नेताओं ने तो हमेशा ‘छात्रों’ का इस्तेमाल किया है ‘सत्ता के लिए’, फिर केबी सहाय का गोली कांड हो या जेपी का आंदोलन

टना के बहुत पुराने छायाकार इश्तियाक अहमद साहब

पटना : विगत दिनों पटना के एक मित्र किसी बात के सिलसिले में “सोडा फाउंटेन” की चर्चा किये। सुनते ही 26 वां स्वाधीनता दिवस का महीना याद आ गया। साल सन 1973 था और अगली सुबह पटना से प्रकाशित ‘आर्यावर्त’, ‘इण्डियन नेशन’, ‘सर्चलाइट’, ‘प्रदीप’ अखबार खूब बेचे थे। सुबह-सवेरे पटना के गाँधी मैदान में पटना से बाहर जाने वाले बस यात्रियों के हाथों तो बेचे ही थे, गाँधी मैदान से पटना विश्वविद्यालय के रानी घाट प्राध्यापक आवासीय क्षेत्र तक इतने अखबार बेचे थे कि जेब में ‘रेजकी’ (खुदरा पैसा) दोनों तरफ इस कदर लटक गया था, जैसे बारह वर्ष की आयु में ‘हाइड्रोसील’ बिमारी हो गया हो। बुशर्ट से ‘सेप्टिपिन’ निकालकर जेब में लगा लिया था ताकि मेहनत की कमाई सड़क पर न गिरे। साईकिल की गति भी धीमी गति की समाचार जैसी हो गयी थी। कहने के लिए तो “छात्रों का कमाल” था, लेकिन भीड़ में “छात्र को पहचानना’ मुश्किल ही नहीं ‘नामुमकिन’ उस दिन भी होता था, आज तो सार्वभौमिक सत्य है क्योंकि बिहार ही नहीं, देश के कोने-कोने के राजनेता किस करवट बैठकर कुर्सी के लिए ‘वायुत्याग’ करेंगे कोई नहीं समझता। 
 
भारत के लाल किले पर 15 अगस्त को झंडोत्तोलन होने से कोई तीन माह पूर्वं, यानी 12 मई, 1947 को पटना के गांधी मैदान के पास तत्कालीन ‘एलिफिंस्टन और रीजेंट सिनेमा हॉल’ के बीच दाहिने कोने पर सत्यनारायण झुनझुनवाला एक खुला रेस्तरां खोले। इस रेस्तरां के दाहिने तरफ तो छोटा-मोटा भवन आकार का रेस्तरां था, लेकिन खुले गार्डननुमा मैदान में टेबुल-कुर्सी लगी होती थी। शाम के समय पटना के लोग बाग़, संभ्रांत महामानव सहित, यहाँ सपरिवार आकर जलपान, चाय, काफी, या अन्य भोज्य पदार्थों का आनंद लेते थे। पटना शहर में एक विशेष जगह बन गया था यह स्थान।

झुनझुनवाला साहेब लन्दन से एक मशीन मंगाए थे – नाम था सोडा फाउंटेन – और उसी मशीन के नाम पर इस रेस्तरां का नामकरण हो गया। क्या रिक्शावाला, क्या बस वाला, क्या नेता, क्या मंत्री, क्या छात्र, क्या अध्यापक, क्या डाक्टर, क्या व्यापारी, क्या हज़ामत बनाने वाला – सभी इस रेस्तरां के ग्राहक थे। गाँधी मैदान के इस छोड़पर ‘सोडा फाउंटेन’ और ‘खादी ग्रामोद्योग’ दोनों ‘आइकॉन’ बन गया था। सत्ताईस अगस्त, 1973 की रात में झुनझुनवाला साहेब पूरे दिन की बिक्री का हिसाब-किताब कर ‘गद्दी’ से उतड़े अगली सुबह दूकान खोलने की तैयारी करने के लिए। अगली सुवह भी सब ठीक-ठाक था। लेकिन इधर सूर्यदेव जैसे-जैसे ब्रह्माण्ड में ऊपर चढ़ रहे थे, ‘सोडा फाउंटेन’ का अस्तित्व खतरे की ओर उन्मुख हो रहा था – शांति पूर्वक। कहीं कोई आभास नहीं था अगले पल क्या होने वाला है। 

