पटना सिटी / पटना / नई दिल्ली : सन चौहत्तर (1974) में जयप्रकाश नारायण (तब तक लोक नायक नहीं बने थे) द्वारा भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी और उनकी कांग्रेस पार्टी को सत्ता से दूर, बहुत दूर, उखाड़ फेंकने वाला आंदोलन जलेबी की तरह गरम था। पटना और आस-पास के जिलों की सड़कों पर ‘निमोछिया’ से लेकर काली-काली धारीदार उभरती मूंछों की लकीरों से युक्त युवक स्वयं को देश का भावी राजनीतिक हलवाई मानकर भारत का भविष्य गोल-गोल छान रहे थे। जो छोटे सोच वाले थे, उनकी जलेबी होती थी; जो बड़े सोच वाले थे, वे जलेबा छानते थे। अगर आपको दृष्टान्त लेना है तो बिहार के छोटका-छोटका घुटने-ठेंघुने कद के नेताओं से लेकर, आदमकद के नेताओं को एक नजर देख लें, जो पटना के सचिवालय से लेकर दिल्ली के विजय चौक के दाहिने-बाएं वाले अंग्रेजों के ज़माने में निर्मित मकानों में गोल-गोल गोलगप्पा जैसा बतियाते हैं, ‘तथाकथित’ रूप से विश्वास दिलाते हैं कि बिहार में विकासबाबू बहुत तेजी के साथ बढ़ रहे हैं। एक बात पर ध्यान अवश्य रखेंगे – जिन नेताओं को दृष्टान्त स्वरुप आंकलन करेंगे उनकी उम्र न्यूनतम न्यूनतम 60+ वर्ष अवश्य हो तभी वे 18 मार्च, 1974 और उसके बाद वाले आंदोलन को देखे होंगे।
यह बात इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि यह सुनकर आप चकित हो जायेंगे कि आज जिनकी आयु 70 वर्ष या उससे एक-आध साल कम और अधिक है, वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के निमित्त राज्य और केंद्र सरकार के द्वारा दी जाने वाली राशि (न्यूनतम 30000 केंद्र + 12000 राज्य सरकार = 42000/- रुपये प्रतिमाह और अन्य सुविधाओं) का आनंद ले रहे हैं। मुफ्त का माल किसे अच्छा नहीं लगता है। दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु तो 59-वर्ष पहले हो गई। मरने से पहले उन्होंने दरभंगा ही नहीं, बिहार के लोगों के लिए, गरीब-गुरबों के लिए, विकास के लिए, शिक्षा के लिए, स्वास्थ्य के लिए, उद्योग के लिए, वैज्ञानिक शोध के लिए, विद्यालय के लिए, महाविद्यालय के लिए, कन्याओं के लिए, विधवाओं के कल्याणार्थ जो सम्पत्तियाँ छोड़ गए, उसे ‘बिना डकार लिए उनके परिवार के लोग बाग़’ कैसे गटक गए, गटक रहे हैं। इसलिए कहते हैं – मुफ्त का माल किसे अच्छा नहीं लगता और इसलिए भी कहता हूँ कि ‘मूक-बधिर बने रहने से करोड़ों गुना बेहतर है कि ‘तुतलाकर’ ही सही, ‘हकलाकर’ ही सही बोलिये जरूर। अगर बोलेंगे नहीं तो लोग कलेजा पर चढ़कर नाचेंगे और पूछेंगे भी नहीं की दर्द तो नहीं करता। एक बात और, अगर आगे बढ़ना है, इतिहास लिखना है, तमाचा मारना है – तो दुःख के समय किसी के बातों को अन्यथा नहीं लें। उसे ‘सकारात्मक’ रूप से स्वीकार करें। उसकी बात को ‘गाँठ’ बाँध लें, तो फिर अपने कर्म-पथ पर चलते इतिहास रचें। एक दिन ऐसा आएगा जब आप अपने उत्कर्ष पर होंगे और वह व्यक्ति जमीन के अंदर दफ़न होगा।
पटना के चांदमारी रोड के अंतिम छोड़ से पहले एक मकान में कुछ ऐसी ही बात हुई थी सन 1974 में जब एक युवक को ”आर्यावर्त” हिंदी दैनिक के एक तत्कालीन संपादक पंडित जयकांत मिश्र ने कहा था: “लिखना आता नहीं है … तालब्य और तंत शब्दों में अंतर नहीं समझते, मूर्धन्य शब्द के बारे में कभी सुने ही नहीं, वर्णमाला आता नहीं, संधि को हमेशा विच्छेदित करते हैं और कहते हैं पत्रकार बनेगे …लिखने का अवसर दें वह भी शैक्षिक जगत में ….. ” आज तक मिश्र जी की वह बातें कानों को बेधती है। आज भी जब उस दृश्य को वह युवक याद करता है तो रक्तचाप बढ़ जाता है। आज भी उनकी छवि याद आने से ‘पंडित’ शब्द से घृणा होने लगती है। जिसमें मानवता, आत्मीयता, अपने से छोटे के प्रति सम्मान नहीं हो वह कैसा पंडित? लेकिन पंडित जयकांत मिश्र के सामने खड़ा वह नवयुवक अपने दोनों हाथों की दसो-अंगुलियों