जी.एन.झा : ‘फोटोग्राफी एक सोच है’, आज मोबाईल लिए हर लोग खुद को फोटोग्राफर कहता है (बिहार का फोटोवाला:श्रंखला-4)

विश्व फोटोग्राफी दिवस पर देश की महिलाओं को समर्पित

पटना / नई दिल्ली : आपका ‘उपनाम’ अगर ‘सिंह’ है और आप देखने में भले ‘सूखे बांस’ की तरह लम्बे हो या फिर ‘बरगद के पेड़’ जैसा ‘हृष्ट-पुष्ट’, आपको देखकर लोग पूछेंगे: क्या आप ‘पंजाब’ से हैं या ‘गोमती’ पार वाले हैं? यदि आपके नाम के अंत में ‘यादव’ है, तो लोग बाग़ पूछने में तनिक भी संकोच नहीं करेंगे और पूछ बैठेंगे की क्या आप ‘शरद’ ऋतु के ‘यादव’ हैं या आप ‘लखनवी मुलायम’ के ‘यादव’ हैं या ‘लालू’ वाले ‘यादव’ हैं? यदि आपके नाम ने अंत में ‘ठाकुर’ है, तो लोग यह पूछने में तनिक भी देर नहीं करेंगे कि क्या आप ‘कर्पूरी’ जी वाले ‘ठाकुर’ हैं या दरभंगा के सिंघवाड़ा के ‘जनार्दन’ वाले ‘ठाकुर’ हैं ? यदि नाम के अंत में ‘मिश्र’ है तो आपके नाम का अंग्रेजी अल्फाबेट का भी तहकीकात देखेंगे और यह भी देखेंगे की ‘मिश्र” लिखने के अंत में अंग्रेजी में ‘ए’ लगा है अथवा नहीं। यदि ‘ए’ नहीं लगा है तो अपने आप वे इस नतीजे पर पहुँच जाएंगे की आप ‘जगन्नाथ’ प्रदेश के ‘मिश्र’ जी हैं। संयोग से अगर ‘सिंह’ उपनाम है, तो लोग आपको ‘जगन्नाथ’ के भी मान सकते हैं, ‘बिरला प्लेनिटोरियम’ से भी जोड़ सकते हैं, ‘गोलघर’ से भी जोड़ सकते हैं और अंत में ‘भूल-भुलैय्या’ तो है ही।

लेकिन जैसे ही आपके नाम का अंतिम शब्द “झा” देखेंगे, विश्व के 3.287 मिलियन वर्ग किलोमीटर भू-क्षेत्र के, भारत के कुल 510.1 मिलियन वर्ग किलोमीटर के पूरब में महानंदा नदी, दक्षिण में गंगा नदी, पश्चिम में गंडक नदी और उत्तर में हिमालय की गगन चुम्बी चोटियों के बीच हिमालय की तराई में बसा मिथिलांचल का ही समझेंगे। मिथिलांचल के अलावे ‘झा’ की ‘खेती’ कहीं नहीं होती है । आप विदेह साम्राज्य के ही होंगे, यह बात वे न्यायिक-स्टाम्प पेपर पर भी लिखकर दे देंगे । आप दरभंगा राज की सीमाओं के अंदर के नागरिक ही होंगे चाहे, यह साबित कर देंगे चाहे आपके पूर्वज यहीं की मिट्टी में पृथ्वी पर अवतरित हुए होंगे, चाहे आपकी टहनी और शिखा देश-विदेश के किसी भी कोने में रोजी-रोटी के लिए पलायित हुए हों। “झा” और “मिथिला” एक-दूसरे का पर्यायवाची हैं। आप इस समाचार को पढ़कर आप विश्व में फैले कोई चार करोड़ मिथिला वासी इस बात से सार गर्भित हों कि वर्तमान काल में अरविन्द केजरीवाल की दिल्ली यानि दिल्ली नगर निगम के क्षेत्राधिकार से लेकर नरेंद्र दामोदर मोदी की नई दिल्ली नगरपालिका परिषद् के क्षेत्रों में रहने वाले 19.5 मिलियन आबादी वाली दिल्ली में “सिर्फ और सिर्फ तीन फोटो-जर्नलिस्ट” हैं जो ‘सार्वजनिक रूप से झा’ हैं।

