एक अजूबा पहल – एक हँसीं के लिए – “आएं !! अपना नाम दर्ज करें!!”

“आ​यें !! ​शहीदों के वंशजों की एक हँसी के लिए ​इस ​किताब पर अपना हस्ताक्षर करें !!” ​ – एक गजब का प्रयास सोसल नेटवर्किंग के माध्यम से प्रारम्भ ​

इन्डियनमार्टियर्स डॉट कॉम नामक संस्था सोसल नेटवर्किंग के माध्यम से भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन 1857 -1947 के गुमनाम क्रांतिकारियों और शहीदों के जीवित वंशजों की वर्तमान “उपेक्षित” स्थिति को एक नए तरीके से भारत के लोगों ​को, विशेषकर नयी पीढ़ियों ​को, स्कूली बच्चों ​को जोड़ने का एक नायाब तरीका लेकर ​आया है । 

इस अभियान का नाम है – ““आ​यें !! ​शहीदों के वंशजों की एक हँसी के लिए ​इस ​किताब पर अपना हस्ताक्षर करें !!”

संस्था के संचालक शिवनाथ झा, जो पिछले चार दसकों से अधिक समय से भारतीय पत्रकारिता में रहे हैं, का कहना है: “आपका हस्ताक्षर उनके चेहरे पर एक मुस्कान देगा।  इसलिए, आएं !! इस बहुमूल्य किताब पर अपना ​नाम दर्ज करें, अपना ​हस्ताक्षर करें ताकि आने वाली पीढ़ियों को यह ज्ञात हो की वे अब गुमनाम नहीं रहेंगे।  भारत के लोग, विशेषकर युवा पीढ़ी अपने मन और आत्मा से उन वंशजों के साथ हैं उनके चेहरों पर मुस्कान देने के लिए । 

इन्डियनमार्टियर्स डॉट कॉम पिछले एक दसक से अधिक समय से देश के विभिन्न राज्यों में, प्रखंडों में, गाओं में भारतीय स्वाधीनता संग्राम 1857 – 1947 के गुमनाम क्रान्तिकारियों और शहीदों के जीवित, परन्तु समाज से उपेक्षित, वंशजों को ढूंढ रहा है। यह संस्था अब तक 75 से अधिक वंशजों को ढूंढा है और विभिन्न किताबों के माध्यम से सात वंशजों का जीवन परिवर्तित किया है। ये सभी वंशज आज़ादी के ७२ साल बाद भी गुमनामी का जीवन जी रहे हैं। 

संस्था का मानना है कि जिस तरह भारत के स्कूली पढ़यक्रमों से आज़ादी के क्रान्तिकारियों और शहीदों का नाम मिटता चला जा रहा है, वैसी स्थिति में वह दिन दूर नहीं है जब आज की ही पीढ़ी नहीं, बल्कि आने वाली नश्ल भी उन क्रान्तिकारियों और शहीदों को नहीं पहचान पायेगी; उनके वंशजों के बारे में उन्हें जानकारी हो सोचना व्यर्थ होगा। 

सोसल नेटवर्किंग साईटों के पदार्पण से, जैसे फेसबुक, ट्वीटर, तम्बीर, इंस्ताग्राम, गुगुल, व्हाट्सएप, यूट्यूब, वीचैट, स्काईप, लिंक्डइन इस अभियान को विश्वव्यापी भी बनाया जा सकता है, ताकि न केवल इस प्रयास में विश्वभर में फैले भारत के लोगों को जोड़ा जा सके; बल्कि उनके घर में बच्चे भी इस बात को जान पाएंगे की उन गुमनाम क्रान्तिकारियों और शहीदों के वंशज आज भी जीवित हैं – लेकिन उन्हें बताने वाला कोई नहीं है। 

हमारे सम्वाददाता से बात करते शिवनाथ कहते हैं कि आज सोसल नेटवर्किंग किसी भी प्रचार-प्रसार माध्यम से अधिक अब्बल है। हम एक मिनट के अंदर लाखों ​लोगों ​तक पहुँच जाते हैं। आज सबों के हाथ में स्मार्ट फोन है। लगभग सभी स्मार्टफोन धारक हैं। इस अभियान के तहत भारत के किसी कोने में रहने वाले व्यक्ति अपने मेसेंजर के माध्यम से, अपने व्हाट्सऍस के माध्यम से, अपने फेसबुक के माध्यम से, ट्विटर के माध्यम से अपना-अपना हस्ताक्षर तुरंत प्रेषित कर सकते हैं। 

