माता-पिता के प्रति श्रद्धांजलि: ‘के.एम.के.’ के पांच लाख निगेटिवों को ‘डिजिटलाइज’ कर दिए उनके पुत्र-द्वय, बहुएं (बिहार का फोटोवाला – श्रृंखला – 8 : कृष्ण मुरारी किशन)  

कृष्ण मुरारी किशन और पीछे हैं लोक नायक जय प्रकाश नारायण सहित 1974 के नेता

पटना / कलकत्ता / नई दिल्ली : उस दिन मार्च महीने का 18 तारीख था और साल 1973 था। कुछ दिन पहले से पटना जंक्शन स्टेशन के दाहिने तरफ से निकलने वाली सड़क के पीछे से कबाड़ खाना होकर जो रास्ता बुद्ध मार्ग से मिलता था, उस रास्ते के ठीक कोने पर, पाल होटल के दाहिने एक कृष्णा एजेंसी हुआ करता था। कृष्णा एजेंसी पटना, कलकत्ता और दिल्ली से प्रकाशित अख़बारों को समाचार पत्रों के दफ्तरों से पाठकों के बीच एक कड़ी का काम करता था – एक एजेंसी था। इस एजेंसी से जुड़े हम सभी अख़बारों के हॉकरों को मालूम था कि 18 मार्च को कलकत्ता से प्रकाशित हिंदुस्तान स्टैण्डर्ड समाचार पत्र के साथ “संडे” नामक पत्रिका आने वाली है। यह किसी को मालूम नहीं था कि वह पत्रिका “मुफ्त” में बांटी जाएँगी या “मूल्य” पर। उन दिनों पटना जंक्शन स्टेशन के सामने स्थित गोलंबर के बाएं हाथ पर दुकानें हुआ करती थी। दाहिने हाथ पर सम्मानित हनुमान जी का छोटा से कुटीर था, जिसके सामने एक चौड़ा सा फुटपाथ हुआ करता था। इस फुटपाथ के दाहिने कोने पर तीन दुकानें थी, जो अख़बारों के साथ-साथ पत्रिकाएं भी बेचा करती थी।
 

MR. ATAL BEHARI VAJPAYEE IS MEETING WITH GEORGE FERNANDES, PRAKASH SINGH BADAL AND OTHERS.

उन दिनों तक हनुमान जी “पवन देव” के ही पुत्र थे। अभी तक पटना के वरीय आरक्षी अधीक्षक उन्हें “गोद” नहीं लिए थे और बजरंगबली भी समाज के अन्य गरीब-गुरबा जैसे ही रहते थे। उनकी कुटिया के पीछे दाहिने / बाएं चतुर्दिक मानव-मूत्रों का बहाव 24 x 7 बना रहता था। बीच-बीच में उस क्षेत्र के कुत्ते और तांगे/बग्गी में बंधे घोड़े/घोड़ियां भी “हल्के” हो लिया करते थे। उनके लिए क्या “लघु” और क्या “दीर्घ” – सभी बराबर था। कलकत्ता / दिल्ली से आने वाला हवाई जहाज 12 बजे दिन से पहले पहुँच जाता था पटना हवाई अड्डा पर। तब तक यह हवाई पट्टी ही था, लोग बाग़ प्रेम से “पटना एरोड्रोम” कहते थे। कोई 1 बजते-बजते दिल्ली और कलकत्ता का अखबार कृष्णा एजेंसी पर, फुटपाथ पर आ जाता था। उस दिन भी आया और हिंदुस्तान स्टैण्डर्ड के साथ “संडे” पत्रिका का भी पाटलिपुत्र की धरती पर आगमन हुआ। यह पत्रिका “मुफ्त” में था और प्रत्येक रविवार को सस्नेह पाठकों को मिल जाता था। यह “मुफ्त” वाला क्रिया-कलाप कोई तीन साल चला जब आपातकाल के पहले वर्षगांठ पर, यानी 26 जून, 1976 को एक सम्पूर्ण और स्वतंत्र पत्रिका के रूप में भारत के बाज़ारों में उतरा। 

At JP’s House

अब तक भारत के पाठकों को, बिहार के पाठकों को “संडे” पत्रिका की “आदत” सी हो गई थी; इसलिए “एक रूपया” दाम पर भी पत्रिका प्राप्त करना उनके लिए दूभर नहीं था। यह अलग बात थी कि समाज के संभ्रांत लोग 1 रूपया 25 पैसे में “विल्स फ़िल्टर” का पैकेट खरीदकर “फुक-फुक” करते थे; लेकिन उस दिन हम जैसे गरीब-गुरबा के लिए एक रूपया की कीमत सोने की सिक्का से कम नहीं था। इस पत्रिका में पटना के कृष्ण मुरारी किशन की अनेकानेक तस्वीरें छपी थी। “सन्डे पत्रिका” के उस प्रारंभिक अंक को देखकर मन में एक इक्षा अवश्य हुई थी की जीवन में कभी इस पत्रिका में काम जरूर करूँगा, लिखूंगा जरूर और मेरा नाम भी प्रकाशित होगा इस पत्रिका में। ईश्वर सब सुन रहे थे। कोई चौदह वर्ष बाद वह इक्षा पूरी होने लगी। कभी एक पन्ने की कहानी, तो कभी दो और कभी चार। सोलहवें और अठारह वर्ष में पहली और दूसरी बार कवर स्टोरी प्रकाशित हुआ। पहला: रानीगंज कोयला खदान की दुर्घटना और दूसरा: “फूलन: सुपरस्टार: फ्रॉम डकैत क्वीन टू सेलेब्रिटी” कोई 12-पन्ने की कहानी प्रकाशित हुआ। 

