पटना का ‘डाक बंगला चौराहा’ और ‘जेपी का आंदोलन’ कईयों को ‘फोटोग्राफर’ से ‘फोटो जर्नलिस्ट’ बना दिया (#फोटोवाला श्रृंखला-12)

दो राजीव एक साथ: एक छायाकार और दूसरे नेता: राजीव गांधी एक ग्रामीण विद्यालय में बोर्ड पर लिखे अंकों को देखकर मुस्कुरा रहे हैं। आप भी देखिये और मुस्कुराएं। आज भी संख्या में बहुत परिवर्तन नहीं हुआ है

पटना : सत्तर के दशक में पटना में डाक बंगला चौराहे के दाहिने कोने पर स्थित सत्कार होटल के नीचे खड़ा होना, उस विशाल भवन के सतही-तल्ले पर बाएं तरफ रीडर्स कॉर्नर से किताब, दिल्ली वाला अखबार, पत्रिका खरीदना; इस भवन से कोई दस कदम आगे चलकर भारत कॉफी हॉउस में मसाला डोसा खाना या कॉफी पीना पटना के तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में “गर्व” और “गौरव” की बात होती थी। उसी सड़क पर स्टेशन की ओर कोई 500 कदम आगे पिंटू होटल की ‘ब्रुक-बॉन्ड पत्ती” की चाय और “सफ़ेद सगुल्ला” मगध की राजधानी की गरिमा में गिनी जाती थी। अगर पतलून के पिछवाड़े वाले जेब में, अथवा देशी-विदेश बटुआ में, भारतीय रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर लक्ष्मीकांत झा द्वारा हस्ताक्षरित कागज के टुकड़ों की मोटाई होती थी; तो डाक बंगला रोड चौराहे से दाहिने हाथ एग्जिविशन रोड की ओर जाने वाली सड़क के ठीक बाएं कोने पर स्थित लखनऊ स्वीट हॉउस या इस दूकान के प्रवेश द्वार से 135 डिग्री कोण पर स्थित पाल स्वीट्स की दूकान से सफ़ेद रसगुल्ला या छेना वाला कोई भी मिठाई खाने, या फिर उसे बंधवाकर घर, परिवार, परिजनों, मित्रों के लिए ले जाना – सामाजिक संभ्रांतों की सूची में सबसे ऊपर नाम दर्ज होता था। लोग बाग़ डब्बे पर लिखा नाम देखकर ही कुर्सी आगे कर देते थे। 

चंद्रशेखर का नमन स्वीकार करें जय प्रकाश जी

यह अलग बात थी कि उन दिनों भी बेली रोड स्थित डॉ जगन्नाथ मिश्र वाले इण्डियन इंस्टीच्यूट ऑफ़ बिजनेस एंड पर्सनल मैनेजमेंट शैक्षणिक ससंस्थान के दाहिने हाथ बोरिंग रोड चौराहे की ओर जाने वाली सड़क और चौराहे के दाहिने तरफ कोने पर भी पॉल स्वीट्स की दूकान हुआ करती थी; परन्तु डाक बंगला की बात ही कुछ और थी। उन दिनों घर के छोटे-छोटे बच्चे तो इस दूकान से मिठाई खा लेते थे, लेकिन जब “मिष्ठान” खाने की बात होती थी, तब क्या बोरिंग रोड, क्या बोरिंग केनाल रोड, क्या पाटलिपुत्र कालोनी, क्या राजवंशी नगर, क्या गर्दनीबाग – सभी डाक बंगला की ओर ही उन्मुख होते थे। डाक बंगला चौराहे की बात ही कुछ और थी। चाहे लखनऊ स्वीट हॉउस हो या पाल स्वीट्स, शीशे के अंदर रखी बेहतरीन मिष्ठानों की अधिकतम कीमत अठन्नी भी नहीं होती थी। छेना वाला सफ़ेद रसगुल्ला की कीमत महज 20 पैसे हुआ करता था। यह बात भी अलग थी कि पटना की आवादी सत्तर के दशक के प्रारम्भिक वर्षों से मध्य तक सात लाख भी नहीं थी, लेकिन तत्कालीन समाज के आम लोगों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी की लखनऊ स्वीट हॉउस या पाल स्वीट्स से मिष्ठान खरीद पाते। औसतन एक हज़ार में पांच से दस लोग ही मिष्ठान खरीद पाते थे। शेष हम लोग जैसा व्यक्ति दो वक्त की रोटी, गुड़ और मसूर दाल के लिए उस दिन भी जेद्दोजेहद करते थे, आज भी करते हैं। अब सभी तो रामानंद तिवारी, डॉ जगन्नाथ मिश्र, लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी, नीतीश कुमार तो हो नहीं सकते। यह चौराहा कितने “कुकुरमुत्तों” की तरह “सफ़ेद-सफ़ेद” वस्त्र पहनने वालों को नेता बना दिया, तो वहीँ क्लिक-क्लिक करने वाले राष्ट्रीय स्तर के फोटोग्राफर बन गए। 