खैर। बिहार ही नहीं, भारत और दुनिया में संचार के क्षेत्र में – चाहे समाचार पत्र हो, टीवी हो या रेडियो हो – फैले बिहार के ‘झा जी’, ‘मिश्र जी’, ‘मिश्रा जी’, ‘चौधरी जी’, ‘मंडल जी’, ‘श्रीवास्तव जी’, ‘कुमार जी’, ‘कुशवाहा जी’, ‘सिंह जी’, ‘सिन्हा जी’, ‘ठाकुर जी’, ‘प्रसाद जी’, ‘नर जी’, ‘नारायण जी’, ‘शुक्ल जी’, ‘शुक्ला जी’, ‘सिंह जी’, ‘सहाय जी’, ‘सिन्हा जी’, ‘यादव जी’, ‘वर्मा जी’, ‘शर्मा जी’ और ऐसे अनंत ‘उपनामों’ के साथ सैकड़ों-हज़ारों ‘लिखने वाले पत्रकार’ यानी ‘संवाददाता’ मिल जाएंगे। ये संवाददाता बिहार के 38 जिलों के 245 पंचायतों और 2072 गाओं में पंचायत स्तर से लेकर बिहार की राजधानी पटना के रास्ते दिल्ली के किंग्सवे (राजपथ) पर ‘विशेष’ – ‘रोविंग’ और ‘संपादक’ ‘पदनामों’ से चतुर्दिक विचरण करते मिलेंगे।

दिल्ली के नार्थ ब्लॉक छोड़ से रेल भवन के प्रवेश द्वारा से 45 डिग्री कोण पर रायसीना रोड के नुक्कड़ पर, प्रेस क्लब ऑफ़ इण्डिया में तो खचाखच मिलेंगे। लेकिन बिहार से प्रवासित “झा” उपनाम से “फोटो जर्नलिस्ट” की संख्या शायद दाहिने हाथ की पांचों उंगलियों को भी गिनती पार नहीं कर पायेगी । कहने का तात्पर्य यह है कि बिहार से जिस कदर पत्रकारों की भीड़ कहें या जन सैलाव, भारत के सम्पूर्ण क्षेत्रों में अपनी-अपनी कुर्सियां दबोचे हुए हैं; काश, फोटो-फर्नलिस्टों की भी तायदात उतनी ही होती। यह बड़े पैमाने पर एक शोध का विषय है। इस शोध में बिहार सरकार को तो आगे आनी ही चाहिए, दिल्ली सल्तनत के सूचना और प्रसारण मंत्रालय, पहले वाला मानव संसाधन (अब शिक्षा विभाग) मंत्रालय, संस्कृति मंत्रालय को भी हाथ बढ़ानी चाहिए।

इतना ही नहीं, आज देश की राज्य सरकारें, अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियों को विधान सभाओं की चुनाव में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करने के लिए “मुफ्त में इंटरनेट” देने की व्यवस्था की है, मुफ्त में लैपटॉप बांट रही हैं । लेकिन वास्तविक हालात यह है कि प्रदेश बिहार के 41.1 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे होने के कारण उनका ‘लैप’ ‘सुखल और घुनायल’ बांस जैसा हो गया है। यह ‘लैप’ अपने ऊपर रखे सौ ग्राम वजन को भी बर्दास्त नहीं कर सकता है। लेकिन प्रदेश के नेता लोग को क्या? इससे तो लाख गुना नीमन (अच्छा) होता कि प्रदेश के मुख्यमंत्री सम्मानित नीतीश बाबू अपने प्रदेश में, जिला में, गाँव में, पंचायत में “मुफ्त” में कोई ऐसी शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था करते जिससे समाज के सभी तबके के युवक-युवतियां पत्रकारिता का पाठ सीख पाते। कोई लेखनी के क्षेत्र में खुशवंत सिंह होता, तो कोई छायाकारी (फोटोग्राफी) में ‘स्टीव मैककरी’ होता, कोई ‘जिमी नेल्सन’, कोई ‘एरिक लाफ़ार्ज’ बनता तो कोई ‘डेविड लैज़र’। लेकिन सवाल यह है कि बिहार के नीतीश बाबू को यह ज्ञान कौन दे ?

