कूड़े का कॉर्पोरेटाइजेशन: कूड़ा उठाने वाला अब मेहरी नहीं, संभ्रांत लोग हैं; कूड़ा बिकने वालों के पेट पर करारी लात

रेड़ी वनाम ड्राईवर के साथ ट्रैक्टर
कूड़ा का कॉर्पोरेटाइजेशन - रेड़ी वनाम ड्राईवर के साथ ट्रैक्टर

नई दिल्ली : शायद आप भी ध्यान दिए होंगे, परन्तु नजरअंदाज करने की आदत तो आम-बात है भारत के लोगों में, विशेषकर जो शहर में रहते हैं और जब तक परिस्थितियां उन्हें नहीं जकड़ने लगती है। शहरों में, चाहे लोग संकीर्ण गलियों में रहते हों या रियल इस्टेट के मालिकों द्वारा बनाये गए गगनचुम्बी अट्टालिकाओं में – प्याज के छिलके से लेकर, दो दिन पहले बनी दुर्गन्धित दाल से लेकर, महिलाओं द्वारा माहवारी में इस्तेमाल किये गए नैपकिन पैड, जिसे काले पन्नी में बांधकर, डस्ट बिन में छोड़कर हम-आप दफ्तर चले जाते हैं और फिर मुहल्ले के कुत्ते उसे नोचकर सभी कूड़े को फैला देता हैं – जिसे आपकी, हमारी अनुपस्थिति में कूड़ा बिनने वाला पुरुष या महिला अपने हाथों से उठाकर ले जाते है और उसके बदले कूड़ा बिकने वालों को हम आप प्रत्येक माह ५० रुपये से १०० रुपये तक देते हैं; जिससे उसका जीवन, उसके परिवार का जीवन यापन होता है – स्वच्छ भारत अभियान के तहत सबसे करारी लात उसके पेट पर पड़ी है। आपने अभी घ्यान नहीं दिया होगा।

स्वच्छ भारत अभियान के तहत आपके घरों से, उन भवनों, अट्टालिकाओं के सामने से अब ट्रैक्टर से कूड़ा उठाया जाता है। ट्रैक्टर पर पूर्व रिकार्डेड अपील बार-बार, लगातार सुनाया जाता है – “प्रधान मंत्री से स्वच्छ भारत अभियान में आप अपना भरपूर सहयोग करें। आपके दरवाजे पर कूड़ा लेने आया है। कूड़ा उसी में फेंकें।”

लेकिन कभी आपने सोचा है कि आपके दरवाजे या गगनचुम्बी अट्टालिकाओं के द्वार से जो कूड़ा ट्रैक्टर में उठाया जा रहा है वह कितने मूल्य का ठेका है? आपने कभी सोचा की इस ठेके का स्वामी कौन है? आपने कभी सोचा की दसकों से जो कूड़ा बिकने वाला आपके दरवाजे से कूड़ा उठाकर ले जाता था और आपके दिए पैसे से उसका परिवार दो वक्त की रोटी खाता था, उस पैसे से उसके बच्चे स्कूल पढ़ने जाते थे, आपके दिए पैसे से पर्व-त्योहारों में उसके चेहरे पर रौनक आता था, आपको कितनी दुआएं देता था – आज ऐसा नहीं है।

आज कूड़ा का कॉर्पोरेटाइजेशन हो गया है। कूड़ा उठाने के लिए ठेका दिया जाता है जो करोड़ों में है और अरबों में है और इसके स्वामी या ठेकेदार ‘कूड़ा बिकने वाले समुदाय से नहीं है’ – बड़े-बड़े व्यापारी, उच्च जाति के लोग, सक्षम लोग, सत्ता के गलियारों में अपनी उपस्थिति दर्ज किये लोग हैं।