‘सोडा फाउंटेन’ में खचाखच ग्राहक थे। खुले गार्डेन में गरमा-गरम समोसे, पकौड़ियाँ हरी-हरी चटनियों के साथ लोग बाग़ आनंद ले रहे थे। आसमान में बादल बन रहा था। तापमान भी शारीरिक सहज के अधीन था। तभी ‘गद्दी’ (कैश काउंटर) पर बैठे सज्जन की आवाज धीरे-धीरे ऊँची होने लगी थी और सामने खड़े चार-पांच छात्रों की आवाज उस आवाज को दबाते, ऊपर उठ रहा था। मामला महज ‘साढ़े-सात’ रुपये की पिछले बकाये राशि की थी जिसे गद्दी पर बैठे महानुभाव सामने खड़े ग्राहक से मांग रहे थे। इसलिए कहते हैं “उधार प्रेम की कैंची है।”

ग्राहक पटना विश्वविद्यालय के छात्र थे और गद्दी पर बैठे सज्जन से गलती यह हो गई कि वे “पटना के छात्र” से “बकाये पैसे मांग लिए” – देखते ही देखते वह ‘साढ़े सात रुपये की राशि सोडा फाउंटेन के लिए साढ़ेसाती बन गया। पहले मुंह चल रहा था, फिर हाथ चला, फिर हॉस्टल के कमरों में लगी मच्छरदानी का डंडा, फिर असली डंडा, फिर हौक्की का डंडा, फिर तोड़-फोड़, फिर माचिस की एक छोटी तिल्ली ने सोडा फाउंटेन का नामोनिशान मिटा दिया। हज़ारों छात्रों के गुस्सा को सोडा फाउंटेन के झुनझुनवाला साहेब नहीं झेल सके। देखते ही देखते ‘सोडा फाउंटेन’ अगले दिन प्रकाशित अख़बारों के पन्नों पर तस्वीरों के साथ प्रकाशित हुई। 

वैसे कई वर्ष पहले फिर सोडा फाउंटेन अपने स्वरूप में आ गया लेकिन कल सोडा फाउंटेन के संस्थापक सम्मानित श्री सत्यनारायण झुनझुनवाला साहेब के पोते श्री समीर झुनझुनवाला से बात करने की कोशिश किये ताकि उन्हें कहानी में समेट सकूँ, वे बहुत व्यस्त थे। कहते हैं: “सन्डे से पहले तो बात हो ही नहीं सकती, बहुत अधिक व्यस्तता है।” मैं उनकी बातों का सम्मान करते फोन रख दिया। अब उन्हें कैसे कहते कि ‘हम भी बेरोजगार नहीं हैं। देश में शब्दों की कीमत भले नहीं हो, विद्यार्थियों की कीमत आज भी है।” खैर। 

‘सोडा फाउंटेन’ के पास एक घटना सं 1973 की घटना से भी अधिक कष्टदायक थी जब साथ चल रहे एक छात्र के सिर पर बिहार की पुलिस गोली अचानक टकराती है। गोली अपना काम कर जाती है। कुछ सेकेण्ड पहले हँसते छात्र का शरीर ‘पार्थिव’ हो जाता है। तक़रीबन 59 राउंड गोलियां चलाई गई थी तत्कालीन बिहार पुलिस के द्वारा और बुद्ध – महावीर – गुरु गोविन्द सिंह – चाणक्य – चन्द्रगुप्त – कुंवर सिंह के बिहार का नेतृत्व कर रहे थे बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय और साल सन 1967 था और जनवरी महीना का 5 तारीख । कहते हैं इस गोली कांड के बाद बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय यानी केबी सहाय कभी राजनीतिक गलियारे में नहीं दिखे, सत्ता और शासन की बात तो मीलों दूर। 

ये भी पढ़े   मानिए या नहीं मानिए "राजेश्वरी" भाग्यशाली है, तेजस्वी उप-मुख्यमंत्री फिर बने वियाह के ठीक आठ महीने बाद और चचिया ससुर मगध सम्राट