नीतीश बाबू तो खुद बिहार से पलायित ‘लेखनी’ वाले पत्रकारों को दिल्ली से पटना ‘आयात’ कर रहे हैं ताकि किसी न किसी रूप में अपना पिछला कर्ज चुका दें। पिछले पांच दशक की राजनीतिक कैरियर में पटना या बिहार के जो पत्रकार और छायाकार नीतीश कुमार क्या, प्रदेश के दर्जनों मुख्यमंत्रियों और कुकुरमुत्तों की तरह गली के नुक्कड़ों पर, सड़क के चौराहों पर पनपे सफ़ेद वस्त्र पहने जन-मानस (नेता) को चौराहे से उठाकर लाल-कोठी में रखी कुर्सियों पर बैठाये – उन सबों को तो “जाति” के आधार पर, “जेनऊ” के आधार पर, “कपाल पर लगे टीका के रंगों” के आधार पर बाँट दिए हैं, बाँट रहे हैं और यही कारण है कि बिहार में लोग बाग़ अपने नामों के आगे लिखे जाने वाले ‘उपनामों’ के ‘वास्तविक स्वरूपों’ को ‘अपभ्रन्सित’ कर, वास्तविक उपनामों को निरस्त कर, कोई ‘गोत्र’ का नाम चिपका लिए, तो कोई ‘गली का नाम’ साट दिए। लाखों-लाख बाल-बच्चेदार आदमी भी ‘कुमार’ हो गया। कहीं श्रीमती ‘सुश्री और कुमारी’ हो गयी। यही कारण है कि बिहार में आज ‘कुमारों’ और ‘कुमारियों’ की संख्या उत्कर्ष पर पहुँच गयी है। शोधकर्ता यह मान रहे हैं कि बिहार की आबादी में ‘झा’ जी, ‘मिश्रा’ जी, ‘मिश्र’ जी, ‘चौधरी’ जी, ‘मंडल’ जी, ‘श्रीवास्तव’ जी, ‘सिंह’ जी, ‘सिन्हा’ जी, ‘ठाकुर’ जी, ‘प्रसाद’ जी, ‘शुक्ल’ जी, ‘शुक्ला’ जी, ‘सहाय’ जी, ‘वर्मा’ जी, ‘शर्मा’ जी अपना-अपना ‘उपनाम’ राजनीतिक पार्टियों के ‘अध्यक्षों’ के ‘उपनामों’ के साथ जोड़-घटाव कर रहे हैं। ताकि प्रदेश के कउनो (किसी भी) कोना में राजनीतिक संरक्षण मिल जाए । अंततः क्या बिहार और क्या बंगाल, क्या महाराष्ट्र और क्या मद्रास – सभी लेखनी पत्रकारिता में जुड़े ‘मोहतरमों और मोहतरमाओं’ की अंतिम निगाहें तो विधान सभा, विधान परिषद्, लोक सभा, राज्य सभा, कमीशन, परिषदों की सदस्यता या अध्यक्षों की कुर्सियों पर ही टिकी है।

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आइए , इसी ‘नजर’ और ‘परख’ से आज, 19 अगस्त, 2021 को 282 वां ‘विश्व फोटोग्राफी दिवस’ के अवसर पर पटना के डाक बंगला चौराहे से क्लिक-क्लिक करते, पटना जंक्शन स्टेशन के गोल चक्कर के रास्ते, दिल्ली के बहादुर शाह जफ़र मार्ग होते आज दीन दयाल उपाध्याय मार्ग से प्रकाशित “दी एशियन ऐज” अंग्रेजी दैनिक के मुख्य छायाकार (चीफ फोटोग्राफर) और देश की राजधानी दिल्ली के तीन-झा (जो सार्वजनिक रूप से अपने नामों के अंत में ‘झा’ शब्द बनाये रखने में किसी भी प्रकार की कोई शर्मिंदगी नहीं महसूस किये; आज तक न हिचकी लिए और ना ही तुतलाये; न देश के प्रधान मंत्रियों या भारत के राष्ट्राध्यक्षों के सामने “झा” शब्द का उच्चारण करने में दाहिने-बाएं देखे) में से सबसे “पुराना मॉडल” के “झा” उपनाम वाले फोटो-जर्नलिस्ट जी. एन. झा से मिलाता हूँ। इस कहानी को लिखते, उनसे बात करते आज मन सारगर्भित हो गया जब उंगलियों पर सार्वजनिक रूप से “झा” उपनाम वाले फोटो जर्नलिस्टों को गिना दिल्ली सल्तनत में । शेष दो “झा” उपनाम वाले फोटो जर्नलिस्टों को भी आपके सामने लाऊंगा, शीघ्र ही।