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भारत में कूड़ा बिनने वालों का एक विशाल समुदाय है । एक अनुमान के मुताबिक उनकी संख्या 15 लाख से 40 लाख के बीच है। ये लोग कूड़ा इकट्ठा करते हैं। फिर से इस्तेमाल में लाए जा सकने वाले सामानों की छंटनी करते हैं और उसे बेच कर जीवन यापन करते हैं। इससे वे भारत में सालाना उत्पन्न 620 लाख टन कूड़े को साफ करने में हमारी मदद करते हैं हालांकि कूड़ा बिनना पूरी तरह से एक अव्यवस्थित क्षेत्र है।

यहां इस बात को मापना कठिन है कि इस तरीके से कितना कचरा एकत्र किया गया है। लेकिन इसके मोटे तौर पर कुछ संकेतक हैं – भारत में उत्पन्न कचरे का केवल 75-80 फीसदी
नगरपालिका निकायों द्वारा एकत्र किया जाता है और 90 फीसदी से अधिक भारत के पास उचित अपशिष्ट निपटान प्रणाली नहीं है।
इस प्रकार काफी कचरा अनौपचारिक रुप से कूड़ा बिनने वालों द्वारा इकट्ठा किया जाता है। कचरा प्रबंधन योजनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इन कूड़ा बिनने वाले लोगों के पास न तो कोई रोजगार सुरक्षा है, न ही इस पेशे से जुड़ी कोई गरिमा और न ही काम के दौरान खतरों से निपटने का कोई सामान। उनके स्वास्थ्य पर हमेशा जोखिम बना रहता है। उन पर संक्रमण, सांस की बीमारियों और तपेदिक जैसी बीमारी होने का खतरा तो रहता ही है, साथ ही उन्हें गरीबी, अपमान और उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है।

कचरा बिनने वाले के बच्चे भी अक्सर उसी व्यवसाय में जाते हैं और शायद ही कभी स्कूल जा पाते हैं। सरकार का व्यवहार भी उनके साथ अलग नहीं है। कूड़ा बिनने वालों के लिए समावेशी अधिकार, स्वास्थ्य लाभ, सेफ्टी गियर और सामाजिक सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। ​आम तौर पर यदि नाप किसी कूड़ा बिकने वाले से बात करेंगे तो वह मूलतः दो राज्यों का होता है – एक पश्चिम बंगाल सुदूर इलाके से या फिर ओड़िसा और बांग्ला देश के। अपनी कड़ी मेहनत से दो वक्त की रोटी कमा पाते हैं। लेकिन अब इस पर भी समस्या होने वाली है। ​

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2015 में प्रकाश जावडेकर जब पर्यावरण मंत्री थे तब नई दिल्ली में कचरा प्रबंधन के एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था की यह अव्यवस्थित और अनौपचारिक क्षेत्र ने देश को बचाया है इसलिए उनके प्रयासों को पहचानने की जरुरत है इसलिए उन्हें नेशनल अवार्ड से नवाजेंगे। साथ ही, तीन कूड़ा बिनने वालों और कचरा प्रबंधन में शामिल तीन संगठनों को 150,000 रुपए का नकद पुरस्कार देंगे। मन्त्रीजी पर्यावरण से मानव संसाधन मंत्रालय में आ गए परन्तु उन्हें न तो सम्मान मिला और न ही पुरस्कार। अलबत्ता स्वच्छ भारत अभियान के तहत घर-घर से कूड़ा-अचरा उठाने का ठेका समाज के संभ्रांतों को दिया गया और कूड़ा उठाने वालों को अपनी किस्मत पर रोने के लिए छोड़ दिया गया। पुलिस उत्पीड़न एक आम शिकायत है।

एक कचरा बिनने वाला कहता है, “हम बोरियां खोलते हैं और अख़बारों में गंदे सेनेटरी नैपकिन होते हैं, पॉलीथीन में मानव मल, ग्लास, सिरिंज बंधे होते हैं। हमें संक्रमण होता है। सड़ा हुआ भोजन हमें बीमार बना देता है। लेकिन हमारे पास कोई पेंशन नहीं है, कोई मान्यता नहीं, कोई मेडिकल सुविधाएं नहीं हैं।” जब एक परिवार में मुख्य कमाऊ सदस्य बहुत बीमार हो जाता है, तो उसे ठीक होने के लिए फौरन गांव भेज दिया जाता है। वे आरोप लगाते हैं कि सरकारी अस्पताल उनका इलाज नहीं करना चाहते हैं और महंगा अस्पताल चुनने का विकल्प उनके पास नहीं है।