JAYAPRAKASH NARAYAN ADDRESS PUBLIC MEETING

18 मार्च, 1973 को बीते 365 दिन हुए थे। उस दिन पटना के गाँधी मैदान से अशोक राज पथ के रास्ते माल सलामी (पटना सीटी) की ओर नित्य सुबह सवेरे जाने वाली बैलगाड़ी अपने निश्चित समय से कोई आधे घंटे पूर्व पटना कॉलेज मुख्य द्वार के सामने से निकल रही थी। आप तौर पर यह बैलगाड़ी सुबह के ठीक चार बजे उधर से जाती थी। दोनों बैलों के गर्दन में बंधी घंटियों की आवाज हमारे लिए “सूचक” होता था – शिवनाथ अब तैयार हो जाओ। चाहे गर्मी हो, कड़कड़ाती ढंढ हो, बारिश हो, पाला पड़ता हो, पथ्थर गिरता हो, जैसे उन दिनों ‘डाकिया’ आपके घरों के दरवाजे पर दस्तक देता ही था, अखबार वाले हॉकरों की भी स्थिति ऐसी ही होती थी । कुछ ग्राहक तो ‘दुर्वाषा ऋषि’ जैसा होता थे। अगर समय पर उन्हें अखबार हस्तगत नहीं हो तो प्रातःकालीन बेला में भी “माँ-बहन” करने में तनिक संकोच नहीं करते थे। बिहार के संभ्रांतों की गरीबों और मेहनतकश लोगों के साथ मुद्दत से ऐसा ही वर्ताव होते आया है। मेरे घर में घड़ी नहीं थी, उन दिनों, न दीवाल पर और ना ही कलाई में। तारीख था मार्च महीने का 18 और साल सन 1974 था। मैं उस तारीख से पिछले कोई छः साल से पटना से प्रकाशित आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-सर्चलाइट-प्रदीप और जनशक्ति अख़बार बेचा करता था। उन दिनों इण्डियन नेशन की कीमत 15 पैसे, आर्यावर्त की कीमत 12 पैसे, सर्चलाइट की कीमत 10 पैसे और प्रदीप की कीमत 6 पैसे थे। मैं उन दिनों कोई 150 से 200 अखबार नित्य बेचता था। उन दिनों पटना कॉलेज, लॉ कॉलेज, जीडीएस महिला छात्रावास, न्यूटन हॉस्टल, कैवेंडिस हॉस्टल, जैक्शन हॉस्टल के बहुत सारे छात्र-छात्राएं मेरे ग्राहक थे। बी एन कॉलेज के तत्कालीन प्राचार्य डॉ एस. के. बोस साहेब, पटना के कालेज के प्राचार्य डॉ केदारनाथ प्रसाद, अर्थशात्र के विभागाध्यक्ष डॉ अमरनाथ कपूर और अन्य गणमान्य लोग मेरे ग्राहक थे।
   

JAYAPRAKASH NARAYAN ADDRESSING PUBLIC MEETING.

नित्य सुबह-सवेरे साईकिल से पटना के गांधी मैदान के बाएं कोने पर बिहार राज्य पथ परिवहन निगम के स्टैंड से निकलने वाली बसों के यात्रियों के लिए सभी अख़बारों का बण्डल आ जाया करता था। उस समय पटना की सड़कों पर न कुकुरमुत्तों की तरह पत्रकार थे और ना ही अखबार बेचने वाले। पाठक भी बहुत संभ्रांत हुआ करते थे, चाहे चाय बेचने वाला ही क्यों न हो। अखबार बेचने वालों से लेकर अखबारों में लिखने वालों तक, समाज के लोग बहुत ही सम्मानित और प्रतिष्ठित नजर से देखा करते थे। इतना ही नहीं, अगर वह अख़बारों के दफ्तर में चपरासी या छापाखाना में मशीन की सफाई भी करता था, तो वह भी समाज के संभ्रांतों की श्रेणी में ही पंक्तिबद्ध होता था। उन दिनों ‘अपवाद को छोड़कर’ सभी अखबार खरीदकर पढ़ते थे, इसलिए लिखने वालों से लेकर बेचने वाले तक, सभी पाठकों की नजर में मर्यादित होते थे। अखबार बेचने की शुरुआत उस समय हुई जब पटना के एक विद्यालय से शिक्षण-शुल्क नहीं देने के कारण मेरा नाम काट दिया गया था। उस विद्यालय की तत्कालीन प्राचार्या कहीं थी: “अगर पिता को शुक्ल देने की क्षमता नहीं है तो मछुआ टोली के नगर निगम विद्यालय में नामांकन ले लो।” यह बात सन 1968 की है। प्रारंभिक समय में बाबूजी को यह बात नहीं बताया था। वजह था – बाबूजी की तनखाह उतनी अधिक नहीं थी उन दिनों जिससे वे तक्षण फ़ीस जमा कर पाते या किसी दूसरे विद्यालय में नाम लिखाते ।मैं चुपचाप रहता था। बाबूजी सुबह दस बजते-बजते दूकान चले जाते थे। मन में पढ़ने की लालसा हिन्द महासागर में उठने वाली तूफ़ान जैसा उठता था। समय के आगे जैसे लाचार हो गए थे। बाबूजी के जाने के बाद मैं इधर-उधर भटकता रहता था।  

JAYAPRAKASH NARAYAN ON ELEPHANT

उस दिन जैसे ही बैलगाड़ी की घंटी सुना, चटपट उठकर अपने कर्तव्य-मार्ग पर चलने के लिए तैयार हो गया। उस समय तक हम सभी पटना कॉलेज के ठीक सामने वाली गली के नुक्कड़ पर ननकू जी के होटल के ऊपरी मंजिल पर रहते थे। बिल्ली माथे के बराबर दो कमरे का मकान था – एक ऊपर और एक नीचे। किराया 22 रुपये और 3 रुपये बिजली का। मैं साईकिल को गली में उतरा और पैडिल लगाते बाएं अपने गंतव्य की ओर निकल पड़ा। सामने ऐतिहासिक ब्रह्मस्थान होता था, जहाँ समाज के सभी तबके के लोग, सभी जाति-संप्रदाय के लोग अपना माथा जरूर झुकाते थे, चाहे वे कितने ही गरूर वाले हों। कुछ दस-पंद्रह कदम चलते ही सड़क के बाएं तरफ एक रास्ता एनी बेसेन्ट रोड के रूप में लुढ़कती थी। यह रास्ता ब्रह्मबाबा के पैरों को छूकर चलती थी। इस सड़क के नुक्कड़ पर एक पुस्तक की दूकान होती थी उन दिनों – पीपुल्स बुक हॉउस। वैसे इस दूकान में वाम विचारधारा की पुस्तकें मिलती थी, कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग बाग़, छात्र-छात्राएं यहाँ अधिक एकत्रित होती थी। दिल्ली के गाँधी प्रतिष्ठान की सुश्री मणिमाला भी यहीं खड़ी होती थीं। सामने खुला फुटपाथ था। वहां दर्जनों छात्र नेता खड़े थे। चुकी उनमें से अधिकांश नेता पटना विश्वविद्यालय के छात्र थे और हम वही रहते थे, इसलिए किन्ही को पहचानने में कोई दिक्कत नहीं हुई। 

JAYAPRAKASH NARAYAN IS CELEBRATING MAHATMA GANDHI BIRTHDAY CELEBRATION AT HIS KADAM KUAN RESIDENCE.