वैसे भारत में तो पिछले दिसम्बर, 2020 तक 518 मिलियन लोग, जिसमें बिहारी भी सम्मिलित हैं; सोसल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं, उनमें बिहार के कोई 39 मिलियन इंटरनेट उपभोक्ता और 62 मिलियन ‘स्मार्ट फोन’ के इस्तेमाल कर्ता इस बात का फक्र करें की जी एन झा साहेब दिल्ली सल्तनत में समाचार और संचार की दुनिया में अपना हस्ताक्षर कर चुके हैं। चाहे भारत के वर्तमान उप-राष्ट्रपति वेंकैय्या नायडू हों या भारत के पूर्व प्रधान मंत्री चंद्रशेखर हों या अटल बिहारी वाजपेयी या डॉ मनमोहन सिंह, चाहे भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी हों या राजनाथ सिंह या फिर पटना विश्वविद्यालय के ही जगत प्रकाश नड्डा; चाहे समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव हों या राष्ट्रीय जनता दाल के लालू प्रसाद यादव, चाहे दिवंगत राम विलास पासवान जी हों या दिवंगत अमर सिंह – सबों ने इन्हें “झा साहेब” से ही सम्बोधित किये, अलंकृत किये, सम्मान दिए।

जी एन झा साहेब की पैदाइश पटना में है। शिक्षा-दीक्षा भी पटना में ही संपन्न हुआ। पटना विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में स्नातकोत्तर हैं। फोटो पत्रकारिता की शुरुआत भी पटना से ही किये। आज दिल्ली में बसे तीस वर्ष हो गए। लेकिन आज भी “पटनिया उच्चारण”, अपनी बोलचाल की भाषा में “मगही-शब्दों” का धारा-प्रवाह प्रयोग कर सामने वाले महानुभावों या मोहतरमाओं को “बिहारीमय” करने की कूवत रखते हैं। संगीत चाहे वाद्ययंत्र हो या कंठ से गाते हों, बहुत पसंद करते हैं। मन्नाडे, सचिनदेव वर्मन और किशोर कुमार इनके पसंदीदा कलाकार हैं। लता मंगेशकर को भी गुनगुनाते हैं। इनके साथ काम करने वाले अन्य छायाकारों का मानना है कि वे चाहे कठिन से कठिन एसाइनमेंट्स करने को जायँ, अगर “झा साहेब” साथ हैं तो सारे पत्थर मोम जैसे पिघल जाते हैं।

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते झा साहेब कहते हैं: “किसी भी व्यक्ति को, चाहे वह युवक हो या युवती, अगर वह इस क्षेत्र में कदम बढ़ाना चाहता है तो मेरा मानना है की वह भूख से पेट की पीड़ा का अनुभव किया हो। ऐसा होने से जब हम किसी भी शब्दों द्वारा लिखी मानवीय कहानियों में फोटो का इस्तेमाल करते हैं, अथवा फोटो के माध्यम से ही हम मानवीय कहानियों की रचना करते हैं, तो हमें पीड़ा का अनुभव होने से फोटो में उस पीड़ा को जन्म दे सकते हैं। आज स्मार्ट फोन के आने से भारत ही नहीं, विश्व का प्रत्येक आदमी, जिसके हाथों में कैमरा वाला मोबाईल फोन है, वह फोटो तो खींच सकता है – लेकिन फोटोग्राफर नहीं हो सकता है। वजह यह है कि जो हम अपनी आखों से देखते हैं, वही विषय या वस्तु कैमरा भी देखता है। वे जैसे ही मोबाईल फोन का बटन दबाएंगे, फोटो उनके फोन में रहेगा। लेकिन एक फोटोग्राफर उसी विषय को, अपनी आखों से, अपने कैमरे के लेंस से जिस कदर देखेगा, उस दृष्टि, वह सोच नहीं हो सकता है। मेरा मानना है कि फोटोग्राफी एक सोच है।”