आने वाले कुछ दशकों में भारत वर्तमान की तुलना में तीन गुन ज्यादा कचरा उत्पन्न करेगा। वर्ष 2030 तक 165 मिलियन टन और वर्ष 2050 तक 450 मिलियन टन। लेकिन वर्तमान में केवल एकत्रित 22-28 फीसदी कचरा संसाधित किया जाता है। यह समस्या शहरों में विशेष रूप से बड़ी है। भारतीय शहरों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन कचरा उत्पन्न दर 200 से 870 ग्राम के बीच है। यह दर बढ़ ही रही है। वर्ष 2001 और 2011 के बीच बढ़ती शहरी आबादी और प्रति व्यक्ति कचरा उत्पन्न में वृद्धि के परिणामस्वरूप भारतीय शहरों में कूड़े में 50 फीसदी की वृद्धि हुई है। सरकार इसे उपभोग के बदलते तरीकों और रहन सहन की आदतों में बदलाव से जोड़कर देख रही है।

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यह माना जाता है कि कूड़ा उत्पन्न करने वाले कूड़े को कूड़ेदान में डालेंगे। उसके बाद, नगरपालिका की यह जिम्मेदारी है कि वह उसे वहां से इकट्ठा करे और लैंडफिल में उसे उपचारित करे। हालांकि स्रोत से कचरा लेने के लिए नगरपालिका की जिम्मेदारी नहीं है। इसलिए इस अनौपचारिक क्षेत्र ने दूरी को भर दिया है। नई दिल्ली स्थित एक पर्यावरणीय गैर सरकारी संगठन ‘टॉक्सिक लिंक’ ने कचरा बिनने वालों को चार श्रेणी में बांटा है । एक तो वे हैं, जो बोरियों में खुले नाले और रेलवे डिब्बे से कचरा इकट्ठा करते हैं। दूसरे कबाडी वाले हैं, जो साइकिल से घरों पर जा कर बेकार सामान इकट्ठा करते हैं और फिर ग्लास, कागज और प्लास्टिक से बोतल अलग करते हैं। तीसरे वे हैं , जो तिपहिया वाहनों से आते हैं प्रत्येक दिन लगभग 50 किलो कचरा इकट्ठा करते हैं और उन्हें बेचने के लिए लंबी दूरी की यात्रा करते हैं। और अंत में वे जो स्क्रैप डीलर के रूप में काम करते हैं। ‘इंटरनेशनल आर्काइव ऑफ आक्यपेशनल एंड इन्वाइरन्मेन्टल हेल्थ’ से पता चलता है कि यह व्यवसाय इन कूड़ा बिनने वालों की जिंदगी में जहर घोल रहा है।

जब भारत में कचरे का निपटान होता है, तो यह उन लोगों के लिए बहुत कठिन हो जाता है जो बाद में इसे संभालेंगे। उदाहरण के लिए गंदे डायपर और सैनिटरी नैपकिन दोनों को मेडिकल नजरिये से बेकार माना जाना चाहिए। जैव-चिकित्सा अपशिष्ट (प्रबंधन और हैंडलिंग) नियम- 1998 के अनुसार मल, रक्त, शरीर तरल पदार्थ के साथ किसी भी कचरे को अलग से उपचारित करना चाहिए। लेकिन आम तौर पर इन्हें एक ही कूड़ेदान में डाल दिया जाता है।​ (कहानी का कुछ अंश ​‘सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज’ के शोधकर्ता (बोस और भट्टाचार्य ​के सहयोग से)

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