सहरसा-मधेपुरा के लिए रवाना होने राजीव

संध्याकाल इधर घड़ी की सूई साढ़े पांच बजे घड़ी की बड़ी सूई छोटी सूई पर चढ़ाई करती थी, उधर पटना के संभ्रांत लोग, उनका परिवार सच-धज कर, इत्र-परफ्यूम छिड़ककर डाक बंगला चौराहे के इर्द-गिर्द दिखाई देने लगते थे। लखनऊ स्वीट हॉउस के तरफ ही एग्जिविशन रोड की ओर उन्मुख होने पर कुछ दुकानों के बाद एक दर्जी की दूकान थी। सिलाई दूकान में वस्त्र नापने वाले से लेकर सिलाई करने वाले तक, सभी पटना के अन्य सिलाई-दुकानों के कारीगरों से बिलकुल अलग होते थे। उनकी प्रतिष्ठा, शानो-शौकत वैसे ही हुआ करता था जैसे अनपढ़-गवाँर-जाहिल क़स्बा में एक सांस में दो से 19 तक पहाड़ा गिनने वाला। यहाँ पुरुषों के वस्त्रों की सिलाई नहीं होती थी। पुरुष कारीगर “महिलाओं के वस्त्रों” को सिलने में माहिर थे।

डाक बंगला चौराहे के दाहिने कोने पर “शंकर पानवाला” सुबह आठ बजे से देर रात 12 बजे तक सपरिवार सुबह पाली से लेकर दोपहर पाली के रास्ते रात्रि पाली तक अपनी – अपनी ड्यूटी बजाते थे। हंसमुख चेहरा बाप-बेटा सबों का। जो दूकान में काम भी करता था, उसकी मुस्कान भी मगही पान जैसा सुगन्धित होता था। उन दिनों पटना की पान खाने वाली संभ्रांत महिलाएं भी पान की दूकान पर कहीं-कहीं दिखती थी। अन्यथा वे भी सड़क और समाज का सम्मान करती थी, और सड़क तथा समाज भी उनका अन्तःमन से, ह्रदय से सम्मान करता था। जो रास्ता बेली रोड की ओर जाती थी, आगे कुछ कदम दाहिने हाथ एक पेट्रोल पम्प हुआ करता था और बाएं हाथ तत्कालीन डाक बंगला का बाउंड्री वाल होता था। इस बाउंड्री वाल पर पटना के लोग, नेतागण, रिक्शावाला, पैदल यात्री, छोटे-छोटे व्यापारी, जो सड़क पर अपने जूते रगड़ कर आगे बढ़ रहे थे, किसी भी समय ‘लघु शंका’ से मुक्त होने में देरी नहीं करते थे। इस बाउंड्री वॉल के अंदर पीले रंग के खपड़ैल वाला ब्रितानिया सरकार के ज़माने में बना डाक बंगला में बिहार के अन्य क्षेत्रों से, जिलों से आये नेतालोग, अधिकारीगण शरणागत होते थे। गजब का मौहौल था उन दिनों। 

वो सरकार निकम्मी है

आज लोग सोच नहीं सकते हैं। आज जैसे ही युवकों को, युवतियों को कहते हैं कि यहां एक डाक बंगला हुआ करता था। उस डाक बंगला के पीछे खाली मैदान नुमा स्थान था। एक रास्ता बन्दर बगीचा के रास्ते एक महिला कालेज की ओर उन्मुख होता था। आज जहाँ विशालकाय गगनचुम्बी ईमारतें खड़ी हैं, कल पटना के लोग भाग, संभ्रांतों के साथ, कुछ खड़े, कुछ बैठकर “लघुशंका” से मुक्त हुआ करते थे। रात्रि के अँधेरे में दीर्घशंका से भी मुक्ति पाते थे। उन दिनों तक दिल्ली के पालम वाले बिंदेश्वर पाठक वाला सुलभ शौचालय का अभ्युदय नहीं हुआ था। पटना के लोगों की न तो सोच बदला था और न शौचालय। आज उसी स्थान पर पटना के संभ्रांत खड़े-खड़े “गोलगप्पा” खाते हैं, “चीन-निर्मित” खाने के अनेकानेक व्यंजनों का आनंद लेते हैं।  