आज बिहार में कमर से झुके, ठेंघुने से झुके, डाइबिटीज, रक्तचाप, चर्मरोग, हृदयरोग, श्वसन की बीमारी से ग्रसित, ब्रोंकाइटिस रोग से ग्रसित, कैंसर से ग्रसित, टीबी से ग्रसित, चर्मरोग से ग्रसित, या यूँ कहें जितने प्रकार की छोटी-मोटी दुबली-पतली बीमारियों से ग्रस्त – त्रस्त बिहार के राज नेता हैं, मंत्री बने, संत्री बने, मुख्यमंत्री बने; उप-मुख़्यमंत्री बने, दिल्ली में मंत्री बने – सभी के सभी उपस्थित थे। उन दिनों उनके माथे पर “गुरुर महाराज” नहीं चढ़कर बैठे होते थे। लगता था सभी जमीन से अभी-अभी अंकुरित हुए हैं। एक जबरदस्त मजमा था लगा वहां। आम तौर पर उसी कोने पर जो चायवाला था, वह अपनी दूकान पांच बजे खोलता था, लेकिन उस सुवह उसके चूल्हे के आंच में लालिमा थी, आग धधक रहा था। आंच भयंकर था । ऐसा लग लग रहा था प्रदेश में कुछ होने वाला है। उसी भीड़ में एक दुबला-पटना-सुडौल व्यक्ति अपने दाहिने कंधे पर खाकी रंग का वाटर-प्रूफ कैमरा बैग और दाहिने हाथ में कैमरा पकड़े खड़ा था। कैमरा का फीता उनके हाथों में लिपटा था। पटना की सड़कों पर उस व्यक्ति को अनंत बार देखे थे – बिना मडगार्ड, बिना घंटी, बिना चेन-कवर वाली साईकिल पर सवार । उसे देखते ही शहर के संभ्रातों से लेकर चोर-उचक्के तक, पुलिसकर्मी से लेकर अधिकारी – अपराधी तक, सभी क्षणभर के लिए ही सही, अपनी नजर उनकी ओर अवश्य घूमा देते थे। उस नजर के सम्मानार्थ वह व्यक्ति भी मुस्कुराकर उनका अभिवादन करते थे। उन दिनों पटना से प्रकाशित अख़बारों में, खासकर आर्यावर्त-इण्डियन नेशन में, तस्वीरों के नीचे नाम लिखा होता था – फोटो: कृष्ण मुरारी किशन। 

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मैं अपनी साइकिल की रफ़्तार पर ब्रेक लगाते क्षणभर के लिए रुका। सबों को एक नजर देखा और जैसे ही पैडिल पर पैर रखा – कैमरा वाले मुरारी जी कहते हैं: “अखबार के लिए जा रहे हैं? गाँधी मैदान? मैं सकारात्मक जवाब दिया। इसमें कुछ नेता पटना कॉलेज के जैक्शन हॉस्टल में रहते थे और मेरा ग्राहक भी थे। वहां उपस्थित सभी छात्र नेता मुझे देखे और मुस्कुराए भी। मैं गंतव्य की ओर निकल गया। पैडिल मारते यह सोच रहा था आज कुछ होने वाला है। मुझे भी बहुत जल्दी थी ताकि अख़बार बांटने का कार्य समाप्त कर वापस आ जाएँ। उस दिन 18 मार्च 1974 ही तो था जिस दिन जब बिहार से जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आंदोलन की नींव पड़ गई थी। यह आंदोलन पूरे देश में ऐसा फैल गया कि देखते ही देखते बिहार ही नहीं, देश की राजनीति का चेहरा ही पूरी तरह बदल गया। जय प्रकाश नारायण का आंदोलन भले देश की राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन के लिए लड़ा गया हो, इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकते हैं – खासकर जो पढ़ने वाले छात्र/छात्राएं थे – की वह आंदोलन प्रदेश के करोड़ों छात्र/छात्राओं का भविष्य अंधकार में ढकेल दिया। हज़ारों छात्र/छात्राएं कभी फिर से अपने महाविद्यालय, विश्वविद्यालय की ओर उन्मुख नहीं हो सके। जबकि, उन दिनों के सभी नेता, देश में मख्खन-मलाई आज तक खा रहे हैं। क्योंकि “शिक्षा” उनके लिए महत्वपूर्ण न उन दिनों था, न आज है। अगर था भी या आज हैं भी, तो वे आर्थिक रूप से इतने सक्षम हैं कि अपने बाल-बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने विदेशों में भेज देते। विगत 75 वर्षों में भारत के मतदाताओं के बच्चों के भविष्य के बारे में कौन सोचा। जयप्रकाश नारायण भी नहीं। 

Atal Bihari Vajpayee addressing public

छात्रों का आंदोलन उससे पहले तक “नेतृत्वहीन” था। उस दिन आख‍िर कुछ तो ऐसा हुआ था जिसने इतने बड़े आंदोलन को जन्म दिया। मार्च 18, 1974 को पटना में छात्रों और युवकों द्वारा आंदोलन प्रारम्भ किया गया था। बाद में पटना के कदमकुआं वाले जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व भी मिला। जो देश भर में जेपी सम्पूर्ण क्रांति के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हुआ। उस दिन बिहार विधानमंडल के सत्र की शुरुआत होने वाली थी। प्रदेश का लाट साहब, यानी राज्यपाल महोदय दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को सम्बोधित करने वाले थे। उस दिन योजना यह थी कि प्रदेश के राज्यपाल को विधानमंडल प्रवेश करने से रोका जाय। सभी का घेराव करेंगे। यह बात किसी तरह “लिक” कर गई थी। इसका परिणाम यह हुआ था कि सत्ताधारी विधायक सुबह-सवेरे छः बजे ही विधान मंडल भवन उपस्थित हो गए। लेकिन विपक्षी विधायक योजना की जानकारी के कारण वहां गए ही नहीं। यह परोक्ष रूप से भी बहिष्कार ही था। तत्कालीन लाट साहब आर डी भंडारे किसी भी कीमत पर विधान मंडल पहुंचना चाहते थे। लाट साहब के निवास और विधान मंडल के बीच राज्यपाल की गाड़ी को छात्रों ने रोका। परिणाम यह हुआ कि तत्कालीन पटना पुलिस ने छात्रों पर निर्ममता से लाठी बरसाई । क्या लालू, क्या मोदी, क्या अश्विनी न जाने असंख्य छात्रों पर लाठी बरसाई गई थी। आंसू गैस छोड़े गए थे। सैकड़ों लोग हताहत हुए। छात्रों में गुस्सा अपने उत्कर्ष पर था। यही घटना पुरे शहर में आग लगा दी। भीड़ अनियंत्रित हो गयी। चतुर्दिक आगजनी, लूटपाट का माहौल हो गया। लेकिन कृष्ण मुरारी भी अपने कैमरे के क्लिक-क्लिक से बिहार के सर्कुलर रोड, सरपेंटाइन रोड, बेलीरोड, फ़्रेज़र रोड, डाकबंगला रोड पर बिहार की राजनीतिक उथल-पुथल का इतिहास लिख रहे थे। 

