पटना / नई दिल्ली : साठ के दशक के उत्तरार्ध पढ़ने के लालसा अपने उत्कर्ष पर था। लेकिन पिताजी की आर्थिक स्थिति को देखकर आखों से निकलने वाली आंसू को होठों से नीचे होने नहीं देते थे, ताकि गलती से भी कहीं बाबूजी नहीं देख लें, उन्हें कष्ट नहीं हो जाय। उन्हें इस बात से तकलीफ नहीं होने लगे की बच्चे को पढ़ा नहीं पा रहा हूँ। लेकिन शायद बाबूजी जानते थे ईश्वर उनके बच्चे के लिए क्या प्रारब्ध चुना है। किसी का भी पिता, चाहे दरिद्र का हो या धनाढ्य का, बच्चे के लिए तो एक ब्रह्माण्ड ही होता है। मेरी आंसू बहुत कीमती थी इसलिए उसे जमीन पर नहीं गिरने देता था। आँखों से निकलने वाली आंसुओं की बुँदे जैसे ही इसाक न्यूटन के नियमों के अधीन चलने को तत्पर होता था, उनकी दिशा को बदलकर, उनकी गति को कम कर उसे वहां पहुंचा दिया जाता था, जहाँ भगवान कृष्ण अपनी माँ को इस ब्रह्माण्ड का दर्शन कराये थे।
मैं अशिक्षित तो था, लेकिन ‘अनपढ़ों’ की श्रेणी में पंक्तिबद्ध नहीं हुआ था। पेट की भूख पर नियंत्रण का चुका था अपने जीवन के उस उम्र में भी; परन्तु मष्तिष्क की भूख को नियंत्रित नहीं करना चाह रहा था। शायद पटना के ऐतिहासिक अशोक राज पथ के बायीं ओर बेगम साहिबा की कोठी के परिसर में कोने वाली एक कोठरी में जहाँ मैं रहता था; उससे कोई पांच सौ कदम उत्तर गंगा के किनारे माँ भगवती (माँ काली) मुझ जैसे अवैध बालक को देख रही थी और मेरे भाग्य का निर्णय ले रही थी – एक इम्तहान लेकर।
मन में अनेक प्रकार की भावनाएं उठ रही थी। एक शाम वह भावना अपने उत्कर्ष पर था। मैं जानता था यह गलत है और मैं गलत कार्य करने जा रहा हूँ; लेकिन यह भी जानता था, शायद ईश्वर ही इस कार्य को करने के लिए मुझे चुना है। उस शाम मैं बाबूजी के बक्से से एक रूपया का पांच नोट चोरी से निकाला। बाबूजी और मोहल्ले के लोग इसे चोरी करना कहे, जब मैं पकड़ाया था, पिटाया था; परन्तु यही कार्य मुझे अपने जीवन के गंतव्य की ओर उन्मुख कर दिया। आज पचपन साल बाद जो भी हूँ, उसी घटना के कारण – और मुझे फक्र है कि मैं ईश्वर द्वारा रचित उस रास्ते को सकारात्मक रूप से स्वीकारा, अपने सपने को गूंथने के लिए, साकार करने के लिए।
उस शाम मेरे पास 40 नए पैसे खुदरा थे। यह पैसे नोवेल्टी दूकान में पान-बीड़ी-सिगरेट-चाय आदि छोटे-छोटे कार्यों को करने के लिए लोग बाग़ दो पैसे, तीन पैसे, पांच पैसे दे दिया करते थे। यानी यथायोग्य पूंजी 5 रुपये 40 पैसे थे मेरे पास । अगले दिन सुबह-सवेरे पटना के गांधी मैदान बस अड्डा की ओर उन्मुख हो गया। बाबूजी सो रहे थे। रास्ते में अशोक राज पथ पर सैकड़ों कुत्ते मिले। कुछ देखकर भौंके भी, कुछ मुझे अपनी हाल में देखकर पूंछ भी हिलाये। मैं आगे बढ़ रहा था और उन जीवों के साथ एक आत्मीय सम्बन्ध स्थापित कर रहा था। मैं नहीं जानता था कि उस सुबह के बाद अगले छः से अधिक वर्षों तक ये सभी जीव मेरे अभिन्न मित्र होंगे। साल सन 1968 था। कभी कभी मन में ख्याल भी आता था कि जीवन में जिस पथ पर मैं चला हूँ, आने वाले समय में मनुष्य के रूप में ऐसे असंख्य जीव मिलेंगे, शायद यह जीव उन जीवों से मुकाबला कराने के लिए मुझे प्रशिक्षित कर रहा था।
