यह धनबाद है, यहाँ ‘मनुष्य’ और ‘कुत्ते’ के ‘बच्चे’ एक साथ खाना खाते हैं, यहीं 400 करोड़ रुपए की रंगदारी भी वसूली जाती है (बिहारका फ़ोटोवाला: श्रृंखला-9)

इस तस्वीर का कैप्शन आप लिखे। आप तो नेता भी हैं, अधिकारी भी हैं

धनबाद / दिल्ली : धनबाद के सूर्यदेव सिंह को तत्कालीन अख़बार बालों ने “कोयला माफिया” शब्दों से अलंकृत किये थे। धनबाद के तेलीपाड़ा के कोने से निकलने वाला दो पन्ने का अखबार से लेकर हीरापुर से प्रकाशित ‘आवाज’, बैंक मोड़ से प्रकाशित “जनमत”, पटना, दिल्ली, कलकत्ता से प्रकाशित लगभग सभी अख़बारों के नुमानन्दे सूर्यदेव सिंह के अलावे, कोयला क्षेत्र में मेहनत और सोच के बल पर अपना-अपना आशियाना बनाने वाला प्रत्येक मजदूर और नेता भारतीय पत्रकारिता के नजर में माफिया था। अंग्रेजी अखबार वाले कभी-कभी “माफिओसो” भी लिखते थे। ये सभी वे लोग थे जो कोयला नगर परिसर से बाहर रहते थे। जो अंदर थे, यानी, भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (धनबाद), सेंट्रल कोल फील्ड्स लिमिटेड (रांची), कोल इण्डिया लिमिटेड (कलकत्ता) और कोयला मंत्रालय, शास्त्री भवन, नई दिल्ली में “कुर्सी” पर बैठे थे; उनके बारे में ‘माफिया’ शब्द का इस्तेमाल नहीं होता था। वे अख़बारों के अप्रत्यक्ष भगवान् होते थे – वजह था “विज्ञापन” – सम्बद्ध संस्थानों द्वारा “आओ-भगत” और बहुत सारी “अन्य” बातें। धनबाद से लेकर पटना के रास्ते दिल्ली और कलकत्ता तक, उन दिनों भी, और आज भी, कोयला के प्रशासन से जुड़े शायद ही कोई महानुभाव होंगे तो कोयला के ऋणी नहीं होंगे – चाहे इस तरह या फिर फिर उस तरह।राजनैतिक प्लेटफार्म के सहारे कोयले की काली कमाई पर वर्चस्व जमाने के क्रम में कोयलांचल की धरती खून से लाल होती रही, यह भी सच है; और उससे भी अधिक सच यह है कि “सफ़ेद वस्त्र धारी कभी भी अपने-अपने वस्त्रों पर छींटे तक नहीं आने दिए।” धनबाद का इतिहास गवाह है, यहाँ गैंगवार में सार्वजनिक स्थलों पर ही दिनदहाड़े विरोधियो की हत्याएं होती रही हैं। शूटर अत्याधुनिक हथियारों का ही इस्तेमाल करते रहे हैं और मजदूरनेता  राजनीति के सहारे कोयलांचल पर अपना दबदबा जमाए रखने में सफल होते आ रहे हैं। खैर। 

पटना से प्रकाशित ‘दी इण्डियन नेशन’ – ‘आर्यावर्त’ पत्र-समूह पर मालिकों के अलावे श्रमिकों, श्रमिक संघों, प्रदेश के राजनेताओं, बिचौलियों की नजर लग गयी थी। संस्थान के प्रवेश द्वार पर “काला टीका” लगाने के लिए “अलकतरा को ही पिघला कर” लगा दिया गया था, लेकिन कुछ काम नहीं आया। कोई “आन” के लिए लड़ रहा था तो कोई “आन पर” समूह और संस्थान को समाप्त करने की कोशिश कर रहा था। कबड्डी-कबड्डी दोनों तरफ से हो रही थी। कोई यह सोच रहा था कि जीवन के अंतिम सांस में ही सही, कुछ आर्थिक लाभ प्राप्त हो जाए जिससे बुढ़ापे में गाँव में खेत की आड़ पर बैठकर बीड़ी सुलगाते कथा-वाचन करेंगे। जो “आन” पर लड़ रहे थे या जो “आन के लिए” लंगोट कसे थे, दोनों में किसी को भी उस समूह को स्थापित करने में एक बून्द पसीना भी नहीं चुआ था। जिन्हे “मुफ्त” में संपत्ति मिली थी, वे खुलकर “उड़ा” रहे थे; जो संपत्ति पर अपना अधिपत्य जमाना चाह रहे थे, वे दरभंगा राज के अंदर, लाल-कोठी के अंदर-बाहर, दरभंगा राज के लोगों को ही इस्तेमाल कर, शतरंज की गोटियां बिछा रहे थे। 