Mrs Indira Gandhi addressing public

किसी तरह दौड़-दौड़ कर उस सुवह अखबार बांटने का कार्य संपन्न कर घर आया। उस दिन पटना के अशोक राज पथ पर कब सन्नाटा छा जाता था और कब क्रांतिकारियों और पुलिस प्रशासन में नोंक-झोंक, यह तय करना कठिन था। हम सभी पटना कालेज मुख्य प्रवेश द्वार के सामने शांति कैफे के छत पर बैठ गए थे। यह मकान जगदीश प्रसाद और शांति देवी का था। मैं घर का मैं भी एक सदस्य ही था, आज भी हूँ। इसी बीच पटना कालेज के प्रवेश द्वार के सामने सुरक्षा बलों का एक दस्ता पहुँच गया था। प्रवेश द्वार को छात्रों ने बंद कर ताला लगा दिया था। पूरे प्रांगण में अफरा-तफरी मचा था। सुरक्षा दाल का नेतृत्व तत्कालीन आयुक्त श्रीमती राधा सिन्हा कर रही थीं। कई अश्रु गैसों के गोले महाविद्यालय परिसर में फेके जा रहे थे। उधर परिसर के अंदर छात्रगण उस गोले से जब तक गैस निकले, या तो पेशाब की धार से, या भूगोल विभाग से पानी लाकर बुझा देते थे। कुछ पल बाद, उस गोले को पुनः सड़क पर फेंकने लगे। अभी तक कृष्ण मुरारी अपनी उपस्थिति यहाँ दर्ज कर दिए थे। इसी बीच आयुक्त के आदेश से मुख्य द्वार में गली ताला पर सुरक्षा कर्मियों ने गोली चला दी, साथ ही, अन्य सुरक्षा कर्मी अश्रु गोले अंदर फेंक रहे थे। कृष्ण मुरारी गेट से कुछ पीछे और शांति कैफे के ठीक नीचे से उन सभी दृश्यों को अपने कैमरे में बंद कर रहे थे। एक समय ऐसा आया जब आयुक्त महोदया मुरारी से दृश्य को कैद करने के लिए मनाही भी की, लेकिन गोली से ताला तोड़ते, अश्रुगैस के खुले गोले और आयुक्त का हवा में हाथ (आदेश देते) कैद हो गया था। 
 
अब तक पटना सचिवालय का क्षेत्र, बेली रोड, बोरिंग रोड, फ़्रेज़र रोड, स्टेशन रोड, सब्जी बाग़, कदमकुआं, नाला रोड, बारी पथ, गोविनफ़ मित्र रोड, मखनियां कुआं, खजांची रोड, आर्यकुमार रोड, राजेंद्र नगर, भिखना पहाड़ी, विश्वविद्यालय का इलाका, महेन्दू मोहल्ला, गुलजारबाग, माल सलामी, पटन देवी, पटना सिटी और अन्य इलाकों में लूट-पाट, आगजनी बहुत तेजी के साथ बढ़ रहा था। सम्पूर्ण शहर दहशत में था। पटना सिटी-गुलजारबाग इलाके में रेल की पटरियों को भी क्षति पहुँचाना प्रारम्भ हो गया था। गोलियां चलनी शुरू हो गई थी। पटना सिटी-गुलजारबाग इलाके में काफी लोग हताहत हुए।  काईन लोग मृत्यु को भी प्राप्त किये। अशोक राज पथ पर या तो पुलिस की गाड़ियां दौर रही थी या फिर अम्बुलेशन और अन्य गाड़ियां जो जख्मी और मृतक को अस्पताल ले जा रही थी। अशोक राज पथ से मिलने वाली हरेन गलियों, सड़कों के नुक्कड़ों पर मोहल्ले के लोग खड़े दीखते थे। लेकिन कृष्ण मुरारी हवा की तरह कभी इधर तो कभी उधर दीखते थे। न वे थक रहे थे और न उनका कैमरा। उन दिनों यह तय करना बहुत कठिन था कि आखिर इतनी क्षमता, इतनी शक्ति इस मनुष्य में कहाँ से आती है। क्या पटना चिकित्सा महाविद्यालय, क्या नालंदा मांगा विद्यालय अस्पताल, सरकारी से लेकर निजी अस्पतालों तक घायल ही घायल भरे थे। जय प्रकाश नारायण इस आंदोलन का नेतृत्व करना स्वीकार तो किया, लेकिन एक शर्त पर – कोई भी राजनीतिक दल के लोग उनके साथ नहीं होंगे – ऐसा ही हुआ और बिहार छात्र संघर्ष समिति के झंडे तले आंदोलन की शुरुआत हुयी और तत्कालीन मुख़्यमंत्री अब्दुल गफूर को तत्काल प्रभाव से कुर्सी से उतरने की मांग के साथ हल्ला बोलै गया । उस दिन और उसके बाद के दिनों तक मेरी तो चल पड़ी – अखबार कई गुना अधिक बिकने लगा। मुरारी जी की तस्वीरें पटना के गांधी मैदान से दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता, मद्रास, देश-विदेश चतुर्दिक फैलने लगी, छपने लगी – द्वारका विश्वकर्मा का बड़ा बेटा अपने कैमरे से भारत की पत्रकारिता, खासकर फोटो-पत्रकारिता का नींव अपने कैमरे से लिखने लगे। 

Rajiv Gandhi in Patna

इस बात का जिक्र देश के सबसे युवा संपादक एम. जे. अकबर ने भी किया। वे कहे थे: “बात साल 1976 की है। मैं पटना आया था। मेरे साथ वरिष्ठ पत्रकार जनार्दन ठाकुर भी थे। कृष्ण मुरारी किशन से सबसे पहले यहीं मिला था। वह आये और कहा की कुछ तस्वीरें लाया हूँ। उनके जज्बातों को देखकर मैंने उन्हें मौका दिया। उनकी आँखों में पत्रकारिता की गजब की आग और लगन थी। आपातकाल के दिन थे। उस समय उनका साहस मुझे आज तक याद है। उनकी क्षमता और चीजों को गंभीरता से देखने और निर्णय ने मुझे प्रभावित किया। उन्होंने जो भी तस्वीरें भेजीं, वे गजब की थी। डॉ जगन्नाथ मिश्र की हर ऊँगली में अंगूठी, और जेल में बंद काली पाण्डे की जीवंत तस्वीरें, जय प्रकाश नारायण का आंदोलन, आम चुनाव, सारी चीजे बेमिसाल थीं। एक किशन ही थे, जो जयप्रकाश नारायण, चंद्रशेखर और कर्पूरी ठाकुर जैसे विपक्ष के दिग्गज नेताओं की तस्वीरों को देश दुनिया तक पहुँचाया था। जेल से बाहर आने के बाद जार्ज फर्नाडिस की भी तस्वीरें  उन्होंने भेजी थी, जो अद्भुत थी। तत्कालीन माहौल में एक चिंगारी, आग लगाने वाली साबित हुयी। बिहार के इतिहास में उनसे बड़ा कोई दूसरा फोटोग्राफर मनाही देखा। ”

