कोइलवर / पटना / दिल्ली और मुंबई : अस्सी के दशक का प्रारंभिक वर्ष था। रिचर्ड एटनबरो द्वारा निर्देशित मोहनदास करमचन्द गांधी पर उस ज़माने तक बनी किसी भी फिल्म से बेहतरीन फिल्म बन रही थी। बेन किंग्सले महात्मा की भूमिका निभा रहे थे। इस फिल्म में “बा” की भूमिका रोहिणी हटंगड़ी निभाई थी। साथ ही, बिहार की ही नूर फातिमा की एक छोटी सी भूमिका थी। यह फिल्म मूलतः गाँधी के वास्तविक जीवन का एक चित्रण था।
उस दिन कोईलवर पुल के नीचे, आसपास असंख्य लोग, ग्रामीण, फिल्म के कलाकार, कैमरा, ट्रॉली के साथ उपस्थित थे। ऐसा लग रहा था कि स्वतंत्र भारत ,में पहली बार कोइलवर पुल के नीचे कोई अंतर्राष्ट्रीय स्तर का मजमा लगा हो। सबों को देखने से ऐसा लग रहा था कि आज तक किसी ने ऐसी भीड़, जन-सैलाव देखा नहीं है। क्या छोटे, क्या बड़े, क्या बुजुर्ग, क्या महिला, क्या पुरुष सभी कोइलवर पुल के पास पहुँच रहे थे। छोटी-छोटी बच्चियां अपने-अपने चेहरों को साफ़-सुथरा कर ली थी। दस-बीस बच्चियां जब झुण्ड में चल रही थी तो उनके माथे पर बाल में लगा रंग-बिरंगा फीता एक उत्सव का सूचक बन रहा था। एक ऐतिहासिक उपस्थिति दर्ज हो रही थी वहां। उसी भीड़ में कोइलवर का एक छोटा सा बच्चा भी था, नाम “नीरज” था।

कोइलवर पुल सोन नदी के ऊपर बनी हैं। सोन नदी को सोनभद्र शिला भी कहते हैं। यह नदी मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले के अमरकंटक के पास से उत्पन्न होती है और पटना में गंगा नदी में अपना अस्तित्व समाप्त कर गंगा में विलीन हो जाती है। कोइलवर का यह पुल आरा को पटना से जोड़ती है। मुद्दत से इसे जीवन-रेखा के रूप में अलंकृत किया गया है। कुछ दिन पूर्व, आधुनिक वैज्ञानिक तरीके से एक दूसरा पुल का निर्माण भी हुआ है। लेकिन इस लोहे वाली पुल का क्या कहना !! यह पुल 5683 टन लोहा से बना है। इस पुल की लम्बाई कोई 1440 मीटर है। कहते हैं कोई एक बार देख ले या उसपर से गुजर जाये, तो जीवन पर्यन्त उन अंग्रेज कारीगरों का लोहा मान लेंगे। आज कोई 159 साल होने जा रहा है इस पुल का।
अपने 28 पिलरों के सहारे धरती माँ के साथ जुड़ने वाला यह नायाब और एतिहासिक पूल रोज लाखों लोगों को मंजिल तक पहुचाती है | ऊपर रेलगाड़ियाँ और नीचे बस, मोटर और बैलगाड़ियाँ आदि चलती हैं। लोहे के गाटर से बने इस दोहरे एवं दो मंजिला पुल की निर्माण तकनीक व सुन्दरता लोगों को आज भी काफी आकर्षित करती है। 1862 ई. में यह पुल तैयार हो गया था। इस पुल का नाम बिहार के जाने माने स्वतंत्रता सेनानी प्रोफेसर अब्दुल बारी के नाम पर अब्दुलबारी पुल भी है।