आग और कोयला खदान

और इस बीच पटना के ऐतिहासिक फ़्रेज़र रोड पर तत्कालीन केंद्रीय कारा के सामने सन 1930 और 1940 से प्रकाशित ‘दी इण्डियन नेशन’ और ‘आर्यावर्त’ अखबार “लंगड़ाना” शुरू कर दिया था। कमर भी झुक गई थी। उस संस्था में काम करने वाले कामगारों के घरों में चूल्हे की आंच भी कम होने लगी थी। अर्थ की कमी के कारण चूल्हे पर अब चार वक्त वर्तन नहीं चढ़ते थे। मेरा घर भी अछूता नहीं था। खाना परोसते समय माँ रोटियों की संख्या कम कर दी थी। दाल में झोल अधिक होता था। यदा-कदा कभी दाल तैरते दिख जाते थे। माँ कहती थी “दाल का पानी पीने से शरीर में ताकत” आएगा। आखिर माँ थी। मेरे पास कोई विकल्प नहीं था सिवाय इसके की मैं पटना से बाहर निकलूं नौकरी की तलाश में। 

अस्सी के दशक का मध्यकाल था। श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी थी। उस दिन इण्डियन नेशन सम्पादकीय विभाग में मानव-मस्तिष्कों का सैलाव था। परन्तु लाइनों मशीन का टाइपोग्राफी अधिकतम 72 पॉइंट्स तक ही था और लकड़ी वाले अक्षरों का फ़ाऊँट भी 108 से अधिक नहीं था। वैसे लकड़ी के फ़ॉन्ट्स का मुद्दत से कभी प्रयोग नहीं होने के कारण प्लेट बनते समय टूटने का अंदेशा अधिक था। परिस्थितियों को देखते सम्पादकीय विभाग के दो वरिष्ठ संवाददाता – श्री दुर्गा नाथ झा (अब दिवंगत) और श्री मिथिलेश मैत्रा @ बाबुलदा (अब दिवंगत) मुझे हाथ से लिखने को कहे। अखबार के संपादक श्री दीनानाथ झा (अब दिवंगत) वहीँ बैठे थे। बाबुल दा उनसे कहे: “सर, आपने शिवनाथ का अक्षर नहीं देखा है! आप मंत्रमुग्ध हो जायेंगे।’ स्वयं को बचाते श्री दीना बाबू कहते हैं: “आखिर गरीब ब्राह्मण का बेटा है। माता-पिता का संस्कार तो आएगा ही।” मैं आठ कॉलम में दो हेड लाईन बनाया: “MRS GANDHI ASSASSINATED” और “INDIRA GANDHI ASSASSINATED” – दूसरे दिन दी इण्डियन नेशन अखबार का बैनर था “MRS GANDHI ASSASSINATED” – हेड लाईन का हाथ से लिखा होना, पटना ही नहीं, बिहार के पाठकों के लिए बिल्कुल नया था। यह मुझे एक अलग पहचान दिया। 

आएं, धनबाद चलें 

उन दिनों धनबाद से आवाज प्रकाशन के मालिक श्री ब्रह्मदेव सिंह (गुरूजी) के छत्र-छाया में एक अंग्रेजी अखबार का प्रकाशन होना निश्चित हो गया था – दी न्यू रिपब्लिक। यह अखबार पहले श्री उत्तम सेन गुप्त, जो दी टेलीग्राफ अखबार के बिहार के संवाददाता थे, उन्हीं का था। उन दिनों पटना में एक वरिष्ठ पत्रकार श्री रवि रंजन सिन्हा (अब दिवंगत) हुआ करते थे। मैं उनसे मिला और वे तक्षण मुझे धनबाद के लिए रवाना होने को कहा। लेकिन मैं अपना पैर पीछे कर लिया। सिन्हा साहेब तनख्वाह 1800/- रुपये दे रहे थे, जो कोयलांचल के लिए बहुत कम था। मेरी ओर देखकर और आर्यावर्त अखबार के पूर्व संपादक श्रीकांत ठाकुर ‘विद्यालंकार’ (अब दिवंगत) के पुत्र श्री अशोक ठाकुर (अब दिवंगत) कहने पर तनख्वाह 2400 + 600 = 3000 /- रुपये कर दिए और कुछ पैसे अलग से। मैं खुश था। एक बक्से में किताब-कागज-कपड़ा लेकर गंगा-दामोदर एक्सप्रेस से पाटलिपुत्र की धरती को नमस्कार कर ”कोयलांचल” में प्रवेश किया। माँ-बाबूजी (अब दिवंगत) सभी आशा और विश्वास की नजर से मुझे देख रहे थे और मैं ईश्वर पर विश्वास बनाये हुए जीवन यात्रा की शुरुआत कर रहा था। साल 1987 था। 