महारानी लक्ष्मी बाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव के वंशज ​

शिवनाथ कहते हैं: “75 वंशजों के साथ वर्तमान में किताब का आकार-प्रकार 12 ” x 12 ” का है जो करीब 550 पृष्ठों में है। गुमनाम क्रान्तिकारियों/शहीदों की जानकारी के अलावे उनके वंशजों की वर्तमान दशा तस्वीरों के साथ वर्णित है। हम कोशिश करेंगे की सभी उपलब्ध हस्ताक्षरों को इस किताब में समायोजित कर, पृष्ठों की संख्या 800-850 तक ले जाऊँ – यह एक इतिहास होगा। हस्ताक्षरकर्ताओं से विनती भी करेंगे की वे इस प्रयास में अपना न्यूनतम 151 /- रुपये का योगदान करें। नकद किसी भी स्थिति में नहीं स्वीकार्य होगा।

वे जिस तरह विभिन्न सोसल नेटवर्किंग (व्हाट्सएप्प नम्बर: 91-9810246536) के साथ, या फिर ईमेल (indianmartyrs1857@gmail.com) के माध्यम से अपना-अपना हस्ताक्षर भेजेंगे; उसी तरह वे इस राशि को इंटरनेट बैंकिंग के माध्यम से, गुगुल-पे के माध्यम से सीधा इस संस्था के बैंक एकाउन्ट {A/c Name : INDIANMARTYRS.IN, Account No: 4052000100192941, Name of Bank: Punjab National Bank, IFSC Code: PUNB0405200​} में भेज सकते हैं।”

​शिवनाथ का कहना है कि: “उपलब्ध सभी हस्ताक्षरों का एक डाटा-बैंक इस संस्था के पास उपलब्ध रहेगा जिसका उपयोग स्वाधीनता संग्राम के गुमनाम क्रान्तिकारियों – शहीदों के वंशजों का जीवन संवारने में जितने भी ​किताब भविष्य में प्रकाशित होंगे; सभी किताबों में ये हस्ताक्षर प्रकाशित किये जायेंगे।” ​

ये भी पढ़े   आजादी का 75 वर्ष और इस ‘अमृत काल’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के लाल किले से ‘पंच प्रण’ का आह्वान किया

शिवनाथ आगे कहते हैं: “इससे दो बातें होंगी – एक: हमारे पास उन तमाम लोगों का सम्पर्क नंबर या ईमेल हो जायेगा, जो हमारे क्रिया-कलापों से अपडेटेड रहेंगे।  वे हमारे प्रयास को ट्रेक भी कर सकते हैं। और दूसरा: उन्हें या उनके परिवारों में, परिजनों को, माता-पिताओं को फक्र भी होगा की आज़ादी के दीवानों के वंशजों के लिए उनका भी योगदान रहा है। किताबों पर उनका हस्ताक्षर कई दसकों तक जीवित रहेगा जिसे देखकर उनकी आने वाली पीढ़ियां गौरवान्वित महसूस करेंगे।”

खुदीराम बोस का जन्म स्थान

शिवनाथ अपनी शिक्षिका पत्नी श्रीमती नीना झा के साथ इस प्रयास की शुरुआत 2002 में किये जब भारत रत्न शहनाई उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को जीवन के अंतिम वसंत में अपने लिए समाज और सरकार से मिन्नतें करना पड़ा। अपने अथक परिश्रम से शिवनाथ उस्ताद बिस्मिल्लाह खान पर एक मोनोग्राफ बनाये। इस मोनोग्राफ को न केवल तत्कालीन भारत के राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम को सौंपा गया, बल्कि इस किताब का लोकार्पण भी उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने किया अपने जीवन के अंतिम जन्म-दिन पर 25 मार्च सन २००६ में । खान साहेब 91 किलो का केक काटे। प्रारम्भ में उन्हें कोई डेढ़ लाख रुपये की सहायता किये। पांच उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की मृत्यु उसी वर्ष 21 अगस्त को हो गयी। 

