रंजन बसु : पहले महिलाओं को घर-परिवार-समाज में ‘सम्पूर्ण सुरक्षा’ देना होगा, देश में ‘महिला फोटो-जर्नलिस्ट्स की संख्या’ खुद बढ़ जाएगी (बिहार का फोटोवाला – 1)

गुलजारबाग-पटना सिटी (बिहार) का रंजन बसु आज देश के बेहतरीन फोटो जर्नलिस्ट हैं।

पटना / नई दिल्ली :  उस दिन अपने घर पटना सिटी से गुलजारबाग के रास्ते पटना शहर की ओर आ रहा था। उन दिनों पटना के करबिगहिया इलाके में विद्युत् का पॉवर स्टेशन था।  आज भी होगा। जहाँ दक्षिण बिहार के धनबाद, जमशेदपुर, रांची कोयला खदानों से कोयला का परिवहन होता था बिजली उत्पादन के लिए । परिवहन का मुख्य साधन मालगाड़ी हुआ करता था। आम तौर पर जब मालगाड़ी पटना सिटी से आगे निकलती थी, तो उसकी गति “शून्य से तनिक अधिक” होती थी। रेल-पटरी के दोनों तरफ बांस के नुकीले डंडे के अगले सीरे पर ‘रुपये’ खोंसे होते थे, जो मालगाड़ी के डब्बों के पास खड़े रेलकर्मियों के निम्मित्त होता था। उस बांस के डंडे में जितना मूल्य का रूपया लगा होता था, वे रेलकर्मी तदनुसार डब्बे से कोयला नीचे फेकते थे। और फिर सैकड़ों बेरोजगार युवक, युवतियां, पुरुष, महिलाएं उन कोयलों को उठाकर, बोड़ी में भड़कर अपने-अपने माथे पर, साईकिल से पटना शहर, पटना सिटी या गुलजारबाग क्षेत्रों में बेचते थे। जितनी राशि का निवेश होता था, उससे अधिक कमाई होती थी। उनका पेट भरता था। परिवार के पेट में, छोटे-छोटे भाई-बहनों के पेट में अन्न का दाना जाता था। उनके चेहरों पर मुस्कान आता था। यह क्रिया-प्रक्रिया मुद्दत से चली आ रही थी, लेकिन स्थानीय सरकार कभी भी उन लोगों के प्रति संवेदनशील नहीं हुई थी और ना ही, स्थानीय छायाकार ही कभी इस ओर उन्मुख हुए थे। 

यह एक मानवीय कहानी थी जो पटना सिटी के एक युवक के ह्रदय को वेध दिया था। वह महीनों इस दृश्य को परत-दर-परत तस्वीरों में कैद करता है। कैमरे का प्रत्येक ‘क्लिक-क्लिक’ ‘क्रिएटिव शॉट्स’ था। खैर, मुग़ल की दिल्ली से लेकर अंग्रेजों की दिल्ली के रास्ते भारत की दिल्ली में आज महंथ के तरह समाचार पत्र / पत्रिकाओं से जुड़े तथाकथित ‘क्रिएटिव आर्ट डाइरेक्टर’, ‘डिजाइन्स प्रमुख’ वातानुकूलित कक्ष में बैठकर, ऐसे असंख्य ‘क्रिएटिव शॉट्स’ को लाखों की लागत वाले कंप्यूटर पर तस्वीर की रंगों को, छटाओं को अपनी-अपनी सुविधानुसार ढालकर समाचार पत्र अथवा पत्रिका के किसी कोने में जगह देते हैं – यहाँ “क्रिएटिव शॉट्स’ का अकाल मृत्यु हो जाता है और उनकी संवेदना में कोई हलचल भी नहीं होता। ऐसे महानुभावों को यह भी मालूम नहीं होता है कि ‘औरो’, ‘फुजी’, ‘आईफोल्ड’ ‘ट्राई एक्स कोडक’ नाम का कोई फिल्म भी होता था, जिसका इस्तेमाल तस्वीरों को खींचने में किया जाता था। उन्हें यह भी मालूम नहीं होता है कि कैमरा में “फिल्म” भी लगता था, जिसे “निगेटिव” कहते हैं । उन्हें यह भी मालूम नहीं होता है कि फोटो खींचने के बाद उस फिल्म/निगेटिव को ‘अँधेरे कमरे” (डार्क रूप) में डेवेलोप किया जाता था। इस क्रम में फिक्सर का इस्तेमाल होता था। छोटे-छोटे टैंक होते थे। फिल्म की धुलाई बिलकुल अंधरे में होता था। घड़ी की टिक-टिक ही उस धुलाई को नियंत्रित करता था। 