कोयला खदान में मजदूर

धनबाद उस समय भी मेरे लिए नया जगह नहीं था। सुबह-सवेरे जब धनबाद स्टेशन पर उतरा – सामने एक दुबला-पतला कोई 50 किलो वजन का मुझ-जैसा ही हार-मांस-रंग-रूप-आकार-प्रकार का व्यक्ति स्टेशन पर दिखा। मुझमे और उस महा मानव में एक ही अंतर था। मेरे जेब में ‘कलम’ और उनके ‘गर्दन’ में कैमरा लटका था। अब तक अख़बारों की दुनिया में कोई 12 वर्ष का जीवन हो गया था, अतः अपने जाति के प्राणी को पहचानने में कोई गलती नहीं किया। महा मानव का नाम जोयदेव गुप्ता था। आज भी स्वस्थ हैं, प्रसन्न हैं और अपने कैमरे को क्लिक-क्लिक कर रहे हैं बहुत सम्मान के साथ। वैसे धनबाद जैसे शहर में, लोग बाग़ कोयले से हीरे कमाने के चक्कर में या तो द्रव्यों का ढ़ेर कर लेते हैं, या फिर शरीर से ही ढ़ेर हो जाते हैं।

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कोयला खदान में मजदूर

लेकिन जोयदेव साहेब अपनी ईमानदारी, मान-सम्मान के आगे किसी भी सजीव-निर्जीव पदार्थों को आगे नहीं निकलने दिया। साथ ही, जीवन के बढ़ते उम्र में भी, शरीर की लम्बाई तो बढ़ने दिए; लेकिन चौड़ाई और मोटाई पर अंकुश बनाये रखे। आज भी वजन अधिकतम 60-65 किलो से अधिक नहीं है। उस दिन से आज तक जोयदीप न तो मित्रता की बाती को कमजोर होना दिया और ना ही अपने चरित्र को बैंक मोड़ से झरिया और कतरास की ओर जाने वाली सड़कों की तरह लुढ़कने दिया। यही कारण है कि अस्सी के दशक से आज तक कोयलांचल के कोई भी व्यापारी, रंगदार, माफ़िया, दबंग, नेता, अधिकारी उन पर अपनी ऊँगली नहीं उठा सके, बल्कि सबों ने उन्हें बहुत सम्मान दिए। जो आज जीवित हैं वे भी, जो ईश्वर के दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज किये – वे भी। 

मेहनत-मजदूरी मेरी, और कमाई ​आपकी

जोयदेव सं 1978-79 में आर पी एस कॉलेज, झरिया से स्नातक किये। उनका विषय कामर्स था। उनके पिताजी चाहते थे कि वह धनबाद या इसके आसपास कोयलांचल में ही किसी इंडस्ट्री में नौकरी कर घर संभाले । लेकिन उनके मन में कुछ और करने की इक्षा थी। इसका कारण यह था कि कोयलांचल में बिहार ही नहीं, देश के लगभग सभी क्षेत्रों से घुटने कद से लेकर, आदम कद तक के नेता आते थे। वजह भी था। काले रंग के कोयला में छिपा हीरा। यहाँ लोग घंटों में लखपति होते थे और घंटों में खाकपति। घंटों में जीवन उत्कर्ष पर हो जाता था, तो घंटों में जीवन पार्थिव भी। तत्कालीन बिहार का यह दक्षिण भाग भारत के लाखों लोगों का भाग्य-विधाता बन चूका था, भाग लिख चूका था, लिख रहा था । यहाँ पैसे तो थे और हैं भी, लेकिन गरीबों के लिए नहीं। चाहे सत्ता में हो या दबंग हों, अधिकारी हो या पुलिस हों – पैसा उन्ही के पीछे-पीछे चलता था, चलता है। धनबाद के तत्कालीन दृश्यों को देखकर  जोयदीप के मन में कैमरा पकड़ने की इक्षा जागृत हुई। उन दिनों पटना, कलकत्ता और दिल्ली के फोटोग्राफर यहाँ आया-जाया करते थे । भय का वातावरण होने के कारण कोई यहाँ रखकर फोटोग्राफ़ी नहीं करना चाहता था। कहा जाता है कि अस्सी के दशक तक कोई तीन पत्रकार का हँसता-मुस्कुराता शरीर “पार्थिव” भी हुआ था कोयला खदानों में। यही कारण है कि धनबाद में मुश्किल से पांच-छः फोटोग्राफर थे। कुछ पेशेवर थे तो कुछ शौक से कैमरा को क्लिक-क्लिक करते थे अतिरिक्त कमाई के लिए। उन दिनों दीपक कुमार राजन @दीपू (अब दिवंगत), सुखदेव रजक (अब दिवंगत), रूमी मिर्जा (अब अरब में) श्रीकांत, सरोज रजक (झारखण्ड के सरकारी नौकरी में अब हैं) थे। सम्पूर्ण कोयलाचंल में इन्ही लोगों का क्लिक-क्लिक होता था।