अपने प्रयास को आगे ले जाते हुए शिवनाथ-नीना सन सत्तावन के महान नायक शहीद तात्या टोपे के चौथी पीढ़ी के वंशज श्री विनायक राव टोपे, उनकी पत्नी श्रीमती सरस्वती, पुत्र आकाश और दो पुत्रियां – प्रगति और तृप्ति को कानपुर जिले के विठुर गाँव से उठाकर अपने घर गाजियाबाद ले आये। उस समय झा दंपत्ति बिहार के एक नेता पर किताब कर रहे थे। इस किताब और नागपुर के एक समाचार-पत्र के मालिक के सहयोग से झा दम्पति न केवल टोपे की दोनों बेटियों को एक लोक उपक्रम में नौकरी दिलवाने में सफल रहे, बल्कि पाँच लाख रूपये से भी मदद किये। 

शिवनाथ कहते हैं: “गरीब को बेटी होना अभिशाप मन जाता है, आज भी। विनायक राव टोपे इससे अछूता नहीं थे।​ ​वे भी निर्धन थे। उन्हें भी दो बेटियां थीं। कोई विवाह नहीं करना चाहता था। लेकिन जैसे ही उन दोनों को सरकारी उपकम में नौकरी मिली, हाथ थामने के लिए कई हाथ आगे आये। आज दोनों बेटियां खुश हैं। अपना-अपना परिवार-परिजनों को संभल रहीं हैं।”

दस साल पहले, अपने तीसरे किताब के माध्यम से, जो भारत के प्रधान मंत्रियों पर था; झा दंपत्ति भारत के अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर के मुमताज बेगम की वंशज – सुल्ताना बेगम – के जीवन में एक परिवर्तन लाये। यह वंशज बंगाल के हावड़ा जिले में एक झुग्गी में रहती थी। किताब के प्रकाशन के बाद सुल्ताना बेगम के प्रयास से उनकी एक संतान को भारतीय रेल में नौकरी मिली, साथ ही, दो लाख रूपये की मदद भी हुयी। 

शिवनाथ कहते हैं: “दुर्गन्ध से भरी एक गली, नाले पर कुछ ईंटों के सहारे ऊपर रखा एक सीमेंट का पथ्थर। उसपर चूल्हा रखा था। कोई आठ फिट x आठ फिट का एक कमरा, जिसमे रिसे हुए पानी का दुर्गन्ध, कुछ डब्बे जिसमे अनाज का दाना रखा था। लोहे के चादरे का एक बक्सा, शायद दसकों पुराना, जिसमे उनके कपडे थे। सामने कमरे के एक कोने में रस्सी बंधा था जिसपर कुछ कपडे लदे थे, साथ ही, मच्छरदानी का रस्सी भी एक कोना थामे लटका था। दरवाजे के बाहर खुली नलिया बह रही थी और पड़ोस में कारीगर चूड़ियां बना रहे थे। गली के कोने पर कुछ कावड़ी रखा था। कुछ पुराने अख़बारों के बण्डल गिरे-पड़े थे। यह सम्पूर्ण दृश्य दिल्ली के लालकिले, पुराने किले, क़ुतुब मीनार बनाने वालों के वंशज का था जो अपनी दो बेटियों के साथ कलकत्ता के  हुगली नदी के किनारे शिवपुर इलाके में स्वतंत्र भारत में एक-एक सांस ले रहे थे। 

सन 2011 तक शिवनाथ-नीना करीब 22 वंशजों को ढूंढ पाए थे। इन सभी वंशजों के साथ फिर एक किताब बनाये। इस बार इस किताब से जलियांवाला बाग़ के महान नायक शहीद उधम सिंह, जिन्होंने 20 साल बाद उस ऐतिहासिक हत्याकांड का बदला लिया था, के मातृपक्ष के तीसरी पीढ़ी के वंशज जीत सिंह का भाग्य लिखा जाना था।  