नीरज का घर कोइलवर पुल के बहुत समीप था। वे एक छोटे से गाँव में पले-बड़े हुए थे। उन्हें कोइलवर पुल पर चलने वाली छुक-छुक ट्रेन, खासकर जब वह पुल के बीचोबीच पहुंचती थी, उस दृश्य को बेहद पसंद आता था। नीचे वाले खांचे से बैलगाड़ी, तांगा गाड़ी, साईकिल यात्री चलते थे। एक गजब सा ध्वनि होता था। एक गजब सा आकर्षण होता था। सूर्यास्त के समय जब भगवान् सूर्य अस्ताचल की ओर उन्मुख होते थे, तब सोन नदी के पानी में उस पुल की परछाई, अथवा स्थिर पानी में पुल के नीचे पानी में बनने वाला दृश्य नीरज को अपनी ओर आकर्षित करता था।

नीरज के गाँव का प्राकृतिक दृश्य, सोन नदी का पानी, बाढ़ के बाद पानी के सतह में कमी के बाद बालू का खनन, नदी के अंदर सैकड़ों ट्रकों का इकठ्ठा होना, सैकड़ों-हज़ारों गरीब मजदूरों को बालू खनन के दौरान पसीना से लतपत दृश्य, सभी नीरज को अपनी ओर चुम्बक की तरह आकर्षित कर रहा था। उन दिनों पटना के ग्रामीण इलाकों में न शिक्षा की पर्याप्त सुविधा थी और न ही रोजगार की। युवक-युवतियों का पलायन शहर की ओर होना प्रारम्भ हो गया था। ग्रामीण इलाके में रहने वाले लोग अपने बच्चों को शहरी बच्चो के बराबर शिक्षा देना चाहते थे। जो सवल थे, जिन्हे आर्थिक तंगी नहीं थी, जो निर्वल थे, उनकी सोच इतनी मजबूत थी की वे अपने बच्चों का सपना पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। समय बीत रहा था। सूर्योदय-सूर्यास्त नित्य हो रहा था।
“गांधी” फिल्म की शूटिंग के दौरान वहां उपस्थित जनसैलाब को देखकर, कैमरा को देखकर, फिल्म बनाने वाले लोगों को देखकर, कलाकारों को देखकर बालक नीरज के मन में भी “कुछ करने – कुछ कर गुजरने” की बात घर कर गई। नीरज अपने जीवन में एक सफल फोटोग्राफर बनने को ठान लिया। वैसे नीरज एक लेखक बनना छह रहे थे। कहते हैं जब हम अच्छी बातें सोचते हैं, चाहे खुद के लिए हो, परिवार के लिए हो, समाज के लिए हो या राष्ट्र के लिए हो; चतुर्दिक “सकारात्मक परिस्थितियां” उत्पन्न होने लगती हैं। नीरज के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।

उन दिनों कोइलवर से काफी लोग नेपाल जाया करते थे। नेपाल से विभिन्न प्रकार के सामान – जैसे कपडा, रेडियो, जीन्स, घड़ी, जूट, स्कूल बैग, या अन्य प्रकार की दैनिक उपयोग की वस्तुएं लाते थे और स्थानीय लोगों को उपलब्ध कराते थे । नीरज के बड़े भाई भी इस पेशा में थे और नीरज का जन्मदिन भी समीप ही था। भाई ने नीरज से उसके पसंद का सामान पूछा – कुछ पल रूककर, लम्बी सांस लेकर नीरज कहते हैं: “एक कैमरा लेते आना, मुझे फोटोग्राफी सीखना है, मुझे बहुत बड़ा फोटोग्राफर बनना है, देश-विदेश घूमना है। नाम कमाना है। शोहरत कामना है। अपने माता-पिता, भाई-बहन, समाज, गाँव का नाम रोशन करना है।”
एक अवयस्क बालक के मुख से इतनी बड़ी बात सुनकर भाई का ह्रदय बिह्वलित हो गया। अन्तः मन से अश्रुपूरित हो गया वह भाई और प्रतिज्ञा कर लिए की इस अवयस्क बालक को विश्व फोटोग्राफी में वयस्क होने के लिए सम्पूर्ण सुख-सुविधाएँ उपलब्ध कराऊंगा। नेपाल यात्रा के बाद नीरज के पास “50mm f/1.2 लेंस के साथ पेन्टेक्स कैमरा” हस्तगत हुआ और फोटोग्राफी का शिलान्यास हो गया।
