11 जुलाई, 1947: ‘बिहार के जन्मदाता’ डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा की चिठ्ठी बम्बई के पण्डित उमाकान्त मिश्रा के नाम 

डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा
डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा

पटना: कहते हैं लिखने के लिए एक बहाना चाहिए। हम भी कोशिश किये है आप तक इस चिठ्ठी को पहुँचाने के लिए। यह चिठ्ठी 11 जुलाई, 1947 को भारत के संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष और “बिहारी” डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा ने बम्बई के पण्डित उमाकान्त मिश्रा जी को लिखे थे। चिठ्ठी में अंग्रेजी शब्दों का ‘विन्यास’ जरूर देखिए। यह भी देखिये की चिठ्ठी लिखने, टाईप होने के बाद लेखक अपने हाथों से अंग्रेजी व्याकरण को कैसे दुरुस्त किये हैं। आज जैसी बात तो थी नहीं की आप ‘रोमन’ में लिखते जाएँ, गुगुल बाबू उसे अंग्रेजी अथवा अन्य भाषाओँ में अनुवाद करते जायेंगे, व्याकरण भी ठीक करते जाएंगे; ताकि आपकी चिठ्ठी जब गंतब्य पर हस्तगत हो, तो वे लेखक को उनकी भाषा के लिए धन्यवाद दें।  

वैसे आज के समय में बिहार में तो “लैंड-ग्रेबरों” की संख्या बिहार सरकार के गृह मंत्रालय, मुख्य मंत्री कार्यालय के पास भी नहीं होगी और शायद बिहार विधान सभा के नव निर्वाचित 243 सदस्यों के साथ-साथ विधान परिषद् के माननीय सदसयगण भी इस बात से अनभिज्ञ होंगे की जिस भवन में बैठकर वे सभी कुर्सी तोड़ते हैं, गीता पर हाथ रखकर शपथ तो खाते हैं लोक-कल्याण का लेकिन “लोक” और “कल्याण” का कभी “मिलन” नहीं हो पाता यह जमीन डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा ने दान दिया था। या फिर जय प्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से देश के विभिन्न शहरों, दूसरे देशों के लिए हवाई यात्रा करते हैं, यह जमीन भी डॉ सिन्हा साहेब की ही थी, दान दे दिए। या फिर बिहार से प्राथमिक शिक्षा उत्तीर्ण किये हैं – जिस कार्यालय से डिग्री हस्तगत करते हैं – वह भवन डॉ सिन्हा का आवास था, बहुत प्रेम से सन 1924 में उन्होंने बनबाया था, दान दे दिए। 

खैर। वैसे अभिभाजित भारत राष्ट्र के मानचित्र पर बक्सर का नाम बिहार के नामकरण के कोई 148 वर्ष पहले आ गया था जब ईस्ट इण्डिया कंपनी के हेक्टर मुर्नो की अगुआई में बक्सर में मीर कासिम, सुजाउद्दौला शाह आलम – II के बीच सं 1764 में युद्ध हुआ था, जिसे बैटल ऑफ़ बक्सर के नाम से जाना जाता है । बाद में सं 1912 में अंग्रेज सरकार बंगाल प्रेसीडेन्सी को काटकर 22 मार्च, 1912 को बिहार को अपना एक अलग पहचान दिया। लेकिन शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि 1912 से कोई 19-वर्ष पहले बक्सर का ही एक व्यक्ति बिहार का नामकरण कर दिए थे। वह व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि पटना के टी के घोष अकादमी के पूर्ववर्ती छात्र और भारत के संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा थे। 