को मोड़ते, सीधा करते, मुस्कुराते, खड़ा रहा – बुजुर्गों के प्रति सम्मानार्थ । यहीं बिना बोले, ह्रदय के अन्तः कोने में अश्रु की धाराओं से एक शपथ पत्र लिखा गया: “देखेंगे मिश्र जी, मैं पत्रकार ही नहीं, एक बेहतरीन इंसान भी बनूँगा, एक बेहतरीन संपादक भी बनूँगा, हिंदी साहित्य के सम्मानार्थ शब्दों का एक जीता-जागता, चलता-फिरता शब्दकोष भी बनूँगा, प्रदेश की घटनाओं का एक बेहतरीन डायरी भी बनूँगा, अपने पिता, दादा, परदादा और अन्य पूर्वजों के सम्मानार्थ, जो जीवन पर्यन्त शब्दों से खेलते रहे, उनकी पंक्तियों में खड़ा हूँगा। जिस दिन मेरे बारे में कहानी लिखी जाएगी, आप जीवित नहीं रहेंगे। आप जिस अखबार का आज संपादन कर रहे हैं, वह मिट्टी में मिली होगी – लेकिन उसी संस्थान का एक दूसरा पत्रकार इस घटना को शब्द बढ़ करेगा – आपके सम्मानार्थ।
कहते हैं महिलाओं, बच्चों और कम-उम्र के युवकों का वेदना कभी-कभी “श्राप” बन जाता है। समय का खेल देखिए, कुछ वर्षों बाद, ‘आर्यावर्त’ अखबार की नींव हिलने लगी। महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह द्वारा सन 1940 में स्थापित ‘आर्यावर्त’ अखबार का मालकियत सहस्त्र फाकों में बंट गया। जिस अखबार की स्थापना महाराजाधिराज बिहार के लोगों को, मिथिला के लोगों को, दरभंगा राज परिवार के लोगों को ‘मूक-बधिर’ होने से बचाने के लिए एक आवाज स्वरुप स्थापित किये थे – संस्थान का पतन खुली आखों से देखने लगे, हिस्सेदारी करने लगे। जैसे-जैसे अपनो ने ही अखबार को समाप्त करने की दिशा में बढ़ते गए, इस अखबार के दफ्तर से कोई पचास कदम दूर गंगा छोड़ की तरफ एक अखबार अंकुरित होने लगा और उसी अखबार में वह युवक एक संवाददाता के रूप में अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत किया। कोई दो दशक उस अखबार के पन्नों के प्रथम पृष्ठ से लेकर सम्पादकीय पृष्ठ के रास्ते खेल और फिल्म के पृष्ठों तक छपता रहा। लाखों-लाख पाठकों द्वारा पढ़े जाने वाले उस अखबार को, जिसमें प्रदेश के हिंदी-अंग्रेजी-बांग्ला-उर्दू-मगही-भोजपुरी-संस्कृत-मैथिली साहित्यों के हस्ताक्षरगण भी थे, कभी उस युवक की लेखनी के विरुद्ध कलम नहीं उठाये, यह आरोप नहीं लगाए कि लेखक को “लिखने का सबुर नहीं है … तालब्य और तंत शब्दों में अंतर नहीं समझते, मूर्धन्य शब्द के बारे में कभी सुने ही नहीं, वर्णमाला आता नहीं।”
सत्तर के दशक के पूर्वार्ध से आज तक वह युवक अपने पुरखों की तरह शब्दों को संजोता रहा, उसे विन्यास करता रहा, लिखता रहा, पाठकों के बीच परोसता रहा, लोग पढ़ते रहे और वह आगे बढ़ता रहा। आज वह युवक भारतीय पत्रकारिता जगत में एक परिवार का पांचवा पीढ़ी है और छठी पीढ़ी भी आगे निकल गयी है – उस ज़माने के उस युवक का नाम है ज्ञानवर्धन मिश्र। ज्ञानवर्धन मिश्र तत्कालीन आर्यावर्त अखबार के हस्ताक्षर श्री रामजी मिश्र ‘मनोहर’ जी के तीन पुत्रों में सबसे बड़े पुत्र हैं। आज ज्ञानवर्धन मिश्र का बेटा अमित मिश्र रांची में पत्रकारिता करते हैं। अमित अपने वंश में पत्रकारिता की छठी पीढ़ी हैं। भारत के पत्रकारिता के इतिहास में शायद छठी पीढ़ी के वंशज” नहीं मिलेंगे।
ज्ञानवर्धन मिश्र से मेरा ताल्लुकात दो तरह से रहा। एक मैं उनके पिता को गुरु मानता था और उसी संस्थान में (दी इण्डियन नेशन) 18 मार्च, 1975 को महज माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण कर नौकरी प्रारम्भ किया था – पत्रकारिता की सबसे निचली सीढ़ी से (कॉपी होल्डर) और दूसरे, समयांतराल, ज्ञानवर्धन जी के साथ सड़क पर पत्रकारिता सीखने के क्रम में टकराता था। दोनों का मेरे प्रति अलग-अलग सम्मान था, आज भी है। इतना ही नहीं, आज जब ज्ञानवर्धन मिश्र का पुत्र अमितजी बात करते हैं, तो वे भी मित्र ही है। लेकिन उनके शब्दों से यह एहसास जरूर होता कि वे मुझे अपने पिता के मित्र और दादाजी के शिष्य मानते हैं। शब्दों का चयन और विन्यास सुनकर शायद पंडित जयकांत मिश्र भी मुस्कुराते होंगे, जब रामजी मिश्र ‘मनोहर’ जी सपत्नी उनका ‘चुटकी’ लेते होंगे ईश्वर के दरबार में।
