दरभंगा / पटना : दरभंगा के लोगबाग, जो जिला को “सांस्कृतिक राजधानी” बनाने की बात कर रहे हैं, जेद्दोजेहद कर रहे हैं, उनके लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण खबर है कि ‘देश के कुल 640 जिलों में से 250 सबसे पिछड़े जिलों में दरभंगा जिला पालथी मार के बैठा है। यह अलग बात है कि यहाँ की कुल आबादी 48,60,308 है और प्रति वर्ग किलोमीटर में कुल 1,721 लोग रहते हैं। आंकड़ों के अनुसार कुल 72+ फीसदी लोग ‘मैथिली’ भाषा-भाषी हैं भी । सबसे बड़ी बिडंबना यह है कि दरभंगा जिले का शैक्षिक-दर महज 56.56 फीसदी है, यानी फिफ्टी-फिफ्टी मान सकते हैं, जहाँ तक पढ़े-लिखे लोगों का सवाल है। वैसी स्थिति में यह सोचना कि टाबर चौक और हसन चौक के बीच और दरभंगा महाराज के लाल-कोठी से कोई एक किलोमीटर दूरी पर स्थित ‘नेशनल स्कूल’ का कोई महत्व दरभंगा के संभ्रांत लोगों के बीच, घुटने कद से लेकर आदम कद तक के राज नेताओं की नजर में, प्रदेश के राजनेताओं द्वारा ‘संरक्षित’ अधिकारियों की नजर में, विद्वानों की नजर में, विदुषियों की नजर में, जमींदारों की नजर में, महाराजा के वंशजों की नजरों में कोई महत्व रखता होगा। अगर रखता तो मुद्दत से इस स्कूल के भवनों की दीवारों से, जो समयांतराल, शहर के अनाथों को भी पनाह दिया, लाल-लाल ईंटों का बदलाव लाल-लाल मिट्टी में नहीं हो जाता। ऐसा लगता है जैसे स्कूल भवन का यह दीवार खून की आंसू रो रहा है। ओह!!! हे विधाता !!
इस स्कूल की स्थापना वर्ष 1920 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रेरणा से बाबू कमलेश्वरी चरण सिंहा के नेतृत्व की गई थी। अगर आप दरभंगा में हैं तो एक चक्कर अवश्य लगा लें और खुद आस्वस्त हो लें कि आपकी नजर में यह स्कूल कितना अहमियत रखता है। सोचना व्यर्थ है। जिस कदर यह स्कूल, जो बाद में अनाथालय में बदल गया, विगत कई वर्षों से “ख़ुद अनाथ” हो गया है। इस स्कूल का यह दीवार कभी खुद पर रोता है, कभी अपने से एक किलोमीटर दूर, दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज के महल और गगनचुम्बी दीवारों की ईंटों को मिटटी में बदलते देख, खुद पर हँसता भी है। शायद सोचता होगा जब महाराजा के भवन का यह हाल है तो मेरा क्या! इस भवन को बनाने वाले और महाराजाधिराज में एक समानता है – दोनों “संतानहीन” रहे।
बहरहाल, समय-समय पर शहर के, प्रदेश के सफ़ेद वस्त्रधारी, बड़ी-बड़ी मूंछ धारी, लठैत, दबंग, भूमि माफिया बड़ी-बड़ी गाड़ियों में एक बार चक्कर अवश्य लगा लेते हैं। जानते हैं क्यों? इस अनाथ भूमि की कीमत आज दरभंगा के बाज़ार में कई करोड़ रूपये में है। अब इस विद्यालय की स्थापना “गांधी” से प्रेरित होकर किया गया हो, वह तो “कल की बात” हो गई। आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि आज भले अमेरिका के AMD, ऑस्ट्रेलिया के AUD, ऑस्ट्रिया के EUR, कैनाडा के CAD या विश्व के अन्य देशों में प्रचलित करेंसियों की तुलना में भारतीय रुपयों की कीमत चाहे जितनी भी लुढ़की हो, दरभंगा में ”भूमि पर कब्ज़ा करने वालों की नजर में” आज भी कागज के रंग-बिरंगे टुकड़ों पर प्रकाशित गांधी की छवि वाले करेंसी की कीमत बहुत है। क्योंकि उन्हें “स्कूल” से कोई मतलब नहीं है, “जमीन” बेशकीमती है, इसलिए गिद्ध जैसी नजर टिकाये हुए हैं। शहर के संभ्रांतों को, जिला प्रशासन को, विद्वानों को, विदुषियों को, जो इस नेशनल स्कूल को विश्व-प्रसिद्द बना सकते हैं – कोई मतलब ही नहीं है।
कभी मौका मिले तो अपने जिले के अपने-अपने क्षेत्र के नौजवानों से, लोगों से पूछना प्रारम्भ कर दीजिए की दरभंगा जिला का भू-क्षेत्र कितना है? आबादी कितनी है? शैक्षिक स्तर कितनी है? कितना ब्लॉक है? कितने गाँव हैं? और अंत में कितने नगर निगमें हैं? – यकीन मानिये, सैकड़े 90 बच्चे नहीं बता पाएंगे। क्योंकि यह स्थिति सिर्फ दरभंगा की नहीं है, बल्कि बिहार के सभी जिलों के साथ ऐसी ही मानसिकता हैं लोगों का। अगर ऐसा नहीं होता तो प्रदेश के जिलों में, गाँव में, पंचायतों में न जाने कितनी ऐतिहासिक धरोहरें स्थानीय लोगों, जिला प्रशासनों और सरकार की उपेक्षा के कारण मिट्टी में नहीं मिलती।