ये भी पढ़े   प्रधानमंत्री ने श्री राम जन्मभूमि मंदिर को समर्पित छह स्मारक डाक टिकट जारी किए

जलियांवाला बाग़ के 92 वर्षगाँठ पर इस किताब को जीत सिंह स्वयं लोकार्पण किये। इस बार भी नागपुर-संपादक के सहयों से, इस किताब से करीब साढ़े एग्यारह लाख रूपये एकत्रित किये गए जो जीत सिंह और उनके परिवार को नया जीवन दिया। यह अलग बात है कि पिछले कई वर्षों से पंजाब प्रशासन के लोग जीत सिंह को, उनके परिवार को सरकारी नौकरी देने का अस्वासन देते आयी है, लेकिन अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठ पाया है। 

शिवनाथ आगे कहते हैं: साल था 2013  और हम चम्बल घाटी की होते अम्बा की ओर अग्रसर थे। चम्बल घाटी के बीहड़ में, आधुनिक ताम-झाम से दूर, शहरों के शोर-गुल से दूर जहाँ पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के पूर्वजों का घर था, आज भी है, वंशज  हैं – लेकिन  जिंदगी बीहड़ जैसी ही है। सरकारी मुलाजिम, राजनितिक दबंग और राज्य-शहर के गणमान्य लोग बिस्मिल के परिजनों को दिए गए सम्पूर्ण जमीन को हड़प लिए थे। यहाँ तक की उन्ही के जमीन पर बिना कोई मुआबजा दिए बिस्मिल की प्रतिमा लगाकर ढोल-तासे बजबा लिए थे, राष्ट्रभक्तों की पंक्ति में स्वयं को पंक्तिबद्द कर लिए थे। 

​”​हम पति-पत्नी-बेटा तीनो जन कोक सिंह के घर में बैठे थे। घर के नाम पर मिटटी-भीत का चाहर दीवारी, ऊपर बांस के कुछ टुकड़ों के  सहारे रुका हुआ नीला प्लास्टिक का छत, एक छोटा सा कमरा, कोने में कुछ वर्तन, थाली, बोरी में अनाज और लकड़ी रखा था। यथायोग्य पूंजी बस यही थी।  घर में बीरेंद्र सिंह, उनकी पत्नी, एक बेटा और एक बेटी – प्रियंका। सभी बड़े ही आशा की नजर से देख  रहे थे। अपनी समस्त दस्तावेज को मेरे सामने पसारे थे। किसने कब लुटा उन्हें, दिखा रहे थे। हम एक निरीह प्राणी की तरह देख रहे थे। तभी प्रियंका की माँ बोली: “बेटी बड़ी हो गयी है, पहले किसी तरह इसकी शादी हो जाय, हमलोग नमक-रोटी खाकर जी लेंगे।”

“देश की आज़ादी के लिए अपने प्राणों को न्योंछावर करने वाला शहीद का वंशज स्वतंत्र भारत में नमक रोटी खाकर जीने की हिम्मत रखता है आज भी”, सुनकर ह्रदय गदगद हो गया। 

शिवनाथ जब उनसे पूछे की शादी में न्यूनतम कितने खर्च होंगे?” वे आशा भरी निगाह से देखे और बोलीं : “दो लाख तो लग ही जायेगा । आज तो 80  रूपये किलो दाल मिल रहा है और दूल्हा, चाहे अनपढ़ ही क्यों न हो, बेरोजगार ही हो, शादी के समय पॉयथन जैसा मुँह खोलता है। कभी साईकिल चलाया नहीं हो, लेकिन बाईक की फरमाईश जरूर करता है।” उनकी  बातों में गजब की सच्चाई थी।  

