‘पॉवर’ में हैं तो लोग ‘पूछेंगे’, ‘सॉर्ट-सर्किट’ हुआ, लोग ‘दूरियां’ बना लेंगे, ‘पत्रकारिता’ भी ‘लोगों के इस गुण से अछूता नहीं है’ (फोटोवाला श्रंखला 16)  

चार दशक बात दीपक कोचगवे वापस घर आये, भागलपुर आये और अपनी पत्रकारिता को जीवित रखने के लिए "बेबाक लाईव" हुए यूट्यूब चैनल पर 

भागलपुर / पटना :  कोई भी महिला बिहारी श्रमिक नहीं चाहती है कि दिल्ली में, पंजाब में, हिमाचल में, राजस्थान में या फिर अपने गाँव से सैकड़ों-हज़ारों कोस दूर रोजी-रोजगार और पेट भरने के लिए काम करते समय ठेकेदार/मालिक उसका “स्तन” देखे। कोई पुरुष श्रमिक नहीं चाहता की जीवन में उसे किसी गैर-क़ानूनी’ कार्य करने को मजबूर होना पड़े। इज्ज़त और सम्मान सबसे बड़ी संपत्ति होती है। इस संपत्ति के साथ नमक-रोटी-प्याज खाकर भी वह अपने घर में, घर की गलियों में, अपने दालान पर सांस लेना चाहती हैं बिहार महिलाएं, बिहार के लोग। बिहार के लोगों के मन में न आदित्य बिरला बनने की लालसा है और ना ही मुकेश अम्बानी या फिर रतन टाटा। अगर आज़ादी के बाद भी बिहार के आम लोगों को अम्बानी टाटा-बिरला बनने की लालसा होती तो बिहार में इन महानुभावों का नामोंनिशान नहीं होता। 

श्रीकृष्ण सिन्हा से लेकर आज तक बिहार में मुख़्यमंत्री कार्यालय में रखी कुर्सी पर 20 मांसपेशियों से समर्थित, सात मेरुदंड के अस्थिखंड से संतुलित और औसतन पांच किलो वजन के मुंडी वाले 22 लोग (शारीरिक वजन भले 150 किलो तक हो) स्थान ग्रहण किये। आज भी उस कुर्सी पर बगुले की तरह टकटकी निगाहों से देखने वाले सफ़ेद-लाल-पीला-गेरुआ-काला वस्त्र पहने सैकड़ों ‘जीरो’ फीगर से लेकर ‘पब्लिक’ फ़िगर तक के महिला पुरुष 24 x 7 दंड पेल रहे हैं। ईश्वर, अल्लाह, वाहे गुरूजी, जीसस और अपने-अपने इष्ट देवताओं से नित्य प्रार्थना, याचना कर रहे हैं कि हे प्रभु !!! मृत्यु से पूर्व एक बार, एक घंटे के लिए ही सही, उस कुर्सी पर बैठा दे। बैठने के बाद यदि मृत्यु को भी प्राप्त किया तो जीवन पर्यन्त घर के लोगों को “पेंशन” मिलता रहेगा। कई लोग तो इन विगत 75 वर्षों में रटते-रटते ईश्वर को प्राप्त हुए अपनी अतृप्त इक्षाओं के साथ। अगर उन राजनेताओं को प्रदेश की, यहाँ के लोगों की चिंता होती तो आज आज़ादी के 75 साल बाद भी,  22 मुख्यमंत्रियों के होते हुए भी बिहार में पढाई करने के बाद भी, बिहार के शैक्षणिक संस्थानों से उपाधियों को बोरी में भरने के बाद भी 16 -18 फीसदी बेरोजगारी नहीं होती। गजबे है न !!!

प्रदेश की सरकार को आखिर कैसे समझाया जाय कि ‘बेरोजगारी भत्ता’ देने से बेरोजगारों की संख्या में इजाफा ही होगा। क्योंकि बिहार ही नहीं, भारत के किसी भी राज्यों अथवा केंद्र शासित प्रदेशों में सरकार की ओर से जो भी कदम उठाये जाते हैं, उसकी अंतिम कड़ी “वोट-बैंक” पर समाप्त होता है। बिहार के मुखिया नितीश कुमार भी उसी सोच से ग्रसित हैं। अन्यथा माता-पिता द्वारा अभियंता की शिक्षा देने के बाद भी वे देश को नई तकनीक नहीं दे पाए, बल्कि राजनीति में गोता लगा लिए। अब माता-पिता क्या करते? माता-पिता तो समझा ही सकते हैं अपने बाल-बच्चों को, शिक्षा के महत्व को। और यह जरुरी भी नहीं है कि माता-पिता की बातों को माना ही जाय। अगर ऐसा होता तो प्रदेश के पूर्व के पति-पत्नी मुख्यमंत्री द्वय के सुपुत्र-द्वय भी शिक्षा की महत्व को समझते। खैर। 