आंकड़ों के अनुसार, देश में तकरीबन 3645 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। अगर औसतन भारतीयों से पूछा जाय की वे अपने ही राज्य में स्थित न्यूनतम 10 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहरों का नाम बताएं, तो उम्मीद है वे पांच अथवा छठे नाम बताते-बताते दम तोड़ देंगे। वजह यह है कि उन्हें उन ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहरों में कोई दिलचस्पी नहीं है (अपवाद छोड़कर) यदि इन आंकड़ों का विश्लेषण करें तो देश के सम्पूर्ण क्षेत्रफल में औसतन प्रत्येक 892 किलोमीटर पर एक न एक ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर है। इनमें सबसे अधिक 743 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर उत्तर प्रदेश में हैं, यानी उत्तर प्रदेश के 324 प्रति किलोमीटर क्षेत्रफल पर एक न एक ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर है।
उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा स्थान कर्णाटक का है जहाँ 506 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। तीसरा स्थान तमिलनाडु का है जहाँ 413 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। पांचवा स्थान गुजरात (293 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर); छठा स्थान मध्य प्रदेश (292 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर); सातवां स्थान महाराष्ट्र (285 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर), आठवां स्थान राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली जहाँ 174 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। भौगोलिक क्षेत्रफल के दृष्टि से राजस्थान बहुत बड़ा भूभाग है, लेकिन यहाँ 162 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। पश्चिम बंगाल में 136 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; आंध्र प्रदेश में 129 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; हरियाणा में 91 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; ओडिसा में 79 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; बिहार में 70 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; जम्मू-कश्मीर में 56 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; असम में 55 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; छत्तीसगढ़ में 47 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; उत्तराखंड में 42 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; हिमाचल प्रदेश में 40 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; पंजाब में 33 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; केरल में 27 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; गोवा में 21 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; झारखण्ड में 13 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं और अंत में दमन-दीव में 12 ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर स्थित हैं। औसतन वैसे ऐतिहासिक पुरातत्वों को छोड़कर, जो “दुधारू गाय” है, देश के हज़ारों-हज़ार पुरातत्वों की स्थिति, “सोचनीय” ही नहीं, “निंदनीय” भी है।
खैर, यह तो देश-दुनिया की बात हुई, दरभंगा राज दरभंगा शहर के उत्थान के लिए बहुत कुछ कर सकता था, महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के अंतिम सांस के बाद भी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जिस दरभंगा राज की शुरुआत राजा महेश ठाकुर से प्रारम्भ होता है और राजा गोपाल ठाकुर, राजा परमानन्द ठाकुर, राजा शुभंकर ठाकुर, राजा पुरुषोत्तम ठाकुर, राजा नारायण ठाकुर, राजा सुन्दर ठाकुर, राजा महिनाथ ठाकुर, राजा निरपत ठाकुर, राजा रघु सिंह, राजा विष्णु सिंह, राजा नरेंद्र सिंह, राजा प्रताप सिंह, राजा माधो सिंह, राजा छत्रसिंघ बहादुर, राजा महेश्वर सिंह बहादुर, राजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर, राजा रमेश्वर सिंह बहादुर होते हुए महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह बहादुर का नाम लेकर और उनकी सम्पत्तियों (यह महज उनकी बात नहीं थी, बल्कि इससे सम्पूर्ण मिथिला और बिहार प्रदेश का सम्मान जुड़ा है) की वर्तमान दशा देखकर अन्तःमन अश्रुपूरित हो जाता है। वैसी स्थिति में ‘नेशनल स्कूल’ की क्या औकात है वर्तमान मानसिकता वाले समाज में?