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आज के लोग बाग़ शायद नहीं जानते होंगे अथवा जानते भी होंगे तो अगली पीढ़ी को बताने में संकोच करते हैं कि बैद्यनाथ मिश्र यानी नागार्जुन, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ फोटोग्राफी के बहुत शौक़ीन थे। और पटना का यह डाक बंगला चौराहा उन लोगों के लिए एक पसंदीदा स्थान हुआ करता था। तत्कालीन समाज में, खासकर पटना के फोटोग्राफर उन्हें बहुत पसंद करते थे और ये त्रिमूर्ति भी छायाकारों को बहुत चाहते थे। रेणु जी ने तो साठ और सत्तर के ज़माने और उससे पहले के एक छायाकार मित्र सत्यनारायण दूसरे जी के क्रियाकलापों का अनेकों बार अपनी रचनाओं में उद्धृत किये थे। नागार्जुन और रेणु जी जब भी उन दिनों डाक बंगला कोने पर, तत्कालीन आर्यावर्त-इण्डियन नेशन के छायाकारों को देखते थे, राजीव सहित, मन में एक इक्षा दोनों को अवश्य होतो थी की एक तस्वीर हो जाए। आज भी पटना के उन दिनों के छायाकारों के पास दिनकर, नागार्जुन और रेणु की असंख्य तस्वीरें होंगी। दिनकर जी का देहावसान 24 अप्रैल, 1974 को हुआ जबकि रेणु जी 11 अप्रैल, 1977 को और नागार्जुन 5 नबम्बर, 1998 को ईश्वर के शरणागत हुए।  उन दिनों आर्यावर्त-इण्डियन नेशन सम्पादकीय विभाग में संपादक से लेकर सम्पादकीय विभागों तक, सभी लोग विद्वान तो होते ही थे, आत्मीयता और आत्मसम्मान भी उत्कर्ष पर था। और इन तीन विद्वानों को और क्या चाहिए। समय समय पर वे इस दफ्तर में अवश्य आते थे। खासकर नागार्जुन।  

बिहार की जनता और लालकृष्ण आडवाणी

बहरहाल, समय बदल रहा था। आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, कृषि, विज्ञान आदि के क्षेत्रों में आधारभूत प्रतिवर्तन हो, प्रदेश के लोग बाग़, गरीब-गुरबा का जीवन भी हंसमुख हो, रिक्शावाले को, जूता सिलने वाले को, कपड़ा सिलने वाले को भी भर पेट भोजन मिले, उसके बच्चे भी विद्यालय जायँ; इसके बारे में पटना के लोग, बिहार के लोग, विद्वान-विदुषी, नेता भले नहीं सोचें; लेकिन सबों के मानस-पटल पर पटना के बेली रोड से दिल्ली के राजपथ तक यह अवश्य था की देश में राजनितिक सत्ता के गलियारे में जो बैठे हैं, उन्हें उठाकर बाहर फेक दिया जाय। जो कल तक उस गलियारे का हिस्सा थे, उस दिन झंडा लेकर विरुद्ध में खड़े हो गए थे। स्वाभाविक है प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों की गद्दीदार कुर्सियां किसे नहीं अच्छी लगेगी। बिहार के तत्कालीन नेता अपने-अपने कपाल को तो साफ़ कर ही रहे थे, अपने-अपने पिछवाड़े के वस्त्र को भी उन कुर्सियों के उपयुक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। बिहार के लोगों में यह आम बात होती है। 

