संजीव बनर्जी कहते हैं: “मुझे फक्र है कि मैं पटना की सड़कों से फोटो जर्नलिज्म शुरू किया” (बिहार का फोटोवाला-2)

कारगिल युद्ध के दौरान त्रिवेदी अम्ब्रीष (अब दिवंगत) के साथ संजीव बनर्जी 

पटना / नई दिल्ली : अस्सी के दशक में पटना के फ़्रेज़र रोड पर आकाशवाणी के प्रवेश द्वार के ठीक सामने सड़क की दाहिने कोने पर बने शिवहर सदन में सत्यजीत मुखोपाध्याय @ माणिकदा एक रंगीन तस्वीरों का लैब-सह-दूकान खोले – फोटो मेकर्स। इसी दूकान में ईश्वर द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से राजा राम मोहन रॉय सेमिनरी स्कूल के एक छात्र का जीवन बदलने से सम्बंधित नींव भी रखी गई । माणिक दा इससे पहले अपने गोविन्द मित्र रोड स्थित घर से छोटे-मझले स्तर पर एक लैब चलाते थे, जहाँ तस्वीरों से तस्वीर खींचने वालों का और उनके साथ कार्य करने वालों का जीवन-तस्वीरें बदला जाता था, मुद्दत से। 

माणिक दा एक बेहतर बंगाली तो थे ही, एक बेहतर इन्शान भी थे। उनके आखों में गंगा-यमुना की तरह पानी भी उत्प्लावित था । भूख से होने वाली पेट-पीड़ा को बहुत बेहतर तरीके से अनुभव किये थे। इसलिए कभी किसी को “ना” नहीं कहते थे। उनके जीवन के शब्दकोष में “ना” शब्द नहीं था। मेरा एक लंगोटिया दोस्त था सौमित्र घोष। स्वाभाविक हैं बंगाली ही था। चेहरा बेहद सुन्दर, गोरा-चिट्टा। सौमित्र घोष को हम सभी घर के लोग “भवानी” के रूप में जानते थे। भवानी के पिता चितरंजन घोष की एक दूकान थी पटना के स्टेशन रोड पर वीणा सिनेमा हॉल के ठीक सामने। आज भी है यह दूकान। यह दूकान भारत की आज़ादी के उम्र की है और आज भी स्वस्थ है। चितरंजन बाबू चालीस के दशक से आज़ाद भारत में कोई साठ के दशक के उत्तरार्ध तक तस्वीर खींचते रहे । बेहद संवेदनशील फोटोग्राफर थे चितरंजन बाबू। 

साठ के दशक में जब बिहार में कृष्ण बल्लभ सहाय की सरकार थी और उनके शासन काल में आंदोलन हुआ था, गोलियां चली थी, पटना के गांधी मैदान के दाहिने कोने पर स्थित तत्कालीन सोडा फाउंटेन के पास कई क्रांतिकारी मृत्यु को प्राप्त किये थे। उनके पार्थिव शरीरों को रात के अँधेरे में जब गंगा में प्रवाहित किया गया था – चितरंजन बाबू उन समस्त घटनाओं को अपने कैमरे में कैद किये थे। ऐतिहासिक घटना की ऐतिहासिक तस्वीरें कई दशक तक सुरक्षित भी थी। पटना के तत्कालीन समाचार पत्र आर्यावर्त – इण्डियन नेशन में वह तस्वीरें प्रकाशित भी हुई थी। आज आज़ादी के 75 साल बाद भी चितरंजन बाबू के तीनों पुत्र अपने पिता की ऐतिहासिक पेशा “क्लिक-क्लिक” को जीवित रहे हैं। 