बस अड्डे के प्रवेश द्वार के कोने पर दाहिने तरफ एक चाय की दूकान होती थी उन दिनों और बाएं तरफ एक विशालकाय बरामदा था। इसी बरामदे पर छोटी-छोटी खिड़कियां थी जहाँ से यात्रीगण अपने-अपने गंतब्य के लिए टिकट लेते थे। साथ ही, उसी बरामदे पर पटना से प्रकाशित आर्यावर्त, इण्डियन नेशन, सर्चलाईट, प्रदीप और जनशक्ति अखबार का बण्डल भी उतरता था। ये सभी अखबार धनबाद, रांची, डाल्टेनगंज, दरभंगा, पलामू, पूर्णिया, बिहारशरीफ और अन्य शहरों के लिए होता था । साथ ही, यहाँ यात्रीगणों के लिए भी अखबार बेचा जाता था। मैं अपनी पूंजी से वहीँ अखबार ख़रीदा और उसे वहीँ के यात्रियों के हाथों बेचा। उन दिनों इन्डियन नेशन अखबार की कीमत 15 पैसे, आर्यावर्त की कीमत 12 पैसे, सर्चलाईट की कीमत 10 पैसे और प्रदीप – जनशक्ति की कीमत छः पैसे थे। अखबार खरीदने-बेचने का काम कोई चार घंटे तक चला। चार घंटे बाद उसी चाय की दूकान के बाहर रखे लम्बे टेबुल पर बैठकर झोला से पैसे निकाल कर गिनना शुरू किया। दो नए पैसे, तीन नए पैसे, पांच नए पैसे, बीस नए पैसे, चौवन्नी, अठन्नी सबों को अलग-अलग रखा – चार घंटों में पांच रुपये चालीस पैसे कुल नौ रुपये साठ पैसे में बदल गए थे।
मन में व्याकुलता के स्थान पर प्रसन्नता स्थान बना लिया था। यह विश्वास हो गया था की हम आगे पढ़ सकते हैं। लेकिन मन में यह भी भूचाल उठ रहा था कि जब बाबूजी को मालूम होगा तक कितनी मार पड़ेगी। मन में सोच रहा था जब घर पहुंचू, तब तक बाबूजी दूकान चले गए हों। परन्तु मैं भी सज्ज था बाबूजी के हाथों मार खाने के लिए – आखिर पढ़ने की बात थी, आगे बढ़ने की बात थी जीवन में। बाद पटना के गाँधी मैदान के इस बस अड्डे से लेकर गोविन्द मित्र रोड, मखनियां कुआं, बारीपथ, मछुआटोली मोड़, खजांची रोड, पटना कॉलेज, कृष्णा घाट, साइंस कालेज, लॉ कालेज के रास्ते रानी घाट प्राध्यापक आवास तक दो सौ से अधिक अखबार बेचा करते थे। समय बदल रहा था। पेट और मष्तिष्क की भूख मेहनत से शांत हो रही थी।
बाबूजी अंग्रेजी के ज्ञाता नहीं थे। हिन्दी और संस्कृत विषयों में उतना ज्ञान अवश्य रखते थे कि अपने बच्चों को आदमी से इंसान बनने का मार्ग बताते रहें। उनका अक्षर बहुत ही बेहतरीन था। वे बनारस के मणिकर्णिका घाट और गौहाटी के कामाख्या मंदिरों में तंत्र की साधना किये थे। वर्षों बाद उन्हें सिद्धता भी मिली थी। भगवद्गीता का सभी 700 श्लोक उन्हें कंठस्थ था। बातचीत के दौरान वे जब भी किसी विषय पर अथवा विचार पर दृष्टान्त देने की बात होती थी, बाबूजी हमेशा भगवद्गीता को उद्धृत करते थे। वे हमेशा कहते थे, “जीवन में पढ़ने के महत्व को कभी कम नहीं होने देना। शिक्षा ही तुम्हारा प्रथम और अंतिम अस्त्र होगा। जीवन में कभी मेहनत करने में लुकाछिपी नहीं करना। मेहनत समय और ईश्वर के नजर में रहता है। ईश्वर और समय तुम्हें हमेशा अपनी नजर में आंकते रहेंगे। यह बात बाबूजी कोई पचपन साल पहले कहे थे। आज उन्ही शब्दों का, मसलन “पढ़ेगा इण्डिया – तो बढ़ेगा इण्डिया” , “सोच बदलो – देश बदलेगा” आदि स्लोगन कॉर्पोरेट स्लोगन बन गया हैं। हमसे तो बेहतर आप सभी जानते हैं।