उस गोलीकांड का चश्मदीद गवाह थे तत्कालीन ‘दी इण्डियन नेशन’ अखबार के संवाददाता श्री जनार्दन ठाकुर, असित सेन और किशोर जी। असित सेन और किशोर जी ‘छायाकारी’ का भी कलाकारी जानते थे। कितने लोग मरे उस गोली कांड में, यह तो ‘माँ गंगा’ भी नहीं बता सकी जिनके आँगन में तत्कालीन प्रशासन के प्रशासक पार्थिव शरीरों को उठाकर गंगा को समर्पित कर रहे थे। लेकिन असित सेन और किशोर जी’ का कैमरा सब कुछ देख रहा था। 

जिस छात्र के सिर पर गोली लगी थी, उसके ‘सहपाठी’ से आज आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम बात किया। दोनों पटना के अशोक राजपथ पर स्थित टी के घोष अकादमी का छात्र थे। उस दिन दोनों घर के कुछ कार्य करने के लिए गांधी मैदान की ओर आये थे और कार्य समाप्त करने के बाद ‘हँसते-खेलते” घर जा रहे थे। सत्तर+ वर्षीय अशोक कुमार झा उस घटना को याद करके आज भी हरकम्पित हो गए। अशोक जी ‘दी इण्डियन नेशन’ अखबार के तत्कालीन ‘एसोसिएट एडिटर’, जो बाद में संपादक भी बने और बिहार की पत्रकारिता में अपना हस्ताक्षर भी किये, दिवंगत श्री दीनानाथ झा के पुत्र हैं। पेशे से पटना उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। 

अशोक जी कहते हैं: “के बी सहाय के गोलीकांड के सामने सोडा फाउंटेन की सं 1973 की घटना तो नगण्य है। सन 1973 में तो एक जिद ने सोडा फाउंटेन को नेस्तनाबूद कर दिया। उस घटना में कोई मरा नहीं। लेकिन उस गोली कांड में कितने लोग मरे, आज तक कोई नहीं जान पाया है। मैं अपने मित्र के साथ बात करते चला जा रहा था। नवमी कक्षा में पढता था। आस-पास कुछ भीड़-भाड़ अवश्य थी, काफी संख्या में लोग एकत्रित भी थे, खासकर खादी ग्रामोद्योग के पास, लेकिन उस क्षण तक यह अंदाजा नहीं था कि कुछ क्षण बाद क्या होने वाला है। अचानक भगदड़ हुई। खादी ग्रामोद्योग को अग्नि को सुपुर्द कर दिया गया। तभी मेरे साथ चलते मित्र का शरीर खून से लथपथ जमीन पर गिर गया। उसके माथे में गोली लगी थी। सभी भाग रहे थे। हम भी अपने बाए हाथ भागे जो आगे एक बड़ा नाला की ओर जाता था।”

अशोक जी आगे कहते हैं: “उस समय किसी को भी यह होश नहीं था कि नाले की गहराई कितनी है – एक तरह से जलियाँवाला बाग़ के उस कुएं जैसा था। यही नाला आगे अशोक राज पथ को लांघते, बी एन कालेज छात्रावास के बगल से तत्कालीन अंटाघाट होते गंगा में मिलती थी, आज भी मिलती हैं। सैकड़ों लोग कूदे थे उस नाले में। पैर में चप्पल कहीं रास्ते में ही निकल गया था। पूरा शरीर नाले की गंदगी से तर-बतर था। उन दिनों न तो सुलभ शौचालय जन्म लिया था और ना ही सफाई-स्वच्छता शब्द का राजनीतिकरण, व्यवसायीकरण हुआ था। उसी नाले में पैखाना भी फेका था। कई घंटों के बाद बाकरगंज की पतली गली के रास्ते, उस समय के इंडियन मेडिकल एसोसिएशन भवन के पीछे से, गलियों से रोते-बिलखते एग्जिविशन रोड के नुक्कड़ पर पहुंचे थे। फिर बाएं हाथ लालजी टोला के लिए बढे।”