आज दिल्ली ही नहीं, बल्कि भारत के 718 जिलाओं के 6,49,481 गाँव से अपनी किस्मत को न्यूज फोटोग्राफी की दुनिया में सजने-सवांरने की तमन्ना लिए आये कर्मठ से कर्मठ युवकों, युवतियों को इस पेशा में हाथ पकड़ने वालों की, सही रास्ता दिखाने वाली की किल्लत ही नहीं, सुखाड़ है। और यही कारण है कि आज रजिस्ट्रार ऑफ़ न्यूजपेपर्स फॉर इण्डिया के दफ्तर में निबंधित कोई एक लाख से अधिक प्रकाशनों में “महिला छायाकारों / फोटो जर्नलिस्टों” की संख्या ऊँगली पर गिनने लायक भी नहीं है। 

रूट-ब्रिज, मेघालय। तस्वीर : रंजन बसु

जबकि पूरे देश में, गली-कूचियों में भारत में बड़े-बड़े पत्रकारों, मीडिया घरानों द्वारा पत्रकार / छायाकार बनने की दुकानें असंख्य चल रही है। ऐसी दूकान में प्रवेश लेना और अपने उद्देश्य को प्राप्त करना दोनों दो बातें हैं। आज गुरुजनों की न केवल किल्लत है, बल्कि ‘विद्यार्थियों’ की भी सुखाड़ है – पत्रकारिता चाहे लेखनी की हो, या कमरे के लेंस से – “कैजुअल” नहीं हो सकता, मूगंफली जैसा “टाईम-पास” नहीं हो सकता। आज भारत के समाज में भारत के लोग पत्रकारों और छायाकारों को किस नजर से देखते हैं, यह एक महत्वपूर्ण शोष का विषय है। धनाढ्य पत्रकारों, छायाकारों के सामने भारत के गांव से अपनी “मेहनत”, अपना “विस्वास”, अपनी “कर्तब्यनिष्ठा” अपना “आत्मसम्मान” को जो झोली में लेकर भारत के शहरों में, चाहे दिल्ली हो, मुंबई हो, कलकत्ता हो, चेन्नई हो, बंगलुरु हो, इलाहाबाद हो, कानपुर को – अपने वजूद का हस्ताक्षर किया – वह असली छायाकार है और वही सही मायने में फोटो-जर्नलिस्ट भी। 

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भारत के पांचवें, जो फिर आठवीं प्रधान मंत्री भी बनी थी श्रीमती इंदिरा गाँधी की न केवल साँसे अपनी बुलंदी पर थी, बल्कि उनकी शोहरत भी आसमान की ऊंचाई को छू रहा था। भारत के शहरों में, देश की राजधानी में, राज्यों की राजधानियों में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों द्वारा राजनीतिक शतरंज के चाल चले जा रहे थे। कोई लाल दरी बिछा रहा था, तो कोई हरी दरी। कोई अगल-बगल दीया जला रहा था, तो को झाड़ू लगा रहा था। सबों की निगाहें अंततः अंग्रेजी हुकूमत काल में बने इण्डिया गेट से विजय चौक के रास्ते किंग्सवे के अंतिम छोड़पर बने लाल भवनों की कुर्सियों पर टिकी थी। देश में उफान था। व्यापारीवर्ग भविष्य में होने वाले लाभ के मद्दे नजर उस राजनीतिक उफान में समय-समय पर घी मुफ्त में फेंक रहा था। अभी देश का सबसे पिछड़ा राज्य बिहार जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति की विपदा से उठा भी नहीं था, राज्य में शैक्षणिक संस्थाएं रेंग-रेंग कर ही चल ही रही थी। रोजी-रोजगार तबे पर जली रोटी की तरह जल चुकी थी। छात्र-छात्राओं का, युवक-युवतियों का भविष्य गंगा के किनारे सिकुड़कर बैठा था। 