यह अलग बात है कि माणिक दा पटना के दशकों पुराना व्यवसाय – फोटो मेकर्स – को समाप्त कर, अपने जीवन का शेष समय अपने पैतृक घर कोलकाता में बिताने को सोचे और कोलकाता कूच कर गए।  लेकिन उनका सहकर्मी, साथी भवानी “कैमरामैन” के रूप में पटना में आज भी “क्लिक-क्लिक” कर रहा है। ब्लैक-एंड-व्हाईट वाली तस्वीर युग से आज रंगीन तस्वीर की दुनिया में तस्वीर खींचने वालों को भी खुश रख रहा है और जिसकी तस्वीर खींचा जा रहा है, वे तो खुश हैं ही। और उधर, “फोटो मेकर्स” में काम करने वाला एक कर्मचारी-रूपी फोटोग्राफर संजीव बनर्जी का जीवन माणिक दा के हाथों संवरने के लिए सज्ज हो रहा था। 

आनंद मोहन – जिन्हे पुलिस ढूंढ रही थी उन दिनों

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते हुए माणिक दा कहते हैं: “संजीव मेरे पास नौकरी करने के उद्देश्य से आए थे । उस ज़माने में हम सबों के घरों में कुछ न कुछ आर्थिक तंगी अवश्य था। वह आर्थिक तंगी हम सबों के लिए एक महत्वपूर्ण पाठ था। दूकान में सभी प्रकार का कार्य करते थे संजीव। लेकिन घीरे-घीरे कैमरा और उसके लेंस के तरफ वह आकर्षित होने लगे । उन दिनों प्रेस फोटोग्राफर्स के कंधे पर खाकी रंग का कैमरा बैग और उसमें रखा कैमरा, जो तत्कालीन समाज का एक आईना भी था, उस व्यक्ति विशेष को भीड़ से अलग करता था। संजीव को भी ईश्वर “भीड़ से अलग” करने के लिए यहाँ भेजे थे।  मैं और मेरा फोटो मेकर्स तो महज एक माध्यम था। उन दिनों फिल्म बनाने, प्रिंट करने, प्रोसेस करने के गिनी-चुनी दुकाने थी और हमारा फोटो-मेकर भी उनमें एक था।”
 
फोटो मेकर्स की ख़ास विशेषता यह थी कि इस दूकान का शटर संजीव बनर्जी उठाते थे और डेर रात  में वे ही शटर गिराते थे। संजीव उन दिनों चाईं टोला मोहल्ला में रहते थे। उन दिनों पटना ही नहीं, बिहार का शायद ही कोई छायाकार रहा होगा जो फोटो मेकर्स नहीं आया होगा। यहाँ पानी नहीं पिया होगा। यहाँ चाय की चुस्की नहीं लिया होगा। चाहे प्रोफेशनल फोटोग्राफर हों या एमेचुर, सबों का अड्डा था। 

माणिक दा आगे कहते हैं: “संजीव बनर्जी अपनी इक्षा का दमन नहीं कर सके। आते-जाते फोटोग्राफर्स, उनका कैमरा बैग और कैमरा धीरे-धीरे संजीव बनर्जी को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था और वे भी चुम्बक के विपरीत केंद्र जैसा चिपकते जा रहे थे। कुछ वर्ष ही दाना पानी था इस दूकान में संजीव बनर्जी का। क्योंकि उनका प्रारब्ध कुछ और था और समय अपने क्रम में उस दिशा की ओर उन्हें उन्मुख भी कर रहा था।”

संजीव के घर में माता-पिता, भाई थे। घर की आर्थिक स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं थी। यह अलग बात थी कि उस समय क्या दिल्ली और क्या बिहार, “गरीबी रेखा” का निर्धारण नहीं हुआ था और “निर्जीव” सरकार, “गरीबी हटाने” की बात तो कर रही थी, लेकिन, उस निर्जीव सरकार में “सजीव” लोग निर्जीव की बात को उसी तरह दमित कर रहे थे, कुचल कर मार रहे थे, जैसे बिहार के गाँव में दलितों को, गरीबों को मारा जाता था और अख़बारों में, पत्रिकाओं में “नरसंहार” के रूप में पृष्ठ-दर-पृष्ठ कहानियां प्रकाशित होती है । आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते संजीव बनर्जी कहते हैं: “मुझे फक्र है कि मैं पटना की सड़कों से फोटो जर्नलिज्म शुरू किया। जो पटना और बिहार में पत्रकारिता कर लिया, फोटोग्राफी कर लिए, वह देश ही नहीं, विश्व के किसी भी कोने में अकेला खड़ा रह सकता है, बिना हिले।”

