क्या आप जानते हैं लालू यादव को अपनी ‘पहली बेटी की छठ्ठी’ में उपस्थित होने के लिए ‘पे-रोल’ पर पटना सेंट्रल जेल से कौन छुड़वाया था? फोटोवाला श्रृंखला : 18

बिहार के दो पूर्व-मुख्यमंत्री पति-पत्नी और उनका भरा-पूरा परिवार। साथ में हैं पटना से प्रकाशित तत्कालीन सर्चलाइट अखबार के संवाददाता लव कुमार मिश्रा जिनके पैरवी और आवेदन पर, जिसे उन्होंने चार-आने में टाइप कराया था, लालू यादव 15 दिन के पे-रोल पर घर आये थे अपनी पहली बेटी मीसा भारती की छठ्ठी में उपस्थित होने। आज भी उस बात को न लालू भूले हैं और ना राबड़ी। तस्वीर: दी क़्वींट के सौजन्य से

पटना / नई दिल्ली : उस दिन शनिवार था और तारीख था 22 मई, सन 1976 साल का। बिहार विधान सभा में बिहार के नेता लोग मिलजुल कर छठा विधान सभा का गठन किये थे। यह विधान सभा वैसे तो सन 1972-1977 काल के लिए था, जिसमें नियमानुसार एक मुख्यमंत्री सम्पूर्ण कार्यकाल को समाप्त कर सकते थे। परन्तु प्रदेश की राजनीति ‘लोभी’, ‘चापलूस’, ‘अवसरवादी’, ‘टांगखिंचवा’ राजनेताओं की सियासी-चाल के कारण कभी गंडक में गोता लगाती थी, तो कभी कोशी में, तो कभी गंगा में। सुबह से शाम तक कई नेताओं को गमछी में, तो कोई ब्लू-सफ़ेद-लाल धारीदार सिलाई वाला अंडरवियर में कन्धा पर गमछी लिए पटना के डाकबंगला चौराहा से सर्कुलर रोड, सरपेंटाइन रोड पर व्यायाम करते देखा जाता था। उन दिनों कुकुरमुत्तों की तरह पटना की सड़कों पर मन और आत्मा में कोयला खदानों की तरह ‘कालिख’ लिए स्वयंभू ‘पब्लिक फिगर’ नित्य पनप रहे थे। व्यायाम का कारपोरेटाइजेशन नहीं हुआ था। परिणाम यह था कि ‘गोलघर’ जैसा ‘आयताकार’ पेट आगे लटकाये होने के बाद भी, सभी शरीर से ‘जीरो’ साइज होने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। जबकि ‘पुरुषों’ के ‘जीरो-साईज’ वाला शारीरिक गठन का  बिहार की राजनीति में कोई मांग नहीं था। फिर भी गोभी, भिंडी, करैला, कद्दू, कोहँरा, सीताफल जैसी शारीरिक रचना को प्रदेश की राजनीति में ‘फिट’ करना चाहते थे। आज भी न वस्तुस्थिति में कोई परिवर्तन हुआ है और ना ही विषय स्थिति में

उन दिनों बिहार के प्रथम लेफ्टिनेंट गवर्नर सर स्टुअर्ट कॉल्विन बेली के नाम वाली चिड़ियाखाना की ओर से आने वाली सड़क बेली रोड पटना ऐतिहासिक गाँधी मैदान से आती मजहरुल हक़ पथ, जो सीधा पटना जंक्शन रेलवे स्टेशन के सामने गोलचक्कर से टकराकर वायें-दाहिने निकल जाती है, से मिलती थी। आज भी वह सम्मलेन और मित्रता बरकरार है। बेली इस मिलन स्थल से आगे न्यू डाकबंगला रोड के नाम से आगे निकलती है, जो आगे चलकर एग्जिविशन रोड में मिलती थी।  डाक बंगला अपने अस्तित्व के उत्कर्ष पर था। इस मिलन स्थल पर उन दिनों होता था ऐतिहासिक डाक बंगला। उसी डाक बंगले के अस्तित्व को लेकर आज भी यह जगह डाक बंगला चौराहा कहलाता है। लेकिन, आज की राजनीतिक पीढ़ियों को, ‘लोभी’, ‘चापलूस’ राजनीतिक लोगों को ‘डाक बंगला चौराहा’ नाम अब गले से नीचे नहीं उतरता है। कुछ और नाम से अलंकृत किये हैं, करना चाहते हैं। उन दिनों उस डाक बंगला को देखकर पटना में रहने वालों को, जो मगध की राजधानी में आलीशान भवन, गगनचुम्बी इमारतों के मालिक हो गए हैं; अपने बाप-दादाओं का अपने गाँव का फुस-घर, खपड़ैल घर को याद कर लेते थे। 

मजहरुल हक़ साहेब सिवान के रहने वाले थे। उनकी पैदाइश 1866 के दिसंबर महीना में हुआ था। पटना कालेज के छात्र थे। वकालत की शिक्षा प्राप्त कर वे 1906 में पटना आ गए। उन दिनों अभिभाजित बिहार प्रदेश को शिक्षित, विचारवान और प्रदेश के लोगों के लिए कुछ कर गुजरने वाले नौजवान की जरुरत थी, और मजहरुल हक़ साहेब उन गुणों के साथ इकलौता व्यक्ति थे। आज जैसा नहीं। आज तो प्रदेश में शिक्षा की बात ही नहीं करें। विचारवान लोगों के बारे में सोचना तो सबसे बड़ी मूर्खता होगी। खैर, वे बिहार कांग्रेस कमिटी के उपाध्यक्ष बने। फिर एक वर्ष के लिए 1910-11 में तत्कालीन इम्पीरिकल लेजिस्लेटिव काउन्सिल के सदस्य भी बने। उन्ही दिनों ‘तीसरा बिहार राज्य सम्मलेन’ का आयोजन हुआ था, जिसमें एक अलग बिहार राज्य की मांग की गई थी। हक़ साहेब का मानसिक, व्यक्तिक, राजनीतिक छवि बहुत ऊँचा था। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग की संधि करने-कराने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाए । बाद में, श्रीमती एनीबेसेन्ट के तत्वावधान में आयोजित ‘होमरूल आंदोलन’ (1916) और चम्पारण सत्याग्रह (1917) में खुलकर हिस्सा लिया। महात्मा गाँधी जब चम्पारण सत्याग्रह के लिए जब पटना आये तब वे हक़ साहेब के घर ‘सिकंदर मंजिल’ में ही आतिथ्य स्वीकार किये। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लिए, भारतीयों का, बिहार के लोगों का एक महत्वपूर्ण जनमत तैयार करने में हक़ साहेब की भूमिका ‘समग्रता’ में बहुत महत्वपूर्ण था। आजके नेता लोग, बिहार की वर्तमान पीढ़ियां हक़ साहेब के बारे में सोच भी नहीं सकते। विस्वास नहीं हो तो पटना में रहने वाले आज के युवाओं, युवतियों से पूछकर देखें की मजहरुल हक़ पथ किनके नाम पर है और वे कौन थे? यह मानसिकता का, चाहे सामाजिक हो, राजनीति को, बौद्धिक हो – पतन को दर्शाता है।  