विगत दिनों सम्मानित नीतीश बाबू घोषणा कर दिए कि प्रदेश में जो युवक शिक्षित होने पर भी बेरोजगार है, उन युवाओं को सरकार की तरफ से प्रतिमाह ₹1000 की धनराशि दी जाएगी – बेरोजगारी भत्ता स्वरुप। बिहार बेरोजगारी भत्ता 2021 स्कीम के तहत यह योजना बेरोजगारी समाप्त करने के लिए है। इसमें वे सभी युवक आते हैं जो शैक्षिक योग्यता में 12वीं पास, स्नातक और स्नातकोत्तर हैं। इस योजना का लाभ उठाने के लिए आवेदक के परिवार की वार्षिक आय ₹300000 या उससे कम कम होनी चाहिए। यानी प्रत्येक “बेरोजगार मतदाता” को अगले चुनाव में अपना मत उनके पक्ष में डालने के लिए 1000 (प्रतिमाह) x 12  = 12,000 (एक साल) x 5 साल = 60,000/- रुपये का बंदोबस्त कर दिए हैं सम्मानित नीतीश बाबू । यह कार्य देश के अन्य मुख्यमंत्री महोदय कर रहे हैं। कोई मुफ्त में साइकिल बंटवा रहे हैं तो कोई लैपटॉप तो कोई इंटरनेट।लेकिन कोई यह नहीं सोच रहे हैं कि जितने पैसे मुफ्त में बांट रहे हैं उस पैसे से बेहतर विद्यालय खोला जा सकता है, शिक्षक-शिक्षिकाओं को मासिक तनख्वाह दिया जा सकता है। 

सम्मानित नितीश बाबू इस बात को भी बाध्य कर सकते हैं कि सरकारी अथवा गैर-सरकारी संस्थाओं में उन्ही शिक्षकों को वेतन दिया जायेगा अपनी शैक्षिक योग्यता पर खड़े उतरेंगे, परीक्षा उत्तीर्ण करेंगे। वजह यह है कि आजकल बिहार के विद्यालओं में शिक्षकों और शिक्षिकाओं की जो स्थिति है, उस हालात में जो बच्चे विद्यालय के पढ़कर बाहर निकलेंगे, वे सभी “1000/- रुपये बेरोजगारी भत्ता वाले ही होंगे” – अब यह बात नितीश बाबू को कौन समझाए। दिल्ली से नितीश बाबू जितने पढ़े-लिखे पत्रकारों को, जवाहरलाल विश्वविद्यालय के पूर्वर्ती छात्रों को ले गए हैं, उनसे प्रदेश के विकास के बारे में सोचना बेकार है। क्योंकि उन सबों के मन भी मुख्यमंत्री कार्यालय की कुर्सी कुस्ती कर रही है। जो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के लिए दवा कर रहे हैं, उनके लिए “शिक्षा” का कोई महत्व नहीं है। अगर होता तो नवमी कक्षा से आगे निकलते न की पिछले एक दशक और अधिक समय से उसी कक्षा में बैठे होते।  

नितीश बाबू को कौन समझाए कि अपने प्रदेश की किसी भी महिला की यह कतई इक्षा नहीं होती है कि पंजाब में फसल काटते समय या मुंबई में दूकान पर बैठते समय या गाज़ियाबाद में भवनों के निर्माण में बालू-सीमेंट-ईंट ढोते समय, या दिल्ली के किसी घर में झाड़ू-पोछा करते समय ”उसका स्तन ठेकेदार या मालिक या घर के स्वामी” देखे। शहरों में उसके ही उम्र के बच्चे स्कूल जाए और उसे उसी घर में झाड़ू लगाना पड़े – बहुत सारी बातें हैं, बहुत सारे अवसर हैं – जिसे बिहार में ठीक किया जा सकता है लेकिन किल्लत ही नहीं सुखाड़ है ‘इक्षा शक्ति’ की । नितीश बाबू को अगर ठीक करने के लिए कहेंगे तो वे तुरंत “बमक” जाते हैं। कई बार कहा : ठीक करिये हुकुम – बहुत दुआएं देंगे बिहार के लोग, जो आपके ही लोग हैं – नहीं तो प्रदेश से बाहर पलायित बच्चे जब दूसरे शहरों में, प्रदेशों में, देशों में “अब्बल” आएंगे तब “छक्कों की तरह हम सभी बिहारी ताली ही बजायेंगे – बिहारी है…. बिहारी है – और वह मन ही मन मुस्कुराता गलियाता रहेगा – कभी बिहार में अवसर नहीं मिला। न साधन था न अवसर और न ही प्रतियोगिता।