रेल से जाती तेल के टैंकर से तेल की चोरी

जोयदेव पढ़ने-लिखने में अधिक विश्वास करते हैं। धनबाद की एक-एक गली, एक-एक रास्ता, एक-एक नए-पुराने घर, एक-एक घटना उनकी होठों पर है। उनके अनुसार धनबाद में कोयला पर राज करने के लिए आपसी मारा-मारी और दुश्मनी सन सत्तर के दशक से प्रारम्भ हुई थे। उन दिनों के प्राणजीवन अकादमी स्कूल की पढाई कर रहे थे। उनके पिता नया बाज़ार स्थित एक पेट्रोल पम्प पर मैनेजर का काम करते थे। ।  उस ज़माने में कोयला कारोबार पर भूमिहार जाति के दबंग नेता  बी पी सिन्हा का राज था। कोयला मजदूरों पर उनकी पकड़ थी, उसी तरह जिस तरह एक ज़माने में जॉर्ज फर्नाडिस का रेलकर्मियों पर, दत्ता सामंत का मुंबई के उद्योगों पर। सिन्हा साहेब का दबदबा ऐसा कि उनकी बात पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी नहीं काट पाती थीं। ऐसा कहा जाता है की जब कोलियरी खदानों का राष्ट्रीयकरण हुआ तो सिन्हा ने 30 हजार लोगों को नौकरी दिलाने का काम किया।

आर एस पी कालेज, झरिया से वाणिज्य संकाय में स्नातक कार्बन के बाद जोयदेव सबसे पहले सन 1984 में अमृत वर्षा अखबार में 300 /- रुपये माह बारी पर कार्य करना प्रारम्भ किये। यह अखबार पारसनाथ तिवारी जी का था। बाद में उनकी तस्वीरों को देखकर राजेंद्र अग्रवाल के स्वामित्व वाले आज अखबार में आ गए। अग्रवाल साहेब को ‘आज’ अखबार का ‘टाइटिल’ लिए थे। लेकिन कुछ दिन बाद यह अखबार बंद हो गया। फिर धनबाद रश्मि आये। इसके आलवे आवाज अखबार में, न्यू रिपब्लिक में अपनी तस्वीरें देते रहे। उनका सबसे बड़ा कार्य होता था जब कलकत्ता, दिल्ली, पटना से कोई लेखक कोयलांचल आते थे, उन्हें क्षेत्र घूमना होता था, खतरनाक-से-खतरनाक तस्वीरों की जरुरत होती थी। जोयदीप हमेशा तत्पत होते थे। वे कहते हैं: “आम तौर पर उन दिनों जो भी लोग आते थे, वे फोटो तो लेते थे, पैसे भी देते थे, लेकिन मन से नहीं। वे छोटे-छोटे शहरों के रिपोर्टर्स और फोटोग्राफर्स को बहुत नीचे की निगाह से देखते थे। दिल्ली वालों में यह ‘गुण’ अधिक था। जब की सच्चाई यह है कि उन दिनों ही नहीं, आज भी, अगर छोटे-छोटे शहरों के स्ट्रिंगर्स और फोटोग्राफर्स संवाद और फोटो भेजना बंद कर दें, तो शरहों के अखबार बंद हो जायेंगे।” 