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संजीव का फोटोग्राफर बनना तत्कालीन परिवार के लिए “स्वीकार्य” नहीं था। वजह भी जायज ही था। आखिर परिवार के सदस्य खाएंगे क्या? परन्तु संजीव की माँ अपने बेटे के मुखमण्डल को संकुचित नहीं देखना चाहती थी। वह अपने बेटे के पीछे खड़ी हो गयी। एक छोटा सा कैमरा लेकर सड़कों पर उताड़ गए संजीव बनर्जी । उन दिनों पटना शहर “स्मार्ट सिटी” के रूप में पंक्तिबद्ध नहीं हुआ था। शहर में रखने वाले लोगों के हाथों में “स्मार्ट फोन” भी नहीं था। “पाउट वाला सेल्फी” के बारे में तो सोचिये ही नहीं। संजीव सबसे पहले पटना से प्रकाशित दी हिंदुस्तान टाईम्स और दैनिक हिंदुस्तान के दफ्तर में दस्तक दिए और तत्कालीन फोटोग्राफर्स और संपादक से अपनी व्यथा सुनाए। छोटे शहरों की एक ख़ास विशेषता होती है – सभी एक दूसरे को पहचानते हैं, माता-पिता को जानते हैं। 

संजीव बनर्जी कहते हैं: “जब दफ्तर में प्रवेश कर रहा था तो भगवान बुद्ध को याद कर रहा था। हिंदुस्तान टाइम्स और हिंदुस्तान का दफ्तर पटना के अशोक सिनेमा हॉल के बगल में बुद्ध मार्ग पर है। मन में सोच रहा था भगवान बुद्ध को दिव्य ज्ञान बोध गया में मिला। अगर वे मुझे जीवन का मार्ग प्रसस्त कर देते, तो शायद मैं अपने जीवन के उद्येश्य प्राप्त कर पाता और भगवन बुद्ध मेरी बात सुन लिए। मुझे सकारात्मक जबाब मिला और मैं इन अख़बारों में अपना फोटो देने लगा। जो स्थायी नौकरी पर थे, किसी ने भी कोई खलल नहीं डाले। जीवन की एक शुरुआत हो गई। माँ का आशीर्वाद व्यर्थ नहीं गया । यह अस्सी के दशक का मध्य का समय था और मैं सिर्फ मैट्रिक पास कर बी एन कालेज में इंटरमीडिएट में नामांकन लिया था। 

लालू यादव का पैजामा

अस्सी के ज़माने में देश में राजनीतिक माहौल बदल रहा था। बिहार भी अछूता नहीं था। प्रदेश के मुख्य मंत्री कार्यालय में कभी जगन्नाथ मिश्र, तो कभी चंद्र शेखर सिंह, कभी भागवत झा आज़ाद, तो कभी सत्येन्द्र नारायण सिंह – सभी उठा-पटक कर रहे थे। सभी कुर्सी से चिपक कर रहना चाहते थे। लेकिन यह बात दिल्ली को मंजूर नहीं था। वजह भी था – अस्सी के दशक में बिहार की राजनीति में कानून के नजर में अपराधियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ रही थी। राजनेताओं के पास भी कोई विकल्प नहीं था। अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त हो रहा था। 