मेरा प्रारब्ध देखिए – आज इस कहानी को लिखते समय, शब्दों को गूंथते समय मैं अनेकानेक बार श्री रामजी मिश्र ‘मनोहर’ जी को याद किया, पटना सिटी स्थित उनके ऐतिहासिक घर में, जिसके आगे मोटे-मोटे लकड़ियों वाला झरोखा था, प्रवेश के साथ ही ऊपर में विशाल आँगन-रूपी कक्ष था। बीच में एक पलंग लगा था। सड़क की ओर खुलने वाले दरवाजे के बाएं कोने पर स्थानीय अख़बारों, पत्रिकाओं का विशाल अम्बार रहता था। उनकी पत्नी बाएं हाथ से अपने आँचल के पल्लू को सर पर रखती आगे आती थी, कहती थी – खाना खाकर ही आप जायेंगे। जीवन पर्यन्त (जहाँ तक मैं जानता हूँ) श्री रामजी मिश्र ‘मनोहर’ अपनी पत्नी को ‘तुम’ शब्द से सम्बोधित कभी नहीं किये और ना ही उनकी पत्नी अपने पति को। इसका जीता-जागता संस्कार अगर भारत के पत्रकारों को देखना हो तो मनोहर जी की अगली पीढ़ी के वंशजों में देखें, बाल-बच्चों में देखें – कोई किसी को “तुम” शब्द से सम्बोधित नहीं करता। आखिर “तुम” और “आप” दोनों में तो “दो” ही शब्द हैं और बोलने वाला-सुनने वाला भी तो “दो” ही “व्यक्ति” है – तो फिर क्यों “तुम”, “आप” क्यों नहीं।
आज 22 अक्टूबर है और दिन है ‘शुक्रवार’, अगले शुक्रवार, यानी , 29 अक्टूबर, 2021 को श्री मनोहरजी को ईश्वर के पास गए 23 वर्ष हो जायेंगे। आपको शायद विश्वास नहीं होगा, मनोहरजी अपनी पत्नी की अंतिम सांस लेने के ठीक 368 दिन बाद (एक वर्ष तीन दिन) उनके पास पहुँच गए, जहाँ उनके पत्रकार पिता, पत्रकार दादा और पत्रकार परदादा जी की आत्मा पहले से उपस्थित थीं।
सन 1975 में नौकरी प्रारम्भ करने के बाद मैं लगातार सात साल तक रात्रि सेवा किया था दफ्तर में। दिन में पटना विश्वविद्यालय का छात्र था। 1977 में इंटरमीडिएट, 1979 में अर्थशास्त्र विषय में स्नातक और 1981 में अर्थशास्त्र में ही स्नातकोत्तर। श्री मनोहर जी प्रत्येक पल मुझे हौसला देते थे। प्रत्येक माह के दूसरे सप्ताह में “नाईट अल्लॉवेंस” मिलता था। उस दिन तीन माह का एक साथ मिलना था। “नाईट अल्लॉवेंस” तीन-रूपया प्रति रात मिलता था। यानी उस दिन 92-रात का मिलना था कुल 276/- रूपया। सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में 276 /- रुपये की कीमत कितनी थी, आज के लोग नहीं समझ पाएंगे। कैशियर साहब इधर-उधर घुमा रहे थे मुझे। मैथिलों के साथ यह आम बात है और वह भी आर्यावर्त-इण्डियन नेशन पत्र समूह में। अगर ऐसा नहीं होता तो आज अखबार बंद भी नहीं होता।
तभी श्री रामजी मिश्र मनोहर जी अपने बाएं हाथ में एक गिलास में जल लिए, चेहरे को फर-वाले सफ़ेद रुमाल से पोछते अपने कक्ष के तरफ बढ़ रहे थे। मुझे देखते ही वे रुके, हाल चाल पूछे, माँ-बाबूजी के बारे में पूछे और फिर वजह पूछे वहां खड़े होने का। तभी कैशियर बाबू खिड़की से कहते हैं: “मनोहर जी, आज कल शिवनाथ जी पूरा माल खा रहे हैं दफ्तर का। महीने के तनख्वाह के अलावे “नाईट अल्लॉवेंस” वह भी पौने-तीन सौ रूपये ” मनोहर जी कैशियर बाबू के शब्दों का चयन, उसका विन्यास, बोलने में शब्दों पर जोर…… सब समझ गए आखिर वे कहना क्या चाहते हैं। तभी वे मुस्कुराकर कहते हैं: “कैशियर बाबू, शिवनाथ जी बहुत मेहनत करते हैं। दिन में कॉलेज जाते हैं, रात में ड्यूटी करते हैं। मैट्रिक कर यहाँ आये थे, आज एम ए कर रहे हैं। आप आज शिवनाथ जी का मदद करें समय पर मेहनतनामा देकर, कल शिवनाथ इस संस्थान का नाम उजागर करेंगे। आपके बारे में भी लिखेंगे। यह बोलते जैसे ही मनोहर जी आगे बढ़े, कैशियर बाबू मुझे खिड़की पर बुला लिए। सामने एक लाल रंग का रेवेन्यू स्टाम्प चिपका था, मैं हस्ताक्षर किया और …….”