इसे कहते हैं धनबाद

आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम से बात करते जोयदेव कहते हैं: “आप लाल कृष्ण आडवाणी की पहली यात्रा को ही लें। आप भी तो यहीं थे टेलीग्राफ के लिए। टेलीग्राफ में आपकी तस्वीर, आपकी खबर जितनी प्रमुखता से छपी थी, धनबाद के किसी भी संवांदिक का नहीं प्रकाशित हुआ था। आडवाणी जी अपने साथ सैकड़ों लोगों को, फोटोग्राफरों को, पत्रकारों को लाये थे। दिल्ली वाले पत्रकार जब यहाँ के पत्रकारों और फोटोग्राफरों से मिले थे, उनके व्यवहारों को देखकर रोना आ गया था। जबकि असली पत्रकारिता छोटे-छोटे शहरों में होती हैं। चासनाला घटना, आसनसोल की घटना, बर्धमान की घटना और छवियां – सभी तो स्ट्रिंगर्स और हम जैसे फोटोग्राफर्स का ही था। बाद में जो हुआ, हम सभी जानते हैं। जोयदेव की बातों में सच्चाई तो पराकाष्ठा पर थी, दर्द भी था – जो बड़े-बड़े शहरों के पत्रकार, छायाकार नहीं समझ पाएंगे। खैर। 

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बालेन्दुशेखर कृष्णापूर्ति की लेखनी को उद्धृत करते जोयदेव कहते हैं: “कोयले की अवैध कमाई की पृष्ठभूमि 1950 में बिंदेश्वरी प्रसाद सिन्हा @बीपी सिन्हा ने डाली थी। उन दिनों सम्पूर्ण कोयलांचल में  सिन्हा साहब का एकछत्र राज था।  सिन्हा साहेब बरौनी के रहने वाले थे और राजनीति में उनकी विशेष पकड़ थी। वे सर्वप्रथम सं 1950 में धनबाद पदार्पित हुए। उनमें बहुत बातें ईश्वरीय थी।  लिखना, बोलना जैसा सरस्वती की देन थी। उनका वही आकर्षण तत्कालीन कोलियरी मालिकों को आकर्षित किया। वे इंटक से जुड़े और ताकतवर मजबूत नेता के रूप में उदित हुए। उसी समय उन्होंने कोयलांचल में युवा पहलवानों की फौज बनाई, जिसमें सूर्यदेव सिंह इनके सबसे विश्वासपात्र थे। इनका इतना दबदबा था कि इन्हीं की मर्जी से कोयला खदान चलती थी। सिन्हा का आवास व्हाईट हाउस के रूप में मशहूर हुआ करता था और पूरे इलाकेे में माफिया स्टाइल में उनकी तूती बोलती थी. उस दिन मार्च महीने का 29 तारीख था और साल 1978 था। धनबाद के गांधी नगर स्थित आवास सह कार्यालय में सिन्हा साहेब रेकर्ड प्लेयर पर अपने पोते गौतम के साथ गाना सुन रहे थे। घर में उस वक्त आसपास के चार-पांच लोग अपनी फरियाद लेकर पहुंचे। अचानक दो-तीन लोग बरामदे में पहुंचे और एक ने पूछा साहेब हैं? जवाब हां में मिलने पर वे लोग लौट गये। 

सूर्यदेव सिंह और चंद्रशेखर

इस बीच अचानक बिजली गुल हो गयी और कुछ सेकेंड में बिजली आ भी गयी।  सिन्हा साहेब को पूछने वाले लोग इतने में ही 10-11 व्यक्तियों को साथ ले कर बरामदे में शोर करते हुए प्रवेश किये। शोर सुन कर साहेब पूछते हैं कौन आया है? क्या हो रहा है? जवाब मिलता है डाकू आये हैं। इतने में सिन्हा साहेब जैसे ही कमरे से बाहर निकलते हैं मोटा सा एक आदमी लाइट मशीन गन से गोलियों की बौछार करने लगा । करीब सौ गोलियां चली । सिन्हा साहेब के शरीर को तब तक कई गोलियां बेध चुकी होती थी। सिन्हा साहेब खून से लथपथ होकर जमीन पर गिर पड़े थे। शरीर पार्थिव हो गया था। उस वक्त उनकी उम्र करीब 70 साल रही होगी। पूरे धनबाद ही नहीं, कोयलांचल से लेकर कलकत्ता तक, धनबाद से लेकर पटना के रास्ते दिल्ली तक कोहराम मच गया। सिन्हा साहेब की हत्या धनबाद कोयलांचल में कोयला माफिया और राजनीति के गंठबंधन के इतिहास की पहली बड़ी घटना थी। बंदूक व बाहुबल की ताकत के समानांतर ताकत रखने वाले सिन्हा साहेब की हत्या में उनके करीबी कई लोगों का नाम आया। सिन्हा साहेब का ”’अंत”, सूर्यदेव सिंह का ”सूर्योदय” था। सम्पूर्ण कोयलांचल सूर्यदेव सिंह की ऊँगली पर चलने लगी और भारत कोकिंग कोल मुख्यालय जाने के प्रवेश द्वार से कोई 100 कदम पर स्थित सिंह मैंशन इतिहास रचना प्रारम्भ कर दिया। 