उन दिनों दिल्ली-कलकत्ता से प्रकाशित अखबार दूसरे दिन के दोपहर बाद कोई साढ़े बारह बजे तक पटना रेलवे स्टेशन के पास कमला स्टोर्स के ठीक सामने बस अड्डा के दाहिने कोने पर कृष्णा एजेंसी में आया करता था । यह एजेंसी बिहार से प्रकाशित और बिहार में बंटने वाले सभी अख़बारों का एजेंसी था। यहीं होते थे “मानदाता सिंह” जो समस्त कार्यों का देख-रेख करते थे। उन दिनों कलकत्ता-दिल्ली से प्रकाशित अखबरों का भी कोई 10 ग्राहक थे मेरे, जिन्हे अगली सुबह पटना के अख़बारों के साथ दिल्ली-कलकत्ता वाला अखबार भी डाल देता था। कोई बुरा नहीं मानते थे। उन दिनों अखबार बेचने वालों को भी बहुत सम्मान के साथ देखते थे लोग, उसी तरह, जिस तरह अख़बारों में लिखने वाले पत्रकारों को। वजह भी था। अखबार बेचने वाला किसी भी अखबार के संपादक, सम्पादकीय विभाग और पाठकों के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी का काम करता था। आज जैसा सामाजिक वातावरण नहीं था की अखबार बेचने वालों को निम्न-स्तर का व्यक्ति समझें। आज तो सोशल मीडिया के जन्म के बाद क्या संपादक, क्या पत्रकार और क्या अख़बार बेचने वाला, किसी को कोई महत्व नहीं देता। देश का सबसे बड़ा पत्रकारिता-गृह सोशल मीडिया हो गया है और यहाँ पालथी मारकर बैठे ‘स्मार्ट-फोन धारक’ से बड़ा पत्रकार और छायाकार कोई नहीं है ।
दिल्ली और कलकत्ता या कभी कभी पटना से प्रकाशित अख़बारों के समाचार की शुरुआत में जब किसी लेखक (रिपोर्टर) का नाम देखता था, पढता था, मन में उनके प्रति सम्मान पटना के गोलघर से भी ऊँचा होता था। उन दिनों बिस्कोमान बनी नहीं थी। हाँ नींव रखी जा चुकी थी। गोलघर की ऊंचाई मापने का सर्वश्रेष्ठ मापक था। गोलघर में 104 सीढ़ियां थी। शायद आज भी उतनी ही सीढियाँ होंगी। अखबारों में पत्रकारों/रिपोर्टरों का नाम लिखा देख मन में ऐसा लगता था वे सभी माँ सरस्वती के वरद पुत्र होंगे। नहीं हो इतनी बेहतर, शुद्ध, सामान्य अंग्रेजी शब्दों का विन्यास कर सभी बातें कैसे लिख देते हैं ! समय बीत रहा था। हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत सभी भाषाओं के वार्षिक कैलेण्डर में तारीख, महीना और साल बदल रहा था। सत्तर की दशक की शुरुआत हो गयी थी। उन दिनों पटना कालेज के सामने स्थित अपने घर से कृष्णा एजेंसी आने के क्रम में आमतौर पर गांधी मैदान के बीचो-बीच का रास्ता लेते हुए फ़्रेज़र रोड को पार करते थे। गाँधी मैदान में हमारी यात्रा प्रारम्भ होने से पहले बिहार के लाखों लोगों ने पैदल चलकर अपने-अपने पैरों के निशान छोड़ चुके थे। मैं भी अपने पैरों का निशान बनाना चाहता था।