एक दृष्टान्त: महारानी कामेश्वरी का बच्चों के प्रति स्नेह के ध्यानार्थ महाराजा कामेश्वर सिंह ने 1940 में देश का ऐतिहासिक ओर्फनेज और पुअर होम – महारानी अधिरानी कामेश्वरी प्रिया पुअर होम – का नीव रखें।कामेश्वरी प्रिया पुअर होम की स्थापना दरभंगा के तत्कालीन महाराजा सर कामेश्वर सिंह ने अपनी चहेती पत्नी की याद और सम्मान में, उनकी इच्छाओं को पूरा करने के लिए जनवरी 1942 में सोसायटी पंजीकरण अधिनियम के तहत पंजीकृत एक सोसायटी के रूप में किये थे। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य समाज के निराश्रित व्यक्तियों, भिखारियों, परित्यक्त बच्चों, विधवाओं, विकलांगों, वृद्धों के नैतिक – भौतिक – सामाजिक और आर्थिक उत्थान को पुनः प्राप्त करने के लिए किया गया था। महाराज की इक्षा थी की इस संस्था के माध्यम से सामाजिक और मानवीय सेवाओं द्वारा बीमार, दुर्बल और पीड़ित व्यक्तियों को मानवीय दृष्टि से सेवा किया जाए, उन्हें आश्रय प्रदान किया जाए। महाराज यह भी सोचे थे कि आने वाले समय में समाज के ऐसे निरीह और उपेक्षित व्यक्तियों को आजीविका के साधन के लिए भी मदद होनी चाहिए ताकि वे कभी भी दान पर निर्भर न रहें, परिवार पर बोझ बने रहें और एक सामान्य स्वास्थ्य के साथ सम्मानित जीवन जी सकें।
महाराज चाहते थे कि ‘पुअर होम’ में रहने वाले निवासियों को सामान्य रूप व्यावसायिक या तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था करना, जिससे वे अपने पैर पर खड़े हो सकें। इस कार्य के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाएगा। इसमें स्वतंत्र अथवा अन्य धर्मार्थ लोगों, समूहों से भी मदद लेने की बात की गयी थी यदि देखा जाए तो महाराज की असीम इक्षा थी की समाज में एक ऐसे जनमत तैयार किया जाए, उन्हें शिक्षित किया जाए ताकि समाज में पेशेवर भिखमंगे नहीं रहें। उनकी यह भी कोशिश थी कि आम तौर पर भिखारियों के साथ पाए जाने वाले बच्चों को उचित शिक्षा और प्रशिक्षण के बाद उन्हें समाज में बसाया जा सकता है ताकि बड़े होने पर उनके लिए उपयुक्त रोजगार मिल सके । और यही कारण है कि महाराजा ने इस कार्य के लिए ‘डैनबी ब्लॉक’ नामक भवन के निर्माण के लिए धन भी दान किया और गरीब घर को आत्मनिर्भर बनाने के लिए 80 दुकानों का निर्माण किया। जिसे हराही मार्केट के नाम से जाना जाता है। इन दुकानों से मिलने वाला किराया का उपयोग कैदियों के कल्याण और गरीब घर के रखरखाव के लिए किया जा सकता है। लेकिन उस “पुअर होम” का आज क्या हश्र है यह तो दरभंगा के लोग बाग अधिक जानते हैं।
बहरहाल, आज आपको भारतीय वायु सेना के एक पूर्व सैनिक से मिलाता हूँ, नाम है कामेश्वर कुमार ओझा । भारतीय सैनिक में रहने के कारण भारतीय संस्कृति, भारतीय शिक्षा, भारतीय धरोहर, और विशेषकर भारतीय मिट्टी से कामेश्वर जी का बहुत लगाव हैं, आज भी। अगर ऐसा नहीं होता तो वे अपने घर के ठीक सामने नेशनल स्कूल की मिट्टी को नित्य प्रणाम नहीं करते। इस मिट्टी पर देश के आज़ादी के आंदोलन के दौरान अनेकानेक क्रांतिकारियों के पैर पड़े थे। कामेश्वर कुमार ओझा जी के पिता राघवेंद्र कुमार ओझा को भी दरभंगा