कहा जाता है कि मजदूरों को काबू में रखने के लिए इन्होंने पांच लठैतों की एक टीम बनाये थे। इसमें बलिया के रहने वाले सूर्यदेव सिंह और स्थानीय वासेपुर के शफी खान आदि शामिल थे। उसी समय से उनकी दुश्मनी वासेपुर के शफी खान गैंग्स से शुरू हुई। सिन्हा साहेब की हत्या में सूर्यदेव सिंह का नाम आया था, लेकिन कुछ समय बाद वे इस काण्ड से बरी हो गए।उन दिनों सूर्यदेव सिंह अपने उत्कर्ष पर थे। उत्तर प्रदेश के बलिया से आकर एक साधारण कोयला मजदूर के रूप में काम शुरू करने वाले सूर्यदेव सिंह ने कोयला मजदूरों की ट्रेड यूनियन की अगुवाई कर इतनी शोहरत हासिल की कि धनबाद की धरती पर पत्ता भी उनकी इक्षा के बिना नहीं हिलता था। जितने दबंग, उतने ही सामाजिक कार्यों में रुचि दिखाने वाले सूर्यदेव सिंह की लोकप्रियता का आलम रहा। चंद्रशेखर अब तक प्रधान मंत्री बने नहीं थे और जब प्रधानमंत्री बने तब भी सूर्यदेव सिंह को अपना परम-मित्र ही माना और कहा भी। चंद्रशेखर से नजदीकी के कारण उनका राजनीतिक रसूख परवान पर था। सूर्यदेव सिंह विधायक भी बने। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी कुंती देवी को लोगों ने धनबाद जिले के झरिया विधानसभा क्षेत्र से दो बार विधायक बनाया। उनकी राजनीतिक जमीन झरिया में इतनी पुख्ता थी कि उनके बेटे संजीव सिंह को लोगों ने विधानसभा भेजा। सूर्यदेव सिंह का धनबाद में बना आवास सिंह मेंशन आज भी है, फर्क सिर्फ इतना ही है कि सिंह मेंशन में रहने वाले पांच भाइयों में चार का कुनबा आज बिखर गया है। सूर्यदेव सिंह पांच भाई थे। विक्रमा सिंह अपने पैतृक गाँव बलिया में ही रह गये। जबकि राजन सिंह, बच्चा सिंह और रामधीर सिंह सूर्यदेव सिंह के साथ रहे। बाद में बच्चा सिंह ने सूर्योदय बना लिया तो राजन सिंह के परिवार ने रघुकुल। रामधीर सिंह का बलिया-धनबाद आना-जाना लगा रहा, लेकिन उनकी पत्नी इंदू देवी और बेटा शशि सिंह मेंशन में ही रहते हैं।

1977 में सूर्यदेव सिंह पहली बार झरिया से विधायक बने। उनकी मौत के बाद बच्चा सिंह उस सीट से विधायक बने। उसके बाद सूर्यदेव सिंह की पत्नी कुंती सिंह और अभी उनके बेटे संजीव सिंह झरिया से विधायक बने। सन 1977 से 2014 तक के विधान सभा चुनाव में झरिया विधान सभा सीट पर हमेशा सिंह मेंशन परिवार का ही कब्ज़ा रहा। केवल 1995 में राजद के टिकट पर आबो देवी को इस सीट से जीत मिल सकी थी। नवम्बर 1990 में जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने थे, तब वह सूर्यदेव सिंह से मिलने धनबाद आये थे। जोयदीप कहते हैं: “जब चंद्रशेखर सूर्यदेव सिंह की हवेली सिंह मेंशन गए थे, हम-आप साथ थे। वे बात भी किये थे। उस समय सूर्यदेव सिंह अपने तीन भाईयों राजन सिंह, बच्चा सिंह और रामधीर सिंह के साथ सिंह मेंशन में ही रहते थे। जून 15 सन 1991 में हार्ट अटैक से हुई उनकी मौत के बाद परिवार के बीच ही विवाद हो गया और सभी भाइयों के बीच वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो गई।  