अपने श्रृंखला के क्रम में ज्ञानवर्धन मिश्र जी से बात किये कुछ दिन पहले। सत्तर के दशक से लेकर आज तक ज्ञानवर्धन मिश्र से हमारी ‘अपेक्षा’ कभी ‘उपेक्षित’ नहीं हुआ। आज भी पटना सिटी से दिल्ली का तार ‘तारतम्य’ है। कभी वे घर में बैठे फोन से मोबाईल हो जाते हैं, घंटी टनटना देते तो कभी हम। हाँ, अनुशासन के तौर पर समय का ध्यान अवश्य रखते हैं हम दोनों। वैसे अब तो पत्रकार लोग देर से नहीं उठते, जैसे पहले देर रात दो बजे एडिशन निकालने के बाद पहले चाय की चुस्की लेते थे, वह भी स्टेशन पर; फिर अखबार उठाकर देखते थे दफ्तर में कहीं कोई त्रुटि तो नहीं है, फिर घर पहुँचते थे। आज तो शहरों में, खासकर मेट्रोपोलिटन और कॉस्मोपोलिटन शहरों में, स्मार्ट सिटीज में रहने वाले पत्रकारों, सम्पादकों के पास “और काम” इतना अधिक होता है कि वे “सोने के समय” में “अलग सूत्र से सोने” की प्राप्ति के लिए जग जाते हैं – तभी तो नब्बे से अधिक फीसदी पत्रकार बंधू “चीनी” रोग से ग्रसित हैं। अब अमिताभ बच्चन कितना भी “चीनी कम” फिल्म बनायें, दर्शकों को दिखाएँ, जब “अगल सूत्र से सोने की प्राप्ति का चस्का लग गया” फिर क्या “चीनी” और क्या “डाइबिटीज” बीमारी।
आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम से बात करते ज्ञानवर्धन मिश्र कहते हैं: “बिहार ही नहीं, संभवतः भारत में पटना सिटी का यह मिश्र-परिवार पहला और एकलौता परिवार होगा जिसकी छठी पीढ़ी के वंशज आज बह पत्रकारिता के क्षेत्र में हैं। आज भी शब्दों को विरासत के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। आज भी शदों का शब्दकोष बना रहे हैं। आज भी शब्दों के साथ खेल रहे हैं, शब्दों से मानव सेवा कर रहे हैं, शब्दों से समाज में जागरूकता फैला रहे हैं। आप तो स्वयं इस मिश्र परिवार की तीन-पीढ़ियों को जानते हैं, जुड़े हैं। हमारा छोटा भाई नवीन (नवीन मिश्र) जो रांची में रहता है, अपने परिवार और पुरखों द्वारा पत्रकारिता की सेवा का एक विस्तृत संकलन कर रहा है ताकि बिहार में आने वाली पीढ़ी, युवक-युवतियां जब भी पत्रकारिता की बात करें, मिश्र परिवार का योगदान उनके सम्मुख उपस्थित रहे। न हम, न हमारे पिता और पूर्वज और ना ही हमारी अगली पीढ़ी, पत्रकारिता को “संयोग वश” स्वीकार नहीं किये हैं, बल्कि अपनी ‘मर्जी’ से “स्वेक्षा” से स्वीकार किये। और यही कारण है कि पत्रकारिता को हमलोगों ने कभी भी “यूँ ही” नहीं लिया – पत्रकारिता को ह्रदय से वरन किया, जो भी सीखा-लिखा ह्रदय के अन्तः कोने से सीखा, लिखा।
यही कारण है कि आज भी रामजी मिश्र ‘मनोहर’ जी के पुत्र नवीन मिश्र द्वारा लिखित “यादों से गुजरते हुए – मेरे पटना के पत्रकारिता के पितर” में तत्कालीन स्थितियों, परिस्थितियों का दृश्य मिलता है। नवीन जी लिखते हैं: “मास्टर साहब शर्मा जी की एक लाइन मेरे दिमाग में हमेशा कौंधती रहती है। जब तक अंग्रेजी में सपने देखना शुरू नहीं किया वास्तव में अंग्रेजी नहीं सीखी। बदलते हुए घरों के बीच अब भी मैं सपने देखता हूं तो बचपन में गुजारे उसी मिट्टी के खपड़ेपोश मकान की तस्वीर ही दिखाई पड़ती है। वह घर क्या पूरी विरासत थी, इतिहास था (समय के बदलाव के साथ अब पक्का मकान है)। यादों के पन्ने पलटता हूं अनगिनत बातें याद आती हैं। रेल की पटरी पर दौड़ती ट्रेन और ओझल होते डिब्बे की तरह। कुछ पिताजी से सुनी स्मृतियाँ, पुरानी किताबें, संदर्भ ग्रंथ से निकली अनेक बातें अपने पूर्वजों की पत्रकारिता को आँखों के सामने परोस देता है।”
लोग रामजी मिश्र ‘मनोहर’ जी को पटना शहर का चलता फिरता इतिहास कहते थे। छात्र जीवन में ही 1944-45 में उन्होंने हस्तलिखित त्रैमासिक भारती का संपादन किया। हिंदी दैनिक आर्यावर्त के सिटी संवाददाता से संपादक तक पहुंचे। राष्ट्रवाणी, विश्वमित्र, प्रदीप, पीटीआई, नवभारत टाइम्स, आज, सन्मार्ग आदि देश के अनेक पत्रों का प्रतिनिधित्व किये। पत्रकारिता का इतिहास और पटना का इतिहास ‘दस्ताने पाटलिपुत्र’ कई वर्षों तक लगातार मेहनत और लेखन का नतीजा रहे। नानक वाणी नामक पत्रिका का भी वर्षों तक प्रकाशन किया। पटना नगर जिला कांग्रेस और बिहार पत्रकार संघ के भी लंबे समय तक सचिव रहे। सिख, जैन और मुस्लिम और दर्शन से गहरा जुड़ाव रहा। शहर के अनेक सामाजिक संगठनों