झा साहेब कहते हैं: “संयोग देखिये। आप भी झा और हम भी झा। आप लेखक है और हम छायाकार। आपकी सोच शब्दों में ढलती है और हमारी सोच तस्वीरों में। आप शब्दों का विन्यास कर, वाक्यों को सजाकर लिखते हैं, ताकि पाठक आपके शब्दों के साथ सफर करे। उसी तरह इस संसार में प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी को जन्म के साथ ही एक कैमरा दिया है जिससे वह संसार की प्रत्येक वस्तु की छवि अपने दिमाग में अंकित करता है। वह कैमरा है उसकी आँख। इस दृष्टि से देखा जाए तो प्रत्येक प्राणी एक फोटोग्राफर है। वैज्ञानिक तरक्की के साथ-साथ मनुष्य ने अपने साधन बढ़ाना प्रारंभ किया और अनेक आविष्कारों के साथ ही साथ कृत्रिम लैंस का भी आविष्कार हुआ। समय के साथ आगे बढ़ते हुए उसने इस लैंस से प्राप्त छवि को स्थायी रूप से सहेजने का प्रयास किया। इसी सफलता वाले दिन को हम विश्व फोटोग्राफी दिवस के रूप में मनाते हैं। और आज के इस ऐतिहासिक दिन में हम अपने बारे में, फोटोग्राफी की दुनिया के बारे में, अपनी यात्रा के बारे में बात कर रहे हैं। यह इत्तिफ़ाक़ नहीं हो सकता। यह प्रारब्ध है।

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जी एन झा आगे कहते हैं: “मैं जिस परिवार और परिवेश से आता हूँ, वह अर्थ से तो बेहद कमजोर था अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में। लेकिन हम एक मायने के खुशनसीब थे की हमारे घर में अखबार के कागज की सुगंध नित्य सुबह-सवेरे आता था। बाबूजी पटना से प्रकाशित अखबार में ही कार्य करते थे। भाई भी अखबार में ही थे। उस समय उन लोगों को देखकर, उनकी कार्यशैली को देखकर मैं मन में ठान लिया था की मैं इसी क्षेत्र में आऊंगा – लेकिन लिखने वाला नहीं, बल्कि फोटो वाला। मैं पटना विश्वविद्यालय से पढ़ाई समाप्त करने के बाद फोटोग्राफी को जीवन का उद्देश्य बना लिया। उस ज़माने में आज की तरह कुकुरमुत्ते की तरह पत्रकारिता या फोटोग्राफी की पढाई नहीं होती थी, गली कूचियों में। पेशे के बारे में व्यावहारिक ज्ञान नितांत आवश्यक था जिसके बल पर हम आगे बढ़ पाते। उस समय पटना की सड़कों पर कृष्ण मुरारी किशन, कृष्ण मोहन शर्मा, दीपक कुमार जैसे लोग दौड़ते दीखते थे। साईकिल और मोपेड का जमाना था। मेरी जिज्ञासा देखकर पटना से प्रकाशित दी इण्डियन नेशन अख़बार के फोटोग्राफर विक्रम कुमार अपने साथ ले लिए। फोटोग्राफी से सम्बंधित सभी आवश्यक वस्तुएं, डार्क रूप उनके घर पर उपलब्ध था। मैं उनका असिस्टेंट बन गया। उन्होंने मुझे सब कुछ सिखाया फोटोग्राफी के मामले में। मैं उनका कृतज्ञ हूँ आज भी।”