उस ज़माने में इलाहाबाद से एक हिन्दी पत्रिका का प्रकाशन होता था। नाम “माया” था। “माया” पत्रिका, उन दिनों देश के सभी राज्यों में तूफ़ान मचा रहा था। बिहार के तत्कालीन विशेष संवाददाता विकास कुमार झा की नजर संजीव बनर्जी पर पड़ी। संजीव अपनी मेहनत से हिंदुस्तान टाइम्स और हिंदुस्तान अख़बारों में तस्वीरों से अपना नाम, शहर की सड़कों पर लिखना प्रारम्भ कर दिए थे। विकास कुमार झा अपनी पत्रिका “माया” के लिए संजीव को अधिकाधिक अवसर देने लगे ताकि कहानियों में तस्वीरों की संख्या कम न हो।और इस कदर, हाथ में एक छोटा सा मैनुअल निकोन कैमरा लेकर अपनी किस्मत को आजमाने संजीव पटना की सडकों के रास्ते “माया” पत्रिका में प्रवेश लिए । खाकी रंग का वाटर-प्रूफ कैमरा बैग अपने दाहिने कंधे पर लटकाकर एक स्ट्रिंगर के रूप में फोटो खींचना प्रारम्भ किये, अपनी रोजी-रोटी के लिए । 

इसी बीच, लालू-चद्रशेखर संवाद स्थानीय अख़बारों में प्रकाशित हुई । आनंद मोहन और पप्पू यादव को तत्कालीन स्थानीय अख़बारों में जगह तो मिलता था, लेकिन घटना के कई दिनों बाद। उस ज़माने में संचार के ऐसे कोई साधन नहीं थे जो मीनट में सूचना को इस पार से उस पार पहुंचा दे। स्थानीय पत्रकार हाथ से लिखते थे, या फिर टाइप करते थे, कहानियों को फिर डाक से भजते थे। टेलीप्रिंटर का जमाना था, लेकिन ‘समाचारों के लिए’, बड़ी-बड़ी कहानियां डाक से ही प्रेषित की जाती थी। अगर उन कहानियों के साथ कुछ तस्वीर मिली तो वाह-वाह, नहीं मिली तो भी वाह-वाह। समाचार जब तक प्रकाशित होता था तब तक दूसरी घटना हो जाती थी। टेलीप्रिंटर तो था, लेकिन  जिला संवाददाताओं के पास नहीं होता था। खैर। 

चंद्रशेखर हमेशा चाहते थे कि आनंद मोहन “मजबूत” बने।  समाज में हरेक बड़े-बुजुर्ग युवकों को उनकी योग्यता के अनुसार “मजबूत” बनने की सलाह देते हैं, आज भी। अगर ऐसा नहीं होता तो वर्तमान में लालू यादव अपने दोनों पुत्रों को शिक्षा के जगत में अब्बल बनने का आशीष देते। लालू जानते हैं की दोनों पढ़ने-लिखने में “भुसकोल” है। इसलिए जिस क्षेत्र में “तेज और तर्रार” है, उसी में आगे बढ़े, आषीश देते हैं। फिर क्या था, आनंद मोहन “बाहुबली” बन गए। दोनों को चंद्रशेखर बहुत ही सम्मान करते थे। इधर सूर्यदेव सिंह और आनंद मोहन भी उनका उतना ही सम्मान करते थे। आज की नेताओं जैसा नहीं की जैसे ही अपना स्वार्थ सिद्ध हुआ, सामने वालों को पहचानने से भी मुकर जाते हैं। खैर। 

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लालू यादव, नए और नाख़ून। नेपथ्य में लालू के दाहिने हाथ पटना के अनेकानेक पत्रकार बैठे हैं