मैं भी अपने गाँव से कभी नहीं निकलना चाहता था। परन्तु कुकुरमुत्तों जैसा पनप रहे प्रदेश के नेताओं ने, अधिकारियों ने, बिचौलियों ने – हमारे गांव के पंचायत से लेकर पटना सचिवालय के मुख्यमंत्री कार्यालय तक प्रदेश को इतना नोचा – अर्थ से, सामर्थ से – मुझे गाँव से बाहर कदम निकालने को मजबूर कर दिया । मुझे अपने गाँव के मिडिल स्कूल के शिक्षक गण ईश्वर जैसे दीखते थे । उन्हें छोड़कर रास्ते को लांघना बहुत कष्टदायक था । पढ़ाई-लिखाई का अर्थ और महत्व आप भी नहीं समझें नीतीश बाबू । आप तो “अभियंता” थे। प्रदेश की सेवा करने के बात होती तो अभियंता के रूप में भी कर सकते थे। यही वजह है की अब कुछ “पढ़े-लिखे लोग बाग, अधिकारी भी राजनीति रसमलाई खाना चाहते हैं। प्रदेश के नेतागण, अधिकारीगण तो अन्तःमन से चाहते ही हैं की सम्पूर्ण प्रदेश “ज़ाहिल” रहे। उन जाहिलों के सामने पांच साल में पांच रोटी फेंक कर पुनः कुर्सी पर बैठ जाएँ। आप तो जानते ही हैं नीतीश बाबू कि बिहार ही नहीं, सम्पूर्ण देश में विद्वान लोग, शिक्षित लोग, विचारवान लोग देश के नेताओं से “पन्गा” नहीं लेते। वजह भी है – नेतागण अपने-अपने क्षेत्र के लुच्चों, लफंगों, गुंडों को पालते हैं अपने राजनीतिक लाभ के लिए।  यह क्रिया मुद्दत से चली आ रही है। लेकिन समय अंतराल जब समाज के उन महानुभावों को, जिनके विरुद्ध भारतीय न्यायालयों में, पुलिस थानों में सैकड़ों आपराधिक मुकदमा दर्ज हैं, यह ज्ञान हुआ की उनकी सहायता के बिना नेतागण कुर्सी पर विराजमान नहीं हो सकते; वे स्वयं राजनीति में कूद पड़े। बिहार ही नहीं, देश के किसी भाग के असहाय, निरीह, अशिक्षित मतदाताओं को कूबत नहीं है (वैसे तो भारत के संसद से लेकर प्रदेश के विधान पालिका को भी जोड़ लें) की वे “चूं-चा कर ले।  

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प्रदेश के गाँव में शिक्षा का बंदोबस्त उन दिनों भी नहीं था, और आज भी नदारद है । प्रशासन और सरकार स्वयं प्रदेश के, जिलों के, गावों को शिक्षित नहीं करना चाहते थे। जिला-पंचायत-प्रखंडों- गांव की स्कूलों की पढ़ाई जमीन के अंदर दफ़न होती चली गयी । अधिकारीगण कागज़ पर स्कूल बनाए, शिक्षकों की नियुक्ति किए, तनख्वाह बांटे और प्रदेश शिक्षा के क्षेत्र में कागज पर अव्वल आता गया हुकुम – यह बात आप अपने प्रदेश के मतदाताओं से अधिक जानते हैं । रोजी-रोजगार की तो बात ही नहीं करें।प्रदेश से बाहर पलायित बच्चे जब भी कोई बालक-बालिका दूसरे शहरों में, प्रदेशों में, देशों में ‘अव्वल’ आते हैं तो प्रदेश के लोग ‘ताली बजाने’ लगते हैं। मैं तो साढ़े-चार-वर्ष की उम्र में ही पिता की ऊँगली पकड़कर छोटी लाइन की ट्रेन से दरभंगा से हाजीपुर-सोनपुर-पहलेजा घाट के रास्ते गंगा मैया की तेज धार को काटते पटना के महेंद्रु घाट पहुंच गए। उस समय कपार पर गोलघर जैसा लाल-तिलकधारी बिनोदानंद झा मुख्यमंत्री कार्यालय से निकल रहे थे; प्रदेश के नेताओं को, अधिकारियों को, ठेकेदारों को, बिचौलियों के मुख में प्रदेश को लूटने की विधि-विधान की ओर उन्मुख करके हुज़ूर। क्योंकि दीप नारायण सिंह 18 दिन के शासन में क्या किये, आप तो अनेकानेक बार पढ़े हैं और श्रीकृष्ण सिंह की तो बात ही छोड़िये।

अगर गांव छोड़कर पटना नहीं आया होता, पटना छोड़कर कलकत्ता नहीं गया होता, कलकत्ता छोड़कर दिल्ली नहीं आया होता तो गर्दनीबाग रेलवे क्रासिंग पर या फिर सर्पेंटाइन रोड के चौराहे पर, या फिर डाक बंगला रोड के कोने पर “भुट्टा ही बेचते” रहता। आपके सिपा-सलाहकार, खाकी वर्दीधारी लोग बिना पूछे, बिना पैसा दिए भुट्टा भी खा लेते और अगर पैसा मांगने हेतु याचना करते तो या तो पिछवाड़े में 3.3 गोली दाग देते या फिर गंगा में फेंक देते। आजतक 22 मुख्यमंत्री बने। एक-एक आदमी दो बार, तीन बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुए। लेकिन हम लोग जैसा निरीह-गरीब-गुरबा इन 75 वर्षों में आज भी ठेंघुने पर ही हैं। जबकि हम लोगों से जाहिल, अनपढ़, गंवार आज प्रदेश के धनाढ्यों में गिने जा रहे हैं। यह कैसे हो सकता है ? देखिये न बिहार के बाहर दिल्ली में, नोएडा में, गाजियाबाद में, लखनऊ में, कानपुर में, कोलकाता में,चेन्नई में, मुंबई में, राजस्थान में, मध्यप्रदेश में, उत्तराखंड में बिहार के मंत्रियों के नाम, उनकी मेहरारू के नाम, बाल-बच्चों के नाम, साला-साली के नाम, अधिकारियों के नाम, ठेकेदारों के नाम, दबंगों के नाम, शासन-व्यवस्था के नजदीकियों के नाम कितनी बड़ी संपत्ति-साम्राज्य है ? 