उसी भीड़ में एक थे पटना सिटी के रहने वाले रंजन बसु। बसु साहेब का घर और गोविन्द राय साहेब का जन्मस्थान से पचास गज की दुरी पर था।  गोविन्द राय साहेब सिख समुदाय के नौवें गुरु गुरु तेग बहादुर और माता गुजरी के पुत्र थे। गोविन्द राय ही सिख के दसवें और अंतिम गुरु बने। समय के साथ-साथ गुरु गोविन्द सिंह नाम का महान धार्मिक साधु, विद्वान, प्रचारक और मानवता के रक्षक, खालसा के संस्थापक के रूप में मुखरित हुए । इतना ही नहीं, गुरु गोविन्द सिंह को गुरु ग्रन्थ साहेब को अंतिम रूप देने वाला हस्ताक्षर भी माना गया। आज गुरु गोविन्द सिंह का पटना साहेब “तख़्त सरहि हरिमंदिर पटना साहेब के रूप से जाना जाता है। रंजन बसु पर भी गुरु गोविन्द सिंह के जन्मस्थान वाली हवा का प्रभाव पहा। वे भी उसी हवा में पले-बड़े हुए और जीवन की लड़ाई जीतने के लिए सज्ज हुए। 

उन दिनों रंजन बसु पटना विश्वविद्यालय के बी एन कॉलेज के छात्र थे। स्नातक की परीक्षा दे चुके थे और शौकिया तौर पर कैमरा लेकर क्लिक-क्लिक करते थे पटना की सड़कों पर । एक मित्र ने सलाह दिया की किसी अखबार के लिए फोटोग्राफी क्यों नहीं करते? 

उस ज़माने में ”आज” अखबार पटना में टटका-टटका आया था और नेतृत्व कर रहे थे बाबू पारसनाथ सिंह। एक सज्जन के सहारे रंजन बसु बाबू पारसनाथ सिंह के पास उपस्थित हुए। नौकरी की बात चली। पारस बाबू का कहना था कि आप तस्वीर खींच कर लाएं, देखेंगे क्या किया जा सकता है। सकारात्मक हवा पटना के फ़्रेज़र रोड पर बहना प्रारम्भ हो गया था। 

साल 1988 और राजीव गाँधी पटना में – तस्वीर : रंजन बसु 

रंजन बसु कहते हैं: “मेरा एक मित्र था बच्चन। उसका पटना गोलघर के पास एक स्टूडियो था। वह मुझे यासिका इलेक्टो 35 कैमरा दिया और कहा कि तुम फोटो खींचो, हम डेवलप कर दिया करेंगे, प्रिंट बना देंगे। तुम उसे अखबार में दे देना। शुरुआत ऐसे ही हुई। दूसरे दिन दो तस्वीर बनी – एक पटना चिकित्सा महाविद्यालय अस्पताल के प्रवेश द्वारा पर कूड़ा का अम्बार और दूसरी, मीठापुर इलाके में बिजली के खम्भे पर बरगद का पेड़ का अस्तित्व। बात सं 1982 की है। पारस बाबू दोनों तस्वीरों को देखे और पूछे की किस तस्वीर को किस पेज पर छापा जाय और क्यों छापा जाय? मैं तस्वीर देकर चला गया। लेकिन पारस बाबू कहे कि वे दो दिनों तक इन दो तस्वीरों का उपयोग करेंगे और आप काम करते चलें।”

रंजन बसु आगे कहते हैं: “आप अंदाजा नहीं लगा सकते उस रात मैं सोया नहीं। सुवह पांच बजे से दरवाज ेपर इन्तजार करने लगा अखबार के लिए। अखबार देखकर ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। अखबारी दुनिया में एक फोटोग्राफर के रूप में प्रवेश और वह भी प्रथम पृष्ठ पर।”
 