फॉरवर्ड प्रेस के अरुण नारायण के अनुसार: “कृष्ण मुरारी किशन ने ऐतिहासिक बिहार आंदोलन से अपने छायाकार जीवन की शुरुआत की थी। वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्य भी थे । पटना के कदमकुआं स्थित कांग्रेस मैदान में वे परिषद की गतिविधियों में शरीक होने आते थे। लौटते समय, पास में ही रह रहे जेपी के पास चले जाते थे। वहीं पानी पीते थे और कुछ समय बिताने के बाद फिर घर जाते थे । मुरारी की मुलाकात जेपी से लगभग प्रत्येक दिन होती थी। वे उन दिनों बिहार रिलीफ कमेटी में बड़े ओहदे पर थे। वे हम लोगों को नानखटाई खिलाते थे। उन्हीं के पास आते-जाते कब उनके प्रभाव में आकर फोटोग्राफी करने लगे, बिहार आंदोलन को अपने कैमरे से इतिहास लिखने लगे, किसी को पता नहीं चला। उस समय फोटो-पत्रकारिता जैसी कोई चीज़ नहीं हुआ करती थी और अखबारों की संख्या भी बहुत सीमित थी। तब डिजीटल माध्यम भी विकसित नहीं हुए थे। नेगेटिव को डेवलप कर छायाचित्रों को ‘ब्लॉक’ पर उकेरा जाता था। घंटो स्टूडियो में इंतज़ार और फिर राष्ट्रीय अखबारों में भेजने के लिए साइकिल से हवाई अड्डे तक की यात्रा, आंदोलन में पुलिस की बर्बरतापूर्ण पिटाई सहकर भी हर दृश्य को कैमरे में कैद करने का जीवट – कितना संघर्षपूर्ण, जोखिम-भरा और खर्चीला रहा होगा कृष्ण मुरारी किशन का जीवन।”

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पटना के बारी पथ पर पटना कॉलेजिएट स्कूल से आगे निकलने पर हम जैसे हथुआ मार्किट और स्टेशन जाने वाली सडकों के दो-मुंहे पर पहुँचते थे, यहाँ एक बजरंगबली सड़क के बीचो-बीच हुआ करते थे। इसी बजरंगबली के पीछवाड़े बाएं हाथ पर कोई दस कदम आगे एक पतली सी गली मुड़ती थी, जो आगे पटना नरेश और मुंबई के खामोश यानी लालजी यानी शत्रुघ्न सिन्हा के घर के पास निकलती थी। कुल मिलाकर और किसी भी रास्ते का अख्तियार करें, मंजिल पटना रेलवे स्टेशन ही होता था। माँ ही नहीं, मेरे अदृश्य गुरुवर दिवंगत हरिवंश राय बच्चन भी कहते थे, लिखे थे- ‘मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला – हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला – ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का, और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला। हम सभी पटना की सड़कों पर अपनी मेहनत से अपने जीवन का, अपने भविष्य का इतिहास लिख रहे थे, ताकि आने वाले समय में हमारी अगली पीढ़ी को अपने पूर्वजों पर, माता-पिता पर, अपने दादा-दादी पर नाज हो, फक्र हो। 

Amrit Jai Kishan & Priyanka Kishan

इसी गली, जिसे पटना के भौगोलिक इतिहास में ‘दरियापुर गोला’ के रूप में जाना जाता है; के प्रवेश के साथ दाहिने हाथ कोने पर खुली जमीन थी। यह जमीन किन्ही महाशय का था, जहाँ निर्माण कार्य नहीं हुआ था उन दिनों । दाहिने हाथ पर पहले एक झोपड़ी नुमा मकान हुआ करता था, जिसके दरवाजे आसमानी रंग का होता था। दरवाजे लकड़ी के कई बराबर तख्तों से जुड़कर बना होता था, जिसे खोलने पर प्रत्येक तख्ता एक-दूसरे से चिपक जाता था – स्नेह से, प्रेम से, सम्मान से ताकि कभी अलग नहीं हों। एक छोटे टीन (अल्युमिनियम) पर लिखा होता था “विश्कर्मा निवास” – यह घर महज एक घर नहीं था। यह वास्तव में “विश्वकर्मा” का ही घर था। इस घर के स्वामी थे द्वारका विश्वकर्मा। लेकिन वे नहीं जानते थे कि इस घर की मिटटी में पलकर, बढ़कर जो बच्चा दरियापुर गोला की सड़क पर कदम रखेगा, वह अर्थ से जो भी हो भविष्य में, भारत ही नहीं विश्व के लोग उसे उसके नाम से, उसके शोहरत से जानेंगे, पहचानेगे। उसे अपने व्यक्तित्व की, पहचान की किल्लत कभी नहीं होगी। इसी घर में द्वारका विश्वकर्मा साहेब के दो पुत्र और परिवार रहता था। उनके पुत्रों का नाम था – कृष्ण मुरारी किशन और कृष्ण मोहन शर्मा।

विश्वकर्मा साहेब अपने दोनों पुत्रों को “कृष्ण”शब्द से अलंकृत किये। एक ”मुरारी” बना और एक ”मोहन”, यानी द्वारका विश्वकर्मा के अनुसार – श्री “कृष्ण” गोविन्द हरे “मुरारी”, हे नाथ नारायण वासुदेवा (किशन)॥

देश गुलाम था जब द्वारका जी का जन्म हुआ था। द्वारका जी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनका दोनों बेटा आने वाले समय में पटना ही नहीं, मगध ही नहीं, बिहार ही नहीं, भारत ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में, जो भी बिहार से सम्बंधित समाचार पढ़ेंगे, तस्वीरें देखेंगे, वे उनके दोनों बेटों को “शक्ल” से ना सही, नाम से जरूर पहचानेंगे। अर्थ से भले दरभंगा के महाराजा के छोटे भाई के वंशज जैसा धनाढ्य नहीं हो; लेकिन नाम और शोहरत इतना अर्जित करेगा कि दरभंगा राज की वर्त्तमान पीढ़ी भी बौना दिखेगा। दोनों बालक अपने-अपने कर्मों से अपने पिता को इतना अधिक यशस्वी बना देगा कि उनके देहावसान के बाद भी उनका पार्थिव शरीर या उनकी चिता गौरव से इतनी ऊंचाई को छुएगा, जिसे छूने के लिए शायद जीते-जी भी लोगों को मुद्दत, दशक और शताब्दी भी लग जाएगी। कहते हैं इतिहास तो गरीब ही लिखता है और दरियापुर वाले द्वारका बाबू अपने दोनों बेटे रूपी कलम से भारतीय न्यूज फोटोग्राफी और पत्रकारिता के क्षेत्र में इतिहास रच दिया। द्वारका जी अपने घर के निचली सतह में साइकिल की छोटी सी दूकान खोल रखे थे। साथ ही उनके कोई 20-25 रिक्शे भी थे जो किराये पर चला करते थे। उन दिनों दो रुपये से ढाई-रुपये तक दिन-रत का किराया मिलता था उन्हें प्रत्येक रिक्शा से। 