खैर, उन दिनों मजहररुल हक़ पथ जो पटना जंक्शन स्थित ‘छोटका गोलंबर’ से टकराता था, दाहिने हाथ कोने पर एक छोटे से बृक्ष के नीचे हनुमान जी रहते थे। पटना के लोग बाग़, संपन्न लोग, पावरफुल लोग उनका ‘स्वहित’ में राजनीतिकरण भी नहीं किये थे । बिहार के गरीबी रेखा के कोई एक-दो किलोमीटर नीचे रहने वाले लोगों की जो शारीरिक दशा आज है, महान लेखक सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा सन 1923 में रचित ‘भिक्षुक’ कविता “पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को- भूख मिटाने को, मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता-दो टूक कलेजे के करता, पछताता, पथ पर आता” जैसी स्थिति थी पटना जंक्शन के हनुमान जी का। चवन्नी से अधिक मूल्य का लड्डू खरीदने की ताकत न उन दिनों ‘गरीबों’ को थी, न आज के बिहारी गरीबों को है। हनुमान जी का भी कद-काठी बहुत कमजोर था। आज तो खड़े-खड़े हनुमानजी का राजनीतिकरण हो गया। जो कल तक दीन थे, आज बिहार के दिनों का नाथ नहीं बन सके। बिहार प्रदेश का गरीब आज भी गरीब ही रहा।  लेकिन हनुमान जी का झोपडी गगनचुम्बी हो गया। उनका आकार-प्रकार भी बिहार के गोलघर जैसा पेट रखने वाले राजनेताओं जैसा हो गया। वे धनाढ्य हो गए। खैर। हम जैसा दीन-निरीहों का आज भी बजरंगबली पर अटूट विश्वास है। 

सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में बिहार प्रदेश के राजनेता हमेशा बगुले की तरह एक टांग पर खड़े होकर दिल्ली की ओर मुंह फाड़े खड़े होते थे – कब दिल्ली में बैठी  आलाकमान का मन बदल जाय और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर उन्हें चिपका दें – कुछ काल के लिए ही सही। यही कारण है कि छठा विधान सभा में केदार पांडेय (19 March 1972 – 2 July 1973), अब्दुल गफूर (2 July 1973 – 11 April 1975) और डॉ जगन्नाथ मिश्र (11 April 1975 – 30 April 1977) जैसे शातिर राजनेता, जो कभी अपने स्वार्थ को छोड़कर अपने विधान सभा क्षेत्र के मतदाताओं के नहीं हुए, प्रदेश के नहीं हुए, मुख्यमंत्री कार्यालय में कभी चिपके तो कभी उखाड़ फेके गए। आज के लोग बाग़, खासकर पत्रकार बंधू-बांधव विश्वास नहीं करेंगे कि उन दिनों प्रदेश के चिटपुँजिया टाईप कुकुरमुत्तों जैसा पनपे नेताओं के बारे में तो सोचिये ही नहीं, बिहार सरकार के मंत्रिमंडल के ‘ठेंघुने कद के मंत्री से लेकर ‘आदम कद’ के मंत्री तक सप्ताह में दो दिन, कभी कभी तो तीन दिन भी फ़्रेज़र रोड पर बांकीपुर जेल (इसे केंद्रीय कारा भी कहते थे) के सामने आर्यावर्त-इण्डियन नेशन और बुद्धमार्ग स्थित सर्चलाइट और प्रदीप अख़बारों के दफ्तरों के मुख्य द्वार पर पहले संत्री को नमस्ते करके, वहां की भूमि को माथे पर लगाकर, तब अपना चरण-पादुका आगे बढ़ाते थे। जानते हैं क्यों? उन अख़बारों में उनके बारे में, उनके मंत्रालय के बारे में कुछ प्रकाशित हो जाय। तूती बोलती थी उन अख़बारों का। उस ज़माने में पत्रकारों का ‘वजूद’ था और ‘नेता-अधिकारियों’ का भी वजूद था – दोनों एक दूसरे का सम्मान भी करते थे। पत्रकारों के कलम की ताकत को वे सभी सम्मान के साथ उत्कर्ष पर रखते थे। आज के पत्रकार, आज के नेता, आज के मंत्री सुनेंगे तो ‘डिसेंट्री’ और ‘डायरिया’ हो जायेगा। मुख्यमंत्री इसलिए नहीं लिख रहा हूँ कि बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री और पूर्व के दोनों पति-पत्नी-द्वय मुख्यमंत्री उस परिवेश, उस स्थिति के चश्मदीद गवाह है। नब्बे के दशक आते-आते लालू यादव तो बिहार की पत्रकारिता और अख़बारों का सत्यानाश ही कर दिया, यह बात वह भी जानते हैं और उन दिनों के पत्रकार भी।  