और उसकी मिट्टी से बहुत प्रेम था। परिवार के पूर्वजों का भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में भी जोगदान रहा है। आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम कामेश्वर कुमार ओझा साहब से बातचीत किया। दरभंगा में आज भी दरभंगा राज के, महाराजधिराज के वंशजों के होते हुए नेशनल स्कूल की वर्तमान स्थिति को देखकर कामेश्वर ओझा ही क्यों, कोई भी संवेदनशील व्यक्ति रो देगा, हम भी रोए, कामेश्वर ओझा जी भी रोए उस ऐतिहासिक स्थल को देखकर जो दरभंगा में है और दरभंगा के लोग दरभंगा को “सांस्कृतिक राजधानी” कहते नहीं थक रहे हैं। लेकिन नेशनल स्कूल परिसर को देखकर यकीन के साथ कहा जा सकता है कि दरभंगा सांस्कृतिक राजधानी बनने के लायक नहीं है।
दरभंगा के हृदयस्थली में स्थित नेशनल स्कूल या गांधी स्कूल की स्थापना वर्ष 1920 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रेरणा से बाबू कमलेश्वरी चरण सिंहा के नेतृत्व में स्थानीय स्वतंत्रता सेनानियों के सहयोग से हुआ था।सन 1926 में नि:संतान बाबू शिवनाथ प. अग्रवाल, अनाथों के नाथ बनकर अपने लगभग नौ कट्ठे के आवासीय परिसर को राष्ट्र हित एवं अनाथालय हेतु समर्पित किया। इसके अतिरिक्त उनके एवं अन्य दानियों यथा छेदू साह,महारानी कामेश्वरी प्रिया एवं जनसाधारण द्वारा नगद व पंडौल और अन्य जगहों पर लगभग पच्चीस तीस बीघा खेती योग्य भूमि अनाथालय के संचालन हेतु दान में दिया गया, ताकि सारे उद्देश्यों की पूर्ति अनवरत रूप से हो सके। इस प्रकार से लोगों के उत्साहपूर्ण सहयोग से एक भव्य परिसर का अवतरण क्रमशः नेशनल स्कूल और अनाथालय हेतु हुआ। सन् 1927 में महात्मा गांधी द्वारा इसका शिलान्यास हुआ। देश भर में अंग्रेज़ी शिक्षा व्यवस्था के विकल्प में राष्ट्रीय भाव जगाने वाले संस्थापित पहले चरण के पांच नेशनल स्कूलों में दरभंगा की भूमिका शीर्षस्थ एवं आजादी पाने में उल्लेखनीय रही है। यह संस्था सक्षम नेतृत्व के कारण समुचित उद्देश्य की ओर काफी समय तक गतिशील रहा।। वर्ष 1924 तक नेशनल स्कूल का संचालन अच्छे ढंग तक होता रहा। तदरन्तर इसमें अनाथालय की स्थापना 1926 में हुई, जो अप्रैल 18, 1955 को बाबू कमलेश्वरी चरण सिंहा के स्वर्गारोहण के बाद भी साठवें दशक तक शहरवासियों के सहयोग से चला। नगर के गृहणियों द्वारा प्रतिदिन भोजन बनाने के पूर्व एक मुट्ठी अनाज अनाथों के लिये निकाला जाता था।स्वयंसेवक एवं अनाथों द्वारा घर घर से इसे संग्रहित कर अनाथालय के उपयोग हेतु जमा किया जाता था।
भारतीय वायु सेना के पूर्व सेनानी कामेश्वर कुमार ओझा आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉन)कॉम को कहते हैं: “स्वतन्त्रता संग्राम और उसके उपरांत इस परिसर का उपयोग स्कूल, अनाथालय के अतिरिक्तभारत सेनानियों के सभाओं, गोष्ठियों, मंत्रणाओं,प्रशिक्षण, उद्बोधन,पोषण और सेफ हाउस के लिए इसका उपयोग होता रहा। बिहार के अतिरिक्त नेपाल के स्वतंत्रता सेनानियों के कार्यकलापों एवं सेफ हाउस के लिए यह स्थान लंबे समय तक चर्चित रहा । राष्ट्रपिता महात्मा गांधी , प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य विनोबा भावे इत्यादि अनेक स्वनामधन्य महामना को एकाधिक बार अपने परिसर में पाकर धन्य हुए इस स्थल पर नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री एवं राजनीतिक एक्टिविस्टों सर्वश्री गिरजा प्रसाद कोइराला, बी.