“आज” समाचार पात्र में सिलसिला शुरू हो गया। उस ज़माने में पटना की सड़कों पर, अखबारी दुनिया में कृष्ण मुरारी किशन का बोलबाला था। बहुत मेहनतकश इन्शान थे मुरारी जी। पटना में फोटो पत्रकारिता को अपनी मेहनत से एक मुकाम तक ले गए थे वे । पटना ही नहीं, बिहार का कोई जिला नहीं होगा, कोई नेता नहीं थे, जो मुरारी जी को नहीं जानते थे। पारस बाबू मुझे मुरारी जी के साथ लगा दिए। मेरे पास कैमरा तो था, लेकिन फिल्म को धोने-पोछने और तस्वीर निकालने की बहुत व्यवस्था नहीं थी। मुरारी जी जहाँ भी जाते थे, मुझे भी साथ ले जाते थे।  दोनों तस्वीर खींचते थे। लेकिन शाम में जब अखबार में जाने के बात होती थी, तब मुरारी जी अपनी तस्वीर मेरे नाम से भेज देते थे। यह मुझे अच्छा नहीं लगता था। मुझे अपने काम से संतुष्टि नहीं मिलती थी। यहाँ एक विचारधारा में बदलाव आया। एक तो बी एन कालेज का नया-नया छात्र था और दूसरा बंगाली। विचारधारा के कारण मैं रेल की पटरी की तरह थोड़ी दूरी बना ली। उस समय आर्यावर्त-इण्डियन नेशन के फोटोग्राफर थे विक्रम कुमार।  वे बेहद नेक आदमी थे। वे परिस्थिति को भांप गए और मेरा हाथ पकड़ लिए।”

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रंजन बसु कहते हैं: “आज चालीस वर्ष बीत रहे हैं कैमरा थामे हुए। लेकिन आज भी अन्तःमन से अपने प्रारंभिक दिनों के गुरु तुल्य मित्र को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने कैमरा पकड़ना सिखाये, शटर दबाना बताये, फिल्म लोड करना सिखाये, डार्क रम में फिल्म को डेवेलोप करने का अवसर दिए ।  कभी ऊँगली नहीं किये अलबत्ता एक अभिभावक के रूप में ऊँगली पकड़कर चलना सिखाये, दौड़ना सिखाये और फिर इस क्षेत्र में जीवन की लड़ाई लड़ने को सज्ज किये। कभी अंकुश नहीं लगाए और कभी सीखने-सिखाने में पीछे भी नहीं हटे। मैं सीखता गया और वे सिखाते गए। समय बहुत बीत गया लेकिन आज भी याद आता है वह दिन तो आँखें भर आती है और उन्हें अन्तःमन से धन्यवाद देता हूँ। 

उस ज़माने में दिल्ली के वरिष्ठ छायाकाय रघु राय जी के एक शुभचिंतक थे पटना में। साल था 1985, वे मुझे दिल्ली जाने को बार-बार कहते थे। लेकिन दिल्ली में मेरा कोई ठिकाना नहीं था। वे मुझे एक पत्र लिखकर दिए और कहे कि आप दिल्ली पहुंचकर सबसे पहले रघु जी मिलेंगे।  ईश्वर पर भरोसा रखें।  कुछ अच्छा ही होगा। वे सज्जन भी एक छायाकार ही थे, लेकिन उनकी अभिरुचि आम छायाकारों से बिलकुल अलग थी, जिस ओर कोई जाना नहीं चाहता था, जीवन संवारने की बात तो दूर रहे। वे “तितली” के फोटोग्राफर थे और लाखों-लाख तस्वीर खींचे थे तितलियों की। 

