन पर ला दिया ? जबकि अन्य प्रदेशों, चाहे राजस्थान हो, मध्य प्रदेश हो, दक्षिण के राजा-महाराजाओं का वर्तमान पीढ़ी हो, वर्तमान व्यवस्था के सामने वे आज भी उतने सम्मानित हैं। खैर। कुछ तो है जो अन्वेषण और शोध का विषय है।

ये भी पढ़े   70-वर्षीय मोदी, 86-वर्ष पुराना सपना पूरा किये बिहारियों का, जबकि सांसद, विधायक कभी मतदाताओं से सीधे-मुंह बात भी नहीं किये 

नार्थ ब्लॉक के एक विस्वस्त सूत्र के अनुसार: “दरभंगा हवाई अड्डे के नाम को कामेश्वर सिंह के नाम पर करने से सम्बन्धित अब तक न तो नागर विमानन मंत्रालय के पास, ना ही गृह मंत्रालय पास और ना ही प्रधान मंत्री कार्यालय में कोई आधिकारिक गुजारिश/प्रस्ताव से सम्बन्धित फाईल प्रेषित हुआ है, जो महाराजा के वर्तमान पीढ़ियों द्वारा प्रेषित हो।” सूत्र के अनुसार: “माननीय गृह मंत्री श्री अमित शाह का सम्बन्ध प्रधान मंत्री के साथ बहुत मधुर है। सरकार का अब तक शायद एक भी फैसला नहीं होगा जिसमें माननीय प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी, माननीय श्री अमित शाह से राय नहीं लिए होंगे। अब अगर कोई इस दिशा में पहल करेगा ही नहीं तो किसी को स्वप्न तो नहीं आएगा ?”

खैर। दरभंगा हवाई अड्डा के नामकरण पर पहला और आखिरी हक़ – दरभंगा के महाराज महाराजा कामेश्वर सिंह का है। क्योंकि जमीन भी उन्ही की है, हवाई पट्टी भी उन्ही का है, शुरुआत उन्ही के द्वारा साठ-वर्ष पहले है। वे आज़ादी आंदोलन में 1933-1952 संविधान सभा के सदस्य थे। सं 1952-1962 (मृत्यु तक) तक भारतीय संसद के ऊपरी सदन के सम्मानित सदस्य थे।

ऐतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर यह सर्व-विदित है कि तिरहुत का विमानन इतिहास दरअसल बिहार का विमानन इतिहास है। कुछ अर्थों में यह भारत का विमानन इतिहास है। भारत में कार्गो सेवा प्रदान करने की बात हो या फिर देश का पहला लग्जरी विमान का इतिहास हो, यहां तक की आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के सरकारी विमान की बात हो, तिरहुत, दरभंगा और उसके विमान के योगदान का उल्‍लेख के बिना इनका इतिहास लिखना संभव नहीं है।

तिरहुत के विमानन इतिहास की शुरुआत तिरहुत सरकार महाराजा रामेश्वर सिंह के कालखंड में ही होती है। तिरहुत सरकार का पहला विमान एफ-4440 था। जो 1917 में प्रथम विश्‍वयुद्ध के दौरान भारतीय मूल के सैनिकों के लिए खरीदा गया था। यह एक संयोग ही है कि तिरहुत सरकार का पहला विमान जहां भारतीय फौजी के लिए खरीदा गया था, वही दरभंगा एविएशन का आखिरी विमान भी भारतीय वायुसेना को ही उपहार स्‍वरूप दिया गया।

तिरहुत सरकार के एक इंजनवाले एफ-4440 विमान में दो लोगों के बैठने की सुविधा थी। 1931 में वासराय के दरभंगा आगमन से पहले तिरहुत सरकार द्वारा एक विमान खरीदने की बात कही जाती है। यह जहाज भी बेहद छोटा था। एक इंजनवाले इस जहाज की कोई तस्वीर अब तक उपलब्ध नहीं हुई है, क्योंकि ये समय पर दरभंगा नहीं आ सका। 1932 में गोलमेज सम्‍मेलन में भाग लेने के लिए जब कामेश्‍वर सिंह लंदन गये तो उस जहाज को भारत लाने की बात हुई, लेकिन नहीं आ पाया। 1934 के भूकंप के बाद इसे अशुभ मान कर लंदन में ही बेच दिया गया।

ये भी पढ़े   विश्वबैंक का अनुमान, चालू वित्त वर्ष में भारत की वृद्धि दर 1.5-2.8 प्रतिशत रहेगी 

तिरहुत में पहला विमान 1933 में उतरा। पूर्णिया के लाल बालू मैदान में माउंट एपरेस्‍ट की चोटी की ऊंचाई नापने और सुगम रास्ता तलाशने के लिए तिरहुत सरकार ने इस मिशन को प्रायोजित किया था। 1940 में तिरहुत सरकार ने अपना दूसरा विमान खरीदा। आठ सीटोंवाले इस विमान का पंजीयन VT-AMB के रूप में किया गया। बाद में यह पंजीयन संख्‍या एक गुजराती कंपनी को और 18 मार्च 2009 में कोलकाता की कंपनी ट्रेनस भारत एविएशन, कोलकाता-17 को VT-AMB (tecnam P-92J5) आवंटित कर दिया गया है।

यह विमान 1950 तक तिरहुत सरकार का सरकारी विमान था। इसी दौरान तिरहुत सरकार ने तीन बडे एयरपोर्ट दरभंगा, पूर्णिया और कूच बिहार का निर्माण कराया। जबकि मधुबनी समेत कई छोटे रनवे भी विकसित किये। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद 1950 में अमेरिका ने भारी पैमाने पर वायुसेना के विमानों की निलामी की। दरभंगा ने इस निलामी में भाग लिया और चार डीसी-3 डकोटा विमान खरीदा।