कुछ दिन बाद नीरज उसी लोहे के ऐतिहासिक कोइलवर पुल से पटना के लिए यात्रा की शुरुआत किये। उस दिन उन्हें शायद यह नहीं मालूम था कि गांधी फिल्म की वह भीड़, सोन नदी के स्थिर पानी में कोइलवर पुल की परछाई, बालू-खनन और ढ़ोते पसीने से लत-पत मजदूरों का वह दृश्य, उसे कोइलवर पुल के रास्ते जीवन-संघर्ष के लिए सज्ज करेगा और कोइलवर से पटना, मुंबई, नागपुर के रास्ते अफगानिस्तान, म्यांमार, सिंगापूर, पाकिस्तान आदि देशों में ले जायेगा। बेहतरीन से बेहतरीन तस्वीरों को अपने बहुमूल्य कैमरे से उतारकर अख़बारों में, पत्रिकाओं में प्रकाशित करने का अवसर देना। शहर ही नहीं, देश ही नहीं, विश्व के बेहतरीन फोटोग्राफर्स के साथ अपने कार्यों के बल पर खड़ा होने का अवसर देगा। आज कोइलवर का वह नीरज, भारत के फोटोग्राफी की दुनिया में “नीरज प्रियदर्शी” के नाम से जाने जाते हैं।

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते हुए नीरज प्रियदर्शी कहते हैं: प्रत्येक मनुष्य के जीवन में, चाहे बाल्यकाल हो अथवा वयस्क काल, जीवन निर्माण के अवसर अवश्य आते हैं। उस समय परिस्थितियां बदलने लगती है। मनुष्य का सोच भी बदलता है। वैसी स्थिति में जब परिस्थितियां और सोच एक सिरे में पंक्तिबद्ध हो जाते हैं, तब जीवन का अर्थ समझ में आता है और हम उस पथ पर निकल जाते हैं, अपने जीवन का लक्ष्य पूरा करने। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। कोइलवर का प्राकृतिक दृश्य, घर-परिवार-गाँव-समाज के लोगों का हमारे ऊपर विश्वास, गांधी फिल्म का वह शूटिंग, सभी समग्र रूप में हमारे जीवन को एक दिशा देने हेतु ही आये थे। उस दिन मैं अपने भाई से कैमरा माँगा। वह चाहते तो मुझे मार-पीट सकते थे। लेकिन ईश्वर देख रहे थे। समय मेरे जीवन की रेखाएं खींच रहा था। समय बदल रहा था और मेरे हाथ कैमरा उपहार मिला।”
नीरज आगे कहते हैं: “मैं सबसे पहले पटना आया। मैं पाटलिपुत्र हाई स्कूल से +2 किया। इस दौरान मुझे पटना की सड़कों पर दो हम-उम्र के फोटोग्राफर दिखे। वे भी सीख ही रहे थे। उसमें एक का व्यवसाय भी थे । उनके पिता साईकिल की दूकान चलाते थे और दूसरे पढाई के साथ-साथ फोटोग्राफी भी सीख रहे थे – एक का नाम मधु अग्रवाल था और दूसरे गंगा नाथ झा। झाजी को सभी टुनटुन भी कहते थे, उनका घर का नाम था । मैं भी उस समूह से जुड़ गया और दो से तीन हो गया।
उसी समय दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में 150 वां इण्डिया इंटरनेशनल फोटो कॉम्पिटिशन का आयोजन हुआ था। हम तीनों दिल्ली आने को ठान लिए। मधु और टुनटुन को पटना के तत्कालीन बेहतरीन फोटोग्राफर विक्रम कुमार का आशीष था। विक्रम जी उन दोनों को फोटोग्राफी की तकनीक तो सिखाते ही थे, साथ ही, डार्क-रूम के बारे में बताते भी थे, प्रशिक्षण भी देते थे – मुफ्त में। वे बहुत विचारवान मनुष्य थे। विक्रम जी के डार्क रूम में मुझे भी सीखने का मौका मिल गया। अगर सच पूछें तो आज हम जो भी हैं उसी बुनियाद और उन्ही के सहयोग के कारण हैं। ”