​​भारत पॉजिटिव शो – फ़ीवर एफएम 

हम सभी फिर एक किताब पर काम कर रहे थे जिसे हमने प्रियंका के लिए निर्धारित किया था। इस किताब के प्रकाशन में मुंबई के श्री ए. के. रॉय साहेब का महत्वपूर्ण योगदान था। रॉय साहेब जेनेरल इंश्योरेंस कंपनी – आरई के अध्यक्ष सह प्रबंध निदेशक थे। हमारी याचना को गंभीरता पूर्वक सुने और मदद के लिए तत्पर हो गए।इस किताब का लोकार्पण / वितरण  मुंबई उच्च न्यायालय के एक्टिंग न्यायाधीश (भूतपूर्व) और महान गांधीवादी न्यायमूर्ति चंद्रशेखर धर्माधिकारी साहेब किये।अब न्यायमूर्ति धर्माधिकारी ​जीवित ​नहीं हैं। यहाँ बिजेंद्र साहेब भी उपस्थित थे। उस मंच से यह एलान किया गया की सुलभ इंटरनेशनल सोसल सर्विस संसथान के संस्थापक डॉ बिन्देश्वर पाठक साहेब, जिन्हे न्यायमूर्ति धर्माधिकारी साहेब भी जानते थे; प्रियंका के विवाह के लिए दो लाख रुपये दिए। प्रियंका का विवाह संपन्न हुआ। आज  ससुराल में रहती है, ख़ुशी-ख़ुशी। 

हमारे संवाददाता से बात करते शिवनाथ कहते हैं: अपनी माँ को हमने अठारह साल एक विधवा के रूप में जीते देखा। अपने प्रयास के दौरान शहीदों के वंशजों के घरों में कई विधवाओं को भी देखा था। बनारस, मथुरा, वृन्दावन में भी विधवाओं को देखा था। उनकी त्रादसी देखा था। हम अपनी माँ को ही एक “विषय” बनाया और वैसी विधवा माताओं के बारे में सोचने लगा जिनके पति के देहावसान के बाद घर में, समाज में उनकी क्या स्थिति होती है। क्यों बाल-बच्चे विधवा माँ को छोड़ देते यह जानते हुए की उनकी जवानी भी बरकरार नहीं रहेगी और समय की नजर किस पर कैसी ?

ये भी पढ़े   सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने आईटी नियम, 2021 के तहत 10 यूट्यूब चैनलों के 45 यूट्यूब वीडियो ब्लॉक किए

अपने प्रयास के दौरान एक शहीद के घर में उनकी तीसरी पीढ़ी के वंशज से मिले।  वह विधवा थी और अपने जीवन की कुछ बची-खुची साँसें गिनती जीवन काट रही थी। उन्हें देखकर मन मार्मिक हो गया था। फिर एक किताब की कल्पना किये – इण्डियाज एबेन्डेन्ड मदर्स।  इस किताब से उस शहीद के तीसरी पीढ़ी के विधवा वंशज को जीवन के अंतिम वसंत में जीने  सांस फूंका गया। यह छठा प्रयास था । 

एक दिन अपनी पत्नी और पुत्र के साथ बनारस के मणिकर्णिका घाट पर बैठे थे। पुत्र को बाबूजी के बारे में बता रहे थे। गंगा की लहार भी शांत थी जैसे हमारी बातों को सुन रही है। अकस्मात् मन में ख्याल आया क्यों न बनारस को अलग नजर से देखूं और किताब बनाऊं। जैसे ही यह बात अपनी पत्नी-पुत्र को बताया, वे दोनों एक साथ कहीं: “बाबूजी भी आपको यह बात बताये थे। शायद समय की रेखाएं मणिकर्णिका से ही शुरू हो रही हो।” और हम जुट गए अपने कार्य में। साल था 2014  और महीना जनबरी। “रीविजिटिंग बनारस” किताब का जन्म हुआ। इस किताब में आदिकाल से वर्तमानकाल तक बनारस को तस्वीरों के साथ दिखाया गया । इस किताब में कोई भी पहलु नहीं छोड़ा गया जिसका  अस्तित्व बनारस के साथ नहीं जुड़ा हो। ​तीन वर्ष लगे इस किताब का डमी बनाने में।​ ​रीविजिटिंग बनारस भी शहीद के एक वंशज की जीवन में सुधार लाने के निम्मित बना है। समय रेखा भी यही कहती है और हमारा प्रारब्ध भी यही कहता है। और वह वंशज हैं मिदनीपुर का वह पुत्र – खुदीराम बोस – जिसे मुजफ्फरपुर जेल में फांसी लगी थी और उसके गुरु – शहीद सचिन्द्रनाथ बोस – को अलीपुर जेल में। दोनों देश की आज़ादी की लड़ाई में अपने-अपने प्राणों की आहुति दिए। आज गुरु का वंशज जीवित है लेकिन न तो समाज और न ही व्यवस्था उन्हें पहचानती है। 