जब भी फ़्रेज़र रोड का रास्ता लेता था और डॉ स्वामीनंदन के घर से दाहिने मुड़कर आगे बढ़ता था, सामने कोने पर “मैंगोलिया” रेस्टोरेंट और ‘बार’ दीखता था। बेहतरीन लाल रंग का बोर्ड और ‘कर्सिव’ अक्षर में मैंगोलिया लिखा होता था। इस स्थान पर संध्याकाळ में शहर के विद्वानों की, खासकर जो पटना से प्रकाशित अथवा देश-दुनिया के अख़बारों में, पत्रिकाओं में लिखते थे और जिनका नाम हम अख़बारों में पत्रिकाओं में, कहानी के सबसे ऊपर अथवा कहानी के अंत में पढ़ते थे, उनका जमघट होता था। मैं उनमें किन्ही को भी प्रारम्भ में नहीं जानता था। लेकिन कुछ वर्ष बाद उनके नामों की आदत सी हो गई। उस जमघट में खड़ा होना भाग्य की बात होती थी। मैं उन दिनों नहीं जानता था एक दिन मैं भी उन महान लोगों की परछाई में पलूँगा, ज्ञान प्राप्त करूँगा, सीखूंगा और उनके पदचिन्हों पर चलते, पत्रकार भी बनूँगा।
उस ज़माने में वहां बी एन झा, डी एन झा, फ़रज़न्द साहब, दुर्गा बाबू, मिथिलेश मैत्रा, जे डी सिंह, कृपाकरण जी, उपाध्याय जी जैसे महापुरुष खड़े होते थे। प्रदेश के बड़े-बड़े राजनेता, जो उन दिनों पैदल चलने में हिचकी नहीं मारते थे, चीनी की बिमारी से ग्रसित नहीं होते थे, जिन्हे नेता होने का गुमान नहीं होता था, जो उन पत्रकारों के सामने नतमस्तक रहते थे। जिन्हे अपनी औकात का अंदाजा रहता था की सड़क के कोने पर खड़े इन महाशयों की एक कलम से उनकी राजनीतिक ही नहीं, पारिवारिक जीवन का भी सर्वनाश हो जायेगा – उन महानुभावों के पास कुछ क्षण अवश्य बिताते थे। आज जैसे नेता नहीं जिन्हे न तो ”अक्षर” का ज्ञान है और ना ही ”मानवता” है। जो न तो पत्रकारों के नजर में सम्मानित हैं और ना ही अपने नजर में। वैसे आज पत्रकारों की छवि भी वैसी नहीं है।
फ़रज़न्द साहेब हमारी उम्र के लगभग सभी पत्रकारों के प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से “गुरुदेव” रहे हैं। बिहार की पत्रकारिता में फ़रज़न्द अहमद सबों के लिए “फ़रज़न्द साहेब” ही रहे, ताउम्र। फ़रज़न्द साहेब मुद्दत तक यूएनआई में रहे, फिर सं 1982 में अमृत बाजार पत्रिका में कुछ दिन काम किये। फिर ‘इण्डिया टुडे’ का जीवन पर्यन्त होकर रह गए। भारत का शायद ही कोई पत्रकार अथवा पाठक होंगे, शायद ही कोई ‘संवेदनशील’ राजनेता होंगे, अधिकारी होंगे जो फ़रज़न्द साहेब को नहीं जानते होंगे। गजब के घनी थे फ़रज़न्द साहेब ‘शब्दों’ का, ‘मानवीयता’ का, ‘इंसानियत’ का, प्रेम का, सम्मान का। पांच वर्ष पूर्व, जिस दिन देश के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का 147 वां जन्मदिन था, फ़रज़न्द साहेब 2 अक्टूबर, 2016 को ईश्वर के पास पहुँचने के लिए अनंत यात्रा पर निकल गए।
