कोलकाता: हुगली नदी के तट पर बसा भारत का एक प्राचीनतम शहर जो अपने उद्गम के समय से अपने साहित्यिक, क्रांतिकारी और कलात्मक धरोहरों के लिए जाना जाता है। इतना ही नहीं, यह शहर, भारत की पूर्व राजधानी होने के कारण आधुनिक भारत की साहित्यिक और कलात्मक सोच का जन्मस्थान भी रहा है और आज भी अपने ह्रदय में उसे धरोहर बनाकर रखा है, यानि पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता। इस शहर, इस प्रान्त में जन्म लिए हरेक व्यक्ति, चाहे इस प्रान्त में आज रहते हों अथवा विश्व के किसी कोने में प्रवासित हो गए हों; अपने मानस पटल पर सदा ही कला और साहित्य को विशेष स्थान दिए हैं। यही कारण है की इसे भारत का सांस्कृतिक शहर भी कहा जाता है।
बिमल रॉय की फिल्म “दो बीघा जमीन”, ऋत्विक घटक की “बारी थाके पा लिए”, सत्यजित रॉय की “पारश पथ्थर”, मृणाल सेन की “नील आकाशेर नीचे”, शक्ति सामंत का “हावड़ा ब्रीज”, चाईना टाउन, अमर प्रेम, गांधी, पार, तीन देवियाँ, राम तेरी गंगा मैली, युवा, परिणिता, ब्योमकेश बक्शी और न जाने कितने फिल्म होंगे जो हावड़ा ब्रीज पर, इसके नीचे बहने वाली हुगली नदी की धाराओं में बनी है और आज भी दर्शकों के मानस पटल पर छाये हैं, चाहे भारत में रहते हों अथवा विश्व के किसी कोने में। हावड़ा ब्रिज को दुनिया के सबसे अच्छे कैंटिलीवर पुलों में शामिल किया जाता है। हुगली नदी पर खड़ा यह पुल चंद खंभों पर टिका है। यह पुल बेहद मजबूत है और बरसों से बंगाल की खाड़ी के तूफानों को सहन कर रहा है। यही नहीं, 2005 में एक हजार टन वजनी कार्गो जहाज इससे टकरा गया था, तब भी पुल का कुछ नहीं बिगड़ा था।
अंग्रेज सरकार ने सन् 1871 में हावड़ा ब्रिज एक्ट पास किया, पर योजना बनने में बहुत वक्त लगा। पुल का निर्माण सन् 1937 में ही शुरू हो पाया। सन् 1942 में यह बनकर पूरा हुआ। इसे बनाने में 26,500 टन स्टील की खपत हुई। इसके पहले हुगली नदी पर तैरता पुल था। पर नदी में पानी बढ़ जाने पर इस पुल पर जाम लग जाता था। इस ब्रिज को बनाने का काम जिस ब्रिटिश कंपनी को सौंपा गया उससे यह ज़रूर कहा गया था कि वह भारत में बने स्टील का इस्तेमाल करेगा। टिस्क्रॉम नाम से प्रसिद्ध इस स्टील को टाटा स्टील ने तैयार किया। इसके इस्पात के ढाँचे का फैब्रिकेशन ब्रेथवेट, बर्न एंड जेसप कंस्ट्रक्शन कम्पनी ने कोलकाता स्थित चार कारखानों में किया। 1528 फुट लंबे और 62 फुट चौड़े इस पुल में लोगों के आने-जाने के लिए 7 फुट चौड़ा फ़ुटपाथ छोड़ा गया था। सन् 1943 में इसे आम जनता के उपयोग के लिए खोल दिया गया। 60,000 वाहनों और पैदल यात्री इस पल का इस्तेमाल रोज करते हैं। इसी शहर में रहते हैं फोटो जर्नलिस्ट अशोक नाथ डे ‘सरकार’ । सरकार साहेब का जन्म सेन्ट्रल कोलकाता के गोविन्द सरकार लेन स्थित अपने पुस्तैनी मकान में हुआ।इस गली का नामकरण अशोक नाथ डे सरकार के पूर्वज पर ही है। इनके कई पुस्त कलकत्ता से कोलकाता तक रहते आये हैं। हैं तो ये फोटो जर्नलिस्ट, लेकिन अन्तः मन से एक पेंटर भी हैं। अशोक संत डे शायद भारत के एकलौते फोटो जर्नलिस्ट होंगे जिनके पेंटिंग का ‘सोलो-प्रदर्शनी’ एकेडमी ऑफ़ फ़ाईन आर्ट्स से लेकर शांतिनिकेतन के रास्तेविश्व के कोने-कोने तक पहुंचा और सम्मान पाए।