यह उन दिनों की बात है जब चंद्रशेखर अपने राजनीतिक जीवन के उत्कर्ष पर थे और बिहार के लालू प्रसाद यादव चंद्रशेखर से आनंद मोहन के लिए ‘शिकायत’ किये थे। यह अलग बात थी कि उसी काल में पूर्णिया के पप्पू यादव भी कनक को बन्दुक की नोक पर रखे थे, अधिकारियों को पैर के नीचे रखते थे; लेकिन लालू प्रसाद के लिए पपू यादव का वह क्रिया-कलाप बचपना था, क्योंकि वे लालू के अपने थे। लालू प्रसाद अपने गुरुदेव चंद्रशेखर से यह भी निवेदन किये कि आनंद मोहन को रोकिये। क्योंकि आनंद मोहन को रोकने का कार्य उन दिनों भारत की चौहद्दी में सिर्फ और सिर्फ चंद्रशेखर ही कर सकते थे। लेकिन चंद्रशेखर लालू प्रसाद को खुश नहीं किये और कहे: “उसे रोको नहीं …छोड़ दो उसे। समय आने पर वह खुद समर्पित कर देगा।”

उस ज़माने में आनंद मोहन और पप्पू यादव में आज़ादी की दूसरी लड़ाई जैसी ताकत की आजमाइश हो रही थी। नित्य खेत-खलिहान, गली-कूची, सड़क, कारखाने में, या यूँ कहें कि उत्तर बिहार में सहरसा-मधेपुरा-सुपौल-पूर्णिया-कटिहार आदि क्षेत्रों में शायद ही कोई इलाका बचा होगा जहाँ खून की होली नहीं खेली गयी थी। चतुर्दिक दोनों गुटों के लोगों का जीता-जागता शरीर “पार्थिव” हो रहा था। सम्पूर्ण क्षेत्र में ख़ौफ़ का माहौल था। “माया” के विकास कुमार झा आनंद मोहन पर एक कहानी करना चाहते थे। लेखक व पत्रकार विकास कुमार झा का जन्म 1961 में बिहार के सीतामढ़ी जिले में हुआ। उन्होंने 18 वर्ष की आयु में बतौर पत्रकार जीवन प्रारम्भ किये थे । आनंद मोहन-पप्पू यादव पर कहानी के लिए  जरुरत थी तस्वीरों की, क्योंकि तस्वीरों के बिना कहानी विधवा जैसी होती है ।

यहीं संजीव बनर्जी की किस्मत आनंद मोहन के साथ जुड़ गयी। एक तस्वीर, एक ओर जहाँ आनंद मोहन को बिहार में ही नहीं, सम्पूर्ण देश में, विदेशों में बाहुबली बना दिया, नाम-शोहरत को दिल्ली के क़ुतुब मीनार पर चढ़ा दिया। उस छायाकार की भी उस ऐतिहासिक तस्वीर के लिए चर्चाएं होने लगी।  उन दिनों उस तस्वीर को प्राप्त करने के लिए पटना के उस ज़माने के छायाकारों ने न जाने कितने लोभ-प्रलोभ दिए, लेकिन संजीव बनर्जी हिले नहीं । उन दिनों माया के “रिटेनरशिप” के लिए 500 रुपये और ब्लेक एंड व्हाईट फोटो के लिए 50 रुपये रंगीन फोटो के लिए 200 रुपये मिलते थे। इसके अलावे किसी भी असाइनमेंट्स पर जाने-आने-खाने-पिने-रहने का खर्च भी दफ्तर उठता था।  संजीव को इतने पैसे हो जाते थे कि घर-परिवार आर्थिक रूप से सुरक्षित रहे। चारो वक्त चूल्हा जले और खाने की किल्लत नहीं हो।  

हई देखिये डॉ जगन्नाथ मिश्र को

पटना ही नहीं बिहार के पत्रकार अथवा छायाकार आज शायद नहीं जानते होंगे की आनंद मोहन की उस  ऐतिहासिक तस्वीर का “फ्रेम” बनाने के लिए उन दिनों संजीब बनर्जी और सुनील झा (सुनील झा अभी दैनिक जागरण में हैं और मुजफ्फरपुर में पदस्थापित हैं) किन-किन परिस्थितियों से गुजरे थे, आज के छायाकार कल्पना नहीं कर सकते हैं। 