नीरज पत्रकारिता मेंलिखने की ओर आना चाहते थे। उनकी इक्षा थी कि उनकी भाषा इतनी दुसरुस्त हो कि लोग उनकी लेखनी को बड़े चाव सेपढ़ें। लेकिन उनकी भाषा उतनी अच्छी नहीं थी। वे चाहते थे की कुछ ऐसा किया जाय, कुछऐसा खोजा जाए, जिसमें आत्मीयता हो, जो उनके दिमाग, आत्मा और विवेक के साथ ताल-मेल करके एक नया जीवन कानिर्माण करे। इसी बीच पटना में एक फ़्रांसिसी कला उत्सव के दौरान मार्क रॉबर्ड के काम का प्रदर्शन किया गया था और उसमें उन्होंने “द पेंटर ऑफ द एफिल टॉवर” को देखा। नीरज के मन में चिंगारी जल उठी। यह अवसर उन्हें अपने जीवन का गंतव्य दिखा दिया।
नीरज धीरे-धीरे पढाई के साथ-साथ पटना की सड़कों पर इधर जूते-चप्पल घिस रहे थे, उधर कैमरा का लेंस भी क्लिक-क्लिक हो रहा था । उसी बीच एक हिमालयन कार रैल्ली का आयोजन हो रहा था। उस आयोजन में पटना के ही एक रंजन बसु, जो आज दिल्ली के बेहतरीन फोटोग्राफर हैं, सरिक हुए थे। शायद यह कार रैली नीरज के लिए एक नया अवसर प्रदान करने वाला था। पटना की सड़कों पर कार्य करते-करते किसी कोने से आहट आयी कि मुंबई के जे जे कालेज से फोटोग्राफी का कोर्स क्यों नहीं किया जाय। नीरज मुंबई पहुँच गए। नीरज कहते हैं : “मुंबई पहुँच तो गए, लेकिन उस वर्ष के कोर्स के लिए प्रवेश बंद हो गए थे। मेरे पास दो ही विकल्प था – एक: या तो पटना वापस हो लें या, दो: मुंबई में ही कैमरा का अभ्यास प्रारम्भ करें।

फोटोग्राफी के बारे में बहुत अधिक ना सही, जानकारी अवश्य प्राप्त कर लिए थे। साल 1991 था। तीन दिन बाद दादाभाई नैरोजी रोड के बाएं तरफ स्थित टाईम्स ऑफ़ इंडिया अख़बार के दफ्तर में दस्तक दिए । उस ज़माने में वहां प्रदीप चंद्र जी चीफ फोटोग्राफर थे। नीरज उनके सामने अपनी याचना रखे। तत्काल तो जवाब “नकारात्मक” था, लेकिन, तक्षण नीरज को कहा गया कि ‘हम’ फिल्म का समीक्षा होना है फिल्म फेयर पत्रिका में और उस समय संवाददाता के साथ जाने वाला कोई फोटोग्राफर भी नहीं था। प्रदीप चाँद जी नीरज को कहे कि यह कार्य वह करें। उस फिल्म के निदेशक थे मुकुल एस आनन्द ।
इस फिल्म में अमिताभ बच्चन के अलावे, रजनीकांत, गोविंदा, दीपा साही, शिला शिरोडकर, अनुपम खेर जैसे मंजे कलाकार थे। फिल्म का स्क्रीन प्लान रवि कपूर और मोहन कॉल का था। नीरज के द्वारा खींची गई तस्वीर फिल्फेयर में सेंटर स्प्रेड में प्रकाशित हुआ । नीरज कहते हैं: “मुझे ऐसा लगा की पटना के ऐतिहासिक फ़्रेज़र रोड से मेरी किस्मत की लकीर मुंबई के दादाभाई नैरोजी रोड पर आ गयी है। मुंबई मेरे फोटोग्राफी जीवन का महत्वपूर्ण स्थान सिद्ध हुआ। ”