पी.कोइराला, मातृका प्रसाद कोईराला, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जननायक कर्पूरी ठाकुर, पं.बैकुण्ठ शुक्ल, योगेंद्र शुक्ल, बाबू सूरज नारायण सिंह, ब्रजकिशोर प्रसाद, धरणीधर प्रसाद, सपत्निक पं .रामनन्दन मिश्र ,यदुनंदन शर्मा, यमुना लाल बजाज, पं.कुलानन्द वैदिक, गोपाल जी शास्त्री, राधानदन झा, नीलाम्बर चौधरी, वैद्य सरस्वती चरण सिंहा उर्फ सत्तो बाबू, डा.ललितेश्वरी चरण सिंहा, श्री मती सावित्री सिंहा, पं.जगदीश्वरी प्रसाद ओझा उर्फ बंगाली बाबू, तारिणी प्रसाद ओझा, उमापति तिवारी, भोगेन्द्र झा और भूप नारायण झा वैगेरह अनेकों नामी अनामी लोगों ने आश्रय और पोषण पाया एवं अपने अपने व्यक्तित्व विकास, शैक्षिक, राजनीतिक और सामाजिक क्रियाकलापों को परवान चढाया। प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी पं.रामनंदन मिश्र की पत्नी द्वारा पर्दा प्रथा से मुक्ति का आह्वान और स्वतंत्रता सेनानियों के खुले एवं गुप्त बैठकों के साक्षी रहा यह परिसर ,आजादी पाने के पश्चात भी अनाथालय एवं अनेक सामाजिक गतिविधियों हेतु व्यवहृत होता रहा।
कामेश्वर कुमार ओझा आगे कहते हैं: “कमलेश्वरी बाबू द्वारा यहाँ राष्ट्रीय शहीद स्मारक गांधी मंदिर बनाने की योजना बनी और इसी क्रम में दि. 24 मार्च, 955 को राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद की उपस्थिति एवं मंच से उनके विशेष अनुरोध पर कमलेश्वरी बाबू द्वारा इसके हेतु शिलान्यास किया गया। इस ऐतिहासिक आयोजन में राष्ट्रपति के संग दरभंगा महाराज सर कामेश्वर सिंह, शुभेश्वर सिंह,तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह, गुलजारी लाल नंदा जानेमाने अनेकों नेता एवं जनसाधारण शामिल हुए। दुर्भाग्य से कमलेश्वरी बाबू के निधनोपरान्त अनेकों महत्वाकांक्षी योजनाओं पर विराम लग गया एवं कमलेश्वरी सर्वोदय संस्थान ट्रस्ट के माध्यम से एडवोकेट भूपनारायण झा के नेतृत्व में अनाथालय एवं अन्य काम चलाने का प्रयास किया गया। कालक्रम में भूपबाबू अपने व्यक्तिगत व्यस्तता और अस्वस्थता के कारण निर्दृष्ट उद्योश्यों का गुरु भार नहीं संभाल सके और शनैः शनै अनाथालय के अनाथ लाभुकगण सक्षम होने के पश्चात भी अपना कब्जा नहीं छोड़ना चाहे एवं अपने बाद अपने संबधियों को कब्जा देते रहे। क्रमशः इस परिसर का मुफ्त उपभोग सरकारी स्कूल, रोटरी क्लब, गोदाम, दुकान, छात्रावास और जबरन कब्जा में होने लगा। खेतों पर किसका कब कब्जा हुआ, किसी को ज्ञात नहीं है।इस परिसर का आज नशेड़ियों एवं समाज विरोधियों के गतिविधियों के लिए उपयोग में आता है। चारों ओर जबरन कब्जा करके उसका अनैतिक मुफ्त व्यावसायिक इस्तेमाल हो रहा है। खंडहर बने इस परिसर का उपयोग भले ही जान जोखिम पर डालकर जरूरतमंदो द्वारा हो रहा हो ,स्वीकार्य नहीं हो सकता।”
आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम को कामेश्वर कुमार ओझा कहते हैं: “इस परिसर के महत्ता को भूलना अपने इतिहास एवं संघर्ष को भूलने जैसा है। अनाथों को समाज से जोड़ने की हमारे शुभकामी पूर्वजों की देशना को नकारकर हम उन्हें श्रधांजलि देने के हक से वंचित हो रहे हैं। इतिहास को भूलने वाले हम, जब इतिहास होंगे, तो उस समय के वर्तमान को कैसी विरासत सौंप जायेंगे। अतएव हमें अपने धरोहर को सहेजने में तनिक भी विलंब नहीं करना चाहिए। इस स्थल के पुनरूद्धार की मांग दशकों से हो रही है। भारत एवं बिहार सरकार लगातार घोषणा करती रहती है कि स्वतन्त्रता संग्राम एवं बापू से जुड़े स्थानों का संरक्षण एवं संवर्द्धन हो रहा है। परन्तु नेशनल स्कूल परिसर पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा ।बड़े धूमधाम से स्थापित कमलेश्वरी बाबू की प्रतिमा भी संभवतया गुदाम में रखी हुई है। आज के व्यवसायिक युग में निरंतरता के संग लोककल्याण हेतु नगर के मध्य स्थित इसके मूल्यवान भूखण्ड का विकास इसतरह से होना संभव हो सकता है जिससे कल्याणकारी उद्देश्यों को पाने के लिए स्ववित्तपोषित बहुमंजिला भवन का निर्माण संभव हो। अगर कोई भी सरकार इसका अधिग्रहण कर इसका उद्धार नहीं करना चाहे या इसे राष्ट्रीय धरोहर नहीं बनाना चाहे, तो भी इस लोककल्याण हेतु समर्पित व अभिमंत्रित परिसर की ऐतिहासिकता, बाजार की जरुरत एवं मूल्य को ध्यान में रखते हुए सही योजना से बिना किसी मदद के इस परिसर का पुनरुद्धार इसके हेतु निर्दिष्ट लक्ष्य को अनवरत रूप से हमेशा पाते हुए भी संभव है। इस पर ध्यान नहीं देने से भू माफियाओं के अतिरिक्त सबको हानि है।”
कामेश्वर ओझा कहते हैं: “इस परियोजना हेतु बनाए गये ट्रस्ट के कोई ट्रस्टी जीवित नहीं हैं। अन्तिम ट्रस्टी प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी एवं सेनानियों के रसोई की व्यवस्थापिका श्री मती सावित्री सिंहा का निधन 27 नवम्बर, 2019 को हो गया। घोषित सचिव श्री अमरेश्वरी चरण सिंहा के पास कोई कागजात नहीं है ना ही उन्हें आधिकारिक रूप से कार्यभार सौंपा गया है।समुचित आधिकारिक देखभाल और नियंत्रण के अभाव में स्वार्थी तत्वों का कब्जा लगातार होता रहा है।हमें नहीं भूलना चाहिए कि इस परिसर का मालिकाना हक किसी का भी हो परन्तु है तो अनाथालय हेतु समर्पित संपत्ति।अतः समाज हित में इसका समुचित एवं यथाशीघ्र उत्थान आवश्यक है। मेरा प्रस्ताव है कि भवन के भूमिगत तल एवं भूतल पर सशुल्क पार्किंग, प्रथम एवं दूसरे तल पर व्यापारिक गतिविधियों हेतु निर्माण, तीसरे तल पर बैंकिंग वैगेरह कार्यालयों हेतु जगह, चौथे तल पर स्वतन्त्रता संग्राम संबंधित म्यूजियम, अनौपचारिक शिक्षण, कला संबंधित संस्थान एवं हाल और इसके उपर के तलों पर अनाथालय की व्यवस्था की जा सकती है। प्रथम एवं दूसरे तलों जगह के किराये हेतु आवंटन के पूर्व सलामी, लीज या अग्रिम के रूप में संपूर्ण भवन के निर्माण के लिए अपेक्षित पूंजी मिल जाने की संभावना बन सकती है। बेसमेंट एवं भूतल में पार्किग, तीसरे तल पर कार्यालय वगैरह से संपूर्ण परिसर की देखभाल एवं रखरखाव के अतिरिक्त अनाथालय का खर्च भी आसानी से वहन हो सकता है।”