संजीब बनर्जी कहते हैं: “मैं और सुनील झा दोनों बस से पटना से सहरसा के लिए निकले। दोनों आनंद मोहन के एक हितैषी थे और कांग्रेस के नेता थे सुधीर मिश्रा जी से पहले संपर्क स्थापित कर लिए थे। सहरसा पहुँचने पर वे दोनों रात में वहीं रुके। मिश्रा जी के सहयोग से आनंद मोहन बाबा-आदम का एक पुराना, खटारा एम्बेसडर कार दोनों को लाने के लिए भेजे थे। सहरसा से दोनों आनंद मोहन के गाँव पछगछिया के लिए निकले। रात्रि विश्राम पछगछिया में था। अगली सुबह दोनों एक गंतब्य स्थान के लिए उसी गाड़ी से निकले। साथ में आनंद मोहन के भी “आदमी” थे। कुछ  दूर निकलने के बाद मेरी और सुनील झा दोनों की आखों पर कपड़ा बाँध दिया गया ताकि रास्ते का अंदाजा नहीं मिल सके। सुधीर मिश्रा जी का ससुराल नेपाल की तराई में था, जहां आनंद मोहन अड्डा जमाए हुए थे।” 

ज्ञातव्य हो कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर खुलेआम कहते थे, कहने में ‘हिचकी’ नहीं लेते थे की धनबाद का कोयला माफिया सूर्यदेव सिंह और कोसी क्षेत्र का आनंद मोहन उनके ‘मित्रवत’ हैं और वे ‘मित्रता का सम्मान’ करते हैं। सूर्यदेव सिंह का कोयला माफिया होना, उनकी पेशा है कोयला के क्षेत्र में, हीरा ढूंढने के लिए अगर वे कुछ भी करते हैं तो यह उनका व्यावसायिक क्रिया-कलाप है । उसी तरह कोशी के आनंद मोहन प्रदेश की राजनीति में ही नहीं, दिल्ली के राजपथ पर भी अपना अधिपत्य ज़माने की कोशिश कर रहे हैं, यह उनकी चाहत है, होनी भी चाहिए क्योंकि राजनीति में बहुत पापड़ बेलना होता है, और वे बेलन की लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई माप रहे हैं।, मापना भी चाहिए ।

ख़ामोश और अटल जी

संजीव आगे कहते हैं: “सं 1971 में अख्तर रोमानी द्वारा लिखित, राज खोसला द्वारा निर्देशित, लक्ष्मीकांत – प्यारेलाल द्वारा संगीतबद्ध और धर्मेंद्र-विनोद खन्ना द्वारा अभिनीत एक फिल्म बनी थी “मेरा गाँव मेरा देश”, यह फिल्म उन दिनों के उभरते महानायक आनंद मोहन को बहुत बेहतरीन लगता था, विशेषकर अभिनेताओं के साज-सज्जा को देखकर। फिर क्या था, बेहतरीन घोड़ा पर बैठाया गया आनंद मोहन को, दाहिने हाथ में पिस्तौल दिया गया। आनद मोहन एक हाथ से विनोद खन्ना जैसा घोड़ा का लगाम पकडे थे, तस्वीर बनी। अब बात आयी एक ऐसी तस्वीर जो पत्रिका का कवर हो। बस क्या था सफ़ेद फुलपैंट, कमीज में तनिक तिरछा होकर बैठे। पिस्तौल का नोक आसमान की ओर किये। आजु-बाजू आनंद मोहन के हितैषीगण, अंगरक्षक सभी बन्दुक, राइफल लेकर खड़े हो गए –  क्लिक-क्लिक हुआ।”