धनबाद है बाबू

सिंह मेंशन हमेशा सुर्खियों में रहा और कोयला कारोबार से लेकर राजनीति तक इस परिवार का दबदबा रहा। एक रिपोर्ट के अनुसार सियासत में मजबूत दखल का प्रमाण यह है कि धनबाद नगर निगम की कुर्सी इन्हीं परिवारों के बीच रही। धीरे-धीरे नीरज सिंह भी राजनीति में तेजी से उभरने लगे। पिछले विधानसभा चुनाव में वह कांग्रेस के टिकट पर झरिया से खड़े हुए थे, जबकि उसके चचेरे भाई संजीव सिंह भाजपा के टिकट पर।  इस चुनाब के बाद परिवार के बीच विवाद और खुलकर सामने आ गया। नीरज सिंह 2019 के लोकसभा चुनाव में खड़े होने वाले थे, लेकिन नीरज सिंह की हत्या करा दी गई। माना जा रहा है कि कोयले की लोडिंग प्वाईंट पर आउटसोर्सिंग कंपनियों पर कब्जे को लेकर हत्या हुई। आउटसोर्सिंग पर वर्चस्व के लिए बात-बात पर खून की होली खेली जाती है। यह भी कहा जाता है कि आउटसोर्सिंग कम्पनियां कमीशन के रूप में करोड़ों रुपए माफिया को देती हैं और इसके बदले माफियाओं द्वारा इनको सुरक्षा प्रदान की जाती है। यह भी कहा जाता है कि कोयलांचल में पदस्थापित पुलिस अधिकारियों की कमाई करोड़ों में होती है और ये धंधा बेरोकटोक चलता है।  

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एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार कोयलांचल में आठ बड़े गैंग में चार सौ करोड़ रुपए से भी अधिक की रंगदारी को लेकर खूनी खेल चलता रहता है। पिछले तीन दशकों में 350 से भी ज्यादा लोगों की हत्याएं माफियाओं ने कर दी, जबकि छोटे-छोटे प्यादे तो लगभग रोज ही मारे जाते हैं। कोयलांचल में 40 वैध खदाने हैं, जबकि इससे कहीं अधिक अवैध खनन। इन वैध खदानों से लगभग 1.50 लाख टन कोयले का उत्पादन होता है, जबकि इस उत्पादन में लोडिंग, अनलोडिंग और तस्करी में लगभग 400 करोड़ रुपए की रंगदारी माफिया के गुर्गे करते हैं। वैसे पिछले 50 साल से कोयलांचल में वर्चस्व की लड़ाई चल रही है,  हर रोज एक छोटा गैंग उभरकर सामने आ जाता है। पर कोयलांचल में अभी भी ‘‘सिंह मेंशन’’ का ही दबदबा है, अब फर्क सिर्फ यह हो गया है कि सिंह मेंशन में भी बंटवारा हो गया और चारों भाईयों एवं उनके बेटों का अलग गैंग हो गया है। 