वैसे फ़रज़न्द साहेब अपने जीवन-काल में देश को बेहतरीन पत्रकारों को अर्पित किया, लेकिन उन्ही शिष्यों में एक शिष्य हैं फैज़ान अहमद साहेब, जो अन्य शिष्यों से थोड़ा अलग थे । शब्दों के उतने ही धनी हैं। शब्दों के साथ कबड्डी-कुस्ती खेलने में न कलम पीछे करते हैं और ना ही खुद। लिखने में पारंगत हासिल है उन्हें। स्वाभाविक भी है। पटना में शायद कुछेक पत्रकार होंगे जिन्हें उर्दू भाषा पर जितना नियंत्रण हैं, अंग्रेजी और हिंदी भाषा भी पनाह ली है उनके पास। पटना से ही प्रकाशित नहीं, बल्कि देश के, विश्व के किसी भी कोने में किसी भी पत्रकार को किसी भी समाचार का इतिहास, भूगोल, गणित समझने की बात हो, दशकों पहले क्या हुआ था, जाने की इक्षा हो, उत्कंठा हो – फैज़ान अहमद “विश्वकोश” (एन्साइक्लोपीडिया) हैं।लन्दन, अमेरिका और अन्य देशों के पत्रकार जब भी बिहार की राजनीति पर, बिहार के अपराध पर, बिहार की बाढ़ पर, बिहारी की गरीबी पर, बिहार की अशिक्षा पर, बिहार के बेरोजगारी पर, बिहार से पलायन पर लिखने की बात सोचते हैं, सभी फैज़ान अहमद के दरवाजे पर दस्तक देते हैं। एक पत्रकार को जीवन में इससे बेहतर कमाई और क्या हो सकती हैं। फ़ैज़ान अहमद के सभी दोस्त हैं चाहे पत्रकारिता के क्षेत्र में हों या मानवता के क्षेत्र में।
आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम अपनी श्रृंखला के क्रम में फैज़ान अहमद से बात किया और उनसे पूछा कि आम तौर पर पत्रकार बिहार छोड़कर देश-दुनिया का रास्ता चुनते हैं, आगे बढ़ने के लिए, अर्थोपार्जन करने के लिए, नाम कमाने के लिए, शोहरत कमाने के लिए। लेकिन फैज़ान अहमद पटना नहीं छोड़े, ऐसा क्यों?
फैज़ान साहेब कहते हैं: “यह पटना की मिट्टी का गुण है और गुण है हमारे मोहल्ला सब्जीबाग का। इस मोहल्ले की एक खास विशेषता यह है कि एक बार अशोक राज पथ से सब्जीबाग के रास्ते जिसने भी अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए, मंजिल पर पहुँचने के लिए, दूसरे रास्ते का अख्तियार किया, वह जीवन-पर्यन्त सब्जीबाग को नहीं भूल सका। मैं भी नहीं भूल सका । यहाँ की मिटटी में, यहाँ के लोगों में, यहाँ के वातावरण में, यहाँ की हवाओं में, परिवेश में एक अलग सा आकर्षण है। यहाँ के लोगों में एक अलग सा प्रेम और स्नेह है। यहाँ दुआ-सलाम ह्रदय की गहराई से होती है। प्रारंभिक दिनों में जब पत्रकारिता की ओर आकर्षण बढ़ रहा था, उन दिनों भी कोई कमी नहीं महसूस हो रही थी। विज्ञानं और तकनिकी की विकास के साथ-साथ सभी बातें हमारे शहर में भी उपलब्ध होने लगी, फिर जाने का मन नहीं हुआ। उससे भी बड़ी बात यह थी कि आज विश्व में पत्रकारिता के क्षेत्र में जितने भी दिग्गज हैं, जिनकी जमीन पटना (बिहार) से हैं, वे बिहार पर ही तो कहानी कर आगे बढे हैं। फिर मैं बिहार को छोड़कर क्यों जाऊं। जन्नत है हमारे पटना में, हमारे सब्जीबाग में।
इतिहासकार मानते हैं कि सब्जीबाग का इलाका कई सौ वर्ष पूर्व गंगा नदी के बहुत करीब था। उन दिनों उत्तर बिहार से मगध क्षेत्र में आने के लिए नाव के अलावे कोई दूसरा विकल्प नहीं था। गंगा पार से व्यापारिक खाद्यान्न, फल-सब्जी लेकर पहले ‘अंटा घाट’ में उतारते थे और फिर यहीं से कुछ दूर पर स्थित इस इलाके में बेचा करते थे। यह क्षेत्र पटना के तल्कालीन इलाके का मध्य में होता था। यह इलाका कारीगरों से लेकर विद्वानों, साहित्यकारों का गढ़ मन जाता है।