झा साहब कहते हैं: “लालजी टोला में नुक्कड़ पर भारतीय वायु सेना का दफ्तर था और गली आगे जहाँ बाएं मुड़ती थी, ‘पैरागाओं ड्रिंक्स’ का दफ्तर था। उस गोली कांड का प्रभाव पूरे पटना शहर पर अब तक हो गया था। पूरा शहर पुलिस की गिरफ्त में थी तो जरूर, लेकिन उपद्रवकारियों का क्रिया कलाप भी कम नहीं था। अब तक ‘पैरागाओं ड्रिंक्स’ का हज़ारों बोतल सड़क पर, दफ्तरों के शीशों पर टूट चुके थे। यहाँ से मेरा घर अधिक दूर नहीं था, फिर भी पैर में चप्पल नहीं होने के कारण और गली-सड़क पर शीशे का कार्पेट बिछा होने के कारण चलना मुश्किल था। उधर, घर पर कोहराम मचा हुआ था। मरने वालों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ रही थी। माँ गली में खड़ी थी। पिताजी दफ्तर में थे। मोहल्ले के लोग चिंतित थे। उस गली का मैं एकमात्र बच्चा था जो अब तक बाहर था। जैसे ही माँ मुझे देखी, मेरी ओर दौड़कर मुझे पकड़ी और बिना मेरी दशा को देखे मारना शुरू कर दी। बहुत मार लगी थी उस शाम। आज भी जब उस घटना को याद करता हूँ, मन भर जाता है।”

अशोक जी कहते हैं: “उस ज़माने के ही नहीं, उसके बाद आज तक शायद जो पत्रकारिता ‘जनार्दन ठाकुर जी किये थे, उस गोली कांड और उसके बाद का, शायद अब तक किसी भी पत्रकार ने नहीं किया होगा। उस समय का ‘बेस्ट इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म’ था। ठाकुर जी, असित सेन और किशोर जी उस समय के बहुत ही बेहतरीन पत्रकार-छायाकार थे। जनार्दन ठाकुर तो मुख्यमंत्री कार्यालय से कई महत्वपूर्ण दस्तावेजों को निकालकर अपने अखबार में प्रकाशित किये थे। जनार्दन ठाकुर – असित सेन का रिपोर्टिंग इतना भयावह था कि के.बी. सहाय की कुर्सी तो गई ही, वे कभी प्रदेश की राजनीतिक गलियारे में दिखे भी नहीं। इस घटना के बाद ही जनार्दन ठाकुर दिल्ली की ओर कूच किये और असित सेन भी बिहार की सीमा रेखा से बाहर निकल गए। जनार्दन ठाकुर पटना से प्रकाशित ‘सर्चलाइट’ अखबार में पत्रकारिता प्रारम्भ किये थे। साल 1959 था। बाद में ‘इण्डियन नेशन’ आये और फिर आगे आनंद बाजार पत्रिका समूह के रास्ते भारतीय पत्रकारिता का एक स्तम्भ बन गए। सत्तर के दशक में राजनेताओं और अधिकारियों द्वारा किस कदर सत्ता का दुरुपयोग किया गया, उनके द्वारा लिखित “ऑल द प्राइम मिनिस्टर मैन” गवाह है। जनार्दन ठाकुर का देहांत 12 जुलाई, 1999 को हुआ।”

ये भी पढ़े   यह बिहार है : अब 'सत्तू' और 'लिट्टी-चोखा' खाकर तो कोई खिलाड़ी तो स्वर्ण पदक नहीं ला सकता