जब उनसे पूछा की आपका फोटग्राफी का पहला शॉट क्या था? झा साहेब कहते हैं: “मैं अपने घर से साईकिल से विक्रम जी के घर पहुँच जाता था। खाने-पीने को कोई चिंता नहीं होती थी। यह विश्वास रहता था की वह वे जो भी खाएंगे, मुझे भी मिलेगा। वहां से पहले उनके मोपेड पर, फिर बाद में उनके स्कूटर पर, पीछे बैठ जाते था। उनके गर्दन में एक कैमरा लटका होता था। मेरे पास उन दिनों कोई कैमरा भी नहीं था। वे मुझे एक अपना पुराना कैमरा हाथ में रखने दे दिए थे। उस दिन एक प्रदर्शन था पटना रेलवे स्टेशन के सामने गोलंबर के पास। सम्पूर्ण इलाके में सन्नाटा था। स्टेशन के ठीक सामने सड़क पर वे अपने स्कूटर को रोके और मुझे वहीँ रुकने को कहा, जबकि वे फोटो शूट करने के लिए कुछ आगे निकल गए। मैं जहाँ खड़ा था वहां से कोई दस कदम आगे एक पुलिस कर्मी भी खड़े थे। उनका रिवॉल्वर खुला था। दाहिने तरफ झुका हुआ था और सामने पूरी सड़क खाली थी। मैं थोड़ा झुककर एक शॉट बनाया। मन में डर भी था की कहीं डांट नहीं दे पुलिस। शाम में जब फिल्म की धुलाई-सफाई हुई, तब वे उस शॉट को देखकर अचंभित हो गए और पूछे कि यह किसका शॉट है? किसने लिया? मेरा उत्तर सकारात्मक था। उसका प्रिंट उन दिनों पटना से ही प्रकाशित आज, जनशक्ति, पाटलिपुत्र टाईम्स में विस्तार के साथ प्रकाशित हुआ। यह मेरा पहला शॉट था। मेरी यात्रा पटना जंकशन रेलवे स्टेशन के उस गोलंबर से प्रारम्भ हुआ।

झा साहेब कहते हैं: “पटना ही नहीं, किसी भी राज्य की राजधानी में प्रदर्शनकारी कब उग्र हो जायेंगे, कब लाठी चार्ज हो जायेगा, कब गोली चल जाएगी – कोई ठिकाना नहीं होता। दिल्ली में ऐसी बात नहीं होती। यहाँ अधिक से अधिक वाटर केनन या थोड़ा बहुत लाठी। इसलिए पटना की सड़कों पर प्रदर्शन के दौरान हम सभी बहुत सचेत रहते थे। उसी भीड़ में यह भी ढूंढते रहते थे की कोई अलग शॉट मिल जाय।” झा साहेब अपनी यात्रा को पटना से दिल्ली की ओर लाना चाहते थे। अस्सी के दशक के उत्तरार्ध और नब्बे के दशक के प्रारंभिक वर्षों में पटना की सड़कों पर जूते घिसते रहे। झा साहेब कहते हैं कि “उसी वक्त मेरे भाई पटना से निकलकर दक्षिण बिहार (अब झारखण्ड) चले गए। वे दक्षिण बिहार से कलकत्ता से प्रकाशित दी टेलीग्राफ और संडे पत्रिका के लिए काम करते थे। उनका वहां जाने से मेरे लिए एक नया आसमान खुला। सन्डे पत्रिका में वे जितनी भी कहानियां लिखते थे, अधिकांशतः वे मेरी तस्वीरों का उपयोग करते थे। इससे संडे पत्रिका के सम्पादकीय विभाग, पत्रिका के संपादक वीर सिंघवी, भी मुझे नाम से पहचानने लगे। मुझे ‘आइडेंटिटी क्राइसिस’ नहीं था। फोटो के माध्यम से मुझे नाम मिलना शुरू हो गया। नाम से लोग पहचानने लगे। इसी बीच मेरा एक मित्र, जो उस समय इण्डियन एक्सप्रेस, मुंबई में पदस्थापित था, और हम दोनों पटना की सड़कों से, उस डार्क-रम से फोटोग्राफी की यात्रा शुरू किये थे, नागपुर शिफ्ट हुआ था। मैं नागपुर पहुँच गया। साल था 1992, लेकिन ईश्वर कुछ और चाह रहा था। और मैं दिल्ली आ गया।”