नीरज आगे कहते हैं: “मेरी उम्र उस समय मात्र 18 वर्ष थी। कुछ दिन मुंबई में उसी तरह चला। तभी इंडियन एक्सप्रेस समूह में “ट्रेनी फोटोग्राफर” की आवश्यकता हुई। मैं आवेदन किया और तत्कालीन चीफ़ फोटोग्राफर मुकेश पिरपियानी से मिला, अपना कार्य दिखाया। कहते हैं न जब आप सकारात्मक सोचेंगे तो सभी दिशाओं में सकारात्मक परिस्थितियां ही उत्पन्न होगी। और मैं इंडियन एक्सप्रेस, मुंबई में 18 वर्ष जी आयु में ट्रेनी फोटोग्राफर बन गया।”
अगले वर्ष, सन 1992 में मुंबई में दंगा हो गया। नीरज को मुंबई दंगा का एसाइनमेंट्स मिला। नीरज कहते हैं: “वैसे मैं जिस राज्य से आता हूँ वहां के लिए हत्याएं कोई नई बात नहीं थी, उस ज़माने में भी। दूर-दूर गाँव में दर्जनों से अधिक बाद नरसंहार हुआ था, सैकड़ों लोगों का हँसता, मुस्कुराता शरीर क्षणभर में पार्थिव हो गया था । दूर-दूर तक मानव-अंग बिखरे होते थे। लेकिन मुंबई में हुए दंगे मेरे लिए बिलकुल नया था। ऐसा दृश्य मैंने कभी नहीं देखा था। पूरे शहर में अनिश्चितता का वातावरण था। चतुर्दिक लाशें बिछी थी। आगजनी के कारण सम्पूर्ण शहर खून और राख से सना था। इस दृश्य को देखकर यक़ीनन मैं डर गया था। मेरे चारो ओर लाशों का ढेर था। मेरे पास यातायात के कोई साधन भी नहीं थे।”
लम्बी साँसे लेते, जैसे वे उस दृश्य में प्रवेश कर गए हों, नीरज आगे कहते हैं : “मुझे यह भी कहा गया था कि सर जे जे अस्पताल के मुर्दाघर में भी लाशों को देखना है। जो परिचित लाश हैं, उन्हें लेना है। मेरे सामने दो बाते थी: एक: अपनी जंदगी को बचाएं या फिर फोटो खींचे। लेकिन ऐसा लगा की कोई कह रहा हो कि तुम मध्य मार्ग का अख्तियार करो। एक मनुष्य होने के नाते अपना जीवन पहले बचाओ, साथ ही, जो जीवित हैं, जिन्हे तुम्हारी जरुरत है, उन्हें उस विपदा की घड़ी में मदद का हाथ बढ़ाओ। कौन कहता है कि फोटो-जर्नलिस्ट का ह्रदय नहीं होता ? वह संवेदनहीन होता है। मैं अपनी आखों की अश्रुधार को भी पोछ रहा था, सड़कों पर जीवित लोगों को भी मदद कर रहा था, मुर्दाघर में लाशों को भी पहचान रहा था और मुंबई शहर के उस दृश्य को कैमरे में भी कैद कर रहा था।”
नीरज कहते हैं: “उस ज़माने में मुंबई में जब भी किसी फोटोग्राफर से मिलते थे और वह जानते थे की मैं बिहार से आया हूँ, पटना से आया हूँ तो सबसे पहले यही पूछते थे कि आप मुरारी (कृष्ण मुरारी किशन) को छोड़कर मुंबई आ गए? सोचता था मुरारीजी पटना में रहकर पूरे भारत में फोटोग्राफी की दुनिया पर अपना अधिपत्य जमाये हैं। उनके चाहने वालों की किल्लत नहीं है देश में, आज भी । एक छायाकार के लिए इससे अधिक सम्मान और क्या हो सकता है कि लोग उसे जानते हों।” ज्ञातव्य हो कि मुरारजी पर इलेस्ट्रेटेड वीकली में कोई 12-पन्ने की कहानी भी छपी थी उनकी कर्तव्यनिष्ठ पर, उनकी मेहनत पर। वे एक संस्थान थे।