के बी सहाय, महामाया प्रसाद सिंह, सतीश प्रसाद सिंह, बी पी मंडल, भोला पासवान शास्त्री, हरिहर सिंह, दारोगा प्रसाद राय, कर्पूरी ठाकुर, केदार पांडेय, अब्दुल गफ़ूर, जगन्नाथ मिश्रा, राम सुन्दर दास, चंद्रशेखर सिंह, सत्येन्द्र नारायण सिंह, लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और नीतीश जी आप जैसे सभी मुख्यमंत्रियों ने, सबों के मंत्रिमंडल के सदस्यों ने, अधिकारियों ने, दबंगों ने, जिन्हें ‘राजनीतिक संरक्षण’ प्राप्त होता है और राजनेता “लाभान्वित” होते हैं  – सबों ने मिलकर बिहार का चतुर्दिक बलात्कार किये और बिहार को बांझ बना दिए “आर्थिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य, कला-विज्ञान, रोजगार, विज्ञान, तकनीकी के विकास के क्षेत्रों में । अपने प्रदेश में अपने लोगों को सुरक्षित रहने, भर-पेट डकार लेकर खाने, अनंत-स्तर तक शिक्षा ग्रहण करने, स्वस्थ और तंदुरुस्त रहने, व्यापार करने, खेतों में भरपूर उत्पादन करने, उसे उचित मूल्यों बाजार में बेचने, बिना घूस दिए कार्यालयों में अधिकारियों, कर्मचारियों को काम करने का माहौल बनाइये बाबू। 

अब आप ही बताएं नीतीश बाबू हम लोग जैसे पत्रकार कहाँ जायँ? दीपक कोचगवे जैसे कलम के जादूगर कहाँ जायेंगे? जो जीवन भर पटना के फ़्रेज़र रोड पर चप्पल रगड़े, कागज पर कलम रगड़े – प्रदेश की सरकार क्या दी? शिवनाथ झा या दीपक कोचगवे तो महज एक दृष्टान्त है। ऐसे सैकड़ों पत्रकार हैं जो खुलेआम आपकी कमियों को, आपकी सरकार की कमियों को, अधिकारियों के रवैय्ये को लिखने की ताकत रखते हैं, लिखते आ रहे हैं – लेकिन आप यांत्रिकी में स्नातक और स्नातकोत्तर उपाधि से अलंकृत होने के बाद भी प्रदेश के उन्हीं राजनीतिक नेताओं जैसा व्यवहार करते हैं जैसा मुर्ख, अनपढ़, ज़ाहिल जिसे दूर-दूर तक शिक्षा, संस्कृति से कोई मतलब नहीं है। फिर हम जैसे आर्थिक रूप से निरीह पत्रकारों को कौन देखेगा? क्या मगध में अब सिर्फ “घनानन्द” ही हैं, “सम्राट अशोक, सम्राट चन्द्रगुप्त जैसा कोई राजा नहीं है ? आज आपको जिनसे मिला रहा हूँ, आप उन्हें अच्छी तरह जानते हैं अपने शैक्षिक जीवन काल से। लेकिन शायद आप कभी पलटकर अपने जीवन के शुरूआती दिनों के कर्मठ सहयोगियों को “अब नहीं पहचानते” – अगर पहचानते तो प्रदेश के “ऐतिहासिक पत्रकारों के जीवन के अंतिम वसंत में” यह हाल नहीं होता। 