झा साहेब आगे कहते हैं: “मेरे बड़े भाई अब तक संडे पत्रिका में दिल्ली आ गए थे। सब कुछ ठीक था। सन्डे के लिए मैं भी काम करना शुरू कर दिया। वहां नितिन राय भी थी। नितिन रॉय देश के मशहूर फोटोग्राफर रघु राय के पुत्र हैं। नितिन काफी सहयोग किये। दिल्ली शहर उस ज़माने में भी मेरे लिए नया नहीं था। तरह तरह की कहानियों के लिए एसाइनमेंट्स कर रहा था। साल बीत गए। फोटो जर्नलिज्म में लोग जानने लगे थे। साल था 1994 और महीना था अगस्त का। मुंबई ब्लास्ट का एक अपराधी याकूब मेनन गिरफ्तार हुआ था विदेश में और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो के लोग उसे रिमांड पर लेने के लिए सी बी आई कोर्ट में पेश करने वाले थे। मेरे भाई भारत के गृह मंत्रालय और अन्य संवेदनशील क्षेत्रों में खोजी पत्रकारिता करते थे। उस दिन दिल्ली के पूरे फोटोग्राफर तीस हज़ारी कोर्ट में उपस्थित थे। सबों को सूचना थी की याकूब मेनन कोर्ट में पेश होगा। इसी बीच मेरे भाई आई एन एस बिल्डिंग स्थित संडे के दफ्तर में आये। मैं चुपचाप बैठा था। मुझे देखकर वे कहते हैं – तुम यहाँ बैठे हो? भागो पटियाला हॉउस। याकूब मेनन को पेश करना है। मैं भगा। तब तक सभी चीजें वहां शांत थी। लेकिन कुछ ही पल में एक सैलाब आया। मैं कैमरे के साथ आगे था तभी किसी ने मुझे धक्का दिया और मैं कोई दस कदम आगे गिरा। जब तक संभलता, कैमरा संभालता तब तक याकूब मेरे सामने पांच कदम पर थे। याकूब मेनन की वह तस्वीर संडे पत्रिका का कवर स्टोरी के साथ कवर बना और दिल्ली में मुझे जमने का वजह दिया।” सन्डे पत्रिका के बाद झा साहेब माया पत्रिका के लिए, प्रोब इण्डिया के लिए और बिजनेस स्टैण्डर्ड के लिए भी काम किये।

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आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम को झा साहेब कहते हैं: “एक समय था जब शाम को सात मुझे एसाइनमेंट्स मिला था। मुझे सी आई आई का एक एसाइनमेंट करना था। बड़े बड़े उद्योगपति वहां आ रहे था। समय मेरे पास महज 30 मिनट था। मैं दिल्ली के आई टी ओ पर खड़ा था। मेरे पास कैमरे नहीं थे। लेकिन समय बहुत बड़ा होता है। तक्षण सामने एक मित्र दिखे। मैं उनका कैमरा लिया, उनकी गाड़ी लिए और एसाइनमेंट्स पूरा किये। बाद में यासिका एफ एक्स – 3, पेन्टेक्स – 8000, निकोन एफ ई हुआ और आज कैमरे की किल्लत नहीं है।” सन 1996 में झा साहेब को एम जे अकबर द्वारा सम्पादित बेहतरीन अखबार “दी एशियन ऐज” में एक नई शुरुआत का मौका मिला। एशियन ऐज, ही नहीं, अकबर द्वारा सम्पादित कोई भी अखबार, चाहे दी टेलीग्राफ भी क्यों न हो, तस्वीरों को फैलने-फूलने का पर्याप्त अवसर मिलता है। काफी तस्वीरें छपती है, बड़े-बड़े आकार-प्रकार में ,उस अखबार की वह अदा झा साहेब को फोटो जर्नलिज्म में और भी स्थायित्व प्रदान किया। झा साहेब आज इस अखबार के चीफ फोटोग्राफर हैं और विभिन्न एसाइनमेंट्स पर देश-विदेश की यात्रायें भी किये हैं।

