क्या अपनी ब्याहता के साथ पति द्वारा जबरन यौनकर्म धारा 375 (भारतीय दंड संहिता) के तहत बलात्कार का जुर्म बनता है ? दिल्ली हाईकोर्ट के दोनों जज भिन्न राय के निकले, अत: अब सर्वोच्च न्यायालय तय करेगा। पड़ोसी पाकिस्तान में यही मुद्दा मुस्लिम लीग (जिन्ना) की सांसद मोहतरमा काशमाल तारिक ने उठाया था (स्टेट्समैन, 25 अगस्त 2011)। वह ऐसे पति को दण्डनीय अपराध का दोषी मानती है। मगर उनके पुरुष सांसद इसे इस्लाम—विरोधी करार देते हैं। तो सत्य कहां है? क्योंकि पत्नी तथा वेश्या के साथ बलात्कार का कानूनी हक पुरुष के पास बरकरार है। क्या यह महिला पर अत्याचार का मामला नहीं बनता ?
पारम्परिक रुप से न्ययिक प्रक्रिया को समुचित बनाने हेतु विशेषज्ञों से राय ली जाती है। अत: दिल्ली तथा सुप्रीम कोर्ट को विवाह संस्कार पर वेद शास्त्रों को साक्ष्य की दरकार है। मसलन हिन्दू विवाह में सप्तपदी का प्रधान महत्व है। शादी का वास्तविक प्रमाण भी यही है। इसके अनुच्छेद पांच, छह और सात पर गौर कर ले :
5.स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!
(इस वचन में कन्या जो कहती है वो आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है। वो कहती है कि : ”अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)” यह वचन पूरी तरह से पत्नी के अधिकारों को रेखांकित करता है। बहुत से व्यक्ति हर प्रकार के कार्य में पत्नी से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर लिया जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है.
6. न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत !
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!!
कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगें। यदि आप जुआं अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें, तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।
वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं। विवाह पश्चात कुछ पुरूषों का व्यवहार बदलने लगता है। वे जरा जरा सी बात पर सबके सामने पत्नी को डाँट-डपट देते हैं। ऐसे व्यवहार से बेचारी पत्नी का मन कितना आहत होता होगा। यहाँ पत्नी चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्हीं दुर्व्यसनों में फँसकर अपने गृहस्थ जीवन को नष्ट न कर ले।
7. परस्त्रियं मातृ्समां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या!
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!
अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नी के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार नहीं बनाएंगें। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ। विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध पथभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है ? ये आप सब भली भांति से जानते हैं। इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है। देखिये किस प्रकार ईश्वर को साक्षी मानकर किए गए इन सप्त—संकल्प रूपी स्तम्भों पर सुखी गृहस्थ जीवन का भार टिका हुआ है।
पांचवें वचन में वर मानता है कि वधू वामांग में आना स्वीकारती है यदि ”आज मेरी भी मंत्रणा लिया करें।” इसका तात्पर्य यह हे कि रसोई से लेकर शयनकक्ष तक पत्नी की राय अनिवार्य है। हां अलबत्ता पति अपनी राजी करने, मनाने की क्षमता का प्रभाव डालकर यौनकर्म पर हामी भरवा ले। वर्ना हठ और दबाव का प्रयोग तो कानून के दायरे में आ जायेगा।