सत्तर के दशक में बिहार ही नहीं, देश में राजनीतिक वातावरण कभी गर्म तो, कभी बहुत गर्म हो रही थी। वैसे भी जब से भारत के विभिन्न प्रदेशों में बहुमंजिला-गगनचुम्बी इमारतों के निर्माण कार्य में मकान-निर्माताओं के “सम्मानार्थ”, उनके “सम्पूर्ण सहायतार्थ” प्रदेश के राज नेताओं, मंत्रियों का समर्थन मिलना प्रारम्भ होने लगा, देश-प्रदेश में सूर्य के तापमान से तपने वाली सड़कों की अपेक्षा कुछ अन्य कारणों से वातावरण तपता था, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव प्रदेश की राजनीतिकम व्यवस्था पर पड़ती थी। समयांतराल बिहार भी अछूता नहीं रहा उस तापमान से। तत्कालीन बिहार के नेताओं की जेब से लेकर दिल्ली-मुंबई-कलकत्ता में बैठे बनिए, सेठ, साहूकारों के जेबों की मोटाई बढ़ने के लिए दक्षिण बिहार में कोयला खदानों की गहराई, मानव-मूल्यों को दरकिनार करते, बढ़ती गयी । मध्य बिहार के पहाड़ी क्षेत्रों में पहाड़ के टुकड़े-टुकड़े होते गए। गंगा पार की तो बात ही नहीं – कभी गुस्सा में गंगा आई, तो कभी कोशी – अपनी-अपनी घाराएँ भी बदलती गयी। राजनीतिक भड़ुए, बिचौलिए, राजनेता इसे प्राकृतिक ‘श्राप’ बताते थे भोले-भाले मतदाताओं को और मतदाताओं को तो आज भी सोचने की आदत नहीं है, उन दिनों तो सभी “जेपी” के प्रवाह में बह रहे थे। आखिर सबों को किसी न किसी तरह से “नेता” बनना था, विधायक बनना था, सांसद बनना था – जीते जी और मरने के बाद भी प्रदेश के कोषागार को दीमक की तरह चाटने के लिए। 

ये भी पढ़े   सोन नदी में कोइलवर पुल की परछाई और गांधी फिल्म का वह जनसैलाब, 'नीरज' को नीरज प्रियदर्शी बना दिया (बिहार का फोटावाला: श्रंखला: 3)

अगर ऐसा नहीं होता तो विगत दो दशकों में, यानी सं 2000-01 वित्तीय वर्ष से 2020-21 वित्तीय वर्ष तक भारत सरकार के खजाने से कुल 8,771,486,000/- रुपये की निकासी हुई है। यह रुपये, जो आने वाले दिनों में दो-गुना, तीन-गुना, चार-गुना और अधिक होने वाली है। यह रकम वर्तमान में लोकसभा / राज्यसभा के क्रमशः 1981 एवं 741 भूतपूर्व सदस्यों के पेंशन पर व्यय होता है। सन 2000 के पूर्व के आंकड़े की तो बात ही नहीं करें। अगर उन आंकड़ों को भी जोड़ दें तो शायद एक अलग राज्य का बजट हो जायेगा। अब मतदाताओं को कौन समझाये की “भैय्ये” सोच कर मतदान किया करो। चौथी पास, पांचवी पास, अनपढ़, ज़ाहिल लोगों को नेता बनाओगे तो कल माथे पर बैठकर लघु और दीर्घ दोनों शंकाओं से वे तो मुक्त हो जायेगे, आपका क्या होगा? अब तो “भंगी-मुक्ति आंदोलन” कर लोगबाग तो पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण जैसे ‘नागरिक सम्मान से” अलंकृत तो हो जाते हैं, लेकिन “भंगी” अपने ही शौचालय को साफ़ नहीं कर पाता। उसे अवसर नहीं मिल पाटा। अगर ऐसा नहीं होता तो आज तक प्रदेश के 991 ‘पूर्व विधायकों और उनकी आश्रित पत्नियों के खाते में “क्रेडिट” होती है। यह क्रिया-प्रक्रिया का कोई अंत नहीं है, क्योंकि विधायकों की संख्या क्रमशः बढ़ेंगे। स्वाभाविक है राशि भी बढ़ेगी ही। वैसी स्थिति में प्रदेश के 38 जिलों में, 101 अनुमंडलों में, 534 पंचायत समितियों और 8387 पंचायतों में रहने वाले लोग यह कैसे विश्वास करेंगे कि उनके घरों में भी विकास के दीपक जलेंगे? संभव है ये सभी विधायक महोदय मन-ही-मन सोचते भी होंगे, अपने से पूछते भी होंगे की “कैसी सरकार है? कैसी व्यवस्था है? कैसे लोग बाग है? कैसी नियम-कानून है? कभी कोई आवाज भी नहीं उठाता कि सरकारी कोष से इतनी बड़ी रकम क्यों खर्च होती है?

खैर, प्रदेश का विकास हो – न उन दिनों मतदाता ही सचेत थे और नेताओं की तो बात ही नहीं करें। किसी को किसी भी बात की चिंता नहीं थी की आने वाले समय में प्रदेश का क्या हाल होगा ? आने वाली पीढ़ियां कैसे पड़ेगी? कैसे बढ़ेगी – या फिर आने वाले समय में आने वाले नेता “गरीबी मिटाओ” नारा को “पढ़ेगा इण्डिया तो बढ़ेगा इण्डिया” नारा से बदल देंगे। वे कभी सोचेंगे भी नहीं कि जब “गरीबी” नहीं हटी तो इण्डिया क्या ख़ाक पढ़ेगी और इण्डिया क्या खाक बढ़ेगी?” क्योंकि तब तक पढ़ने-बढ़ने-विकसित होने के सभी अवसरों पर, चाहे आर्थिक हो, सामाजिक हो, धार्मिक हो, राजनितिक हो – देश के कुल सात राष्ट्रीय पार्टियों, 52 राज्य-स्तरीय पार्टियों और 2638 कुकुरमुत्तों जैसी पनपी ‘अनरिकॉग्नाइज्ड’ पार्टियों के नेताओं का कब्ज़ा जो जायेगा, उसका राजनीतिकरण हो जायेगा और बेचारी जनता और मतदाता का हश्र तो पूछिए ही नहीं। 