“मैं जेब में उनकी दो पंक्ति की चिठ्ठी लेकर बिहार की राजधानी से देश की राजधानी की पहली यात्रा किया। समय बदल रहा था। उस चिठ्ठी के बल पर मैं रघु जी से मिला और उनका ही हो गया। उस ज़माने में इण्डिया टुडे पत्रिका में रघु जी के अलावे भवान सिंह थे, प्रशांत पँजियार थे, फिर प्रमोद पुष्करण जी आये। रघु जी को मैं अपनी खींची और अख़बारों में प्रकाशित तस्वीरों को दिखाया। रघु जी मुस्कुरा दिए। कहते हैं “मुन्ना” अखबार में जो तस्वीर छपती है उससे तुम्हारी काबिलियत को नहीं आंक सकता हूँ। मेरे कार्यालय में फोटोग्रॉफर की कोई खाली स्थान नहीं है।  एक स्थान “डार्क रूम असिस्टेंट” का है। क्या तुम काम करोगे?” मेरे पास “ना” कहने का कोई कारण ही नहीं था। ऐसा लगा जैसे साक्षात् भगवान् ऊँगली पकड़कर दिल्ली ले आये और रास्ता दिखा दिए। मासिक द्रव्य 900 /- रुपये तय हुआ उन दिनों।”

अगले दो महीनो तक दिल्ली की सड़कों को पैरों तले रगड़ते रहा, सीखते रहा। दिल्ली में ठंढ आने का दस्तक दे दिया था। मेरे पास कपड़े-लत्ते नहीं थे। मुझे पटना जाना आवश्यक था। मन में तूफ़ान उठ रहा था कि इस समस्या का निदान कैसे हो ? पैसा मांग नहीं सकता था। तभी रघुजी दिखे। पहले हालचाल पूछे। शरीर पर वस्त्र ठीक से नहीं था, और दिल्ली में मौसम भी बदल रहा था। रघुजी पूछे: “तनख्वाह मिला या नहीं?” मैं भौचक्का हो गया। सोचा शायद इन्हे मालूम नहीं कि दो महीने हो गए। मैं अपना गर्दन “नकारात्मक” रूप में हिलाया। फिर क्या था ! रघु जी तुरंत लेखा विभाग के अधिकारी को बुलाये और कहे की इस बच्चे को आप अभी तक वेतन नहीं दिए हैं? आप दोनों महीने का वेतन तत्काल दें, साथ ही, कुछ अग्रिम राशि भी दें, ताकि यह पटना जाकर सामान ला सके।

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भारत और अमेरिका का मिलन – तस्वीर : रंजन बसु

कुछ वर्ष काम करने के बाद “प्रोब इंडिया” में एक स्थान रिक्त हुआ फोटोग्राफर का। मन जाने को कर रहा था। यह बात मैं भवान सिंह को बताया। वे कहे कि नौकरी छोड़कर नौकरी नहीं ढूंढो। तुम आवेदन जरूर करो। देखो। मैं भी पता करता हूँ स्थिति क्या है। सभी “सकारात्मक” उत्तर था। तब भवान सिंह और रघु जी जाने की अनुमति दिए। प्रोब इंडियन में “सीनियर फोटोग्राफर” के रूप में आया। समय बदल रहा था। दिल्ली का मौसम भी बदल रहा था। यहाँ एक बार राइटर्स में भी मौका मिला, लेकिन जा नहीं पाया। 

इस बीच, हिंदुस्तान टाईम्स समूह में फोटोग्राफर की जरुरत थी। मैं भी आवेदन दिया। चयनित भी हुआ। लेकिन जब नियुक्ति पत्र हाथ में मिला, देखा तो लिखा था “पटना संस्करण” के लिए। मैं पेशोपेश में हो गया। उस ज़माने में अरुण जी (अरुण जैटली) पटना में थे और वे दिल्ली आना चाहते थे। उनके बदले जाना था। मैं “ना” नहीं कहा और फिर पटना पहुँच गया। साल 1987 था। इंदिरा गांधी की हत्या को तीन साल हो रहे थे। देश में राजनीतिक वातावरण भी बदल रहा था। पटना वापस आने पर कार्य में कोई कोताही नहीं किया, लेकिन मन दिल्ली के राजपथ पर, आई एन एस बिल्डिंग के नीचे जमघट पर लगा रहता था। तभी दिल्ली से “एशियन ऐज” अखबार का प्रकाशन शुरुन हुआ और मैं दिल्ली आ गया। कुछ दिन यहाँ रहा। फिर “प्लानमैन” प्रकाशन के सन्डे इन्डियन आ गया और फिर इण्डिया टुडे के लिए फ्रीलांसिंग करने लगा। आज भी जमकर फ्रीलांसिंग करता हूँ।  