आडवाणी की पहली रथ यात्रा के दौरान

पुलिस फ़ाइल के मुताबिक सन 1967 में रामदेव सिंह, फिर 1967 में ही चमारी पासी, 1977 में श्रीराम सिंह की हत्या हुई। सं 1978 में बीपी सिन्हा को गोली मारी गयी। पांच साल बाद सन 1983 में शफी खान, फिर 1984 में मो असगर, 1985 में लालबाबू सिंह, 1986 में मिथिलेश सिंह, 1987 में जयंत सरकार की हत्या हुई। हत्या का सिलसिला अभी रुका नहीं था। इसके बाद 1986 में अंजार, 1986 में शमीम खान, 1988 में उमाकांत सिंह, 1989 में मो सुल्तान की हत्या हुई उसी वर्ष 1989 में ही राजू यादव, को मौत के घाट उतारा गया। 15 जुलाई, 1998 को धनबाद जिले के कतरास बाजार स्थित भगत सिंह चौक के पास दिन के उजाले में मारुति कार पर सवार कुख्यात अपराधियों ने अत्याधुनिक हथियारों से अंधाधुंध गोलियां चलाकर विनोद सिंह की हत्या कर दी। 25 जनवरी, 1999 को दोपहर के लगभग साढ़े बारह बजे सकलदेव सिंह सिजुआ स्थित अपने आवास से काले रंग की टाटा जीप पर धनबाद के लिए निकले ही थे। हीरक रोड पर पहुंचते ही दो टाटा सूमो (एक सफेद) सकलदेव सिंह की गाड़ी के समानांतर हुई। सूमो की पिछली खिड़की का काला शीशा थोड़ा नीचे सरका और उसमें से एक बैरेल सकलदेव सिंह को निशाना साधकर दनादन गोलियां उगलने लगी। जवाब में सकलदेव सिंह की गाड़ी से भी फायरिंग होने लगी।  दोनो गाड़ियां काफी तेज चल रही थी और साथ में फायरिंग भी हो रही थी और अंतत : बंदूक की गोलियों ने सकलदेव सिंह को हमेशा के लिए खामोश कर दिया। सं 1994 में मणींद्र मंडल, 1998 मो नजीर, 1998 में ही विनोद सिंह की हत्या हुई। सन 1999 सकलदेव सिंह, 2000 में रवि भगत, 2001 जफर अली और नजमा व शमा परबीन, 2002 गुरुदास चटर्जी की हत्या हुई।  उसी वर्ष 2002 में ही सुशांतो सेनगुप्ता की हत्या हुई। सन 2003 प्रमोद सिंह, फिर 2003 में राजीव रंजन सिंह, 2006 में गजेंद्र सिंह, 2009 में वाहिद आलम, 2011 में इरफान खान, सुरेश सिंह, 2012 में इरशाद आलम उर्फ सोनू और 2014 में टुन्ना खान तथा 2017 में रंजय सिंह की हत्या हुई। आठ दिसंबर, 2011 की रात लगभग साढ़े नौ बजे करोड़पति कोयला व्यवसायी और कांग्रेस नेता सुरेश सिंह (55) की धनबाद क्लब में गोली मार कर हत्या कर दी गयी। इतना ही नहीं, अनेकों बार एस के सिंह, जो इंटक के नेता भी थे, पर हमला हुआ। कोयला और कमाई के कारण ही बिनोद बिहारी महतो,  शिबू सोरेन आदि नेता बने। 

​धनबाद है हुजूर, यहाँ पैसा पानी जैसा और पानी अपने जैसा बहता है

जोयदेव कहते हैं: इतने समय के बाद भी, इतने पैसे के बाद भी, इतनी हत्याओं के बाद भी, इतने नेताओं की उपस्थिति के बाद भी धनबाद में कोई ‘आमूल’ परिवर्तन नहीं हुआ। जिस अधिकारी के सेवा काल में सूर्यदेव सिंह पर कमान कैसा गया, सैकड़ों अधिकारी आये, दर्जनों डिप्टी कमिश्नर बदले गए, दर्जनों पुलिस अधीक्षक आये-गए; सैकड़ों – हज़ारों नेता बने, कोई पटना एक्सपोर्ट हुए तो कोई रांची और कोई दिल्ली; लेकिन हमारे शहर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। आज भी गरीबी उतनी है है, आज भी कुत्तों के साथ जी बच्चे खाते हैं। पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेज पाते माता-पिता। इन सभी दृश्यों को अपने कैमरे में क्लिक-क्लिक करते, अख़बारों में छापते लगता जीवन गुजर गया, लेकिन उनके चेहरों पर आज तक हंसी नहीं देख पाया हूँ। 

जोयदेव आगे कहते हैं: भारत में कितने फोटोग्राफर्स हैं, इसकी गिनती करना संभव नहीं है। आज हाथ में मोबाईल कैमरा लेकर भी लोग अपने को फोटोग्राफर कहता है। लेकिन भारत के विद्वान और विदुषियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण शोध का विषय है कि आखिर धनबाद कोयलांचल में कुकुरमुत्ते की तरह नेता-व्यापारी तो पैदा हुए, लेकिन फोटोग्राफर की संख्या छः से आगे कभी नहीं हुई सत्तर के दशक से आज तक। उनमें दो ईश्वर को प्राप्त हुए। कुछ पेशा ही छोड़ दिए। जानते हैं क्यों ? “भय” के कारण। यहाँ लोग बसना नहीं चाहते, जबकि यहाँ और इस क्षेत्र में फोटो का जितना अवसर है, विश्व में कहीं नहीं है। खैर हम ना तो अपने से, न अपनी पेशा से और ना ही कैमरा से कभी बेईमानी किये, इसलिए आज भी धनबाद में सर उठाकर जीते हैं और सभी सलाम भी करते हैं। 

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