फैज़ान अहमद पिछले 37 वर्षों में उर्दू पत्रकारिता से लेकर अंग्रेजी पत्रकारिता तक, पटना के अख़बारों से लेकर दिल्ली, कलकत्ता के अख़बारों के रास्ते विश्व का शायद ही कोई पत्र/पत्रिका रहा होगा, जिसके लिए प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कार्य नहीं किया। और इसका वजह है “इनकी कहानियों को कभी किसी कोने से, कोई भी, चाहे पाठक हों अथवा जिनके बारे में लिखा गया हो, आलोचना नहीं किया गया। पाठकों को पढ़कर कभी ऐसा नहीं लगा की यह संवाददादा अपनी लेखनी में ‘पक्षपात’ किया है। इन विगत वर्षों में इनकी लेखनी ही इनकी पहचान रही है। पिछले साढ़े-तीन दशकों में प्रदेश में चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दुबे, भागवत झा आज़ाद, सत्येन्द्रनारायण सिन्हा, जगन्नाथ मिश्र, लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी, जीतन राम मांझी, नीतीश कुमार जैसे राजनीतिक योद्धा भले प्रदेश का मुख्य मंत्री बने – आये-गए- लेकिन फैज़ान अहमद की कलम न कभी नीली हुई, न कभी पीली हुई। हां, पांच फीट सात इंच के इस पत्रकार को देखकर क्या नेता, क्या अभिनेता सभी ‘सहम’ जरूर जाते हैं, आज भी।
बाराबंकी (उत्तर प्रदेश) के मबई गाँव मुश्ताक़ अहमद खॉ, जो यूनानी हकीम थे और ग़ुबार भट्टी के नाम से शायरी भी करते थे, के घर में जन्म लिए फैज़ान अहमद का जन्म हुआ। कोई पांच वर्ष के जब थे फैज़ान जी, इनके पिता का हस्तानांतरण पटना हो गया। साल साठ के दशक का प्रारम्भि वर्ष था। फैज़ान साहेब की प्ररंभिक शिक्षा पटना के महेन्द्रू घाट स्थित संत जोसेफ कान्वेंट स्कूल में हुआ। वैसे यह स्कूल बालिकाओं के लिए हैं, लेकिन उन दिनों छोटे-छोटे वर्गों में लड़के भी पढ़ते थे। यहाँ की प्रारम्भिक शिक्षा के बाद ये पटना मुस्लिम हाई स्कूल पहुंचे। यह स्कूल पटना कॉलेज के सामने से जो एनी बेसेंट रोड रास्ता निकलता है, उसके अंतिम छोड़ पर बी एम दस रोड के बाएं कोने पर स्थित है। स्कूली शिक्षा के बाद फैज़ान अहमद पटना कॉलेज और पटना विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा प्राप्त किये।
पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश और अभिरुचि के बारे में फैज़ान अहमद कहते हैं: “मेरे बड़े भाई रजवान अहमद उर्दू साहित्य के बेहतरीन लेखक थे। उन्हें पत्रकारिता के क्षेत्र में भी बहुत अभिरुचि थी। सं 1969 में वे महिलाओं के लिए एक पत्रिका “जेवर” भी निकाला। सन 1973 के आस-पास ‘अज़ीमाबाद एक्सप्रेस’ नामक एक साप्ताहिक का प्रकाशन उन्होंने प्रारम्भ किया। मैं उस पत्रिका का प्रकाशन, वितरण समय पर हो, जिम्मेदारी स्वीकार किया। लेखनी का काम वे खुद देख रहे थे। उनका समाज में बहुत सम्मान था। एक वर्ष बाद इस पत्रिका को बहुत ख्याति मिली। परिणाम यह हुआ कि ‘अज़ीमाबाद एक्सप्रेस’ साप्ताहिक से ‘दैनिक’ हो गया।”