आर्यावर्त इण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते रंजन बसु कहते हैं: “आज देश की पत्रकारिता, विशेषकर छाया-पत्रकारिता में एक नई परंपरा की शुरुआत हुई है, जो शुभ संकेत नहीं है । यह परंपरा आज ही नहीं, आने वाले दिनों में छाया-पत्रकारिता में दीमक लगा देगा। आम तौर पर एक फोटोग्राफर जब कैमरे से किसी विषय को क्लिक करता है तो उसकी मानसिकता और उस विषय की मानसिकता में पूर्ण रूप से सामंजस्य होता है। राजनीति की कवरेज की बात तो अलग है, दशकों पहले जो ‘ऑफ-बीट” तस्वीरों को खींचने की परम्परा थी, वह मृतप्राय हो गयी है। इतना ही नहीं, अनेकानेक समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में आज फोटो-एडिटर की भूमिका नगण्य हो गयी है। आज संस्था के प्रबंधकीय क्षेत्र के डिजाईन विभाग के प्रमुख, जिन्हे कैमरे का ए बी सी डी नहीं आता, शटर और शटर-स्पीड नहीं समझते, वे फोटोग्राफर्स द्वारा प्रस्तुत फोटो का संपादन करते हैं। अपने मन के अनुसार डिजाइन बनाते हैं। इससे फोटोग्राफर्स का क्रिएटिविटी समाप्त हो रहा है। कोई फोटोग्राफर जब किसी क्रिएटिव तस्वीर के लिए क्लिक-क्लिक करता है तो उस तस्वीर का अंत भी पहले ही सोच लेता है। 

रंजन बसु की पत्नी श्रीमती रत्ना बसु ‘कथ्थक’ की नृत्यांगना हैं। साथ ही, ‘मेक-अप आर्टिस्ट’ के रूप में ें नई शुरुआत की हैं। एक खूबसूरत सी बेटी मोहना बसु है जो साइंस जर्नलिस्ट है। सुहाना पहले भारत के श्रेष्ठतम संवाद एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया में थी।वर्तमान में “दी प्रिंट” से जुडी हैं। 

जब आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम ने रंजन बसु से पूछा कि आज आज़ादी के 75 वर्ष हो रहे हैं और भारत में प्रकाशन का इतिहास भी बहुत लम्बा है, आज भी एक लाख से अधिक प्रकाशनों की संख्या रजिस्ट्रार ऑफ़ न्यूजपेपर्स फॉर इण्डिया में अंकित है, फिर क्या वजह है कि महिलाएं की संख्या भारतीय फोटो-जर्नलिज्म  में नगण्य है? 

रंजन बसु कहते हैं: “नगण्य नहीं कहेंगे, आज संख्याएं बढ़ रही हैं, लेकिन पुरुषों की तुलना में महिला फोटो-जर्नलिस्ट्स नगण्य अवश्य हैं। ‘सुरक्षा’ सबसे बड़ा कारण है। महिला महज एक ‘योनि’ नहीं है, एक सम्पूर्ण परिवार है, एक समाज है। अब अगर हम वास्तविक रूप से, व्यावहारिक रूप में देश के परिवारों में, समाजों में सम्पूर्ण सुरक्षा भी भावना नहीं ला सकते हैं, महिलाओं में यह विश्वास नहीं जगा सकते हैं कि अगर वे फोटो जर्नलिज्म को अपनी पेशा चुनती हैं, तो इसमें उनका न केवल आर्थिक, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और सबसे अधिक शारीरिक सुरक्षा ‘सुरक्षित’ हैं, तब तक इस दिशा में संख्या में कोई इजाफा नहीं होगा। इसकी भीषण कमी है, किल्लत है।

हमें उन्हें सम्मान देना होगा। सम्पूर्ण सुरक्षा का मार्ग प्रशस्त करना होगा। 

क्रमशः

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