कहा जाता है कि कामराज प्लान के अधीन सं 1963 में तत्कालीन मुख्यमंत्री विनोदानंद झा मुख्यमंत्री कार्यालय से बाहर निकाले गए। उनके इस्तीफे से पटना की राजनीति गर्म हो गयी।  तत्कालीन नेताओं ने अपना-अपना पासा फेंकना शुरू कर दिया। झा जी को सत्ता के गलियारे में चक्कर लगाना चाहते थे। पूरे प्रकरण को अपने हाथ में रखना चाहते थे। वे मुख्यमंत्री पद के लिए वीरचंद पटेल का पासा फेंके तो सही, लेकिन दूसरे ही क्षण उन्हें ऐसा लगा कि पटेल साहब ‘गुजरात’ से नहीं बल्कि बिहार के कुर्मी समुदाय से आते हैं। उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि वीरचंद के नाम पर सभी पिछड़ा वर्ग के लोग एकजुट हो जाएंगे। साथ ही, ब्राह्मण समुदाय भी उनके साथ खड़ा रहेगा। लेकिन खेल तो आकर्षण-विकर्षण का था। तत्कालीन राजपूत समुदाय के नेता सत्येंद्र नारायण सिंह पटेल साहब के नाम पर सहमत नहीं थे। भूमिहार समुदाय के महेश प्रसाद सिन्हा भी मौका के फ़िराक में थे। 

समय बदल रहा था। ब्राह्मण, राजपुत, भूमिहार, पिछड़ा, अगला सभी सुतुर्मुर्ग की तरह एक पैर पर खड़े थे। कई लोग के बी सहाय के पक्ष में खड़े दिखने लगे। इस बीच, रामलखन यादव पिछड़े वर्ग के विधायकों को एकजुट करने लगे और अंततः  के.बी. सहाय बिहार के चौथे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले लिए। सहाय साहब कोई साढ़े तीन साल मुख्यमंत्री रहे। इस बीच बिहार में ‘कनखजूरा’ का उत्पादन भी बढ़ गया था राजनीतिक गलियारे में और दिल्ली में आ गई थी श्रीमती इंदिरा गाँधी। सहाय साहब के विरुद्ध पटना से क़्वींटल के भाव में शिकायतें दिल्ली पहुँचने लगी। उनके मंत्रियों मसलन, रामलखन सिंह यादव, महेश प्रसाद सिन्हा, राघवेन्द्र नारायण सिंह, सत्येन्द्र नारायण सिंह और खुद के बी सहाय पर भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी को बढ़ावा देने का आरोप लग रहा था। 

बहरहाल, अन्य वर्षों की तरह उस वर्ष भी तत्कालीन राजनीतिक गलियारे के खिलाड़ियों ने ‘बिहार के, खासकर पटना विश्वविद्यालय के छात्रों का प्रयोग किया – ब्रह्मास्त्र के रूप में। प्रदेश में प्रशासन से जुड़ी सैकड़ों मुद्दे थे, लेकिन छात्रों का उपयोग ‘कालेज शुल्क’, ‘वर्ग’, ‘शिक्षकों की उपस्थिति’ आदि बातों पर निशाना साध कर सड़क पर उतार दिया। इस्तेमाल करने वाले राजनेता अपने-अपने घरों में प्राकृतिक आनंद ले रहे थे। किसान, मजदूर, गरीब-गरमा, अर्थहीन, दीन माता-पिता एक उम्मीद से अपने-अपने बेटा-बेटियों को पढ़ने के लिए कालेज भेजे थे। सोचे थे अगर पढ़ लेगा तो जीवन सुधर जायेगा। उन्हें क्या पता कि उनके बाल-बच्चे किताबों से दूर और राजनेताओं के करीब आ गए हैं। खैर। 

उस दिन 5 जनवरी था और साल सन 1967- प्रदर्शन शांतिपूर्वक चल रही थी। के बी सहाय का नाम मुख्यमंत्री कार्यालय के बाहर गोदना जैसा लिखा था जो तत्कालीन नेताओं को हजम नहीं हो रहा था। दो दिन बाद, यानी नया साल का मुबारकबाद देने-लेने के बाद (यह कहा जाता है) प्रदर्शन का रुख बदला और पटना के गांधी मैदान के कोने पर खादी भंडार को निशाना बनाया गया। यह भी कहा जाता है कि कुछ लोग (जो तत्कालीन राजनीतिक गलियारे में चहलकदमी करते थे) खादी भंडार के छत से प्रदर्शनकारियों पर, पुलिस पर पत्थर बरसाने लगे और अंदर से ही किसी व्यक्ति ने खादी भंडार में माचिस की एक तिल्ली राजनीति के नाम पर फेंक दी। 