इसी बीच सन 1994 में 23 नवंबर को नागपुर में गोवारी समुदाय के कोई 114 लोगों की मृत्यु हो गई और 500 से अधिक लोग घायल हो गए। यह समुदाय मध्य भारत का एक जनजाति है जो उस दिन प्रोटेस्ट कर रहे थे। कोई 50000 से भी अधिक लोग एकत्रित थे। पुलिस भीड़ को हटाना चाहती थी। स्टांपिड हो गया। उस दृश्य को भी कवर किया था। छारो तरफ खून-ही-खून था, लाशें ही लाशें थी। मुंबई के इण्डियन एक्सप्रेस अखबार में नीरज को फोटो जर्नलिज्म की बुनियाद से उत्कर्ष तक के सभी अवसर मिले और उन्होंने सभी अवसरों के प्रत्येक पाठ को पढ़ा, सीखा, ज्ञान अर्जित किये।
नीरज कहते हैं: “समय बदल रहा है। परंपरागत चीजें बदल रही हैं। आज असाइनमेंट का कोई प्रकृति नहीं हैं। कई बार, फोटोग्राफर रिबन काटने के समारोह या शांतिपूर्ण रैलियों को, कभी किसी घटनाओं को कवर करते हैं। लेकिन फिर भी, हमें इस बात की ताक होती है, हम इस फिराक में होते हैं कि उन्ही अवसरों में कुछ आश्चर्यजनक फ्रेम बन जाय। फोटोजर्नलिज्म के लिए व्यक्तित्व, दृष्टिकोण, ताकत और सबसे बढ़कर, एक दिमाग और आत्मा की आवश्यकता होती है जो एक ऐसी दुनिया में तल्लीन हो जाती है जिसे दूसरे लोग देखने में असमर्थ होते हैं।”
यदि नीरज की तस्वीरों को देखें तो यह बातें स्पष्ट दिखती है । नीरज कहते हैं: “कोई दो गणमान्य व्यक्ति जब एक दूसरे का हाथ पकड़ कर हाथ मिलाते हैं तो यह तस्वीर उतना महतपूर्ण नहीं होता, जितना जब दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाते हैं और हाथ पकड़ भी नहीं पाते, उंगलियां एक दूसरे के बिलकुल समीप होती है और हम क्लिक-क्लिक कर लेते हैं। ऐसी तस्वीर एक मजबूत प्रभाव पैदा करता है। उनकी शैली का एक उदाहरण काबुल में भारतीय दूतावास की 2008 की बमबारी के दौरान उनके द्वारा बनाई गई एक संवेदनशील तस्वीर है । उन्होंने बगल के एक शॉपिंग मॉल से पुतलों की तस्वीरें खींचीं जो भी प्रभावित हुई थीं। वे मलबे के बीच बेजान पड़े थे। करीब से निरीक्षण करने पर, आप पुतले के एक हाथ पर मानव रक्त की दो बूंदों को देखेंगे। यह समावेश ही है जो तस्वीर को वॉल्यूम देता है।”

द इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व राष्ट्रीय फोटो संपादक नीरज प्रियदर्शी ने अपने 33 साल के फोटो जर्नलिज्म में अधिकांश समय प्राकृतिक आपदाओं, आतंकी हमलों, ग्रामीण इलाकों में फंसे दूर के गांवों की कहानियों को तस्वीरों के माध्यम से देश-दुनिया को बताने में बिताया । बॉम्बे के सफाई कर्मचारियों की उनकी छवियों, 1993 के बॉम्बे दंगों और बॉलीवुड के जूनियर कलाकारों ने व्यापक प्रशंसा प्राप्त की, जबकि उनकी श्रृंखला ‘चाइल्डहुड फ्रॉम इंडिया’ जापान के यामानाशी के कियोसातो म्यूज़ियम ऑफ़ फ़ोटोग्राफ़िक आर्ट्स में स्थायी प्रदर्शन पर है। नीरज की सीख आज तक खत्म नहीं हुई है। उन्हें कभी भी फोटोग्राफी का अध्ययन करने का अवसर नहीं मिला, जो उन्हें सबसे बड़ा पछतावा रहा । इसलिए, एक तरह से, वे लगातार फोटोग्राफरों से मिलकर और उनके जीवन और काम के बारे में सीखकर इसकी भरपाई करते हैं।