कहते हैं कोलकाता को “आनंद का शहर” है। नोबल पुरस्कार विजेताओं के इस शहर में पर्यटन के अनेक आकर्षण हैं जिसमें विक्टोरिया मेमोरियल, हावड़ा ब्रिज, इंडियन म्यूज़ियम, मार्बल पैलेस, कालीघाट मंदिर, बिरला प्लेनेटेरियम (ताराघर), फोर्ट विलियम तथा अन्य शामिल हैं। प्राचीन इमारतें और स्मारक ब्रिटिश वास्तुकला को प्रदर्शित करते हैं जबकि पुरानी जमींदार बारी और हवेलियाँ पश्चिम बंगाल की वास्तुकला शैली को प्रदर्शित करती हैं। आधिकारिक रूप से इस शहर का नाम कोलकाता पहली जनवरी 2001 को रखा गया। इसका पूर्व “कैलकटा’ था लेकिन बांग्ला भाषा इसे सदा कोलकाता या कोलिकाता के नाम से ही जानते है। इस शहर के अस्तित्व का उल्लेख व्यापारिक बंदरगाह के रूप में चीन के प्राचीन यात्रियों के यात्रा वृत्तांत और फ़ारसी व्यापारियों के दस्तावेजों में मिलता है। नाम की कहानी और विवाद चाहे जो भी हों इतना तो तय है कि यह आधुनिक भारत के शहरों में सबसे पहले बसने वाले शहरों में से एक है।
सन 1690 में ईस्ट इंडिया कंपनी “जाब चारनाक” ने अपनी कंपनी के व्यापारियों के लिये एक बस्ती बसाई थी, आठ साल बाद, कंपनी ने एक स्थानीय जमींदार सावर्ण रायचौधरी से तीन गाँव (सूतानुटि, कोलिकाता और गोबिंदपुर) लिया इन तीन गाँवों का विकास प्रेसिडेंसी सिटी के रूप में करना शुरू किया। किंग जॉर्ज – 2 के आदेशानुसार यहाँ एक नागरिक न्यायालय की स्थापना की गयी। बाद में 1756 में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कलकत्ता पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। उसने इसका नाम “अलीनगर” रखा। लेकिन साल भर के अंदर ही सिराजुद्दौला की पकड़ यहाँ ढीली पड़ गयी और अंग्रेजों का इस पर पुनः: अधिकार हो गया। सन 1772 में वारेन हेस्टिंग्स ने कैलकटा को ब्रिटिश शासकों के लिए भारत की राजधानी बना दी जो 1912 तक भारत में अंग्रेजों की राजधानी बनी रही, बाद में भारत की राजधानी दिल्ली बनी।
ये बात तो राजनीतिक है, परन्तु जो तथ्य है वह यह की बंगाल की कला में कला के विभिन्न रूप हैं और यहाँ का फोटोग्राफी, चाहे घरों की दीवारों पर लटकाने के लिए हो, प्रदर्शनी के लिए हो, अख़बारों और पत्रिकाओं में प्रकाशन के निमित्त हो, व्ययवासी के लिए हो या फिर आत्म-संतुष्टि के लिए हो – कलाकारी जरू दिखेगा। तभी तो भारत ही नहीं, विश्व के लोग इस बात को स्वीकार करते हैं कि अगर राजनीतिक तस्वीरें खींचनी हो तो दिल्ली के राजपथ पर भ्रमण करें और अगर कलाकारी की तस्वीरें खिँचिनी हो, सीखनी हो, देखनी हो तो कोलकाता की सड़कों पर भ्रमण-सम्मलेन करें । मसलन नृत्य, पेंटिंग्स, मूर्तिकला आदि। वे पर्यटक जो पश्चिम बंगाल की कला को जानना चाहते हैं उनकी पहली पसंद शांतिनिकेतन होती है। मेले और त्योहार पश्चिम बंगाल पर्यटन का महत्वपूर्ण भाग है जिसमें दुर्गा पूजा, काली पूजा, सरस्वती पूजा, लक्ष्मी पूजा, जगदधात्री पूजा आदि प्रसिद्ध त्योहार शामिल हैं जिसमें विभिन्न रूप में स्त्री शक्तियों की पूजा की जाती है। गंगा सागर मेला प्रतिवर्ष हज़ारों पर्यटकों को आकर्षित करता है।
बंगाल में साहित्य, कला और संगीत की त्रिवेणी बहती है। यहाँ जनसामान्य में साहित्य, कला, नाटक और संगीत के प्रति जैसा अनुराग है वह भारत के अन्य प्रान्तों में दुर्लभ है। यह इसे अन्य प्रांतों से विशिष्ट बनाता है और इसी कारण से कोलकाता को देश की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान आधुनिक शिक्षा के प्रचार प्रसार को इसका श्रेय जाता है। 1911 तक कोलकाता देश की राजधानी थी। राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों के कारण बंगाल में सामाजिक रूढ़ियाँ कमजोर हुईं जिसके कारण बंगाल में राष्ट्रवादी आन्दोलन की राजनीतिक चेतना विकसित हुई। रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे सांस्कृतिक पुरुषों के प्रयास से जन सामान्य में साहित्य और संस्कृति के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। कला संस्कृति से जुड़ना सुसंस्कृत होने की शर्त बनी।