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उस ज़माने में रंगीन तस्वीर बहुत कम खींची जाती थी।  रंगीन फोटो वाले निगेटिव को “टी पी” कहते थे। डिजिटल कैमरा भी नहीं था। अगर किन्ही के पास होता भी था तो वे समाज से अलग संभ्रांत छायाकार होते थे। अब इस बनर्जी के पास तो फिल्म खरीदने के लिए भी पैसे नहीं होते थे तो अधिक क्लिक-क्लिक भी नहीं कर सकता था। आनंद मोहन सुनील झा को और संजीब बनर्जी को भर-पेट गर्दन की नली तक कोंच के खिलाये, आवभगत किये। कहते हैं “जान बचे तो लाख उपाय”, दोनों हनुमान चालीसा पढ़ते पुनःमुसको भवः हुए – उसी तरह, आखों पर पट्टी बाँध दिया गया। वापसी में पहुंचे मधेरपुरा के जिलाधिकारी के पास। 

संजीव बनर्जी कहते हैं: “उस ज़माने में जयन्तो दासगुप्ता माडपुरा के जिलाधिकारी थे जो लालू के “खास” थे। मधेपुरा उन दिनों आनंद मोहन – पप्पू यादव का कुरुक्षेत्र था। दोनों में से कोई भी हथियार रखना नहीं कहते थे। खैर जयन्तो दासगुप्ता भी कदम कुआं पटना के थे।  उनके दादाजी थे प्रमाथो दासगुप्ता, जहाँ संजीब बनर्जी बचपन में खेलने-कूदने जाया करते थे।  बस क्या था – दो बंगाली इकठ्ठा हुए, बचपन की बातें दुहराई गयी और आनंद मोहन-पप्पू यादव कुरुक्षेत्र का विस्तार से विन्यास हुआ। सुनील झा सभी बातें अपनी डायरी पर लिख रहे थे।”

पटना आते ही, संजीव “फोटो-मेकर” पहुंचे। निगेटिव साफ़-सुथरा हुआ, तस्वीर निकली और फिर ‘माया’ के दफ्तर में हाजिर हुए । विकास कुमार झा कहानी लिख रहे थे। तस्वीर देखने के बाद विकास कुमार झा ने संजीव को तत्काल इलाहाबाद रावण किये तस्वीरों के साथ। इधर पटना में जब छायाकारों को मालूम हुआ की संजीव बनर्जी तस्वीर बनाकर लाये हैं, सभी “मुझे दो-मुझे दो” करने लगे। जब संजीब इलाहाबाद पहुंचे तब ‘माया’ पत्रिका में एक ‘लेखक-ब्रह्मास्त्र’ हुआ करते थे बाबूलाल शर्मा जी। बबूलाल जी तस्वीर देखे। विकास झा की कहानी को पढ़े और जो कहानी बनी वह ऐतिहासिक थी – ये है बिहार। 

आनंद मोहन एक महान स्वतंत्रता सेनानी राम बहादुर सिंह के परिवार से है। इनके परिवार के कई लोगो ने आजादी के लड़ाई में भाग लिया। उन्होंने आपातकाल के दौरान जे.पी. आन्दोलन में भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। आपातकाल में उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी। उन्हे दो वर्ष तक जेल में रहना पड़ा। मैथिली को अष्टम अनुसूची में शामिल करने के पीछे उनकी कड़ी मेहनत रंग लाई। कोसी की मिट्टी पर पैदा किए आनंद मोहन क्रांति के अग्रदूत और संघर्ष के पर्याय हैं। सत्ता के मुखर विरोध के कारण उन्होंने अपनी जवानी का अधिकांश हिस्सा जेल में बिताया है