सन चौहत्तर की क्रांति की शुरुआत हो गयी थी। विद्यालय से महाविद्यालय तक, बिहार विद्यालय परीक्षा समिति से पटना, मगध, बिहार विश्वविद्यालय तक आंदोलन के बिगुल का आवाज पहुँच गया था। एक ओर छात्राएं अपने-अपने घरों में सीमित हो गयी थी, वहीँ दूसरी ओर ‘राजनीति में अपना-अपना जीवन संवारने वाले, प्रदेश तत्कालीन नेतागण अपने घरों को भरने के लिए सड़क पर उतर गए थे। कोई मूंछ-दाढ़ी कटा रहे थे तो कोई मूंछ – दाढ़ी को अपनी पहचान का मन्त्र मान रहे थे। अगर भारत के निर्वाचन आयोग के दफ्तर में तत्कालीन नेताओं द्वारा पेश किये गए आर्थिक दस्तावेजों की तुलना विगत लोक सभा और विधान सभा के दस्तावेजों से कर लें, खुद को संतुष्ट कर लें की उनकी सम्पत्तियों में कितना इजाफ़ा हुआ है, मतदाता तो वहीँ का वहीँ है । जो उस समय बिहार के वेटेनरी कालेज के चपरासी क्वाटर्स में रहते थे, आज कितने भवनों के मालिक हैं। जो उस समय गांधी मैदान स्थित भारतीय स्टेट बैंक में पैसे की निकासी के लिए पंक्तिबद्ध होते थे, आग बैंकों के अध्यक्ष घर पर पेटियां पहुंचते हैं। ऐतिहासिक गांधी मैदान की घास को पटना के ही लोग अपने अपने पैरों तले उसे दफना रहे थे। 

आडवाणी, जाबिर हुसैन और आर के सिन्हा

अब तक जून का महीना आ गया था और साल था सन चौहत्तर। पांच जून, 1974 को गांधी मैदान में एक सभा हुई। मंच पर जय प्रकाश नारायण थे और कर्पूरी ठाकुर भी थे। विगत तीन दशकों से बिहार की सत्ता के गलियारे में जो राज किये, कर रहे हैं, सभी वहां “चवन्नी छाप” नेता के रूप में, मैले-कुचैले कपड़े पहने खड़े थे। देख रहे थे कि जय प्रकाश जी की नजर में उनकी उपस्थिति दर्ज हो रही है अथवा नहीं। सुई रखने का जगह नहीं थी गांधी मैदान में। अपने जीवन में जय प्रकाश नारायण भी ऐसा जनसैलाब नहीं देखे थे। इसी मंच पर उपस्थित थे फणीश्वरनाथ रेणु, जिन्होंने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता पाठ कर रहे थे :

“सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि “जनता” आती है । 

जयप्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी – जेपी के निवास पर

दिनकर जी अरविन्द के भक्त थे। जय प्रकाश नारायण की इस क्रांति-तिथि से कोई दो माह पूर्व दिनकर जी दक्षिण भारत की यात्रा पर निकले थे। कहा जाता है कि वे आश्रम पहुंचे और अपने आराध्य के कहें: “मैं आ गया” आपके शरण में। दिनकर की मृत्यु ह्रदय गति रुकने के कारण वे अंतिम सांस लिए । बाद में उनका पार्थिव शरीर पटना लाया गया।  उस पार्थिव शरीर को कदमकुआं के हिंदी साहित्य सम्मेलन परिसर में श्रद्धांजलि स्वरुप रखा गया। अनेकानेक प्रगतिशील विचारधरा वाले लेखक श्रद्धांजलि देने भी नहीं पहुंचे। लेकिन आगंतुकों की संख्या कम नहीं थी। फिर लेखकों और उनके कलमों को साक्षी मानकर, जहाँ रेणु जी भी उपस्थित थे, गंगा तट पर गायघाट में अग्नि को सुपुर्द किया गया। 

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सन चौहत्तर की क्रांति और जय प्रकाश नारायण का नेतृत्व ऐसा फैल गया कि देखते ही देखते राजनीति का चेहरा ही पूरी तरह बदल गया। वह आंदोलन करीब एक साल चला। फिर आपातकाल का समय आया।  जयप्रकाश नारायण इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए वचनबद्ध थे। भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुई इस क्रांति में बाद में बहुत सी चीजें जुड़ गई। गांधी मैदान में सभा को संबोधित करने से पहले जेपी ने दोपहर सर्वोदय संगठन के कई कार्यकर्ताओं व अन्य के साथ जुलूस में शामिल हो राजभवन की ओर प्रस्थान किया। राजभवन में तत्कालीन राज्यपाल को पत्र सौंप सभा के लिए वापस गांधी मैदान लौटने लगे तो रास्ते में जुलूस पर फायरिंग की गई। संपूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केंद्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। बिहार से उठी संपूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने कोने में फैलकर आग बनकर भड़क रही थी। 