आज भले घुटने से एक फुट नीचे या फिर कंधे से एक फुट ऊँचे लोग बिहार को अपना बपौती मानकर काट-छाँट कर, पथ्थर के शिलालेख पर अपना-अपना नाम गुदवाकर, सड़कों पर, चौराहों पर, गलियों के कोने पर, गाँधी मैदान में, गुल्मी घाट में, मजबूती के साथ लगाने में व्यस्त हों; ताकि इतिहास के पन्नों में प्रदेश में उनकी भूमिका लिखा मिले, लेकिन शायद वे यह नहीं जानते ही सत्ता से खिसकते ही या फिर धरती छोड़ते ही, पत्थर भी उन्ही के साथ दफ़न हो जायेगा।  क्योकि ‘बिहार का नाम उन्ही के आम से शुरू होता है। बिहार और वे दोनों पर्यायवाची हैं इस पृथ्वी से कोई सात दसक पूर्व मरने (मृत्यु 6 मार्च, 1950) के बाद भी। 

ये भी पढ़े   भारतीय पुलिस के पूर्व अधिकारी शील वर्धन सिंह ने संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य के बने

10 नवंबर 1871 को मुरार गांव, (चौंगाईं- डुमराव) ज़िला आरा (अब बकसर) के एक मध्यम वर्गीय सम्मानित कायस्थ परिवार में उनका जन्म हुआ और प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हासिल कर मैट्रिक की परीक्षा उन्होंने ज़िला स्कूल आरा से अच्छे नम्बरों से पास किया। डॉ सिन्हा  देश का प्रसिद्द सांसद, शिक्षाविद, पत्रकार, अधिवक्ता, संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष, प्रिवी काउन्सिल के सदस्य, एक प्रान्त का प्रथम राज्यपाल और हॉउस ऑफ़ लॉर्ड्स का सदस्य डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा आज तक एकलौता बिहारी रहे जिनका नाम प्रदेश के नाम से पूर्व आता है यानि बिहार का इतिहास सच्चिदानन्द सिन्हा से शुरू होता है क्योंकि राजनीतिक स्तर पर सबसे पहले उन्होंने ही बिहार की बात उठाई थी। 

कहते हैं, डा. सिन्हा जब वकालत पास कर इंग्लैंड से लौट रहे थे। तब उनसे एक पंजाबी वकील ने पूछा था कि मिस्टर सिन्हा आप किस प्रान्त के रहने वाले हैं। डा. सिन्हा ने जब बिहार का नाम लिया तो वह पंजाबी वकील आश्चर्य में पड़ गया। इसलिए क्योंकि तब बिहार नाम का कोई प्रांत था ही नहीं। उसके यह कहने पर कि बिहार नाम का कोई प्रांत तो है ही नहीं, डा. सिन्हा ने कहा था, नहीं है लेकिन जल्दी ही होगा। यह घटना फरवरी, 1893 की बात है। डॉ. सिन्हा को ऐसी और भी घटनाओं ने झकझोरा, जब बिहारी युवाओं (पुलिस) के कंधे पर ‘बंगाल पुलिस’ का बिल्ला देखते तो गुस्से से भर जाते थे। 

डॉ. सिन्हा ने बिहार की आवाज़ को बुलंद करने के लिए नवजागरण का शंखनाद किया। इस मुहिम में महेश नारायण,अनुग्रह नारायण सिन्हा,नन्दकिशोर लाल, राय बहादुर, कृष्ण सहाय जैसे मुट्ठीभर लोग ही थे। उन दिनों सिर्फ ‘द बिहार हेराल्ड’ अखबार था, जिसके संपादक गुरु प्रसाद सेन थे। तमाम बंगाली अखबार बिहार के पृथककरन का विरोध करते थे। पटना में कई बंगाली पत्रकार थे जो बिहार के हित की बात तो करते थे लेकिन इसके पृथक् राज्य बनाने के विरोधी थे। बिहार अलग राज्य के पक्ष में जनमत तैयार करने या कहें माहौल बनाने के उद्देश्य से 1894 में डॉ. सिन्हा ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ ‘द बिहार टाइम्स’ अंग्रेज़ी साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया। स्थितियां बदलते देख बाद में ‘बिहार क्रानिकल्स’ भी बिहार अलग प्रांत के आन्दोलन का समर्थन करने लगा। 