उस दिन शनिवार प्रदेश के एक उभरते नेता के लिए “उपहार” लेकर आया था। दिन था सन 1976 का शनिवार, 22 मई। बिहार के उस उभरते नेता की पत्नी के सबसे प्यारे भाई अपने एक मित्र के साथ बिहार के उस ज़माने के एक सबसे कम उम्र के पत्रकार के घर पहुंचे। पत्रकार बंधु पटना के गर्दनीबाग इलाके के सड़क संख्या 30 में एक सरकारी आवास में रहते थे। उन दिनों प्रदेश के सरकारी विभागों में कार्य करने वाले सभी कर्मचारी हमेशा ईश्वर से प्रार्थना करते रहते थे कि उनके बाल-बच्चे, चाहे पुत्र हो या पुत्री, प्रदेश के पत्रकारिता में प्रवेश नहीं करे। वे अपने-अपने जीवन के अनुभव के आधार पर जानते थे कि आने वाले समय में प्रदेश ही नहीं, देश में पत्रकारिता का भविष्य गर्त में चला जायेगा। पत्रकार नाम सुनते ही समाज, टोला-मोहल्ला के लोग उन्हें “शक” की निगाह से देखेगा। समाज को इस बात का विश्वास रहेगा कि उस व्यक्ति का कोई “साख” नहीं है। जिस स्थान में वह कार्य करता है उस संस्थान का मालिक भी “बनिया” होगा, और बनिया का “निवेश और लाभ” के अलावे कोई रिश्ता नहीं होता। कोई पचास वर्ष पूर्व की वह सोच आज पटना ही नहीं, दिल्ली-कलकत्ता-मुंबई की सड़कों पर अखबार और टीवी चलाने वाले संस्थान के मालिक खुलेआम स्वीकार करते हैं। लेकिन गर्दनीबाग सड़क संख्या 30 के उस सरकारी क़्वार्टर में रहने वाले कोई 40-किलो शारीरिक और 400 क्विंटल मानसिक वजन रखने वाला वह पत्रकार और उसके पिता – परिवार के लोग अपने विश्वास पर अडिग थे कि उनका बेटा आज ही नहीं, आने वाले समय में भारतीय पत्रकारिता में अपना हस्ताक्षर करेगा, भले अर्थ उस दिन भी नहीं हो; परन्तु मानसिक संपत्ति और संस्कार अपने उत्कर्ष पर होगा। उस पत्रकार का नाम है – लव कुमार मिश्र @ लव बाबू । बस नाम ही काफी है। 

लव बाबू का जन्म ननिहाल (हज़ारीबाग) में हुआ। उनके दादा सिमडेगा कालेज में संस्कृत के आध्यापक थे। प्रारंभिक शिक्षा भी हज़ारीबाग से ही शुरू हुई, परन्तु माध्यमिक शिक्षा सं 1970 में पटना के दयानन्द विद्यालय से किये और प्री-यूनिवर्सिटी पटना कालेज से। साल था 1973 और वे 155 रुपये 40 पैसे की तनखाह पर बुद्धमार्ग से प्रकाशित सर्चलाइट अखबार में शिक्षा संवाददाता बन गए। उन दिनों सर्चलाइट अकबर में सप्ताह में एक पैन का “यूथ फोरम” निकलता था और लव बाबू उस एक पन्ने को लिख-लिखकर भर देते थे। उन दिनों आर्यावर्त में महेश शर्मा जी लिखते थे विश्वविद्यालय के समाचार और अंग्रेजी इण्डियन नेशन में वंसत मिश्रा।  बसंत मिश्रा दिसंबर 1972 से लिखना प्रारम्भ किये। वे पटना साइंस कालेज के भूगर्भ शास्त्र विभाग में प्राध्यापक भी बने। बंसन्त जी के पिता श्री राधा कांत मिश्रा (अब दिवंगत) इण्डियन नेशन अखबार में उप-संपादक भी थे। बसंत मिश्रा से पहले इण्डियन नेशन अखबार में शिक्षा से सम्बंधित ख़बरें फ़ैज़ान अहमद लिखा करते थे। फैज़ान साहेब जब यूएनआई में आ गए, फिर बंसन्त मिश्रा का जलबा दिखने लगा। उन दिनों बंसत मिश्रा – महेश शर्मा और लव कुमार मिश्रा का गजब का त्रिमूर्ति था। वजह भी था – तीनों विश्वविद्यालय संवाददाता ही थे। बाद में, सं 1980 में लव बाबू टाइम्स ऑफ़ इंडिया में आ गए जहाँ वे कुल 36-वर्ष अपनी पत्रकारिता की सेवा अर्पित किये। पांच वर्ष पूर्व, सं 2016 में वे अवकाश प्राप्त किये। 

लव कुमार मिश्रा ज़िन्दगी के सफर में आधी उम्र पत्रकारिता में रहते भारत भ्रमण किये, दर्जनों प्रदेशों के मुख्यालयों में पदस्थापित हुए, दर्जनों मुख्यमंत्रियों को उठते, बैठते, गिरते, जीते-मरते देखे, अपनी जिंदगी का अधिकांश समय सड़क यात्रा, ट्रेन यात्रा, हवाई यात्रा, समुद्र यात्रा में बिताये। शब्दों का संकलन किये, संकलित शब्दों का विन्यास किये, शब्दों से घरौंदा से लेकर घर बनाये- कहानियां लिखे, कहानियां छपी। लवजी बिहार-पत्रकारिता का ‘लव गुरु’ हैं – शब्दों का, लेखनी का – लिखने से, शब्दों से उन्हें बहुत प्यार है। शब्दों में ‘दो वॉवेल’ लगाकर शब्दों को और जिसके बारे में लिख रहे हैं, कहाँ ‘उठाकर पटक’ देंगे, आज के पत्रकार नहीं समझ पाएंगे। वजह भी है – उस युग में गुगुल महाशय जन्म नहीं लिए थे और पत्रकारों को ‘खबर’ ढूंढने के लिए, समझने के लिए ‘चलना’ पड़ता था। आज तो सैकड़े नब्बे फीसदी पत्रकारों को ‘चीनी की बीमारी’ से ग्रसित हैं। ‘डाइबिटीज’ इसलिए नहीं है कि वे ‘मीठी बातें लिखकर समाज को दिशा देते हैं।  गलतफहमी में नहीं रहिएगा – वे अब शरीर से पैदल नहीं चलते, मन से पैदल हो गए हैं, इसलिए दो पहिये, चार पहिये पर चलते हैं। कभी कभी तो उन्हें ‘उठाकर’ ले जाते हैं अंतरी – मंतरी -संतरी । 

आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम से बात करते लव कुमार मिश्रा कहते हैं: “पत्रकारिता के जीवन में विगत 50 वर्षों में अरब महासागर, बंगाल की खाड़ी के किनारे, मरुभूमि, जंगली क्षेत्र, बर्फीली और पहाड़ों, मसलन कश्मीर से कन्याकुमारी तक, कच्छ से कामाख्या तक नौकरी की। अब गंगा तट पर ही रहना है।  पटना में ही रहना है।  जहाँ पढ़ा – लिखा, जहाँ पत्रकारिता जीवन की शुरुआत किया, यहीं रहना चाहता हूँ। जीवन संघर्ष में ही बीता। अब खुद को भी आराम देना चाहता हूँ और शब्दों को भी। समाज में उत्थान की आशा करना हम जैसे पत्रकारों के लिए व्यर्थ है। समाज जिस गति से, देश की पत्रकारिता जिस गति से अधोमुख है, जिस गति से मानव-मूल्यों का पतन हो गया है, हो रहा है, हम – आप इसे रोक नहीं सकते। आज न तो ‘अनुशासित’, शब्दों के धनी, ऊँची सोच रखने वाले, समाज के बारे में सकारात्मक सोच रखने वाले पत्रकार हैं, और ना ही नेता तथा अधिकारी। आखिर सभी तो इसी समाज के पैदाइश हैं।”

हंसमुख स्वभाव के ‘लव बाबू’ कहते हैं: ‘अक्सरहां लोग बाग़ पूछते हैं कि आप पांच दशक के करीब प्रदेश-देश की पत्रकारिता में गुजारे, क्या हासिल किये? ऐसे सवालों को सुनकर मन खिन्न नहीं होता, अलबत्ता, वर्तमान समाज और उस समाज में रहने वाले पढ़े-लिखे लोग, विद्वान-विदुषियों की सोच पर हंसी भी आती है। मन में तूफ़ान उठने लगता है। सोचने लगता हूँ की लोगों की सोच कितना दरिद्र हो गया है। इतनी दरिद्रता तो वास्तविक रूप से भी, आर्थिक रूप से भी प्रदेश में नहीं हैं। मुझे जो मिला, वे सभी आज ही नहीं, आने वाली पांच पीढ़ियां भी नहीं समझ पायेगी। हम कोई कार्य करते हैं तो यह जरुरी नहीं है कि मुख्य अर्थलाभ हो, वह हमारी उपलब्धि होगी, वही हमारी तरक्की का मापदंड होगा। यह उनकी सोच है। और ऐसी सोच मनुष्यों की मानसिक दरिद्रता को दर्शाता है। मुझे क्या उपलब्ध हुआ यह उस समय मालूम होता है जब प्रदेश और देश का मुखिया, जिला का मुखिया, बड़े-बड़े व्यावसायिक घरानों का मुखिया के सामने उसके लोग जब अख़बार का कतरन एक फाइल में पेश करते थे, उस कतरन में 200-शब्द की कहानी मेरी होती थी, पूरे देश में, पूरे प्रदेश में मंत्री से लेकर अधिकारी तक अपने-अपने व्यावसायिक अस्तित्व को, अपनी कुर्सियों को बचाने दंड पेलने लगते थे – तो लगता था आज की कहानी का कुछ असर हुआ। समाज में कुछ बदलाव जरूर आएगा। जिसके बारे में कहानी लिखा हूँ, उसके जीवन में आमूल परिवर्तन जरूर आएगा। और आता था, आया है। क्या आज के पत्रकार ऐसी बात सोचते हैं। आज तो हिंदी लिखने वाले पांच शब्दों के बाद ‘अंग्रेजी’ शब्दों को ‘रोमन’ में लिखने लगते हैं। पूछने पर कहते हैं – बोलचाल की भाषा हो गयी है। अब उन्हें कौन बताये. ‘बोलचाल की भाषा नहीं हुई है, चुकी आधुनिक पत्रकारों के पास, चाहे किसी भी भाषा में लिखते हैं, शब्दों की किल्लत है। जब शब्द नहीं होगा, तो विन्यास क्या करेंगे ?

ये भी पढ़े   फैज़ान अहमद कहते हैं: "मुझे टेलीग्राफ अखबार में लिखने की जितनी स्वाधीनता मिली, कहीं और नहीं" (फोटोवाला - श्रृंखला- 14)
​फोटो: दी इण्डियन एक्सप्रेस के सौजन्य से ​

लव कुमार मिश्र कहते हैं: “हम गर्दनीबाग़ के सड़क संख्या 30 में रहते थे। एक दिन सुबह-सुबह लालू यादव का साला साधु यादव साईकिल से घर के दरवाज पर दस्तक दिया। पैडिल से पैर नीचे करते कहता हैं: “लव भैय्या….. दीदी जल्दी से बुलाई है …रो रही है।” मोहल्ले के नागरिक थे साधु यादव की बहन और उनका दूल्हा। मैं समय की गंभीरता को देखते, साधु यादव के चेहरे को पढ़ते, तुरंन्त निकल पड़ा । घर पहुँचने पर राबड़ी सामने बैठी थी। चेहरे में चमक तो था, परन्तु मन उदास था। आँखें लाल थी। सभी लक्षण दिख रहे थे कि वह काफी रोना-धोना हुआ है। मैं चारो तरफ देख रहा था। मामला कुछ समझ में नहीं आ रहा था। तभी भोकार पारकर, फफककर राबड़ी रोने लगी और रोते-रोते बोलने लगी – ” ई त जेल में हथिन….. बचिया के छठ्ठी उनके बिना कैसे करबई ? पहिला बच्चा हैं। मिश्र जी कुछ मदद करिये न।”  यह सुनते ही मामला समझ में आ गया। लल्लू यादव (अब लालू यादव) उन दिनों जेल में थे। कारावास के दौरान राबड़ी देवी माँ बनी। लालू के घर में बेटी का जन्म हुआ था। साधु यादव वहीँ राबड़ी के बगल में खड़ा था। मैं आस्वासन देकर उठा। उसी शाम पांच बजे डॉ जगन्नाथ मिश्रा प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे। वे नित्य शाम पांच बजे संवाददाताओं से मिलते थे। उस ज़माने में श्री धैर्या बाबू (डी. एन. झा) यूएनआई के वरिष्ठ संवाददाता थे। मैं डॉ मिश्रा से बताया। उन्होंने कहा की एक आवेदन पत्र दे दें।  मैं चार आना में टाइप कराया। उस आवेदन पत्र के कोने पर ‘कुछ अपठनीय’ लिखा गया और अगले दिन लल्लू यादव अपनी बेटी को देखने, छठ्ठी में उपस्थित होने 15 दिन के पे-रोल पर फ़्रेज़र रोड केंद्रीय कारा से घर वापस आये। एक निमंत्रण पत्र लिखा गया, छपाया गया बेटी होने की ख़ुशी में । छठ्ठी के अवसर पर सत्यनारायण भगवान का पूजा भी था। पटना विश्वविद्यालय के कुलपति देवेन्द्रनाथ शर्मा भी उपस्थित हुए। बेटी का नाम ‘मीसा’ रखा गया।” शेष तो मीसा के जीवन से, शिक्षा से, राजनीति से बिहार के लोग बाग परिचित ही हैं। 