के पदाधिकारी रहे। बिहार पत्रकारिता संस्थान एवं संग्रहालय की स्थापना कर दुर्लभ पत्र पत्रिकाओं को संरक्षित किया। उनके चाहने वालों ने पाटलिपुत्र की धरोहर : रामजी मिश्र मनोहर नाम से करीब साढ़े चार सौ पृष्ठों का अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित किया। आज मनोहर जी के आवास में हजारों प्राचीन पुस्तकें, पत्रिकाएं, कोई डेढ़ सौ वर्ष तक प्राचीन समाचार पत्रों की फाइलें, अंक, कई सौ साल प्राचीन करीब आठ सौ पांडुलिपियां सुरक्षित हैं। जहां जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय से भी शोध करने शोधार्थी आते रहे।
जब ज्ञानवर्धन मिश्र से पूछे कि आप पत्रकारिता में कैसे आये? पहले वे ठहाका लगाए, फिर सकुचाये, फिर कहे कि “आप तो जानते ही हैं क्योंकि आप बाबूजी से बहुत करीब थे और बाबूजी आपको बेहद सम्मान करते थे अपने बच्चों की तरह। उन्हें विश्वास था कि आप अपने जीवन में बहुत कुछ ऐसा करेंगे, जिसे करने को कोई सोचा भी नहीं होगा। आर्यावर्तइण्डियननेशन डॉट कॉम का अभ्युदय बाबूजी के कथन और विश्वास का सबसे बड़ा उदहारण है। आर्यावर्त – इण्डियन नेशन पत्र समूह में हज़ारों लोग कार्य करते थे, लेकिन उसके देहावसान के बाद विगत दो दशकों में किसी ने भी नहीं सोचा कि उसके नाम को जीवंत भी किया जा सकता है, जिसे आपने किया। कुछ ऐसी ही बातें मेरे साथ, मेरे पत्रकार बनने के साथ है।
सत्तर के ज़माने में जब जेपी आंदोलन अपने उत्कर्ष पर चढ़ रहा था, उन दिनों पटना सिटी के ही रहने वाले श्री महेश चंद्र शर्मा साहेब, जो बाद में टी पी एस कॉलेज में व्याख्याता भी बने, आर्यावर्त में विश्वविद्यालय से सम्बंधित समाचार देते थे। लेकिन अखबार में पर्याप्त स्थान होने के बाद भी वे उतना नहीं लिख पाते थे, जितनी उन दिनों जरुरत थी। एक बहुत बड़ा क्षेत्र अछूता रह जाता था। इस बात को लेकर मैं आर्यावर्त के तत्कालीन संपादक श्री जयकांत मिश्र जी से मिला। लोग उन्हें ‘पंडित’ जयकांत मिश्र भी कहते थे। मैं अपनी बात उनसे कहा। मेरी बातों को सुनकर उनकी जो प्रतिक्रिया थी, वह पंडित शब्द से अलंकृत मनुष्य के लिए, उतने बड़े अखबार के संपादक के लिए शोभा नहीं दिया। मैं पटना सिटी छात्र संघ से भी जुड़ा था। स्वाभाविक है ‘गरम दल’ का भी था। लेकिन परिवार, पुरखों और माता-पिता का संस्कार ऐसा था कि हम में से कोई भी भाई गुस्सा नहीं करते थे, उस दिन भी नहीं किये। पंडित जयकांत मिश्र ने कहाँ था: “लिखने का सबुर नहीं है। … तालब्य और तंत शब्दों में अंतर नहीं समझते, मूर्धन्य शब्द के बारे में कभी सुने ही नहीं, वर्णमाला आता नहीं, संधि को हमेशा विच्छेदित करते हैं और कहते हैं पत्रकार बनेगे। उन बातों को सुनकर मैं क्षुब्ध हो गया। सोचने लगा एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति, एक वरिष्ठ पत्रकार, जिसे हम लोग जैसे युवक इतना सम्मान देते थे, कैसे सोच सकता है, बोल सकता है। यही शब्द मुझे न केवल पत्रकार बनाया, बल्कि समयांतराल इतना सक्षम बनाया कि एक दिन मैं आर्यावर्त अखबार से पचास कदम दूर “आज” अखबार में “सम्मान के साथ, बराबरी की कुर्सी पर बैठ गया और प्रदेश में अपने तत्कालीन सहकर्मियों के साथ, अपने अखबार को उत्कर्ष पर ले आया। जिस दिन हमारा अखबार उत्कर्ष पर था, पंडित श्री जयकांत मिश्र न केवल अवकाश प्राप्त कर लिए थे, आर्यावर्त अखबार भी प्रदेश के पाठकों के बीच गुमनाम होने लगा था।”
आप माने अथवा नहीं, पटना सिटी की बात ही कुछ अलग है। पटना सिटी जिस तरह सिखों के अंतिम गुरु गुरु गोविन्द सिंह को जन्म दिया, बल्कि अनेकानेक उत्कृष्ट किस्म के लेखकों, पत्रकारों को भी जन्म दिया। इसलिए नवीन मिश्र भी लिखते हैं: “पूर्वी पटना में सिर्फ मेरी ही यादों का घर नहीं और भी बहुत सारे पुराने मकान थे, हैं, जिनके पीछे महत्वपूर्ण इतिहास छिपा है। ये राजनीति, साहित्य, कला, संगीत, अध्यात्म और साधना के केंद्र रहा है । जिनके दिलों में इनके अपना होने का एहसास होता है। नजरों से गुजरते हुए या ऐसे मकानों की सीढ़ियों को चढ़ते हुए, पढ़ते हुए अजीब सी टीस का एहसास होता है । कुछ इमारतें अभी भी ठीक-ठाक हैं तो कुछ बहुत बदहाल तो कुछ सिर्फ यादों में। नई पीढ़ी के लिए तो किस्से, कहानियों की तरह हैं ये सभी