कृष्ण मुरारी किशन का जन्म 17 जनवरी, 1952 को उसी घर में हुआ था। इनकी मां सरस्वती देवी थीं। उस दौर में ‘आर्यावर्त’, ‘इंडियन नेशन’, ‘सर्चलाईट’ और ‘प्रदीप’ बिहार के प्रमुख अखबार थे। किशन ‘इंडियन नेशन’ और ‘आर्यावर्त’ में रोजाना अपनी तस्वीरें देते थे। उन दिनों का यदि आर्यावर्त – इण्डियन नेशन के लेखा विभाग का रसीद देखा जाय तो मुरारी जी को प्रत्येक फोटो के लिए – सिंगल कॉलम / डबल कॉलम /तीन कॉलम /चार कॉलम /पांच कालम के हिसाब से मूल्य मिलता था। मूल्य पांच रुपये प्रति फोटो से 25 रूपये प्रति फोटो होता था। उन दिनों जब वे फोटो सम्पादकीय विभाग में देते थे, तब उसका ब्लॉक बनता था जो बाद में रोटरी मशीन से प्रकाशित होता था अख़बारों के पन्नों पर। यह वह दौर था, जब बिहार में इस आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी। किशन का मिशन था आंदोलन की गतिविधियों से प्रांतीय व राष्ट्रीय मीडिया को अवगत कराना। उन दिनों की राष्ट्रीय फोटो न्यूज एजेंसी ‘पाना इंडिया’ को किशन ने बिहार आंदोलन की हरेक गतिविधि के फोटोग्राफ भेजे। आंदोलन की खबरों के साथ उसके छायाचित्रों ने आन्दोलन के पक्ष में लोगों को एकजुट किया। उन दिनों बालाजी देवरस,  प्रकाश सिंह बादल, जार्ज फर्नांडिस,  चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, लाक कृष्ण आडवाणी, चौधरी चरण सिंह आदि पटना आते रहते थे। इन तमाम लोगों की जेपी से मुलाकात की खबरें सुर्खियां पातीं। जेपी से मिलने बिहार आना बाहर के नेताओं को उनके राज्यों में सुर्ख़ियों में ले आता था। कृष्ण मुरारी पहले ऐसे छायाकार-पत्रकार थे – जिन्हे जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति पैदा किया या फिर जे पी की क्रांति को कृष्ण मुरारी किशन ने अपने कैमरे के क्लिक-क्लिक से, तस्वीरों से विश्वव्यापी बनाया, अग्नि जैसा प्रज्वलित किया – यह तो एक शोध का विषय है। उम्मीद हैं आने वाले समय में जब भी फोटो जर्नलिज्म की बात होगी, जेपी आंदोलन की बात होगी, लोग कृष्ण मुरारी किशन का नाम लेना नहीं भूलेंगे। 

कहते हैं जिन दिनों वे प्री-यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे, जेब खर्च के लिए एक-दो ट्यूशन पढ़ाते थे। संयोग से, उनकी एक छात्रा के पिता के पास एक फोल्डिंग कोडैक कमरा था,  जिसमें एक रील में 8 फोटो आते थे। किशन ने इस  कैमरे पर अपना हाथ आजमाया और यहीं से तस्वीरों के साथ उनका जुड़ाव आरंभ हुआ,  जो जीवन की अंतिम सांस तक बना रहा। जल्द ही उन्होंने लूबीटल-2 कैमरा खरीद लिया,  जिसकी कीमत उस समय लगभग 350 रुपए थी। उन्होंने अपने लंबे करियर में हमेशा संजीदगी के साथ और निर्भीक होकर फोटो-पत्रकारिता के उच्च प्रतिमान कायम किये। पुलिस दमन हो या सामंती उत्पीड़न, सियासी सरगर्मी हो या जनांदोलन – उन्होंने सभी को कवर किया। भागलपुर का  ‘अंखफोड़वा कांड’ हो या बेलछी की इंदिरा गांधी की यात्रा या फिर दस्यु मोहन बिंद, जो अपने इलाके के लोगों के लिए नासूर बना हुआ था- ये सब किशन के करियर के यादगार लम्हे रहे। ‘रविवार’, ‘धर्मयुग’, ‘इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया’ जैसे अपने दौर के महत्वपूर्ण प्रकाशनों में उनके  छायाचित्र नियमित रूप से छपते रहे।

खैर। मैं उसी तारीख को, लेकिन एक साल बाद, यानी 18 मार्च, 1975 को उसी आर्यावर्त / इण्डियन नेशन अखबार में पत्रकारिता की सबसे निचली सीढ़ी पर नौकरी की शुरूआत किया। पद का नाम कॉपी होल्डर था, जो तत्कालीन प्रकाशन की दुनिया में प्रूफ रीडर से नीचे का पद होता था। मैं सिर्फ मैट्रिक पास किया था। नौकरी की शुरुआत करने के कोई तीन महीने तक मैं दिन में ड्यूटी किया करता था। उस दिन पहली बार रात्रिकालीन शिफ्ट में आया था। शाम में कोई आठ बजे मैं प्रेस से बाहर पोर्टिको के पास आया। तभी एक साईकिल वहां बाएं तरफ अंतिम छोड़ से टकराई। चालक कंधे पर लटका बैग को सँभालते तेजी से आगे निकले। मैं वहीँ खड़ा था और उन्हें देख रहा था। वे मुझे देखकर तत्काल रुके और कहे: “अर्रे!! तुम…. मैं उन्हें अपने बारे में बताया और कहाँ कि मुझे यहाँ नौकरी मिली है ।”  वे मेरे सर पर हाथ रखे और कहे : “बहुत मेहनत करन। बहुत अच्छा पत्रकार बनना। पहले खूब पढाई करना। पत्रकार बनने के लिए, खासकर लिखने वाला पत्रकार के लिए, बहुत पढ़ा होना जरुरी है। एडिटोरिअल में देखते हो न कितने पढ़े लिखे लोग हैं। कितना जानते हैं। ….” यह सब बोलते वे दाहिने हाथ सीधी पर चढ़ते सम्पादकीय विभाग में चले गए। आज भी वह क्षण याद करते शरीर के रोंगटे उनके सम्मानार्थ खड़े हो जाते हैं। 