बस क्या था। गोलियां चलने लगी, लोग जख्मी होते गए, कई दर्जन लोगों की सांसे भी बंद हुई। राजनेताओं का क्या – आज ‘विपक्ष’ में हैं, कल ‘पक्ष’ में हो गए – प्रदर्शनकारियों को भरपूर मदद किये ‘स्वहित’ में। पटना से दूर केबी सहाय के पैतृक घर हजारीबाग और नवादा में भी हल्ला बोला गया, हमला किया। सहाय ‘निःसहाय’ हुए, सरकार गिरी और फिर पटना पश्चिम विधान सभा क्षेत्र से विजय उम्मीदवार महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री कार्यालय में रखी कुर्सी पर विराजमान हुए। केबी सहाय सरकार के भ्रष्टाचार की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस टी एल वेंकटराम अय्यर की अध्यक्षता में एक आयोग बैठाया गया और पटना की सड़कों पर, गली-कूचियों में कुल 330 दिनों तक “मैय्या-बाबू (महामाया बाबू) जिंदाबाद” का नारा छोटे-छोटे बच्चे लगते रहे।

इसी क्रम में आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम पटना के बहुत पुराने छायाकार इश्तियाक अहमद साहब से बात किया। अहमद साहेब पटना में मौर्या के सामने ‘डेफोडिल्स स्टूडियो’ का मालिक हैं। अहमद साहेब बनारस के रहने वाले हैं। नेशनल हाई स्कूल, बनारस से मैट्रिक पास किये थे। साल सन 1954 था। अहमद साहेब कहते हैं: “एक तो मैं पढ़ने में बहुत तेज-तर्राक नहीं था और दूसरे उन दिनों बनारस में पढ़ने के साधन भी नहीं थे हम जैसे गरीब-गुरबा परिवारों के लिए। किसी तरह मैट्रिक पास कर लिए और काम की तलास में जुट गए। जिनसे मिलने जाते थे काम नहीं देते थे और दौड़ाते भी थे। सभी पूछते थे क्या करोगे? जब कहता था कि ‘कुछ’ भी काम करूँगा, कुछ बोलते नहीं थे। मन खिन्न हो गया था। परिवार से काम करने का दबाव अलग।”

ये भी पढ़े   'पॉवर' में हैं तो लोग 'पूछेंगे', 'सॉर्ट-सर्किट' हुआ, लोग 'दूरियां' बना लेंगे, 'पत्रकारिता' भी 'लोगों के इस गुण से अछूता नहीं है' (फोटोवाला श्रंखला 16)  

इश्तियाक जी कहते हैं कि उन दिनों बनारस में धर्मवीर जी नामक एक व्यक्ति थे। धर्मवीर जी का एक स्टूडियो था। उन दिनों वे पूरे बनारस में सबसे अव्वल थे अपने क्षेत्र में। जब उनके पास पहुंचा तो वे आंखों में आंखें डालकर पूछे – क्या काम करोगे? फोटोग्राफी सीखोगे? डार्करूम का काम सीखोगे? यह सभी शब्द मेरे लिए बिलकुल नया था। मैं ‘हां’ कह दिया और धर्मवीर जी का हो गया, उनके स्टूडियो और डार्क रूम का हो गया। दो साल तक उनसे बहुत कुछ सीखा। इतना सीखा की हम अपने पैर पर खड़े हो सकते थे। आज जो भी हूँ उनके सिख के कारण ही हूँ।”

अहमद साहेब आगे कहते हैं: सं 1964 में मैं बनारस से पटना आ गया। पूरा इलाका खाली दिखता था। बिहार की राजधानी होने के बाद भी शहर बिलकुल शांत दिखती थी। उन दिनों पटना की सड़कों पर फोटोग्राफर नामक जीव नहीं दीखते थे। अखबार तो छपता ही था – आर्यावर्त, इण्डियन नेशन, सर्चलाइट, प्रदीप – और अख़बारों में तस्वीरें भी छपती थी, लेकिन तस्वीर कौन देता था, कौन फोटोग्राफर था, यह नहीं जान पाता था। 