इस किताब की सबसे बड़ी विशेषता यह है की इस किताब में स्वामी विवेकानंद की बड़ी बहन श्रीमती सूर्यमणि देवी की चौथी पीढ़ी के वंशज ने भी 990  शब्द लिखे हैं। वे यह भी लिखे हैं की उनके पूर्वज, यानि विवेकानंद बनारस तीन बार आये। वे वहां एक मठ बनाना चाहते थे। सबों में उत्साह था। लेकिन राजनीति उन दिनों भी थी । पैर खींचने वाले उस दिन भी जीवित थे और समाज में अपना स्थान रखते थे जिसका भुगतान विवेकानंद को करना पड़ा। 

श्रीमती नीना झा और शिवनाथ झा 

अंतिम बार बनारस छोड़ने से पहले विवेकानंद गंगा तट पर कुछ लोगों को सम्वोधित करते कहा था: “आज मेरी बात आप नहीं मान रहे हैं, लेकिन कल आप पश्चाताप करेंगे। आज आप मेरा साथ नहीं दे रहे हैं, कल बनारस के लोग ही नहीं, भारत के लोग ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व के लोग मेरे पीछे, मेरे सिद्धांतों के पीछे, विचारों के पीछे कुत्ते की तरह चलेंगे। लेकिन तब मैं नहीं रहूँगा। हमारे शब्द आज आप गाठ बाँध लें। हो सके तो कहीं लिख लें।” स्वामी विवेकानद गलत नहीं कहे थे। 

आज़ादी की लड़ाई लखनऊ के नाम के बिना अधूरा है। इतिहासकारों ने, विद्वानों ने, विदुषियों ने आज़ादी की लड़ाई में लखनऊ की भूमिका को जिस तरह से अपने-अपने शब्दों में परोसा, वह तो स्वयं में एक इतिहास है; लेकिन आज लखनऊ के लोग ही नहीं, उत्तर प्रदेश के लोग ही नहीं, भारत के लोग ही नहीं, विश्व के लोगों तक – जो लखनऊ आते हैं कुछ देखने के लिए, भारत की आज़ादी की लड़ाई के समय के चश्मदीद गवाहों को देखने के लिए; वह अब वैसा नहीं रहा – कारण समाज और लोगों की उपेक्षा, उनकी मानसिकता का जर्जर होना नहीं तो सैकड़ों साल पुराने इतिहास पर, पथ्थरों पर कोई “आई लव यू प्रेमा लिखा क्या?” “किनारे पेशाब करता क्या?” पान और गुटका का पिक फेकता क्या?”, “रात के अँधेरे में वहां दीर्घशंका करता क्या?”, “लकड़ी-लोहे को निकालकर अपने-अपने घरों को सजता क्या?” नहीं न!!

जी हाँ। आज भी लखनऊ शहर से कोई चालीस किलोमीटर दूर फूस  में रहता भारतीय स्वाधीनता संग्राम का एक वंशज, चौथी पीढ़ी जिसे कोई नहीं जानता – उसके लिए यह किताब है “लखनऊ: द लैंड ऑफ़ हेरिटेज।” हमारी कोशिश है की हम अपने पुरात्तव को बचाने के लिए किताब के माध्यम से एक शुरुआत करें, लोगों को बताएं; ताकि आने वाली पीढ़ी हम पर थूके नहीं। और फिर किताब से ही फिर किसी और वंशज का जीवन सँवारा जाय। मुझे नहीं मालुम समय की रेखाएं कितने वंशजों के दरवाजे तक मुझे ले जायेगा उनके चेहरों पर मुस्कान देने के  लिए, लेकिन अब तक 75  वंशजों को ढूंढ पाया ​हूँ। ​​प्रयास अनवरत चलता रहेगा। 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here