फैज़ान साहेब आगे कहते हैं: “इस बीच मैं पटना विश्वविद्यालय से लेबर एंड सोसल वेलफेयर’ विषय में स्नातकोत्तर किया। पढ़ने में बेहतर था। घर के सभी लोग चाहते थे कि मैं किसी सरकारी अथवा निजी कंपनी में लेबर इन्स्पेक्टर या अन्य पद के नौकरी के लिए कोशिश करूँ। अब तक मैं अजीमाबाद एक्सप्रेस’ में भी लिखना शुरू कर दिया था। लेकिन मुझे ऐसा लगा की उर्दू समाचार पत्र अथवा पत्रिका के पाठकों की संख्या सीमित हैं भारत के पाठकों की बाज़ारों में। शायद यह मेरे जीवन का एक ‘टर्निंग पॉइंट’ था।”
फैज़ान साहेब कहते हैं: “उन दिनों देश विदेश के बहुत पत्र-पत्रिका हमारे समाचार पत्र के दफ्तर में आया करते थे। उन दिनों भुट्टो और उनकी ख़ुफ़िया विभाग पर बहुत सी ख़बरें छप रहीं थी बाहर के देशों के अख़बारों में, खासकर पाकिस्तान के अख़बारों में। मैंने उन कहानियों को पढ़कर एक लेख लिखा की कैसे उस ख़ुफ़िया विभाग को समाप्त करने की साजिश हो रही है। इस कहानी को मैंने डाक से ‘दी टेलीग्राफ’ कलकत्ता के तत्कालीन संपादक एम जे अकबर को भेजा। उस लेख की प्राप्ति के बाद अकबर साहेब उसे संडे पत्रिका में प्रकाशित किये, शीर्षक था – “भट्टोज थर्ड आईज” ।
समय बदल रहा था। अब तक अस्सी के दशक का मध्य बीत रहा था और अजीमाबाद एक्सप्रेस से मेरी यात्रा भी अपने अंत पर आ रहा था। साल 1989 था। उस समय देश के बेहतरीन फोटोग्राफर कृष्ण मुरारी किशन ने मुझे अकबर साहेब से मिलाए । अकबर साहेब ने दो-टूक में कहा: “दी टेलीग्राफ में काम करोगे?” अंग्रेजी पत्रकारिता में काम करने वाला कोई भी आदमी दी टेलीग्राफ अखबार में काम करना चाहेगा। मेरे पास खुला निमंत्रण था। और सब्जीबाग का फैज़ान अहमद अब टेलीग्राफ को जो गया। यहाँ दस साल तक रहा।”
इस बात को कोई भी पत्रकार इंकार नहीं कर सकते हैं कि बिहार समाचार की दुनिया में एक फैक्ट्री है। यहाँ राजनीतिक समाचार से लेकर – जो देश की राजनीति की दशा और दिशा दोनों निर्धारित करता है – शायद ही कोई क्षेत्र होगा, जिसकी कीमत भारत ही नहीं, विश्व प्रकाशन में महत्वपूर्ण नहीं है। बिहार में जितनी राजनीतिक उथल-पुथल होती है, भारत के किसी भी राज्य में नहीं होता है। यही एक प्रदेश हैं जहाँ “लाट-साहेब” से लेकर “मुख्यमंत्री” तक “आया-राम-गया-राम” के मुहाबरे पर दशकों विश्वास करते थे, विशेषकर नब्बे के दशक के प्रारंभिक वर्षों तक, जब प्रदेश का बाग़ डोर लालू प्रसाद यादव के हाथों आया।
फैज़ान साहेब कहते हैं: “बात सं 1989 की है , प्रदेश की नवमीं विधान सभा (1985-1990) समय के दौरान पांच वर्षों में चार मुख्यमंत्री आगे और गए – बिंदेश्वरी दूबे, भागवत झा ‘आज़ाद’, सत्येन्द्र नारायण सिन्हा और जगन्नाथ मिश्र। वे सभी कांग्रेस पार्टी के नेता थे। प्रदेश की राजनीतिक व्यवस्था सम्पूर्णता के साथ अस्थिरता के वातावरण में था। एक दिन अकबर साहेब फोन पर कहे की क्या हो रहा है पटना में? मैं उन्हें बताया। वे कहे कि जाओ, देखो और कहनी फ़ाइल करो। मैं ऐसा ही किया। लेकिन वहां दी टेलीग्राफ के पहले से संवाददाता उपस्थित थे। मैं जीपीओ से कहानी भेजा। उस दिनों कलकत्ता का अखबार दूसरे दिन आता था पटना । लेकिन मुझे फोन पर कहा गया कि हमारी कहानी सेकेण्ड लीड में छपी है मेरे नाम से। उस कहानी में दी टेलीग्राफ के पहले के संवाददाता का भी नाम लिखा था। यह समय तत्कालीन संवाददाता उत्तम सेन गुप्ता जी का विदाई का समय था।”