इमारतें, अवशेष । ऐसे तामीरों में झाउगंज में गंगा के किनारे मदरसा, दीवान बहादुर राधाकृष्ण जालान का किला, महाराजघाट का राजा राम नारायण ‘मौजूं’ का किला, गुलजारबाग के महाराज भूप सिंह का बैठका, हीरानंद शाह की गली स्थित जगत सेठ हीरानंद शाह की कोठी (बिक, टूटकर नये भवन में तब्दील), स्वर्गीय राय साहब पंडित बाल गोविन्द मालवीय का निवास और मंदिर, अपने समय में लोगों के दिलों पर राज करने वाली गायिका अल्ला जिलाई का चौक स्थित रंगशाला (जमीन अब एक धार्मिक परिसर का हिस्सा), महाराज बेतिया और टेकारी महाराज की कोठी, ख्यात तबला वादक स्वर्गीय उल्फत राय का दीवान मुहल्ला का निवास, संगीत और चाक्षुष कला का केंद्र स्वर्गीय राय सुलतान बहादुर का मकान, हाजीगंज स्थित गजलों के बादशाह शाद अजीमाबादी की जन्मस्थली कर्म भूमि मजार, गायघाट स्थित ब्रजभाषा के सुप्रसिद्ध कवि स्वर्गीय राधालाल गोस्वामी का निवास-संग्रहालय, लल्लू बाबू का कूंजा स्थित गोवर्द्धन लाल गोस्वामी जी का मंदिर, धवलपुरा स्थित राय जयकृष्ण की कोठी, नवाब सरफराज हुसैन की कोठी, मीतनघाट स्थित राय ब्रजराज कृष्ण का आनंद बाग (मैंने गंजी पहले हुए यहां नेहरूजी की तस्वीर देखी है) और भी ऐसे कई और पहचान और गर्व के केंद्र रहे।
ज्ञानवर्धन मिश्र उस घटना को याद करते कहते हैं: “जब पंडित जय कांत मिश्र जी का कथन समाप्त हुआ, मैं बहुत शांत था। कुछ भी नहीं बोल रहा था। सिर्फ सुन रहा था। लेकिन युवक था, स्वयं को रोक नहीं सका और कहा कि जयकांत जी, आज आप इस बात का गाँठ बाँध लें, आने वाले समय में मैं आपके बराबर की कुर्सी पर बैठकर दिखाऊंगा। बराबर का अर्थ ‘दाहिने’ ‘बाएं’ रखी कुर्सी नहीं समझें, बल्कि ‘समरूप’ समझें। मैं भी संपादक बनकर दिखाऊंगा। यह बात तत्कालीन अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक कुमार शुभेश्वर सिंह तक पहुँच गई। पटना से दरभंगा पहुँचते लोगों ने मिर्च मसाले का भरपूर छौंका लगाए । बाबूजी के नाम को भी ‘बीच में’ ले लिए। परन्तु जब कुमार साहेब से मुलाकात हुई (पहली और अंतिम बार) तब उन्होंने तत्कालीन प्रबंधक श्री काली कान्त झा से कहते हैं कि ‘काली बाबू देखियौ मनोहर जी के बालक के। युवक छथि, कड़क के कहि देलखिन। ……… ” लेकिन ईश्वर कुछ और चाहता था ज्ञानवर्धन मिश्र के लिए।
ज्ञानवर्धन मिश्र पटना के फ़्रेज़र रोड से प्रकाशित ‘आज’ संस्करण के शुरूआती दिनों के पत्रकारों में से एक बने। सन 1982 आते-आते वे पटना संस्करण के ‘कर्ता-धर्ता’ बन गए। फिर सं 1984 से 1988 तक पटना से ही प्रकाशित पाटलिपुत्र टाइम्स के संस्करण के कार्य-प्रभारी बने। सन 1988 में हिंदुस्तान दैनिक में नयी पारी की शुरुआत किये और भागलपुर में इन्हे भेजा गया। उस समय भागलपुर में हुए सांप्रदायिक दंगे को पटना से प्रकाशित किसी भी अखबारों की तुलना में, हिंदुस्तान में बेहद सकारात्मक ख़बरें प्रकाशित हुई। चार वर्ष भागलपुर में रहने के बाद 1992 में ये ‘गया’ हस्तानांतरित हो गए, फिर 1994 में दरभंगा, 1999 में घनबाद। धनबाद पदस्थापना के समय ही सन 2008 में हिंदुस्तान दैनिक का धनबाद संस्करण प्रारम्भ हुआ। कोई दो दशक से अधिक समय हिंदुस्तान दैनिक में बिताए। कोई एक वर्ष के लिए रांची में ‘सन्मार्ग’ अखबार का ब्यूरो प्रमुख बने, लेकिन ‘अखबार……अखबार नहीं था,’ इसलिए उसे छोड़कर भारतीय जनता पार्टी का मीडिया सलाहकार बन गए।
ज्ञातव्य हो कि बिहार के पहले हिंदी साप्ताहिक ”बिहार बंधु” सन 1873 के दौरान कोलकाता से प्रकाशन शुरू हुआ और अगले साल यानी 1874 में पटना चला आया। आज के पटना कॉलेज के सामने के परिसर में। इसके संचालक-संपादक पंडित मदन मोहन भट्ट और पंडित केशव राम भट्ट थे जो पंडित रामलाल मिश्र के बड़े करीबी मित्र थे। अंग्रेजी शासन के खिलाफ बिगुल बजाना, बिहार के लोगों में नागरिक चेतना जागृत करना, अदालतों में हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि को प्रतिष्ठित करना मकसद था। भट्ट बंधुओं को पंडित रामलाल मिश्र के तेवर की जानकारी मिली तो उन्हें भी अपने मिशन में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया। तब रामलाल मिश्र भी इसके संपादक मंडल में शामिल हो गये। कई वर्षों तक जुड़े रहे। कालांतर में एक नवंबर 1885 को उत्तर प्रदेश के कालाकांकर से हिंदी के पहले दैनिक ”हिंदोस्थान” का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। महामना पंडित मदन मोहन मालवीय इसके संपादक नियुक्त हुए। इसके संपादक मंडल के लिए विभिन्न राज्यों के विद्वान संपादक की तलाश थी। उसी कड़ी में बिहार में उनकी नजर पंडित रामलाल मिश्र पर पड़ी। मालवीय जी के आमंत्रण के बाद पंडित रामलाल मिश्र इसके सहायक संपादक हुए। इसी तरह बंगाल के पंडित अमृतलाल चक्रवर्ती, उत्तर प्रदेश से पंडित रामनारायण मिश्र, हरियाणा से बाबू बालमुकुंद गुप्त आदि इसके संपादक मंडल में शामिल हुए।