अपने प्रयास के तहत आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम तत्कालीन बिहार के हज़ारीबाग जिले में सन 1954 को श्री केदारनाथ कोचगवे और श्रीमती तारामणी देवी के घर में उत्पन्न पांच भाई-बहनों में एक से मिलाता हूँ। सत्तर के दशक के उत्तरार्ध से आज तक, बिहार के ‘अखबार पढ़ने वाले’, ‘रेडियो सुनने वाले’ शायद की कोई व्यक्ति होंगे जो इस नाम से परिचित नहीं होंगे। नाम है – दीपक कोचगवे। कोचगवे साहेब के पिता बिहार सरकार वित्त विभाग के बिक्री कर विभाग में कार्य करते थे। कागज पर मुद्रित “लक्ष्मी” का सरकारी दफ्तरों में, अधिकारियों की कुर्सियों के पास से आना-जाना नित्य का कार्य था। लेकिन केदारनाथ कोचगवे साहेब जैसे ही लक्ष्मीजी को झोला में, बोड़ी में बंघा देखते थे, उस बहाव को वरीय अधिकारियों को ओर उन्मुख कर देते थे। वे अपनी नजर में स्वाभिमान के साथ जीना चाहते थे। वे कभी नहीं चाहते थे कि टोला-मोहल्ला के लोग उनके बाल-बच्चों को देखकर ‘नाक-भौं’ सिकुड़े। उनके नजर में ‘ईमानदारी’ और ‘स्वाभिभान’ गोलघर से भी ऊँचा स्थान रखता था। दीपक कोचगवे साहेब सर्वोदय कालोनी में माता-पिता-भाई-बहनों के साथ रहते थे।  बचपन की प्रारंभिक शिक्षा “लालटेन युग” में हज़ारीबाग के नगर निगम विद्यालय से प्रारम्भ किये। बाद में जब नवमीं कक्षा में आये फिर संत कोलम्बस में दाखिला लिए। इधर नवमीं कक्षा की पढाई शुरू भी नहीं हुयी थी, दीपक कोचगवे के पिता का बिक्री कर पदाधिकारी के रूप में प्रोन्नति के साथ जमशेदपुर हस्तान्तरण हो गया और फिर पहुँच गए बक्सर। दीपक कोचगवे बक्सर के ऐतिहासिक “भूमिहार ब्राह्मण स्कूल, बक्सर” से सन 1972 में माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण किये। फिर महर्षि विश्वामित्र कॉलेज से इंटरमीडिएट। समय बीत रहा था।

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पत्रकारों से बातचीत करते दीपक कोचगवे

इस बीच पटना  कदमकुआं वाले जयप्रकाश नारायण दिल्ली सहित भारत के विभिन्न प्रदेशों की सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए संकल्पित हो गए थे। जेपी का आंदोलन माथे पर बैठकर तांडव करना प्रारम्भ कर दिया था। बिहार के सभी शैक्षणिक संस्थाओं में शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य “बैक-बेंचर” हो गया था। प्रदेश में जिस तरह युवकों के चेहरों पर “काली-काली मूछों की लकीर” बननी शुरू हो गयी थी, बिहार में कुकुरमुत्तों की तरह गली-गली नेता भी जन्म ले रहे थे। शिक्षा की स्थिति को ख़राब होते देख दीपक कोचगवे अपनी बड़ी बहन के पास भागलपुर आ गए। खेल (क्रिकेट) के कोटा पर इनका नामांकन भागलपुर के विज्ञान संकाय में टी एन बी कालेज में हुआ। ये टीएनबी कालेज क्रिकेट टीम के सदस्य हो गए। इधर पिता केदारनाथ जी सोच रहे थे की दीपक पढाई कर डाक्टर बनेगा। दो-तीन बार प्रवेश के लिए मेडिकल इंट्रेंस परीक्षा भी दिए। एक बार डेंटल में हुआ। लेकिन दीपक कोचगवे डाक्टर नहीं बनना चाहते थे। इस दौरान दीपक कोचगवे पत्रकार अरुण सिन्हा और पत्रकार अलख मधुप से टकराये। मधुप जी उन दिनों पटना से प्रकाशित दी इण्डियन नेशन समाचार पत्र के बोकारो-जमशेदपुर का संवाददाता थे और सम्बन्ध में दीपक कोचगवे के मामा भी थे। जमाना सत्तर के दशक का था, उत्तरार्ध ही सही – लेकिन दीपक कोचगवे के लिए समय एक अलग रेखांकन कर रहा था। अब तक दीपक कोचगवे पटना के गर्दनीबाग रोड नंबर 3 में आ गए थे। 

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते दीपक कोचगवे कहते हैं: “उन दिनों जब अलख मधुप को, अरुण सिन्हा को देखते थे तो उनके तेवर देखकर, समाज में उनकी सादगी और प्रतिष्ठा देखकर, उनकी लेखनी की शैली देखकर मन पत्रकरिता की ओर चुंबक जैसा उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव जैसा खींच रहा था। जब इक्षा जाहिर किया तो पहले डांटे। फिर कहे की संपादक के नाम पत्र लिखा करो। अपने टोले, मोहल्ले की बातें, समस्याएं चाहे पानी का हो या बिजली का या फिर सफाई  का या फिर पढ़ाई का, लिखकर भेजा करो। तत्कालीन इण्डियन नेशन और सर्चलाइट में भेजा करता था। कुछ दिन बाद देखा की मेरे नाम से प्रकाशित होने लगा। मोहल्ले में ये अखबार आता था। उस समय लोग संपादक के नाम पत्र भी पढ़ा करते थे। लोग बाग़ मेरा पत्र मेरे नाम से पढ़ने लगे, कई लोगों ने पीठ भी ठोके, थपथपाये। उस समय ‘यूथ टाइम’ प्रकाशित होता था। मैं उसमें शैक्षणिक संस्थानों के बारे में, शैक्षिक स्थिति के बारे में, छात्र-छात्राओं की समस्याओं के बारे में लिखता था, प्रकाशित होता था। अख़बारों में अपना नाम छपते देख, समाज के लोगों का मेरे प्रति विस्वास और आकर्षण देख “डाक्टरी” की बात मगज से निकल गया और पत्रकारिता मन और आत्मा में बैठ गया। पिताजी को कतई पसंद नहीं था की मैं पत्रकार बनूँ। पिताजी चाहते थे कि मैं या तो डाक्टर बनु, या फिर सरकारी नौकरी करूँ। एक बार दार्जिलिंग चाय बागान में नौकरी भी हो गई। लेकिन मैं नहीं गया। आखिर वे दुनिया देख चुके थे। पांच बच्चों के पिता थे और मेरी शादी भी नहीं हुयी थी। इसे ही कहते हैं समय और जेनरेशन-गैप। आज अपने संतानों को जब देखता हूँ तो बाबूजी की बात याद आती है।”