आज, मीसा भारती एक चिकित्सक और बिहार राज्य से एक सांसद और राज्यसभा सांसद हैं। मीसा ने 1993 में टिस्को कोटा के तहत महात्मा गांधी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज, जमशेदपुर में एमबीबीएस कोर्स में दाखिला लिया और पटना से एमबीबीएस की परीक्षा में टॉप किया, जब उनकी मां राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं। मीसा भारती ने 10 दिसंबर, 1999 को कंप्यूटर इंजीनियर शैलेंद्र कुमार से शादी की और ने दंपति के तीन बच्चे हैं। 2014 में एक चिकित्सक से राजनीतिज्ञ बनी मीसा भारती ने पाटलिपुत्र की लोकसभा सीट के लिए असफल रूप से चुनाव लड़ा था और वे राजद के बागी राम कृपाल यादव से हार गई थीं, जो भाजपा में शामिल हो गए थे।

साधु यादव। ​फोटो: ​ जी न्यूज के सौजन्य से ​

भारत ही नहीं, बिहार के भी बहुत काम लोग – आधुनिक लेखकों, पत्रकारों की बात नहीं करूँगा – जानते हैं कि जिस जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गाँधी को दिल्ली की सत्ता से, प्रदेशों में कांग्रेस पार्टी को सत्ता से उखाड़ फेंकने का संकल्प लिए थे, कामयाब भी रहे, वे जयप्रकाश नारायण श्रीमती इंदिरागांधी को बेहद स्नेह करते थे। बेहद सम्मान देते थे। लव कुमार मिश्र आगे कहते हैं: “ऐतिहासिक बेलछी नरसंहार के बाद श्रीमती इंदिरा गाँधी पटना आई थी। वे बेलछी में मारे गरे लोगों के घर पहुंची। पटना ही नहीं, देश विदेश के अख़बारों में, टीवी पर, रेडियो पर यह खबर दूर-दूर तक पहुंचा। लेकिन बेलछी से लौटने के बाद तत्कालीन  राज्य सभा के सदस्य, जो बाद में संसद में कांग्रेस पार्टी का मुख्य सचेतक भी बने, श्री भीष्मनारायण सिंह के साथ, सीधा कदमकुंआ जयप्रकाश नारायण के घर पहुंची। खुलेआम बातचीत की। आज जैसा नहीं – बंद कमरे में। जयप्रकाश नारायण का श्रीमती गाँधी के साथ राजनीतिक मतभेद जो था उन दिनों, वे एक इंसान के रूप में श्रीमती गाँधी के सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिए – विजय हों आप। मतभेद अपनी जगह है, लेकिन आप एक योद्धा हैं।” इस घटना के बाद, खासकर आपातकाल के बाद, श्रीमती गाँधी फिर पटना आई। सरकार दिल्ली से प्रदेश तक बदल गई थी। डॉ जगन्नाथ मिश्र के घर पर प्रेस सम्मेलन था। हम सभी उपस्थित थे। कोई तामझाम नहीं। देश में नई सरकार बनने के साथ ही राजनीतिक व्यवस्था के साथ-साथ आर्थिक व्यवस्था भी चरमरा रही थी। पूरे देश में कानून-व्यवस्था गोता खा रही थी। तभी श्रीमती गांधी से एक सवाल पूछा कि “क्या वर्तमान परिस्थिति आपातकाल लागू करने लायक नहीं है? तक्षण श्रीमती गांधी मुस्कुराई और कहती है: “Do you think they will handle emergency?” और हंस दी। 

इसी तरह सन 1974 में जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में ऐतिहासिक रेल हड़ताल हुआ था। हड़ताल के कारण सबसे बड़ा प्रभाव कोयला और बिजली उद्योग पर पद रहा था। प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया की एक कॉपी कोई तीन पैराग्राफ की रिलीज हुई जिसमें प्रधान मंत्री तत्कालीन मुख्यमंत्री अद्बुल गफूर को एक पत्र के माध्यम से कहा था की हड़ताल से होने वाली कोयले की कठिनाइयों की निजात के लिए तत्काल प्रभावकारी कदम उठायें। ट्रक के माध्यम से कोयले की आपूर्ति किया जा। उस समय सर्चलाइट के मुख्य संवाददाता थे श्री मुक्ता किशोर जी। उन्होंने मुझसे कहा कि इस कहानी पर प्रदेश के मुख्यमंत्री की टिप्पणी लें और कहानी को लंबा करें सभी दृष्टिकोण से। मैं तत्काल ‘00079 नंबर’ पर टेलीफोन घुमा दिया और अपना परिचय देते उस छोड़ बैठे महानुभाव से उक्त विषय पर पूछा। दूसरे छोड़ पर अब्दुल गफूर खुद थे। मेरी आवाज सुनते ही वे कहते हैं: “प्रधानमंत्री ने लिखा है तो क्या मुख्यमंत्री चिठ्ठी लेकर घूमते रहे और ट्रक का बंदोबस्त करे। मुझे नहीं मालूम चिट्ठी के बारे में। अगर आयी भी होगी तो परिवहन आयुक्त के कार्यालय को प्रेषित कर दिया गया होगा। वहां से पूछें। वे झुंझला कर फोन पटक दिए।” मेरी कहानी 300 क्या 3000 शब्दों की हो गयी।