झा साहेब कहते हैं: “आज डिजिटल का युग है और आज इस युग में दुनिया बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है। उसी रफ़्तार से इलेक्ट्रोनिक से लेकर फोटोग्राफी से जुड़े तमाम उपकरण भी अपग्रेड हो रहे हैं। कभी रील्स वाले कैमरे प्रचलन में थे तो आज सोशल साइट्स पर ‘रील्स’ बन रही है वो भी लाइव। आज के दौर में फोटोग्रॉफी का प्रचलन इस कदर तेजी बढ़ा है कि सोशल साइट्स पर आपको तमाम अवॉर्ड विनिंग तस्वीरें देखने को मिल जाएंगी। मंहगे डिजिटल कैमरे से लेकर स्मार्टफोंस आसानी से आम लोगों के लिए सुलभ हैं जिसके जरिए लोग सेल्फी से लेकर वीडियो तक बना रहे हैं। लेकिन एक महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस रफ़्तार से फोटोग्राफी में, उपकरणों में उन्नति हो रही है – उससे फोटोग्राफी की या फिर फोटोग्राफर्स की काबिलियत को नहीं आँका जा सकता है। उन्नत किस्म के डिजिटल, ऑटोमेटिक कैमरे फोटोग्राफी का 80 फीसदी से अधिक काम कर देता है। आज सभी फोटो तो खींच लेते हैं, लेकिन फोटोग्राफर नहीं है। फोटोग्राफी एक सोच है।”

यह सच है कि “फोटोग्राफी का आविष्कार जहाँ संसार को एक-दूसरे के करीब लाया, वहीं एक-दूसरे को जानने, उनकी संस्कृति को समझने तथा इतिहास को समृद्ध बनाने में भी उसने बहुत बड़ी मदद की है। आज हमें संसार के किसी दूरस्थ कोने में स्थित द्वीप के जनजीवन की सचित्र जानकारी बड़ी आसानी से प्राप्त होती है, तो इसमें फोटोग्रोफी के योगदान को कम नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिक तथा तकनीकी सफलता के साथ-साथ फोटोग्राफी ने भी आज बहुत तरक्की की है। आज व्यक्ति के पास ऐसे-ऐसे साधन मौजूद हैं जिसमें सिर्फ बटन दबाने की देर है और मिनटों में अच्छी से अच्छी तस्वीर उसके हाथों में होती है। किंतु सिर्फ अच्छे साधन ही अच्छी तस्वीर प्राप्त करने की गारंटी दे सकते हैं, तो फिर मानव दिमाग का उपयोग क्यों करता? तकनीक चाहे जैसी तरक्की करे, उसके पीछे कहीं न कहीं दिमाग ही काम करता है। यही फर्क मानव को अन्य प्राणियों में श्रेष्ठ बनाता है। फोटोग्राफी में भी अच्छा दिमाग ही अच्छी तस्वीर प्राप्त करने के लिए जरूरी है।”

झा साहेब कहते है: “मेरा मानना है की एक फोटो का फोटोग्राफर की आत्मा के साथ सम्बन्ध होता है जब वह अपनी एक आँख को बंद कर कैमरे के लेंस के माध्यम से उस विषय को देखता है, जिसकी वह तस्वीर लेना चाहता है। वह अपनी आँखों से दिखाई देने वाले दृश्य को कैमरे की लेंस की मदद से एक फ्रेम में बाँधता है, लाईट-शेड को देखता है, तत्कालीन परिस्थिति, वातावरण, कैमरे की स्थिति, परफेक्ट एक्सपोजर चुनता है। यह विद्या ही उस कैमरामैन को उसके कैमरे के शटर (क्लिक-क्लिक) को उसके ह्रदय के धक्-धक् से जोड़ता है। शायद बहुत कम लोग जानते होंगे की अच्छी तस्वीरों के लिए एक फोटोग्राफर कैमरे के क्लिक-क्लिक को अधिक त्याबज्जो देता है, ह्रदय के धक्-धक् से और इसीलिए वह उस चाँद समय के लिए अपनी सांसों को भी रोक लेता है, ताकि कैमरा हिले नहीं, समय में असमानता नहीं हो इत्यादि-इत्यादि। यह बहुत महत्वपूर्ण होता है कि हमें अपने फ्रेम में क्या चाहिए ?

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