Sonu Kishan & Nisha Kishan

जे पी आंदोलन के सबसे पहला पैदावार लालू प्रसाद यादव 90 के दशक के प्रारंभिक वर्ष में ही प्रदेश के गद्दी पर बैठे, मुख्यमंत्री बने। देश में 25 जून, 1975 को आपातकाल लगा। सन 1976 में लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी को एक पुत्री की प्राप्ति हुई। जिस समय उस पुत्री का जन्म हुआ, लालू प्रसाद यादव जेब में बंद थे। अतः उन्होंने अपनी पुत्री का नाम “मीसा” (मेंटिनेंस ऑफ़ इंटरनल सेक्युरिटी एक्ट) रखे। काफी चर्चित हुई यान नाम। देश में आपातकाल 21 मार्च, 1977 को हटाया गया। बहुत सारे जद्दोजहद हुए। उसी वर्ष अक्टूबर के महीने में 11 अक्टूबर को, यानी महात्मा गांधी के जन्मदिन के नौ दिन बाद दरियापुर गोला स्थित द्वारका विश्वकर्मा के बड़े पुत्र कृष्ण मुरारी किशन के घर में एक पुत्र रत्न प्राप्त हुआ। देश में आपातकाल समाप्त हो गया था। ऐसा लग रहा था देश एक बार फिर आज़ाद हुआ है। कृष्ण मुरारी किशन भी बिहार के फोटो-जर्नलिज्म में अपने जीवन-गाथा के साथ एक इतिहास लिख रहे थे, विजय पथ पथ। अतः उन्होंने अपने बड़े पुत्र का नाम “जय” किशन रखा। हंसना, हँसाना, मुस्कुराना कृष्ण मुरारी किशन के जीवन का पर्यायवाची था। और इस सम्पूर्ण कार्य के लिए वे अपने मृत्यु-सय्या तक अपनी पत्नी को अन्तःमन से आभार व्यक्त करते रहे। 

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वैसे मुरारी जी को जानने वाले बिहार ही नहीं, भारत ही नहीं, सम्पूर्ण मुल्क में लाखों-लाख होंगे, लेकिन शायद बहुत कम लोग जानते होंगे की मुराजी का “फोटो वाला डार्क रूम” उनके घर में उसी कमरे में था, जिस कमरे में वे सोते थे। दरियापुर गोला स्थित अपने घर के प्रवेश के साथ जो सीढ़ी ऊपर जाती थी, उस सीधी के बगल में दो कमरे थे – एक में मुरारी जी अपनी पत्नी के साथ रहते थे। उनके साथ उनका छोटा बेटा सोनू किशन रहता था। अपने छोटे से कमरे में उन्होंने बिस्तर के साथ बगल में एक डार्क रूम भी बनाया था। वे उस कमरे के सभी निकास-द्वार और रोशनी आने के सभी मार्ग को बंद कर दिए थे, ताकि फिल्म को डेवेलोप करने में कोई तकलीफ नहीं हो। उस कमरे के सामने एक और कमरा था जिसमे उनकी बेटी, दूसरा बेटा और अन्य लोग रहते थे। घर के किन्ही को यह मालूम नहीं होता था की वे घर कब आते हैं और कब जाते हैं। उन दिनों तस्वीर खींचने से लेकर समाचार पत्रों के दफ्तरों तक, बाहर के अख़बारों के लिए हवाई अड्डे तक, ट्रेनों के पाइलेटों तक पहुँचाने का कार्य वे स्वयं करते थे। साथ में कड़ी होती थी उनकी पत्नी और छोटी बहन सुनीता किशन। 

जैसे ही कृष्ण मुरारी किशन का छोटा बेटा सोनू @आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम सुने, वे कहते हैं: “इन दो अख़बारों का नाम सुनकर, देखकर हम सभी जन्म लिए, बड़े हुए। कोई भी एक पल नहीं होता था  पापा इन दो अख़बारों के बारे में, वहां काम करने वाले लोगों के बारे में, कुमार साहेब के बारे में बात नहीं करते थे। आज भी कई सौ तस्वीरें होंगी जो सिर्फ पापा के पास ही थी। हम सभी भाई-बहन माँ की सम्पूर्ण देख रेख में पले – बड़े हुए। उस ज़माने में तो आज जैसा पीटीएम नहीं होता था, लेकिन स्कुल के रिपोर्ट कार्ड पर पिताजी के स्थान पर माँ ही हस्ताक्षर करती थी। माँ बाउजी का दाहिना हाथ थी। पापा जिस ऊंचाई तक पहुंचा माँ और बुआ का बहुत हाथ है। उन डिजिटल का जमाना तो था नहीं।  कंप्यूटर के बारे में लोगों को सपना भी नहीं आता था। पापा-मम्मी और बुआ ये तीन-आर्मी थे जो फोटो पत्रकारिता में पापा के साथ कड़ी होती थी। उन दिनों फिल्म को डेवेलोप करने के बाद, तस्वीरों को प्रिंट करने के बाद सूखने के लिए ब्लोवर नहीं था। घर में आयरन नहीं था। माँ चूल्हे पर बड़े पेंदी वाला लोटा गर्म कर सुखाती थी। वे खुद कार्ति थी तस्वीरों को। बुआ और माँ तस्वीरों के पीछे मुहर लगाना, लिफाफे में रखने का काम करती थी। पहले तो पापा हाथ से कैप्शन लिखते थे, बाद में तीन तरह के टाइपराइटर लिए – एक सीधा फ़ॉन्ट, एक कर्सिव और एक टाइम्स रोमन वाला। अख़बारों के अनुसार वे कैप्शन टाइप करते थे।”

कृष्ण मुरारी किशन का ऐतिहासिक स्कूटर

कृष्ण मुरारी के साथ हाथ बटाने के लिए उनका बड़ा बेटा “जय” पहले प्रवेश किया। कृष्ण मुरारी प्रारंभिक दिनों से ही उसे तस्वीरों के बारे में, कैमरे के बारे में, फ्रेम बनाने के बारे में, प्रोसेसिंग, डेवलपिंग के बारे में – सभी बातें बताते रहे। वे जानते थे की समय बदल रहा है और फोटोग्राफी एक नए युग में प्रवेश कर रहा है, फिर भी उनका कहना था: “ज्ञान में किल्लत नहीं करो, हर चीज की जानकारी होनी चाहिए। मशीन पर विश्वास करने से बेहतर है स्वयं पर विश्वास करो। हरिवंश जी (वर्तमान में राज्यसभा के उपाध्यक्ष) कृष्ण मुरारी के बहुत अच्छे दोस्त थे, अकबर साहेब जैसा ही। वे पहले जय किशन को रांची के प्रभात खबर में रख लिए और जब पटना से प्रभात खबर का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, जय किशन पटना आ गए। हरिवंश जी चाहते थे की जहाँ तक संभव हो, परिवार के सभी सदस्य एक साथ रहें। जबकि सोनू किशन का हाथ कंप्यूटर की ओर अधिक चलता था। वह कंप्यूटर इंजीनियर बनना चाहता था।  लेकिन जो ज्ञान उसे अपने पिता से प्राप्त हो रहा था, जिस क्षेत्र में वह महारत प्राप्त कर रहा था – तत्कालीन समय की वह जरूरत थी – आने वाले समय में सोनू और जय अपने माता-पिता का दाहिना और बायां हाथ बन गया। कृष्ण मुरारी के जीवन में उसकी बहन सुनीता किशन का योगदान भी अमूल्य है। सोनू पटना के एक कंप्यूटर संस्थान में पहले सीखने जाते थे, बाद में एक फैकल्टी बन गए और छात्र-छात्राओं को सिखाने लगे । 