खामोश

उस ज़माने में बेगूसराय जिला के मझौल गाँव के महान क्रांतिकारी परिवार का एक परिवार बिमला कांत प्रसाद और अहिल्या देवी पटना के गर्दनीबाग रोड नंबर – 4 में रहते थे। बिमला कांत बाबू बिहार सरकार के एक विभाग में कार्यरत थे। बाद में वे पटना के आयुक्त आर आर एस पी सिन्हा के ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी भी बने। बिमला कांत जी और अहिल्या देवी के एक पुत्र राजीव थे, आज भी स्वस्थ हैं। राजीव साहब के परिवार का, उनके पुरखों का देश की आज़ादी के आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान था। मुंगेर, बेगुसराय आदि इलाकों में इनके दादाजी और उनके भाइयों की राजनीतिक गलियारे में तूती बोलती थी आज़ादी से पहले। सभी क्रांतिकारी विचारधारा के थे और महात्मा गांधी की चम्पारण यात्रा और उसके बाद के सभी आंदोलनों में राजीव जी के पूर्वजों का महत्वपूर्ण सहयोग रहा। कहा जाता है कि तत्कालीन क्रांतिकारी युगल किशोर प्रसाद सिन्हा, अखिलेश्वर प्रसाद सिन्हा, इन्दु बाबू सबों ने महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस सबों के साथ आज़ादी की लड़ाई में सक्रीय भूमिका निभाए। 

आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम से बातचीत करते राजीव जी कहते हैं: “सन 1942 के आंदोलन में जब पटना सचिवालय के सामने राष्ट्रध्वज फहराने के लिए क्रांतिकारी एकत्रित हुए थे, उनमें मेरे फूफा जी जगत नंदन सहाय भी थे। आंदोलन धीरे-धीरे हिंसक रूप ले लिया । पुलिस क्रांतिकारियों को आगे बढ़ने से रोक रही थी और क्रांतिकारी आगे बढ़कर राष्ट्रध्वज को लहराना चाह रहे थे। दोनों तरफ भारतीय ही थे। एक लड़ रहे थे, दूसरा रोक रहा था। इस बीच ब्रितानिया सरकार की हुकूमत की ओर से गोलियों का बौछार हो गया। भीड़ तीतर-बितर हो गयी। लेकिन सात छात्र मृत्यु को प्राप्त किये। मेरे फूफा जी उस गोली कांड में घायल एक क्रांतिकारी को अपने कंधे पर लादकर, साईकिल से एक और मित्र के सहारे पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल ले गए। गर्दनीबाग इलाके से काफी संख्या में क्रांतिकारी एकत्रित हुए थे, जो घायल हुआ था उसका नाम ‘जगत नारायण लाल’ था। इस बीच कुछ लोग घर में आकर यह कह दिए कि “जगत नारायण मर गया,” इस बात को बुआ बर्दाश्त नहीं कर सकी और तत्काल ह्रदय गति रुकने के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। शाम में जब फूफा जी घर आये तब सभी कहने लगे – भूत आया – भूत आया – यह घटना हमारे परिवार को हिलाकर रख दिया था।”

जेपी और देसाई – कदमकुआं में

राजीव आगे कहते हैं: “यही कारण था कि जब जय प्रकाश नारायण की क्रांति सन 1942 की क्रांति के कोई 32 साल बाद एक बार फिर पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान से लेकर पटना की सड़कों पर दिखने लगा था; जब भी बाहर निकलता था, घर के सभी लोग कहते थे “किसी भी हालत में गिरफ्तार नहीं होना है”, सभी यह सोचते थे कि गिरफ्तार होने पर पुलिस कहीं मार न दे। घर के बड़े-बुजुर्ग, खासकर महिलाओं में यह बात घर कर गयी थी कि सं 1942 में भी भारत के लोग, बिहार के लोग, पटना के लोग पुलिस में थे; आज भी वही लोग हैं। कहीं आवाज बुलंग करने पर गिरफ्तार कर मार नहीं दे।”