पटना में एक प्रेस कांफ्रेंस में इंदिरा गांधी ​

इसी तरह, उत्तर बिहार के कोशी नदी में एक रात भीषण घटना हुई एक नाव के पलटने से दर्जनों लोग मृत्यु को प्राप्त किये।  एक छोटी से कहानी वहां के रिपोर्टर ने लिखाया। मुक्ता बाबू फिर मेरे हाथ में वह कहानी का टुकड़ा थमाते कहते थे: “देखो, इस कहानी को, विस्तार से बात करो, लिखो।” मैं नया नया पत्रकार था। तक्षण तत्कालीन मुख्य सचिव के घर फोन की घंटी टन टना दिया।  उन दिनों मुख्यमंत्री या मुख्य सचिव किसी के घर, दफ्तर में एक छोटा सा रिपोर्टर काफी  हैसियत और औकात रखता था। इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री हो या मुख्य सचिव, जवाब भी देते थे। और वजह थी “दोनों की साख (गुडविल)”, लेकिन आज, भारतीय पत्रकारिता की, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की, भारत के मंत्रियों की, नेताओं की जो छवि है। वहज वैसी ही है है जैसी मत मांगने के लिए घर-घर जाने में, भीख मांगने में अपनी प्रतिष्ठा पर आंच नहीं देखते; लेकिन मंत्री-संत्री बनने के बाद देश के,  प्रदेश के मतदाताओं की त्रदासी को हेलीकॉप्टर से, हवाई सर्वेक्षण से आंकते हैं। यह सम्पूर्ण मानसिकता का परिचायक है – समाज के पतन का।”

एक घटना का उल्लेख करते लव कुमार मिश्र कहते हैं: “सन 1992 की बात है। मैं उड़ीसा में प्रस्थापित था। टाइम्स ऑफ़ इंडिया का संवाददाता था। एक युवक को वहां के एक अधिकारी किसी कार्य को निष्पादित करने के लिए 5000/- रुपये घूस मांग रहे थे। उस जमाने में 5000 /- रुपये की कीमत आप अंदाजा लगाएं। इस बात को लिखित रूप से उस युवक ने प्रदेश के मुख्यमंत्री को प्रेषित किया। समय बीत रहा था और उत्तर नहीं मिल रहा था। एक दिन अचानक उस युवक की मुलाकात सचिवालय में प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री बीजू पटनायक से हुई। वह उनके पास जाकर अपनी बात फिर दोहराया। बीजू पटनायक उसे डांटते हुए एक चांटा रसीद दिए। युवक आव न देखा ताव और एक करारी थप्पड़ बीजू पटनायक के गाल पर रसीद दिया । एक दम सन्नाटा। उपस्थित पुलिस उस युवक को अपने कब्जे में ले लिया। यह घटना सिर्फ मैं जानता था। मैं 350 शब्दों की एक कहानी लिखी और दिल्ली रवाना कर दिया। अगले दिन दिल्ली ही नहीं, उड़ीसा ही नहीं – पूरे देश में लड़के को बीजू ने मारा नहीं, बल्कि लड़के ने बीजू पटनायक को चांटा रसीद दिया, विख्यात नहीं, कुख्यात हो गया। उस ज़माने में दिलीप पडगौंकर संपादक थे। एक फैक्स आया जो लड़के का पता-ठिकाना चाहता था। मैं मुख्यमंत्री आवास पर फोन लगाया तो मुझे तत्काल बुलाया गया। मिलने पर मैं बीजू पटनायक से पूछा की आखिर वह युवक थप्पड़ क्यों लगाया आपको? बीजू उम्र के कारण भूलते अधिक थे। वे अपने अधिकारी से पूछे और तत्काल उस युवक को पेश करने का आदेश दिए। युवक जब वह उपस्थित हुआ तो पुलिस को कहे की किसी भी प्रकार की अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं करनी है इस युवक के विरुद्ध। गलती हमारे अधिकारी की है। तभी दिल्ली से फिर खबर आई कि उस युवक को साहू जैन ने 25,000 रुपये पुरस्कार दिए हैं सरकार को जगाने के लिए थप्पड़ का प्रयोग जायज था। वह राशि उस युवक के जीवन में आमूल परिवर्तन लाया। 

ये भी पढ़े   'पॉवर' में हैं तो लोग 'पूछेंगे', 'सॉर्ट-सर्किट' हुआ, लोग 'दूरियां' बना लेंगे, 'पत्रकारिता' भी 'लोगों के इस गुण से अछूता नहीं है' (फोटोवाला श्रंखला 16)  
एक प्रेस कांफ्रेस में मोरारजी देसाई और लव कुमार मिश्रा 

समय बदल रहा था। आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, कृषि, विज्ञान आदि के क्षेत्रों में आधारभूत प्रतिवर्तन हो, प्रदेश के लोग बाग़, गरीब-गुरबा का जीवन भी हंसमुख हो, रिक्शावाले को, जूता सिलने वाले को, कपड़ा सिलने वाले को भी भर पेट भोजन मिले, उसके बच्चे भी विद्यालय जायँ; इसके बारे में पटना के लोग, बिहार के लोग, विद्वान-विदुषी, नेता भले नहीं सोचें; लेकिन सबों के मानस-पटल पर पटना के बेली रोड से दिल्ली के राजपथ तक यह अवश्य था की देश में राजनितिक सत्ता के गलियारे में जो बैठे हैं, उन्हें उठाकर बाहर फेक दिया जाय। जो कल तक उस गलियारे का हिस्सा थे, उस दिन झंडा लेकर विरुद्ध में खड़े हो गए थे। स्वाभाविक है प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों की गद्दीदार कुर्सियां किसे नहीं अच्छी लगेगी। बिहार के तत्कालीन नेता अपने-अपने कपाल को तो साफ़ कर ही रहे थे, अपने-अपने पिछवाड़े के वस्त्र को भी उन कुर्सियों के उपयुक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। बिहार के लोगों में यह आम बात होती है, आज भी है। 

सन चौहत्तर की क्रांति कोई सात-शतक-दिवस मनाते आगे बढ़ रहा था । विद्यालय से महाविद्यालय तक, बिहार विद्यालय परीक्षा समिति से पटना, मगध, बिहार विश्वविद्यालय तक आंदोलन के बिगुल का आवाज पहुँच गया था। एक ओर छात्राएं अपने-अपने घरों में सीमित हो गयी थी, वहीँ दूसरी ओर ‘राजनीति में अपना-अपना जीवन संवारने वाले, प्रदेश तत्कालीन नेतागण अपने घरों को भरने के लिए सड़क पर उतर गए थे। कोई मूंछ-दाढ़ी कटा रहे थे तो कोई मूंछ – दाढ़ी को अपनी पहचान का मन्त्र मान रहे थे। अगर भारत के निर्वाचन आयोग के दफ्तर में तत्कालीन नेताओं द्वारा पेश किये गए आर्थिक दस्तावेजों की तुलना विगत लोक सभा और विधान सभा के दस्तावेजों से कर लें, खुद को संतुष्ट कर लें की उनकी सम्पत्तियों में कितना इजाफ़ा हुआ है, मतदाता तो वहीँ का वहीँ है । जो उस समय बिहार के वेटेनरी कालेज के चपरासी क्वाटर्स में रहते थे, आज कितने भवनों के मालिक हैं। जो उस समय गांधी मैदान स्थित भारतीय स्टेट बैंक में पैसे की निकासी के लिए पंक्तिबद्ध होते थे, आज बैंकों के अध्यक्ष घर पर पेटियां पहुंचते हैं। ऐतिहासिक गांधी मैदान की घास को पटना के ही लोग अपने अपने पैरों तले उसे दफना रहे थे। 