फैज़ान साहेब कहते हैं: “अपने समय काल में मैं बिहार का शायद ही कोई नरसंहार होगा, जिसे मैं कवर नहीं किया हूँगा। दर्जनों से अधिक संहार हुए प्रदेश के दूर-दरसत इलाके में, गाँव में। हमारे साथ कृष्ण मुरारी किशन हमेशा साथ रहते थे। आज उनकी कमी महसूस होती है। बहुत जल्दी चले गए वे।” जब उनसे पूछा की जिन-जिन अखबारतों में आप काम किये – दी पायोनियर, दी टाईम्स ऑफ़ इण्डिया, दी टेलीग्राफ, न्यूजपेपर्स टुडे(डॉट)कॉम, दैनिक जागरण – सबसे अधिक स्वाधीनता कहाँ थी जहाँ आपके शदों के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं हुआ, कहानी के लिए कभी कुछ कहा नहीं गया। फैज़ान साहेब कहते हैं: “दी टेलीग्राफ। उस अखबार से अधिक स्वाधीनता कभी कहीं और नहीं मिली।”
एक घटना का वृतांत बताते फैज़ान साहेब कहते हैं: “जब 1989 में भागलपुर दंगा हुआ था तत्कालीन मुक्यमंत्री मुझे बुलाये थे, साथ भी ले गए थे भागलपुर। वे चाहते थे दंगा पर कहानी लिखते समय शब्दों का चयन, वाक्यों का विन्यास कुछ अलग हो, तस्वीर नहीं प्रकाशित हो। उनके अलावे उनके चतुर्दिक पुलिस वाले भी यही चाहते थे। वे भी स्पॉट पर पहुंचकर दृश्य देखे थे। लेकिन वे हमारी कहानी से कुछ और उम्मीद रखते थे। बोल नहीं रहे थे, लेकिन चाहते अवश्य थे की लेखनी की गति, कटाक्ष कम हो। यह बिहार ही नहीं, दिल्ली और देश के अन्य राज्यों के साथ-साथ विदेशों में भी उनकी राजनीति छवि ख़राब हो गई थी। लेकिन हमारा अखबार ‘दी टेलीग्राफ’, उसका सम्पादकीय विभाग और संपादक और अन्य पत्रकार हमसे “सत्यता वाली शब्दों” की अपेक्षा करते थे। वे मेरे पीछे, मेरी लेखनी के पीछे, शब्दों के पीछे पहाड़ जैसा खड़े थे। किसी भी अखबार के लिए संपादक और सम्पादकीय विभाग को हमेशा रिपोर्टर के पीछे अडिग रूप में खड़ा होना चाहिए, तभी एक रिपोर्टर खुलकर लिख सकता है। सच लिख सकता है। मैंने वही किया।”
फैज़ान साहेब के तीन बच्चे हैं – दो बेटी और एक बेटा। बेटा पुणे में आईटी अभियंता है। एक बेटी आईसीएमआर से बायो-साइंस में स्नातकोत्तर की है और दूसरी टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में पत्रकारिता कर रही है। स्वाभाविक है माता-पिता का ज्ञान, विज्ञान, सोच-विचार सभी पुस्तैनी में प्राप्त हुआ है। फैज़ान साहेब अपनी बेटी पर कभी दबाब नहीं डाले की वह पत्रकार बने। लेकिन उनसके पास जो शब्दों का भण्डार ‘हेरिटेज’ के रूप में प्राप्त हुआ, उन शब्दों से वह सिर्फ और सिर्फ पत्रकारिता में ही खेल सकती है, इसलिए फ़रयाल रूमी पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम बढ़ाई। हम सभी ईश्वर से कामना करते हैं कि वह पिता से भी अव्वल हो।