पंडित रामलाल मिश्र ने “हिंदोस्थान” के सह संपादक का काम करने के बाद इसके व्यवस्थापक का भी काम संभाला। ख्यात पत्रकार मदन गोपाल जी ने अपनी पुस्तक में इसकी चर्चा की है। पंडित रामलाल मिश्र के बड़े पुत्र सत्यरूप मिश्र बिहार के शिक्षा विभाग में अधिकारी नियुक्त हुए और बिहार बंधु से जुड़े रहे। देवनागरी को प्रतिष्ठित करने वाले शिक्षा अधिकारी भूदेव मुखर्जी के अन्य सहयोगी एवं जिला स्कूल इन्स्पेक्टर थे। पटना सिटी गवर्नमेंट हाई स्कूल के प्राचार्य भी रहे। उनके दूसरे पुत्र पंडित विश्वरूप मिश्र पटना के टेम्पल मेडिकल स्कूल जो अब पटना मेडिकल कॉलेज है, में अंग्रेजी डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त की और अपने समय के ख्यात चिकित्सक रहे। वे संस्कृत, हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, गुजराती और बंगला आदि भाषाओं के अच्छे जानकार और वेदांत के मर्मज्ञ थे। सन्यास ग्रहण करने के बाद वे स्वामी विश्वरूपानन्द के नाम से ख्यात हुए। वे आगरा से प्रकाशित ” वेदांत केसरी” और मुंबई से प्रकाशित वेंकटेश्वर समाचार में बहुत दिनों तक सहायक संपादक रहे। कई आध्यात्मिक पुस्तकें भी लिखीं। जिनकी प्रतियां आज भी सुरक्षित हैं। उन्होंने हिंदी में दस-बारह खंडों में स्व-अनुभवानन्द लहरी नामक ग्रंथ की रचना की जिसकी प्रतियां बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के पांडुलिपि विभाग में हाल तक सुरक्षित थीं। खुद पंडित रामलाल मिश्र ने भी कई किताबें लिखी मगर सिर्फ ” भक्ति मीमांसा ” नामक संस्कृत पुस्तक की पांडुलिपि ही आज सुरक्षित हैं।
“डाक्टर विश्वेश्वर दत्त मिश्र (दादाजी) पंडित रामलाल मिश्र के ज्येष्ठ पौत्र थे जिन्होंने चिकित्सा वृत्ति अपनाने के साथ ही स्वतंत्रता आंदोलन, समाज सेवा तथा राष्ट्रभाषा हिंदी की सेवा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। देशरत्न डॉ राजेंद्र प्रसाद, डॉ अनुग्रह नारायण सिंह, आचार्य बद्रीनाथ वर्मा, जगत नारायण लाल, शत्रुघ्न शरण सिंह आदि के करीबी मित्र थे। डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपना राजनीतिक जीवन पटना सिटी से ही आरंभ किया था। उन्होंने सन् 1920 में यहीं से ”प्रजाबंधु ” नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरू किया था। इसके लिए प्रजाबंधु-लिमिटेड नामक कंपनी की स्थापना की गई। दादा जी यानी डॉ विश्वेश्वर दत्त मिश्र इसके प्रबंध निदेशक हुए और कालीस्थान स्थित निवास स्थान पर ही इसके कार्यालय की स्थापना हुई। प्रजाबंधु के संपादक अपने समय के सुप्रसिद्ध विद्वान एवं पत्रकार पंडित जीवानंद शर्मा (न्यायमूर्ति प्रभाशंकर मिश्र के नाना जी) तथा सहायक संपादक पंडित प्रमोद शरण शर्मा पाठक (मेरे पिता रामजी मिश्र मनोहर के पत्रकार गुरू और मामा) नियुक्त हुए। राजेंद्र बाबू, अनुग्रह बाबू, जगत बाबू, आदि कांग्रेसी नेता सप्ताह में तीन-चार दिन यहीं एकत्र होते थे । उस दौर में अखबार निकालना आग से खेलने जैसा जोखिम भरा काम था। देशी भाषा के पत्रों पर अंग्रेजी शासन की कड़ी नजर रहती थी। डॉ विश्वेश्वर दत्त मिश्र का कालीस्थान स्थित आवास जहां प्रजाबंधु का कार्यालय था, पुलिस के छापे पड़ने लगे।