सन चौहत्तर की क्रांति और जय प्रकाश नारायण का नेतृत्व ऐसा फैल गया कि देखते ही देखते राजनीति का चेहरा ही पूरी तरह बदल गया। वह आंदोलन करीब एक साल चला। फिर आपातकाल का समय आया। जयप्रकाश नारायण इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए वचनबद्ध थे। भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुई इस क्रांति में बाद में बहुत सी चीजें जुड़ गई। गांधी मैदान में सभा को संबोधित करने से पहले जेपी ने दोपहर सर्वोदय संगठन के कई कार्यकर्ताओं व अन्य के साथ जुलूस में शामिल हो राजभवन की ओर प्रस्थान किया। राजभवन में तत्कालीन राज्यपाल को पत्र सौंप सभा के लिए वापस गांधी मैदान लौटने लगे तो रास्ते में जुलूस पर फायरिंग की गई। संपूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केंद्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। बिहार से उठी संपूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने कोने में फैलकर आग बनकर भड़क रही थी। 18 मार्च 1974 को हुए छात्र आंदोलन के लिए जय प्रकाश नारायण ने यह शर्त रखी थी कि छात्रों का यह आंदोलन अहिंसक होगा। लेकिन विधानमंडल घेरने निकले छात्रों को जब यह पता लगा कि सारे विधायक सुबह 6 बजे ही विधानमंडल पहुंच गए है। तब उन्होंने राज्यपाल की गाड़ी रोकने की कोशिश की थी। राज्यपाल की गाड़ी को आगे बढ़ाने के क्रम में पुलिस ने छात्रों – युवकों पर लाठियां चलाईं थी। तब छात्रों और युवकों का नेतृत्व करने वालों में पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव, सुशील कुमार मोदी, रविशंकर प्रसाद, शिवानंद तिवारी, वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे कई छात्र नेताओं को चोटें आईं थी। दोपहर होते-होते पटना शहर को सेना के हवाले कर दिया गया था। शाम चार बजे तक छात्र और पुलिस के बीच झड़प होती रही। इसी बीच अफवाह फैल गई कि पुलिस की फायरिंग में पांच की मौत हो गयी है। अफवाह फैलते ही शहर के कई इलाकों में आगजनी शुरू कर दी गई थी और फिर पूरे शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया था।

लालू प्रसाद यादव सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में लोकप्रिय है। भारतीय राजनीति में इस लोकप्रिय नेता का नजर अंदाज नहीं किया जा सकता हैं। लालू प्रसाद यादव भारतीय राजनीति में अपनी वाकपटुता एवं करिश्माई नेतृत्व के लिए प्रसिद्ध हैं।  लव कुमार मिश्रा कहते हैं: “सन 1991 में जनता दल के पूरी में आयोजित राष्ट्रीय अधिवेशन से शासकीय विमान से बिहार के मुख्यमंत्री श्री लालू प्रसाद जी भुवनेश्वर से पटना लौट रहे थे, टाइम्स ऑफ इंडिया के सहायक संपादक श्री अरविन्द नारायण दास जी भी उनके साथ आ रहे थे और बिहार पर किताब भी लिख चुके थे,केंद्र और राज्यों के संबंध पर चर्चा चल रही थी,लालू जी भूंजा खा चुके थे,प्यास लग रही थी,उन्होंने पायलट को बोला रांची एयरपोर्ट पर उतारना,पानी पीकर चलेंगे,तीन बार हवाई अड्डा के ऊपर चक्कर लगा चुका था, मुख्यमंत्री ने पूछा, क्यों नहीं लैंड कर रहे हो? जवाब मिला” केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री का प्लेन वहां है,जाने के बाद ही परमीशन मिलेगा ।  लालू जी ने अरविन्द जी को बताया, देखिए इसी को कहते है केंद्र की दादागिरी,रांची एयरपोर्ट हमारे जमीन पर है,हम यहां के मुख्यमंत्री हैं,और हम्ही को उतरने नहीं दिया जा रहा है ।”

1977 में इमरजेंसी के बाद हुए लोकसभा चुनाव मे लालू जीते और पहली बार लोकसभा पहुंचे, तब उनकी उम्र मात्र 29 साल थी। 1980 से 1989 तक वे दो बार विधानसभा के सदस्य रहे और विपक्ष के नेता पद पर भी रहे। लेकिन 1990 में उनके राजनीतिक जीवन का सबसे अहम वक्त तब आया जब वे बिहार के मुख्यमंत्री बने। अनेक आंतरिक विरोधों के बावजूद वे 1995 के अगले चुनाव में भी भारी बहुमत से विजयी रहे और अपने आपको स्थापित किया। लालू के जनाधार मे माई यानि मुस्लिम और यादव के फैक्टर का बड़ा योगदान रहा। लालू ने इससे कभी इन्कार भी नही किया, और लगातार अपने जनाधार को बढ़ाते रहे। हालांकि इसी बीच 1997 में सीबीआइ ने उनके खिलाफ चारा घोटाले मे आरोप पत्र दाखिल किया तो उन्हे मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा। लालू यादव ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता सौंपकर वे राजद के अध्यक्ष बने रहे, और अपरोक्ष रूप से सत्ता की कमान भी उनके हाथ ही रही। चारा मामले मे लालू को जेल भी जाना पड़ा, बहुत नौटंकी भी हुई और उनको कई महीने जेल मे भी रहना पड़ा, आज भी जेल में ही हैं। लेकिन बिहार मे लालू को उनकी जगह से हटा देने की क्षमता अब तक किसी ने नहीं जुटा पाई और उम्मीद है उनके जीते-जी शायद जुटा भी नहीं पायेगी। 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here