ये भी पढ़े   ‘क्रॉस-बॉर्डर टेररिज्म’ से लड़ने के लिए ‘अक्रॉस-बॉर्डर कोऑपरेशन’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है : अमित शाह

इसी बीच 26-29 दिसम्बर 1888 के दौरान इलाहाबाद में हुए कांग्रेस अधिवेशन में उनकी गहरी रुचि को देखते हुए उनके परिवार ने उन्हें 1889 में बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेज दिया। वे पहले बिहारी कायस्थ थे, जो पढ़ने के लिए विदेश गए। वहाँ उनकी जान पहचान मज़हरुल हक़ और अली इमाम से हुई, और वे उनकी संस्था अंजुमन-ए- इस्लामिया की बैठकों में भाग लेने लगे। जब वे बैरिस्टर बनकर भारत वापस लौट रहे थे तभी पानी के जहाज़ में उनकी बहस कुछ लोगों से हो गयी जब उन्होंने अपना परिचय “ बिहारी “ के रूप में दिया। उन्हें चिढ़ाने के लिये लोगों ने पूछा कि “ बिहार कहाँ है? नक़्शे पर दिखाओ?”

बिहार' के जन्मदाता डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा की चिठ्ठी बम्बई के पण्डित उमाकान्त मिश्रा के नाम  
बिहार’ के जन्मदाता डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा की चिठ्ठी बम्बई के पण्डित उमाकान्त मिश्रा के नाम  

जब उन्होंने भारत के नक़्शे पर आरा दिखाया तब लोगों ने मज़ाक़ किया , “अरे , यह तो बंगाल राज्य के सबसे पिछड़े इलाक़ों में एक है। डॉक्टर सिन्हा ने उसी समय ठान लिया कि वे बिहार को बंगाल से अलग राज्य बनवाकर ही दम लेंगें। 1893 में भारत वापिस आ कर उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रैक्टिस शुरू कर दी। 1894 में उनकी मुलाक़ात जस्टिस ख़ुदाबख़्श ख़ान से हुई, और वे उनसे जुड़ गए, और जब जस्टिस साहब का तबादला हैदराबाद हो गया तो उनके द्वारा शुरू की गयी ख़ुदाबख्श लाईब्रेरी की ज़िम्मेदरी सिन्हा साहेब ने ले ली और 1894-1898 तक *ख़ुदाबख़्श लाईब्रेरी* के सेक्रेटरी रहे। 

भारत वापस आते ही उन्होंने अलग बिहार राज्य के लिये आंदोलन शुरू कर दिया और वकालत के अतिरिक्त पूरा समय उसीमें देने लगे।अपनी वकालत की ज़्यादा आमदनी भी बिहार आंदोलन पर ही खर्च करते। अंततः 1912 में उन्होने बिहार को बंगाल से अलग करवा कर ही दम लिया। इसीलिये उन्हें *“बिहार निर्माता”* के नाम से भी जाना जाता है। उन्होने बिहार आन्दोलन को गति प्रदान करने के लिये ही ‘द बिहार टाइम्स’ के नाम से एक अंग्रेज़ी अख़बार भी  निकाला जो 1906 के बाद ‘बिहारी’ के नाम से जाना गया। 

सन 1907 में महेश नारायण की मृत्यु के बाद डॉ. सिन्हा अकेले हो गए। इसके बावजूद उन्होंने अपनी मुहिम को जारी रखा। 1911 में अपने मित्र सर अली इमाम से मिलकर केन्द्रीय विधान परिषद में बिहार का मामला रखने के लिए उत्साहित किया। 12 दिसम्बर 1911 को ब्रिटिश सरकार ने बिहार और उड़ीसा के लिए एक लेफ्टिनेंट गवर्नर इन कौंसिल की घोषणा कर दी। यह डॉ. सिन्हा और उनके समर्थकों की बड़ी जीत थी। डॉ. सिन्हा का बिहार के नवजागरण में वही स्थान माना जाता है जो बंगाल नवजागरण में राजा राममोहन राय का। उन्होंने न केवल बिहार में पत्रकारिता की शुरुआत की बल्कि सामाजिक चेतना और सांस्कृतिक विकास के अग्रदूत भी । 