कृष्ण मुरारी किशन का ऐतिहासिक टाइपराइटर

सोनू कहते हैं: “जब मौर्या होटल के पास पापा का एक्सीडेंट हुआ, पैर टूटा, उस अवस्था में भी वे अपने कार्य को नहीं छोड़े। उन दिनों विधान सभा सत्र प्रारम्भ होने वाला था। जय भैय्या पापा को स्कूटर का बिठाकर उनका सारथी बन गए थे। पैर में प्लास्टर लगे रहने के बाद भी वे तस्वीरें खींचते रहे, साथ ही, जय भैय्या को भी दक्ष बनाये। बीमारी की अवस्था में भी कार्य के प्रति उनका इतना लगाव था कि वे भारत के जिन-जिन अख़बारों में, जिन-जिन पत्रकारों को उनकी कहानी के अनुसार फोटो प्रदान करने में कभी किल्लत नहीं किये। काम उनके लिए सर्वोपरी था।” सोनू आगे कहते हैं: “डिजिटल युग में प्रवेश करने के बाद भी, वे जहाँ भी जाते थे अपने साथ फोटो के निर्माण से लेकर भेजने तक के सभी सामग्रियों को साथ ले जाते थे। कभी-कभी तो जिस होटल में वे रहते थे, उसी होटल में डार्क-रम भी बना लेते थे, ताकि फोटो की गुणवत्ता उनकी नजर में बरकरार रहे। मृत्यु के कुछ वर्ष पहले जब वे हाजीपुर से गांधी सेतु के रास्ते घर आ रहे थे, सेतु पर कुछ उपद्रवी किसी राहगीर के साथ लूटपाट कर रहा था। पापा रोकने की कोशिश किये तब अपराधियों ने उन्हें पेट में गोली मार दी। भगवान् का आशीष था उनपर की गोली पेट के दूसरे तरफ कुछ मांस को लेकर निकल गयी। बाद में वह अपराधी पापा से मिलने, हालचाल पूछने और माफ़ी मांगे अस्पताल भी पहुंचा था – पापा उसे माफ़ भी किये थे। जब की स्थानीय पुलिस उसे पकड़कर जेल में बंद करना चाह रही थी। 

कृष्ण मुरारी किशन अपनी पत्नी के साथ

आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम को सोनू कहते हैं: “मम्मी की मृत्यु 2005 में हुई। माँ के जाने के बाद पापा टूट गए। वे बोलना, हंसना बंद कर दिए। वे जब भी डार्क रम की ओर जाते थे, कैमरा, निगेटिव, तस्वीरें, लिफाफे, कंप्यूटर देखते थे, तो मन ही मन रोते रहते थे। हम सभी उन्हें देखकर उन्हे ढाढ़स तो बांधते थे, लेकिन जो कमी वे महसूस कर रहे थे, उस मनोवैज्ञानिक कमी को, दर्द को कोई नहीं बाँट सकता था। दादी भी देख-देख कर कुहरती थी।  दादी कहती थी – हमारे किशन की “राधा” जबसे गयी है, किशन आधा हो गया है और फिर दादी भी रोने लगती थी। अपनी पत्नी की मृत्यु के दस वर्ष बाद 1  फरवरी, 2015 को कृष्ण मुरारी किशन भी उनके पास पहुँचने के लिए अनंत यात्रा पर निकल गए।   उन्हें उस वर्ष 26 जनवरी को दिल का दौरा पड़ा था। अगले दिन उन्हें दिल्ली के मेदांता अस्पताल में भर्ती किया गया था। विगत चार दशकों से बिहार के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक जीवन के हर महत्वपूर्ण घटनाक्रम के वे चश्मदीद रहे। उन्होंने कई “ब्रेकिंग न्यूज” को अपने कैमरे में कैद किया। भय उन्हें छू तक नहीं पाया जीवन भर। वे बिहार के अपने क्षेत्र के  एक मजबूत स्तंभ थे। कृष्ण मुरारी किशन और कृष्ण मोहन शर्मा की माँ और घर के सभी बच्चों की दादी भी विगत 2018 को ईश्वर के पास पहुँचने के लिए अपनी अनंत यात्रा पर निकल गयी।
 

कृष्ण मुरारी किशन का परिवार

बहरहाल, भारत के लाखों समाचार पत्रों के मालिक, संपादक, लेखक, पत्रकार यह जानकार खुश होंगे कि जय किशन और उनकी पत्नी प्रियंका तथा सोनू किशन और उनकी पत्नी निशा किशन अपने सास-ससुर द्वारा सम्पादित कोई चार दशक से भी अधिक के फोटोग्राफी के कार्य को आने वाली पीढ़ियों के लाभार्थ बहुत ही वैज्ञानिक तरीके से, तकनीक से तैयार कर रहे हैं। कृष्ण मुरारी किशन अपने जीवन काल में कोई पांच लाख से अधिक बेहतरीन तस्वीरों के लिए “क्लिक क्लिक” किये। लाखों तस्वीरें पटना से लेकर विश्व के कोने-कोने से प्रकाशित समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। आज उन सभी पांच लाख ब्लैक एंड व्हाइट नेगेटिव, टीपी, कलर नेगेटिव को डिजिटलाइज किया जा रहा है। सोनू किशन कहते हैं: हम डॉन भाई और दोनों की पत्नियां सभी नेगेटिव को एक पुस्तकालय के रूप में बना रहे हैं। अब तक कोई आधे से अधिक नेगेटिव का डिजिटलाइजेशन हो गया है। शेष चल रहा है। उसका डिजिटलाइजेशन होना पापा-मम्मी और बुआ के कार्यों का सबसे बड़ा सम्मान होगा और पापा-मम्मी के प्रति श्रद्धांजलि भी। 

2 COMMENTS

  1. क्या मुरारी जी जैसी प्रतिबद्धता और उनके जैसे काम उनके बेटे कर पाएंगे।
    क्योंकि क्लिक क्लिक तो उनके बेटे भी कर रहे हैं।
    वैसे उनकी धरोहर सहेजना भी बेहतर कार्य है।

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