अपनी फोटो-पत्रकारिता की यात्रा में संजीव बनर्जी पटना के तीन तत्कालीन तीन छायाकारों को अन्तःमन से आभार व्यक्त करते हैं – विक्रम कुमार, कृष्ण मोहन शर्मा (अब दिवंगत) और रंजन बसु – और कहते हैं: “नौकरी हर कोई करता है, लेकिन नौकरी करते मानवीय बना रहना सबों की वश की बात नहीं है। अक्सरहां लोग पैसे देखकर मानसिक स्थिति खो देते हैं।  लोग अपने से कमजोर, निरीह, गरीब को दुत्कारते हैं चाहे वह कितना भी अच्छा काम करें।  पटना में कृष्ण मुरारी किशन (दिवंगत) बहुत बेहतर आदमी थे, बहुत बेहतर फोटोग्राफर थे; लेकिन ….. जबकि विक्रम जी, कृष्ण मोहन जी  और रंजन जी कभी मुझे देखकर हँसे नहीं।  कभी मेरी गरीबी का मजाक नहीं उढ़ाये। हमेशा मेरे कार्य को सराहे और हमेशा मदद किये। आज 35 वर्ष से अधिक समय बीत गया है, लेकिन आज भी उन लोगों के प्रति आँख में पानी सूखा नहीं है।”

संजीव जी आगे कहते हैं: “यह सब ठीक-थक चल रहा था। मेरे घर के बगल में सहारा परिवार के एक महाशय सुमित राय रहते थे। राष्ट्रीय सहारा अखबार आ गया था। मैं सुमित साहेब से कहा की मेरा घ्यान रखेंगे। वे मुझे दिल्ली लेकर आ गए और सहारा में फोटोग्राफर बना दिए। इन वर्षों में मैं कभी अपनी मेहनत को पीछे नहीं छोड़ा। नाम मिला, काम मिला, शोहरत मिला।”

तीस्ता बनर्जी एक कार्यक्रम में पुरस्कृत होते 

संजीव बनर्जी की पत्नी श्रीमती जानकी बनर्जी एक कुशल गृहिणी है। एक सुशील पत्नी है। दोनों की एक बेहद खूबसूरत, नयी सोच और हिम्मत वाली बेटी है सुश्री तीस्ता बनर्जी। तीस्ता को फोटोग्राफी का बहुत शौक है। और बी एड कर रहीं हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित फोटो प्रतियोगिता में अव्वल भी आयी। “संजीव कहते हैं: “मेरा मानना है कि फोटोग्राफी की दुनिया में आर्थिक रूप से कमजोर लोग ही आएं। वजह यह है कि मानवता और मानवीयता उनमें अधिक होगा। वे अपने कैमरे से मानवीय कहानियों की शृंखला कर समाज में बदलाव ला सकते हैं। हमारे ज़माने में तो डिजिटल का युग नहीं था, आज डिजिटल युग होने से उनके कार्यों को पंख लग सकता हैं। आर्यावर्त इण्डियन नेशन डॉट कॉम संजीव बनर्जी, उनकी पत्नी श्रीमती जानकी और पुत्री तीस्ता बनर्जी के अच्छे स्वस्थ, भरपूर खुशियां की कामना करता हैं। 

कल पढ़िए: इण्डियन एक्सप्रेस समूह के पूर्व राष्ट्रीय फोटो संपादक नीरज प्रियदर्शी की बातें। नीरज प्रियदर्शी कोइलवर के रहने वाले हैं और वर्तमान में मुंबई में फिल्म और डाकूमेंट्री बनाने के क्षेत्र में प्रवेश किये हैं)

2 COMMENTS

  1. शिवनाथ जी को बोहोत धन्यवाद इस बेहतरीन लेख के लिए।
    आपके जानकारी के लिए The PHOTOMAKERS आज भी उसी जगह पर कार्यरत है, नीचे से केबल अपर जहां अपना ऑफ़िस है shift हो गया।
    और मै कोलकाता ज़रूर आ गया हूँ पटना छोर के, लेकिन यहाँ मेरा पैतृक घर कोई नहीं है , हम तीन ख़ानदान से पटना के निवासी है और मेरा पैत्रिक घर पटना ही है, कोलकाता में हम कुछ photography के विशेष प्रकार काम करने के लिए ही shift किए है।
    कृपया इन चीजों को आपने लेख में सुधार कर दे
    धन्यवाद
    माणिक दा

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