सत्यप्रकाश असीम (दिवंगत) के साथ दीपक कोचगवे 

दीपक कोचगवे कहते हैं: “संपादक के नाम पत्र और यूथ टाइम में लेखन के बाद, वास्तविक रूप से, पत्रकारिता के क्षेत्र में मेरी उत्पत्ति भागलपुर रेडियो स्टेशन से हुई और मैं इसके लिए आज भी सुश्री विनोद वाला जी का ह्रदय से आभारी हूँ। विनोद बाला जी अक्सरहां मुझे कार्यक्रम का संचालन का भार दे देती थी और मैं बहुत ही सिद्दत से उसका निर्वाह करता था ताकि उनकी ओर कोई ऊँगली नहीं उठाये। प्रत्येक कार्यक्रम के लिए मुझे 25/- रुपये मिलते थे और महीने में 5-6 कार्यक्रम हो जाता था। उसी समय, यानी सन 1981 में बिहार और उड़ीसा के बीच रणजी ट्राफी के लिए मैच होना था। यह मैच भागलपुर के सैंडिस कम्पौंड में सुनिश्चित था। आकाशवाणी भागलपुर द्वारा ‘रनिंग कमेंट्री’ जारी होना था। उस कमेंट्री में समीर सेनगुप्त, डॉ प्रेम कुमार भी थे। आकाशवाणी भागलपुर द्वारा मुझे भी मौका दिया गया। यह मेरे जीवन का ‘टर्निंग पॉइंट’ था। इसके बाद महान कमेंटेटर जसदेव सिंह से मुलाकात हुई। वे बहुत ही विश्वास के साथ पीठ थपथपाए। खुद पर, अपने काम पर और मेहनत पर विश्वास बढ़ता गया। अगले वर्ष, 1981 में सुश्री गुंजन प्रसाद जी से विवाह हुआ और हम दोनों जीवन की लड़ाई में उतर गए और अंग प्रदेश भागलपुर से मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पहुँच गए। साल 1982 था।”

पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने पर विश्वास होना तो आवश्यक है ही, अपनी कलम पर बहुत विश्वास होना उससे भी अधिक जरूरी है। पत्रकारों का चरित्र उनकी लेखनी से मालूम हो जाता है और दीपक कोचगवे अपने नाम से अधिक कलम के नाम से जाना जाना चाहते थे। कोचगवे जी कहते हैं: “उन दिनों इण्डियन एक्सप्रेस में ट्रेनी जर्नलिस्ट के लिए विज्ञापन निकला था।पटना में एक सज्जन थे जो मुझे बेहतरीन तरीके से जानते थे। वे बोले कि तुम दिल्ली चले जाओ और श्री चंद्रशेखर जी से मिलो। वे एक पत्र दिए और हम पति-पत्नी दिल्ली कूच कर गए। समय कुछ रेखाएं खींच रहा था। हम दोनों दिल्ली पहुंचे, चंद्रशेखर जी से मिले। वे अपने हाथों कोका-कोला पिलाए । उस समय इण्डियन एक्सप्रेस के संपादक निहाल सिंह साहब थे। मैं ट्रेनी जर्नलिस्ट (स्पोर्ट्स) के रूप में काम करना शुरू किया। लेकिन दिल्ली की भौगोलिक दशा मुझे अच्छा नहीं लगा और मैं वापस पटना आ गया। इस बीच सुनील गावस्कर, चेतन चौहान जैसे अव्वल क्रिकेट खिलाड़ियों का इंटरव्यू किया, छपा। खेल पर लिखते थे। पटना आने पर एक दिन शाम को फ़्रेज़र रोड में “आज” अखबार के दफ्तर में पहुंचा। नया-नया अखबार प्रकाशित होना प्रारम्भ हुआ था। प्रथम मंजिल पर श्री पारसनाथ सिंह बैठे थे। वे बेहतर पत्रकार तो थे ही, बेहतर आदमी भी थे। मैं उनसे बताया की मैं खेल-कूद पर लिखता हूँ, मुझे नौकरी चाहिए। वे मेरी ओर देखे और दो-टूक में कह दिए। यहाँ कोई नौकरी नहीं है। खेल-कूद पर पाण्डेय (सत्यप्रकाश असीम) लिखता है। मैं निराश होकर वापस नीचे उतर गया।”