ये भी पढ़े   प्रधानमंत्री ने पहले स्वदेशी विमान वाहक पोत 'आईएनएस विक्रांत' को राष्ट्र की सेवा में समर्पित किया

1908 में बिहार प्रोविंसयल कांफ़्रेंस का गठन हुआ और 1910 में हुए चुनाव में सच्चिदानन्द सिन्हा इंपीरियल विधान परिषद मे बंगाल कोटे से निर्वाचित हुए। फिर 1921 में वे केन्द्रीय विधान परिषद के मेम्बर के साथ इस परिषद के उपाध्यक्ष भी रहे। उनकी अनुशॅंसा पर ही सर अली इमाम को लौ मेम्बर बनाया गया, फिर काफ़ी जद्दोजहद के बाद जब हिंदुस्तान की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली कर दी गयी और 22 मार्च 1912 को बिहार को बंगाल से अलग कर दिया गया। फिर 1916 से 1920 तक डा. सिन्हा बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष रहे। 

1918 में उन्होंने अंग्रेज़ी का अख़बार सर्चलाइट निकाला, तथा 1921 में 5 वर्षों के लिए अर्थ सचिव और कानून मंत्री बनाए गए। वे पहले हिंदुस्तानी थे जो इस पद तक पहुँचे। फिर वे पटना विश्वविध्यालय के प्रथम उपकुलपति बनाए गए। 1924 में उन्होंने अपनी स्वर्गीय पत्नी राधिका सिन्हा की याद में राधिका सिन्हा इॅंस्टीट्यूट और सिन्हा लाइब्रेरी की बुनियाद रखी, और 10 मार्च 1926 को एक ट्रस्ट की स्थापना कर लाइब्रेरी की संचालन का जिम्मा ट्रस्ट को सौंप दिया। 1929 को दिल्ली मे हुए ‘ऑल इंडिया कायस्थ कांफ़्रेंस’ की उन्होंने अध्यक्षता की। 

उन्होंने एमिनेंट बिहार कौनटेम्पोररीस और सम एमिनेंट इंडीयन कौनटेम्पोररीस के नाम से दो किताबें भी लिखीं। 9 दिसम्बर 1946 को जब भारत के संविधान का निर्माण प्रारम्भ हुआ तो उन्हें उनकी क़ाबिलियत की वजह से ही सर्वसम्मति से उसका अध्यक्ष मनोनीत किया गया। उन्होने ही डॅा. भीमराव अम्बेडकर को ड्राफ्टिंग कमेटी का सॅंयोजक चुना। जब संविधान की मूल प्रति तैयार हुई उस समय उनकी तबियत काफ़ी ख़राब हो गई थी , तो मूल प्रति को दिल्ली से विशेष विमान से पटना लाया गया और 14 फरवरी 1950 को उन्होंने उस मूल प्रति पर सॅंविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद के सामने हस्ताक्षर किए। 6 मार्च 1950 को 79 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया।

औरंगाबाद का सच्चिदानंद सिन्हा कॉलेज उनके नाम पर है। सन् 1924 में उन्होंने पटना में जो अपना विशाल आवास बनवाया था, उसमें आज बिहार स्कूल शिक्षा बोर्ड का कार्यालय है। वहीं पास में सिन्हा लाइब्रेरी भी है। बिहार विधान सभा, बिहार विधान परिषद् और पटना एयरपोर्ट की जगह उन्होने ही दान स्वरूप दी थी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here