राजीव का कैमरा पकड़ना और फिर कैमरे के क्लिक-क्लिक से इतिहास बनाना भी एक इत्तिफाक ही था। राजीव जी कहते हैं: ” सन सत्तर की बात है। मेरे घर में चोरी हुई। चोर घर से एक-एक सामान को उठाकर ले गया। तत्कालीन बक्से में कपडा-लत्ता, पैसा-कौड़ी, गहने सभी ले गया। उन्ही बक्सा में बाबूजी का एक कैमरा था। चूँकि बाबूजी बिहार सरकार की नौकरी में थे और उस समय बिहार का पर्यटन विभाग को बढ़ावा देने के लिए भरपूर प्रयास किता जा रहा था; इसलिए बाबूजी जहाँ कहीं भी जाते थे, उस कैमरे से तस्वीर खींचकर सरकारी कार्यों में उपयोग करते थे। चोर ने सभी सामान छांट – छाँट कर ले लिया। जो उसके जरुरत के नहीं थे, उसे सामने एक सूखे कुएं में फेक सिया। बाबूजी का बी-2 आकार का कैमरा भी वहीँ फेका मिला। बाद में यह कैमरा ही मेरे जीवन का निर्माता बना। उस कैमरे में आठ फिल्म (निगेटिव) लगता था और परिणाम बहुत बेहतर होता था।”

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राजीव कहते हैं: “जयप्रकाश नारायण की क्रांति के दौरान शिक्षा में सुधार, बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार आदि मुद्दों पर क्रांति किया गया था। लेकिन यदि सच पूछें तो जो स्थिति उन दिनों थी, आज भी बहुत बेहतर नहीं है, जहाँ तक बिहार का सवाल है। इंदिरा गांधी चाहती थी कि जेपी का आंदोलन बिहार से बाहर न जाय। इंदिरा गाँधी के विरुद्ध कचहरी का आदेश जेपी आंदोलन को एक नया आयाम दिया। इस आंदोलन के दौरान जेपी सहित कई हज़ार क्रांतिकारी और नेतागण गिरफ्तार किये गए थे। गुजरात की चमनभाई पटेल सरकार के खिलाफ छात्रों का आंदोलन जेपी आंदोलन का बुनियाद था। जेपी आंदोलन से नेताओं की ऐसी फौज निकली जो बाद में राज्यों एवं केंद्र की राजनीति में अपनी एक अलग पहचान बनाई। अरुण जेटली, रवि शंकर प्रसाद, नीतीश कुमार, राम विलास पासवान, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव जैसे अनेक नेता हैं जो जेपी आंदोलन से निकले। इस क्रांति में वामपंथी व कांग्रेस को छोड़कर समाज के सभी तबके के लोग, मसलन साहित्यकार, डॉक्टर, किसान नेता, वकील, कर्मचारी, महिलाएं, रिक्शावाला, मजदूर भी शामिल थे।”

नागार्जुन

राजीव आगे कहते हैं: “जिस दिन कई लाख चिट्ठियों को एक ट्रक पर लादकर लाखों की संख्या में लोग जय प्रकाश नारायण की अगुआई में बिहार के तत्कालीन राज्यपाल आर डी भंडारे को देने जा रहे थे, जुलूस वैसे निकला तो कदमकुआं से था, लेकिन कुछ समय के बाद यह निश्चित कर पाना कठिन हो गया था की जुलुस का  प्रारंभिक छोड़ कहा पहुंचा । कई लोग यह कह रहे थे कि अगली छोड़ जब राज्यपाल के निवास पर पहुँच गया था, कदमकुआं में उस प्रराम्भित स्थान पर हज़ारों लोग एकत्रित थे। उस समय पटना की सड़कों पर मैं अपने 120/बी-2 कैमरा से क्लिक-क्लिक तो कर ही रहा था, आर्यावर्त – इण्डियन नेशन के लिए फोटो का काम करने वाला कृष्ण मुरारी किशन भी दिखाई देता था। मुरारीजी उम्र में हमसे छोटे थे, लेकिन कैमरे पर उनकी पकड़ बहुत बेहतर थी। हम पुलिस से बहुत डरते थे। इसलिए जैसे ही किसी पुलिस की गाड़ी देखते थे, मैं कहीं छिप जाता था। इस दौरान गर्दनीबाग से कदमकुआं की दूरी कम होती गई और हम जेपी के नजदीक आते गए। उस ज़माने में जेपी की तस्वीर के लिए मुरारी और इण्डियन नेशन के विक्रम जी को छोड़कर शायद ही कोई दिखाई देता था। बाद में आपातकाल के बाद, सन 1978 के पूर्वार्ध अशोक कर्ण और प्रभाकर दिखने लगे। उन दिनों ‘यासिका डी-120’ कैमरा होता था।  फिर बाद में ‘लोवीटल’ कैमरा हुआ। उन कैमरों को लेकर पटना की सड़कों पर क्लिक-क्लिक करते रहे, इतिहास का हिस्सा बनते गए।”