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बहुगुणा के साथ बात करते दीपक कोचगवे 

दीपक जी आगे कहते हैं: ” मैं फ़्रेज़र रोड की मिटटी को, सड़क पर पड़े रोड़े-पत्थर को पैर से ठोकर मारते चल रहा था। धीरे-धीरे पीटीआई बिल्डिंग के सामने जगदीश चाय वाले के पास आ पहुंचा। जगदीश निम्बू की चाय बनता था। वहां पहले से ही समीर सेनगुप्त और प्रेम कुमार बैठे थे। जब उन्होंने पूछा की क्यों उदास हो दीपक? मैं उनसे बताया की ”आज” दफ्तर गया था, लेकिन वहां ‘नकारात्मक’ उत्तर मिला। कहा गया कि कोई पाण्डेय जी हैं, वे खेलकूद पर लिखते हैं। सत्यप्रकाश असीम यानी पाण्डेय जी वहां बैठे थे। मैं उन्हें नहीं जानता था। सभी जोर से ठहाका लगाए। फिर समीर सेनगुप्त और प्रेम कुमार मेरे बारे में पाण्डेय जी को बताये। चाय की चुस्की लेते पाण्डेय जी कहते हैं: निराश नहीं हो दीपक जी। आप कल आइए। आप मेरी ख़ुशी का अंदाजा नहीं लगा सकते। मजाक में प्रेम कुमार (एक शिक्षक थे) यह भी कह दिए की अभी-अभी शादी हुई है दीपक की। मैं जानता था कि विवाह के बाद मैं अब तक अपनी पत्नी को कुछ भी नहीं दे पाया था। लेकिन आज पाण्डेय जी की बात सुनकर ऐसा लगा की मेरी पत्नी की भाग्य से मेरी जीवन-रेखा कुछ बेहतरीन होने जा रहा है।”

दीपक कोचगवे अपनी साँसे रोकते, कुछ पल रुके, गमछी से आँखों को पोछते, जैसे चार दशक पहले उस क्षण को जी रहे हैं, कहते हैं: “अगले दिन मैं मार्टिना नवरातिलोवा पर एक कहानी लिखकर ले गया था। पाण्डेय जी को दिया। कुछ पल बाद सम्पूर्ण पन्ना लाले-लाल था। वजह था हिंदी पर उतनी पकड़ नहीं थी मेरी उन दिनों। मैं विज्ञान का छात्र था । लेकिन विश्वास अडिग था। मैं पाण्डेय जी द्वारा रेखांकित सभी लाल शब्दों को दुरुस्त किया। अगले दिन मेरे नाम से आज अखबार में प्रकाशित हुआ और मैं उस दिन से ‘आज’ का हो गया, लिखने लगा। सन 1983 में ‘एशियन गेम’ था ,बेहतरीन तरीके से ‘आज’ अखबार में प्रकाशन हुआ। उस ज़माने में 150 / रुपये मिलते थे वह भी ‘रेवेन्यू स्टाम्प’ पर दस्तखत कराकर। सन 1983 में ‘आज’ अखबार में नौकरी पक्की हुई – वेतन 750/- रुपये प्रतिमाह। मैं खेलकूद बीट पर काम करता था। फिर ज्ञानवर्धन आये संपादक के रूप में। अब तक सत्यप्रकाश जी राजनीति बीट पर चले गए। वे बहुत बेहतरीन लिखते थे। इसके बाद दीपक पांडेय आये, ईशा उद्दीन आये। मैं भी खेलकूद से राजनीति बीट पर काम करना प्रारम्भ किया।”

आपकी पत्नी गुंजन जी के साथ दीपक कोचगवे

उन दिनों की बातों को याद करते दीपक कोचगवे कहते हैं: “बिहार में लालू की सरकार आने के बाद प्रदेश में दबंगई उत्कर्ष पर चढ़ गया। लालू यादव सबों को, अख़बारों को भी नेश्तोनाबूद करने में कोई कसर नहीं छोड़े अपने मुख्यमंत्री के प्रारंभिक काल में। साल था सन 1992, लेकिन उस ज़माने में ‘आज अखबार’ की टीम ने जिस कदर काम किया खनक के साथ, बिहार के पाठक उसे सर-माथे पर बैठाया और ‘आज’ प्रदेश का नंबर-एक अख़बार हो गया। उसी समय कई लोग आये, जिसमें प्रभात रंजन दीन एक महत्वपूर्ण संवाददाता थे। गजब की लेखनी थी उनकी, गजब की भाषा थी – आज भी है। लेकिन ‘आज’ दफर में भी समय बदल रहा था। उस दिन मैं फ़्रेज़र रोड स्थित डी लाल एण्ड संस के सामने ‘एग-रोल’ खा रहा था। अब तक अविनाश जी, गोरख बाबू, इंद्रजीत सभी त्यागपत्र दे दिए थे। साल था 1995 । मेरे ‘एग-रोल’ मुंह में ही था। मैं दूकानदार से कागज़ लिया और अपना त्यागपत्र लिखकर तत्कालीन संपादक बेनीमाधव जी को प्रेषित कर दिया। वे नहीं चाहते थे कि कोई जाय। लेकिन सभी जिद पर थे। इस बीच अरुण रंजन, जो नवभारत टाइम्स के वरिष्ठ पत्रकार थे और खेलकूद के संपादक भी थे, मुझे ‘नवभारत टाइम्स’ में आने के लिए कहा। वे मुझे दिल्ली भेज दिए जहाँ राजेंद्र माथुर जी मेरा इंटरव्यू लिए। फिर मुझे कहे की आप जयपुर चले जाएँ वहां दीनानाथ जी एक टेस्ट लेंगे। मणिमाल जी वहीँ थी। टेस्ट दिया और वापस बस पकड़कर दिल्ली के रास्ते पटना पहुँच गया।”