इनमें दो C-47A-DL और दो C-47A-DK मॉडल के विमान थे। आजाद भारत में यह एक साथ खरीदा गया सबसे बडा निजी विमानन बेडा था। इन्ही चार जहाजों को लेकर दरभंगा के पूर्व महाराजा कामेश्वर सिंह ने दरभंगा एविएशन नाम से अपनी 14वीं कंपनी की स्थापना की। इस कंपनी का मुख्यालय काेलकाता रखा गया। इसके निदेेशक बनाये गये द्वारिका नाथ झा। दरभंगा एविएशन मुख्‍य रूप से कोलकाता और ढाका के बीच काग्रो सेवा प्रदान करती थी। भारत सरकार में इन चारों विमानों को क्रमश: VT-DEM,VT-AYG, VT-AXZ VT-CME के नाम से पंजीयन कराया गया था। VT-DEM,VT-AYG, VT-AXZ नंबर का विमान जहां आम लोगों के लिए उपलब्‍ध था, वहीं,VT-CME को कामेश्वर सिंह ने खास अपने लिए विशेष तौर पर तैयार करबाया था। यह भारत का पहला लग्‍जरी विमान था, इसमें कई खूबियां थी।

यह विमान कर्नाटक के बलगाम में अभी संरक्षित कर के रखा हुआ है। 1950 में स्थापित दरभंगा एविएशन को पहला धक्‍का 1954 में लगा। 01 मार्च 1954 को कंपनी का विमान VT-DEM कलकत्ता एयरपोर्ट से उडने के तत्काल बाद गिर गया। इस हादसे के बाद कंपनी कमजोर हो गयी। कंपनी को बेहतर करने के लिए यदुदत्‍त कमेटी का गठन किया गया, लेकिन कमेटी का प्रस्ताव देखकर कामेश्‍वर सिंह निराश हो गये। कामेश्वर सिंह ने कंपनी को नये सिरे से शुरु करने का फैसला किया और नये विमान खरीदने का फैसला लिया गया। कंपनी ने 1955 में अपना एक पुराना विमान VT-AXZ कलिंगा एयरलाइंस को लीज पर दे दिया। कलिंगा एयरलाइंस ने उस विमान के परिचालन में घोर लापरवाही की, जिसका नतीजा रहा कि उसी साल 30 अगस्त 1955 को वो विमान नेपाल के सिमरा में दुर्घटनाग्रस्त हो गया।

ये भी पढ़े   PM lays foundation stone of road and ropeway projects worth more than Rs 3400 crore in Mana, Uttarakhand

दरभंगा एविएशन का तीसरा विमान 1962 में दुर्घटना का शिकार हो गया। VT-AYG नंबर का यह विमान बांग्‍लादेश में दुर्घटना का शिकार हो गया। इस विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद दरभंगा एविएशन की काग्रो सेवा नये विमान की आपूर्ति तक बंद कर दी गयी, जो फिर कभी शुरू न हो सकी। कंपनी के पास एक विमान बचा था, जो महाराजा कामेश्वर सिंह का निजी विमान था। VT-CME नंबर का यह विमान कामेश्वर सिंह के निधन तक उनके साथ रहा। इसी विमान ने तिरहुत को पहला पायलट दिया। बेशक इस विमान के पायलट आइएन बुदरी थे, लेकिन 1960 में मधुबनी के लोहा गांव के सुरेंद्र चौधरी इस जहाज के सहायक पायलट के रूप में नियुक्त होनेवाले तिरहुत के पहले पायलट बने। श्री चौधरी 1963 तक इस विमान के सहायक पायलट थे। 01 अक्‍टूबर 1962 को कामेश्‍वर सिंह की मौत के बाद भारत सरकार ने इस विमान का निबंधन रद्द कर लिया।

चीन युद्ध के बाद दरभंगा की संपत्ति देखनेवाले न्यासी ने दरभंगा, पूर्णिया और कूचबिहार एयरपोर्ट के साथ-साथ इस लग्जरी विमान को भी भारत सरकार को सौंप दिया, और ये तीनों एयरपोर्ट जहां आज भारतीय वायुसेना के एयरबेस बन चुके हैं और वहीं इस विमान VT-CME C‑47A‑DL 20276 LGB ex 43‑15810 को भारतीय वायुसेना के लिए नया नंबर BJ1045 दे दिया गया। यह विमान वर्षों तक भारत के प्रधानमंत्री का आधिकारिक विमान बना रहा। जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री यहां तक मोरारजी भाई देसाई तक इस विमान का उपयोग प्रधानमंत्री के रूप में कर चुके हैं। अब जबकि दरभंगा एयरपोर्ट से परिवहन उड़ानों को संचालित किए जाने की बातें हो रही हैं तो इसका नामकरण महाराज कामेश्वर सिंह के नाम से ही होना औचित्यपूर्ण है।

चलिए काँग्रेस के नेताओं की बात छोड़ते हैं। काँग्रेस पार्टी के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी को लोक सभा चुनाव में पछाड़कर जनता पार्टी के, या यूँ कहें की गैर-कांग्रेस पार्टी के प्रमुख मोरारजी देसाई, जो 1977 से 1979 तक भारत के प्रधान मंत्री रहे; महाराजा कामेश्वर सिंह के मृत्युपरान्त भी उनके हवाई जहाज VT-CME C‑47A‑DL 20276 LGB ex 43‑15810 (भारतीय वायुसेना के लिए नया नंबर BJ1045) पर पाल्थी मारकर हवा में उड़े थे, जमीन पर भारत के मतदाताओं से मिले थे। देसाई के अलावे, इस विमान को जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री ने भी किया था – बतौर प्रधान मंत्री का आधिकारिक विमान के रूप में।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here