“इसी बीच किसी एक कार्यक्रम में इण्डियन नेशन अखबार के रिपोर्टर केशव कुमार जी से मुलाकात हो गई। केशव जी पटना सिटी के रहने वाले थे। छोटे-नाटे कद के, लेकिन दुरुस्त। व्यायाम वाला शरीर था। एक क्षण में ही वे घुलमिल गए और कहा कि  इण्डियन नेशन में फोटो दोगे ? मेरी वही स्थिति थी कि एक भूखा आदमी को एक रोटी और एक गिलास ठंडा पानी मिल जाय। मेरी आंखें भर आई थी जब वे पूछे थे। उस दिन के बाद से जीवन पर्यन्त वे मेरे ‘अभिभावक’ रहे। मैं अन्तःमन से उन्हें प्रणाम करता रहा। उनका सम्मान करता रहा और वे अपने एक छोटे भाई की तरह मुझे संरक्षित करते गए। वे जहाँ भी जाते थे, मुझे मिलाते थे, ताकि आने वाले समय में अगर उन्हें तस्वीर से सम्बंधित कोई कार्य पड़े, मुझे याद करें। डॉ एस एन उपाध्याय, डॉ ए एन पाण्डे, डॉ बी मुखोपाध्याय, डॉ लाला सूर्यनन्दन सभी लोगों से उन्होंने ही मिलवाया और मैं भी जीवन पर्यन्त उनका सेवक बना रहा। किसी को भी किसी भी काम की जरुरत होती थी – बनारसी को बुलाओ – कहते थे। ”

इश्तियाक साहब कहते हैं: “उस दिन यानी 5 जनवरी को जब गांधी मैदान के पास गोलियां चल रही थी, पटना सचिवालय के सामने भी छात्रों का प्रदर्शन, नारे वाजी और अन्य बातें चल रही थी। उन दिनों पुलिस की संख्या भी उतनी अधिक नहीं थी, जितनी आज है। प्रदर्शनकारियों को इस बात की खबर हो गयी थी की गांधी मैदान के पास गोलियां चली है। वे भी उग्र हो रहे थे। लेकिन उग्रता को दबाने के,लिए पुलिस आंसू गैस के गोले छोड़ रही थी। मैं सचिवालय के मुख्य द्वार के पास ही खड़ा था। उन दिनों ‘प्रेस’ नाम का कोई हौआ तो था नहीं, सड़क कर्मभूमि होने के कारण लोग नाम से, चेहरे से जानते थे; इसलिए खतरा का कोई प्रश्न नहीं रहता था।”

कुछ क्षण रुकने के बाद, एक लम्बी सांस लेते इश्तियाक जी कहते हैं: “लेकिन उस दिन गाँधी मैदान के पास जो भी हुआ वह ह्रदय विदारक था। अगले दिन के अख़बारों में जिस तरह लिखा गया था, एक-एक शब्द ह्रदय को चीर रहा था। मैं उस दिन अपने भगवान् से, अल्लाह से दुआ किये की आने वाले समय में कभी कोई ऐसी घटना नहीं हो। दर्जनों से अधिक माताओं की कोख़ सुनी हो गयी। पिता का पुत्र मृत्यु को प्राप्त किया। केबी सहाय उस गोली कांड के बाद जो गए, फिर नहीं दिखे।”

बहरहाल, इश्तियाक साहब के पास बिहार के राजनेताओं की तस्वीरों का विशाल भण्डार है। सं 1979 में वे अजय भवन के कोने पर ‘बनारस फोटो गैलरी’ नामक एक दूकान खोले। आज उनके दो बेटे हैं फ़ैज़ अहमद और फ़िरोज अहमद। फ़ैज़ साहब को एक बेटा एक बेटी हैं जबकि फिरोज साहव को दो बेटे हैं। बनारस से रिस्ता आज भी है क्योंकि बनारस के बिना तो इस पृथ्वी पर जी ही नहीं सकता लोग, लेकिन इश्तियाक साहब के बाद ‘कैमरे’ और फोटो से रिस्ता अगली पीढ़ी को नहीं है। 