कहा जाता है की जब तक आप किसी पद पर आसीन हैं और आपसे लोगों को फायदा है, आपको सभी पूछेंगे, लेकिन जैसे ही आप पदच्युत हो जायेंगे, नौकरी छोड़ देंगे, समाज में लोग बाग़ भी कम पूछताछ करेंगे आपके बारे में। भारत के सम्माज में तो यह सर्वविदित है। विश्वास नहीं हो तो आजमा के देखिये। दीपक कोचगवे के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। जहाँ सैकड़ों फोन नित्य टनटनाते थे, क्रमशः कम होते गए। वजूद भी ख़त्म होने लगा। लेकिन समय कुछ और चाहता था। 

दीपक कोचगवे कहते हैं: “हम चारों लोग प्रभात खबर आ गए। भागलपुर, गया, धनबाद में दफ्तर खोला, यूनिट बैठाया और फिर अखबार अपने पाठकों तक पहुँचाने लगे। कोई सन 2000 तक वहां दाना-पानी था। इस बीच अपने एक मित्र अंजनी विशाल (अब दिवंगत) जो उस समय दिल्ली के सांध्य प्रहरी में पत्रकार थे, के सहयोग से “तापमान” नामक पत्रिका प्रारम्भ किये। प्रारम्भ में तो लोगबाग दूरी रखे, लेकिन जैसे ही “तापमान” की भाषा “लालू की भाषा” में, ठेठ गंवई अंदाज में, गरमा-गरम भाषा में लिखा जाने लगा, पाठक हृदय से लगाने लगे। कोई 25000 प्रतियां बिकने लगी। उसी समय पटना से “राष्ट्रीय सहारा” का संस्करण आने वाला था और मुझे लोगों ने बुला लिए। हिंदी में, उर्दू में राष्ट्रीय सहारा को पाटलिपुत्र की धरती से प्रारम्भ किया। दस वर्ष तक सहारा ने सहारा दिया और हम भी उसके सहारा बने रहे। फिर पत्रकारिता का एक नया आयाम दिया जब ऐ डी जी ग्रुप (अनिल धीरूभाई अम्बानी ग्रुप) में बिहार, झारखण्ड और ओडिसा के लिए ‘कारपोरेट कम्युनिकेशन’ का प्रमुख बना। सन 2016-2017 तक यहाँ रहा फिर एफ एम / बिग मैग/सिनेमा को देखने का जवाबदेही मिला। फिर मिनी मेनन के साथ ऐतिहासिक फाइल्स और हेरिटेज पर काम करना शुरू किया। चार फिल्म – कारण (चंपा), मंजूषा (पेंटिंग) और अकबर का फरमान बना। दर्शकों ने, पाठकों ने, सबों ने बहुत सराहा। विगत कुछ दिनों से “बेबाक लाइव” यूट्यूब चैनल चला रहे हैं। समय निकल रहा है। जीवनभर लिखा-पढ़ा इसलिए अवकाश के इस पड़ाव पर भी खुद को लिखने-पढ़ने-बोलने में व्यस्त रख रहा हूँ।”

सबसे बड़ी बात यह है कि दीपक कोचगवे की युग के पत्रकारों की अगली पीढ़ी अब पत्रकारिता से महज पाठक-दर्शक का ही रिस्ता रखना चाहता था। दीपक कोचगवे को दो बेटियां हैं – एक आईआईएम, बोध गया में हैं और दूसरी लखनऊ में। बेटा-बहु सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। दीपक कोचगवे सन 1982 में भागलपुर अपना घर-द्वार छोड़कर बाहर निकले थे, चार-दशक बाद अपने घर भागलपुर वापस आ गए। सम्पूर्ण जवानी पत्रकारिता को दिए, अब अपने परिवार, परिजनों के साथ अपने घर में रहते हैं और “बेबाक लाईव” रहते हैं। ईश्वर से प्रार्थना करूँगा आप सपरिवार स्वस्थ रखें। ‘कोरोना वायरस’ संक्रमण से भले ‘दूरियां’ रखें, मास्क पहने – लेकिन मित्रों से दूरियां रखना घोर अपराध है। 

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