छठे में पत्नी की मांग है कि दुर्व्यसन से अपने को दूर रखें।” मतलब यदि मद्यपान कर आये तो? पत्नी को ”ना” कहने का अधिकार है।
सबसे और महत्वपूर्ण है: परदारागमन तो बहुत से भी बुरा है। कोई भी पत्नी बंटवारा नहीं स्वीकारेगी। यौन से हिंसा सर्वविदित है। अब सलाह—सुझाव वाली इन शर्तों का पुरुष पालन नहीं करता है तो क्या वह जबरन यौन संबंध बनाना जैसे नहीं ? एक भ्रम को निर्मूल करना जरुरी है। कई पुरुषपक्ष के वकीलों ने कहा कि विवाह के मायने, अर्थात सत्पदी के बाद पाणिग्रह अटूट नहीं हो जाता है। इसलिये यह सप्तपदी कपोल—कल्पित है। इतने तलाक और विवाह विच्छेद होने के कारण बहुधा पति का कठोर व्यवहार होता है। शादी से अभिप्राय यह नहीं है कि स्त्री सर्वस्व अर्पण कर दिया। स्त्री का भी पृथक अस्तित्व तथा व्यक्तित्व है। पांचाली द्रौपदी ने धृतराष्ट्र के भरे दरबार में यही मसला उठाया था : ”दास बन चुके पांच पतियों को कैसे हक मिल गया कि वह पत्नी पर फिर भी स्वामित्व बनाये रखें?” विदूषी द्रौपदी को जवाब भरी सभा में कोई भी विद्वान नहीं दे पाया। महात्मा विदुर का भी मिलता—जुलता प्रश्न था । ”ऋषिपुत्र जाबाल की मां जाबाला का पति कौन ?” आखिर संतान के नाम के लिये पति का नाम चाहिये। मगर आधुनिक दौर में स्कूल फार्म में पिता का नाम अनिवार्य नहीं है।
बदलते प्रगतिशील भारत में दंड संहिता की धाराये 498 (क्रूरता), घरेलू हिंसा, 376 तथा 377 ( अप्राकृतिक यौन कर्म) पर तो महिला अदालत जा सकती हे। तो जोरजबरदस्ती से किये गये यौन कर्म के प्रतिरोध में क्यों नहीं ? एक अन्य पहलू भी है कानून ही नहीं समाज की दृष्टि में भी इस समस्या के विश्लेषण को कोर्ट को भी करना होगा।
यूं प्रधान न्यायाधीश (स्व.) जगदीशचन्द्र वर्मा की समिति का स्पष्ट रुप से निर्देश है कि वैवाहिक बलात्कार को जुर्म माना जाये। इसी सिलसिले में एक तथ्य गौरतलब है कि नरनारी की समानता संविधान का आधारभूत आदेश है। जब मानव—मानव के मध्य विषमता अवैध तथा अमान्य है तो फिर पत्नी को दोयम दर्जा क्यों? यह तो संविधान की धारा 14 का सरासर उल्लंघन है।
इस परिवेश में अपनी मशहूर पुस्तक : “Marital rape: Consent, Marriage, and Social Change in Global Context” में अमेरिकी महिला अभियानकर्ता केर्स्टी यिलो तथा एम. गेब्रियाल टोरेस ने विस्तार में विवरण दिया है कि पत्नी को बहुधा इच्छा के विरुद्ध यौनकर्म हेतु पति विवश करते हैं जो अपराध है। अत: विवाह के अर्थ आजीवन हेतु लाइसेंस नहीं माना जा सकता।
अब आज भारत भर में महिलाओं की सुप्रीम कोर्ट पर आंखें लगी हैं। पर संदेह होता है जिस राष्ट्र में संसद के फैसले के बाद भी एक तिहाई सीटें देने पर इतने वर्षों बाद भी आनाकानी हो रही है तो इस प्रस्तावित कानून का क्या होगा? यूं नागपुर हाईकोर्ट राय व्यक्त कर चुका है कि शील नारी का बहुमूल्य आभूषण है। जज ने कहा कि विवाहिता को प्रेम संदेश भेजना भी उसका शील भंग जैसा है। (टाइम्स आफ इंडिया : 18 अगस्त 2021)। अपनी राय बदलने के पूर्व तत्कालीन महिला—बाल मंत्री मेनका गांधी भी महिला के शरीर पर हिंसा का विरोध वाले कानून की पक्षधर थीं। अब ? उधर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील तथा स्व. सुषमा स्वराज के पति स्वराज कौशल का मानना है कि ढेर सारे पुरुष जेल में आ जायेंगे यदि यह नियम मान लिया गया तो !