2 COMMENTS

  1. महोदय, आपका संस्मरण सह लेख पढ़ा। बहुत सी बातें हैं जिसका आपने अपने लेख में उल्लेख तक नहीं किया। जब कभी कृष्ण बल्लभ बाबू की बात उठती है तब भ्रष्टाचार एवं छत्र आंदोलन की चर्चा कर उनके व्यक्तित्व की समीक्षा कर दी जाती है। यह सर्वथा अनुचित है। आर्याव्रत और ‘द इंडियन नेशन’ से जुड़े हैं तो आपको अवश्य मालूम होगा कि ये दोनों महाराजा दरभंगा के पत्र थे जिसका इस्तेमाल हमेशा कृष्ण बल्लभ सहाय की छवि को धूमिल करने में ही किया गया। आपको भी विदीत होगा जब 1947 में जमींदारी उन्मूलन कानून पारित करने के दौर में एक बार इस पत्र को कृष्ण बल्लभ बाबू से सार्वजनिक माफी भी मांगनी पड़ी थी। जमींदारी उन्मूलन पर कृष्ण बल्लभ बाबू के प्रयासों पर उल-जुलूल टिप्पणी करने के लिए। जमींदारी उन्मूलन की वजह से कृष्ण बल्लभ बाबू और जमींदारों के बीच की रंजिश का एक विस्तृत इतिहास है जिसपर इन दोनों समाचार पत्रों ने हमेशा जमींदारों का पक्ष लिया। पत्रकारिता के इस दिवलियेपन और पूर्वाग्रहों पर आपसे टिप्पणी अपेक्षित था। किन्तु जमींदारी उन्मूलन के लिए कृष्ण बल्लभ बाबू को बड़ा मूल्य चुकाना पड़ा। उनके चरित्र हनन के सुनियोजित प्रयास हुए। इस बात को आप भी स्वीकार करेंगें कि उनके खिलाफ आयोग का गठन पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर एक साजिश के तहत किया गया । आपने 1967 के छत्र आंदोलन के प्रणेता जिगर के टुकड़े महामाया बाबू के बारे में कुछ भी जिक्र नहीं किया जबकि सत्य यह है कि इसके बाद ही बिहार में शिक्षा के स्तर में जो गिरावट शुरू हुई उसने फिर रुकने का नाम नहीं लिया। कृष्ण बल्लभ बाबू छात्रों के खिलाफ नहीं थे।न ही वे छात्रों के राजनीति में आने के खिलाफ थे। आप विधान सभा में दिये गए उनके भाषणों को सुने। सारे तथ्य इतिहास में दर्ज़ है। उनका मंतव्य था कि छात्रों को अपनी पढ़ाई पूरी कर राजनीति में आना चाहिए जैसा महात्मा गांधी के आह्वान पर उनके जमाने में उन लोगों ने किया था। यही वजह थी कि वे जयप्रकाश जी के छत्र आंदोलन के भी खिलाफ थे। उनहोंने जयप्रकाश नारायण से कहा भी था कि जब स्वयं छात्र जीवन में वे स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने से पहले विदेश जाकर अपनी पढ़ाई पूरी कर आए थे तब वे सत्तर के दशक में छात्रों को आंदोलन में धकेल कर क्यों उनके जीवन से खेल रहे हैं? इस देश के चौथे स्तम्भ ने कभी उन्हें समझने की कोशिश नहीं की । यह आप भी स्वीकार करेंगें कि बिहार को कृष्ण बल्लभ बाबू जैसा कर्मठ प्रशासक फिर नहीं मिला। आज भी प्रैस कृष्ण बल्लभ बाबू के कतिपय श्याम पक्ष को उजागर कर सस्ती लोकप्रियता हासिल करना चाहता है तो यह इस बात का द्योतक है कि उनके जाने के 50 साल भी कृष्ण बल्लभ सहाय जैसे सख्त प्रशासक का परचम आज भी सिर चढ़ कर लहरा है। आप राष्ट्रीय अभिलेखागार में एवं बिहार विधान सभा में दर्ज़ उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से संबन्धित दस्तावेज़ों को पढे और उनके व्यक्तित्व और कृतित्व निष्पक्ष विवेचना भी करें। इति

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here