प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका प्रेस फोटोग्राफी पुरस्कार और कई अन्य पुरस्कार से अलंकृत नीरज प्रियदर्शी जीवन में अनुशासन के बहुत पक्के हैं। खास कर अपने कामों को लेकर। वे लोगों से बहुत मेलजोल रखते हैं और कहते हैं यह बहुत बड़ी संपत्ति होती है एक मनुष्य के जीवन में। नीरज का मानना है कि भारत में फोटो जर्नलिज्म का बदलता चेहरा नए-नए अवसरों, संभावनाओं को जन्म दे रहा है, तरास रहा है जो किसी भी फोटो जर्नलिस्ट को उत्साहित करता है। आज अवसर का युग है। आज असीमित संभावनाओं का समय है।

नीरज कहते हैं: “हमारे पास फोटो सहकारी समितियों, ऑनलाइन ब्लॉगों, फोटो उत्सवों और आदान-प्रदान के रूप में कई प्रतिभाशाली फोटो पत्रकार हैं जो सराहनीय कार्य कर रहे हैं। इससे हमारे समुदाय के लिए बहुत सारे दरवाजे खोले हैं। हालांकि, फोटोग्राफरों को एक महत्वपूर्ण बात याद रखने की जरूरत है। यह एक सलाह है जो महान जेम्स नचटवे ने मुझे वर्षों पहले दी थी। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं हमेशा अपने विषय और खुद के साथ ईमानदार रहूं।”
बहरहाल, कोइलवर के पुल के रास्ते पटना के डाक बंगला चौराहे पर अपना जूता घिसते मुंबई नगरी में अपनी मेहनत और फोटो के सहारे अपना नाम, अपना व्यक्तित्व और हस्ताक्षर करने वाले नीरज प्रियदर्शी इण्डियन एक्सप्रेस समूह में एक ट्रेनी छायाकार से फोटोग्राफर बने, फिर सीनियर फोटोग्राफर बने, चीफ फोटोग्राफर बने, फिर रीजनल फोटो एडिटर बने। सन 2008 में मुंबई से दिल्ली आये और नेशनल फोटो एडिटर बने।

PHOTO BY NEERAJ PRIYADARSHI.
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नीरज का मानना है कि “वहां जाओ और लेखकों, चित्रकारों, कवियों, फिल्म निर्माताओं और उन लोगों से दोस्ती करो जो अपने ईमानदार भावों और संवादों से दुनिया को रंग देते हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात, हमें याद रखनी चाहिए कि फोटोग्राफी बहुत ही व्यक्तिगत है और इसके लिए फोटोग्राफी से बेतहाशा प्यार करना जरुरी ही नहीं, नितांत आवश्यक भी है।
आज नीरज पुनः अपने कर्म-भूमि मुंबई वापस आ गए हैं और अपने तीन दशक से अधिक के अनुभव को फिल्म जगत को अर्पित कर दिए हैं। अब सामाजिक, शैक्षिक, राजनीतिक, मानवीय, सत्य घटनाओं पर आधारित डाक्यूमेंट्री बनाने का संकल्प लिए हैं। उन डाक्यूमेंट्री को भारत के दूर-दूर गाँव में, उन बच्चों में जो इस क्षेत्र में आने से डरते हैं, उनमें जागरूकता लाएंगे ताकि बिहार जैसे पिछड़े भारत के ७१८ जिलाओं, 6764 ब्लॉकों, 6,49,481 गाओं के नव युवकों, नव-युवतियों के मन में विश्वास का संचार करें, उसे मजबूत बना सकें ताकि वह भी अपने-अपने गाओं से निकलकर देश की राजनीतिक राजधानी, देश की आर्थिक राजधानी, देश की सांस्कृतिक राजधानी में अपने कामों से अपना हस्ताक्षर कर सकें – एक सफल फोटो जर्नलिस्ट बन सकें।