उस ज़माने में पटना में इंदिरा गांधी की यात्रा का वर्णन करते राजीव कहते हैं: गाँधी मैदान में आल इण्डिया कॉंग्रेस सेवा दल का सम्मलेन था। इंदिरा गाँधी राजीव गाँधी को लेकर आयी थी। उस ज़माने में गांधी मैदान में सुरक्षा की दृष्टि से छोटे-छोटे पॉकेट बनाये गए थे। फोटोग्राफर्स की संख्या भी दस से अधिक नहीं रही होगी। इंदिरा जी को सबों से मिलना संभव नहीं था। अतः वे एक खुले जीप पर आगे खड़ी हो गयी और सभी पॉकेट में घूम रही थीं, ताकि मिल भी लें और छायाकारों को तस्वीर भी बन जाय। हम सभी भी एक जीप पर थे। अचानक हम सबों की जीप पलट गयी। इसे देखते ही इंदिराजी आगे बढ़ी और जोर-जोर से कहने लगी, उठाओ सबको, देखों किसी को चोट तो नहीं लगी। मैं सबसे नीचे था। चूँकि मैं कुछ पहलवान जैसा था लम्बा-चौड़ा, इसलिए सबों की निगाहें मुझ पर जल्दी रूकती थी। इसी तरह, जान जेपी बीमार हुए, तब इंदिराजी उनसे मिलने आयी थी। उन दिनों राजनीतिक रिश्ते राजनेताओं की चाहे जैसे रहती हो, कटु या मधुर, लेकिन आत्मीयता में कमी नहीं होती थी। इंदिरा जी में भी वह बात थी।”  

लालू, नितीश और अन्य सभी अंडा-कढ़ी दबोच रहे हैं – समाजवाद

आज जब कंकड़बाग देखता हूँ और सन 1984 से तुलना करता हूँ तो आसमान जमीन सा फर्क दीखता है। उस  ज़माने में चिरैयांटांड पुल पार करने के बाद जब बाईपास पर आते थे, तो कुछ दूर दाहिने – बाएं दुकाने थी, पेट्रोल पम्प था, फिर अचानक दुकानों, मकानों की संख्या कम होने लगती थी। बाईपास ओर रेलवे लाइन बराबर दीखता था। उस ज़माने में कंकड़बाग में एच आई जी और एम आई जी नहीं बना था। एक बहुत बड़ा खाली मैदान हुआ करता था। राष्ट्रीय जनता पार्टी का सम्मलेन हुआ था। उस सम्मलेन में देश के शायद ही  कोई ऐसे बड़े नेता रहे होंगे जो अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराये थे।चंद्रशेखर, चौधरी देवी लाल, राजनारायण, सुरेंद्र मोहन, राम कृष्ण हेडगे, शहाबुद्दीन, राम बिलास पासवान, कपिल देव सिंह, सत्येंद्र नारायण सिंह, जॉर्ज फर्नांडिस, मोहन धारिया, मधु दंडवते, प्रमिला दंडवते, सुब्रम्हण्यम स्वामी, जाबिर हुसैन, सुबोध कांत सहाय, सुषमा स्वराज इत्यादि सभी आये थे। सत्तारूढ़ को छोड़कर। चंद्रशेखर के नेतृत्व में 8 मार्च से 11 मार्च, 1984 तक ऐतिहासिक सम्मलेन हुआ था। सम्मलेन सुवह से शाम तक तीन सत्र में हुआ करता था । खाना, नास्ता चाहे बड़े हो या छोटे, सभी कार्यकर्त्ता पंडाल में ही किया करते थे।

आज राजीव जी के परिवार में उनका एक बेटा रोहित है जो वस्त्र निर्माण की दुनिया में है। उसकी पत्नी सौम्या एक फैशन डिजाइनर है।​ बेटी सरस्वती है।​राजीव कहते हैं : समय बहुत बदल गया लेकिन आज भी डाक बंगला का चौराहा का नाम आते ही मन कुछ क्लिक-क्लिक करने लगता है। 

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