ज्ञानवर्धन मिश्र कहते हैं: “सं 1981-82 के दौरान किसी कारणवश (कारण तो बस यही था कि आर्यावर्त अखबार का प्रसार संख्या उत्तरोत्तर काम हो रहा था और आज अखबार अपने कर्मठ युवकों के कारण दिन-प्रतिदिन आगे निकल रहा था) आज और आर्यावर्त अखबार में ‘झड़प’ हो गया। उन दिनों बाबूजी को आर्यावर्त संस्थान में दर-किनार कर दिया गया था। पिताजी इस बात को समझते थे। लेकिन अपने बेदाग़ व्यक्तित्व के कारण किसी के सामने झुकना नहीं चाहते थे। बनारस में श्री शार्दुल विक्रम गुप्त को इस बात का एहसास हो गया था। वे झगड़े को बढ़ाना नहीं चाहते थे। वे पटना आये। सबों से मिले। शार्दुल साहब जानते थे कि न्याय नहीं हुआ है। अतः दरभंगा जाने की बात हुई कुमार शुभेश्वर सिंह से मिलने। पंकज (छोटा भाई) और पिताजी दरभंगा गए। कुमार साहेब आर्यावर्त – इण्डियन नेशन अख़बार के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक थे। उनके कानों को नकारात्मक शब्दों से भर दिया गया था पिताजी के खिलाफ। पिताजी से मिलते ही वे बोले की आपका बेटा ‘आज’ क्यों गया ? अब उन्हें कौन बताये और वे किसका सुने की उनके बेटे के साथ क्या हुआ था ? फिर पंकज को देखकर पूछे यह क्या कर रहा है? फिर एक छोटे से पुर्जी पर तत्कालीन प्रबंधक उड़ाई भानु सिंह को लिखकर दिए छोटे भाई को नौकरी देने के लिए – वह कार्यालय संवाददाता बना। साथ ही, पिताजी के साथ हुए सभी अत्याचारों को समाप्त कर उन्हें ‘संयुक्त संपादक’ बनाया गया।
रामजी मिश्र ‘मनोहर’ जी के तीन पुत्र हैं – ज्ञानवर्धन मिश्र, पंकज मिश्र और नवीन मिश्र । ज्ञानवर्धन मिश्र के दो पुत्र हैं – अमित मिश्र और सुमित मिश्र। अमित भी पत्रकार हैं। बहरहाल, अपने दिवंगत पिता रामजी मिश्र ‘मनोहर’ जी के कथन को उद्धृत करते नवीन मिश्र लिखे भी हैं कि “पिताजी से सुना था कि इसके प्रकाशन से जुड़े स्वतंत्रता सेनानी बाबू गोकुल प्रसाद वकील, मुरली प्रसाद अम्बष्ठ, जस्सू लाल गुप्त, झन्णी लाल आदि से इसकी लोमहर्षक कथायें सुनते थे। पुलिस रेड के कारण प्रजाबंधु का कार्यालय कालीस्थान से नई सड़क और वहां से बांकीपुर स्थानांतरित कर दिया गया था। मगर कुछ ही वर्षों के बाद अंग्रेजी शासन की कड़ी नजर के कारण बंद हो गया। उसकी कुछ फाइलें आज भी हमारे यहां सुरक्षित हैं। बिहार के पहले हिंदी साप्ताहिक बिहार बंधु जिसका प्रकाशन 1915 में बंद हो गया था, बाद में डॉ विश्वेश्वर दत्त मिश्र ने इसका पुनः प्रकाशन आरंभ किया। इसे संपादक प्रमोद शरण शर्मा पाठक थे। बाद में इसका प्रकाशन प्रमोद शरण शर्मा जी के निवास फतुहा से होने लगा। कई वर्षों तक निकलने के बाद 1923 में बंद हो गया। बाद में डॉ विश्वेश्वर दत्त मिश्र ने अपने आवास से ही मासिक भूदेव का प्रकाशन प्रारंभ किया। इसके संपादक भी प्रमोद शरण पाठक थे। डॉ मिश्र बिहार में होम्योपैथी चिकित्सा संस्थापको में थे। उन्होंने हिंदी में सर्वप्रथम मेटेरिया मेडिका लिखने के अतिरिक्त हिंदी और अंग्रेजी में होम्योपैथी चिकित्सा विज्ञान में आधा दर्जन से अधिक पुस्तकों की रचना की।
कहते हैं काली स्थान स्थित घर में ही पंडित रामलाल मिश्र के निमंत्रण पर आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद भी आये और इसी मकान के सामने तब मैदान था, में हफ्तों प्रवचन किया। इसके बाद ही 19 वीं शताब्दी के अंतिम दशक में पटना सिटी में आर्यसमाज की स्थापना हुई। झाऊगंज में आज भी आर्य समाज के नाम से यह भवन प्रसिद्ध है। डॉ विश्वेश्वर दत्त मिश्र स्वतंत्रता आंदोलन से भी लगातार जुड़े रहे। पटना में कांग्रेस की स्वर्ण जयंती मनाई गई उसके आयोजन समिति के वे महासचिव बनाये गये थे। लगातार चार दशक तक पटना नगर निगम के वार्ड कमिश्नर रहे। इसी को ध्यान में रखते हुए उनके निधन के बाद उनके निवास स्थान को जाने वाली सड़क का नाम डॉ विश्वेश्वर दत्त रोड रखा गया। गंगा किनारे चिमनी घाट जाने वाले रास्ते में भी शिलालेख था जो अब गायब हो गया। 1944 में जेल से छूटने के बाद सरदार भगत सिंह के साथी क्रांतिकारी, कामरेड बटुकेश्वर दत्त इसी मोहल्ले में आकर रहे। जब तक वे यहां रहे डॉ मिश्र के मकान पर ही पत्र, पत्रिकाओं, उनकी लाइब्रेरी की पुस्तकों का अध्ययन, मनन करते रहते। गया के बाबू शत्रघ्न शरण सिंह, रामवृक्ष बेनीपुरी, रामावतार शास्त्री आदि अनेक राजनेताओं के राजनीतिक जीवन के प्रारंभिक दिनों में उनकी राजनीतिक, सामाजिक गतिविधियों का भी यह घर केंद्र रहा।
रामजी मिश्र ‘मनोहर’ जी परिवार – यह भारतीय पत्रकारिता का एक अविश्वसनीय पारिवारिक इतिहास है । अगली पीढ़ी के लिए एक संदेश और एक सम्मानजनक सामाजिक शीर्षक के लिए लायक हो । रामजी मिश्रा परिवार और सभी सदस्यों को हार्दिक नमस्कार।
आभार