20 वीं सदी की शुरुआत में बंगाल में नवजागरण और जातीय चेतना के उन्मेष के कारण कला में भी भारतीयता की तलाश शुरू हुई। इसके पूर्व केरल में राजा रवि वर्मा यूरोपियन कला के सम्मिश्रण से, कला के क्षेत्र में नवजागरण का सूत्रपात्र कर चुके थे। वे ब्रिटिश शासन काल में यूरोपियन कलाकारों की शैली में, भारतीय जनमानस में गहरे पैठे देवी देवताओं और पौराणिक आख्यानों पर आधारित चित्र बनाकर अकेले ही उन यूरोपीय कलाकारों के सामने चुनौती पेश कर रहे थे। राजा रवि वर्मा के चित्र तत्कालीन राजा महाराजा के महलों से लेकर जनसाधारण के घरों में कैलेंडर के रूप में मौजूद और काफी लोकप्रिय था। आज हिंदुस्तान में जन मानस में देवी देवताओं की जो छवि निर्मित है, वह राजा रवि वर्मा की ही देन है।
अवनीन्द्रनाथ टैगोर जो कविवर रवींद्रनाथ टैगोर के भतीजे थे, यूरोपीय शैली के बरक्स जिस भारतीय शैली की तलाश कर रहे थे, उसका एक रास्ता यह था कि वे राजा रवि वर्मा की शैली को ही आगे बढ़ाते जैसा कि हेमेन मजुमदार ने किया परन्तु तब कला में जिस भारतीयता की तलाश की जा रही थी वह अधूरी रह जाती। 19 वीं सदी के अंतिम दशक में कोलकाता के गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट एवं क्राफ्ट में ई.वी. हैवल प्रिंसिपल बनकर आये । हैवल पहले विदेशी थे जिन्होंने सही परिप्रेक्ष्य में भारतीय कला का मूल्यांकन किया था। उनके विचार भारत की कला और भारत के इतिहास दोनों के संबंध में सुलझे हुए थे। उन्होंने विदेशी संस्कारों से ग्रसित और हीन भावनाओं से पीड़ित भारतीय मानस को एक नई कला चेतना दी। हैवल का मत था कि भारत की चित्रकला और मूर्तिकला मात्र प्रतिरूप नहीं है,वह व्यक्ति विशेष के दैहिक रूप मात्र का प्रतिनिधित्व नहीं करती बल्कि उसके अंतर्निहित अध्यात्मिक भावों को भी उजागर करती है।
इसी तरह यामनी राय बंगाल-स्कूल को पश्चिमी शैली से प्रभावित मानते थे। पश्चिमी शैली के अंधानुकरण को वे हेय दृष्टि से देखते थे। विदेशों में आज भी यामिनी राय के चित्रों की मांग है क्योंकि वे एकमात्र भारतीय कलाकार हैं जिनमें शत-प्रतिशत भारतीयता है।यामिनी राय के बाद आधुनिक भारतीय चित्रकला में अमृता शेरगिल का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।अमृता ने अपनी छोटी सी आयु में भारतीय चित्रकला को अपनी मौलिक प्रतिभा से एक नई दिशा और ऊँचाई दी। उसने अपनी चित्रकला के लिए भारतीय विषयों खासकर आम महिलाओं के जीवन को आधार बनाया। सन 943 में बंगाल में भयानक अकाल पड़ा । जनजीवन अस्त- व्यस्त हो गया, लेकिन बंगाल स्कूल के प्रशिक्षित कलाकारों ने तत्कालीन समाज के कटु यथार्थ को चित्रित नहीं कर पाये । जिन कलाकारों ने बंगाल के दुर्भिक्ष का अपनी कलाकृतियों में चित्रण किया उनमें प्रमुख थे — जैनुअल बैदिन, आदिनाथ मुखर्जी,चित्तोप्रसाद, राम किकंर बैज, सोमनाथ होर,प्राणनाथ मागो।
आज़ादी के बाद बंगाल में शुरुआती दौर की चित्रकला में पाश्चात्य और भारतीय शैलियों के मिश्रण की अधिकता थी। बाद में धीरे-धीरे कलाकारों ने परिवर्तित परिस्थितियों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित कत भारतीयता वाली स्वतंत्र शैली विकसित कर ली । बंगाल में जोगेन चौधुरी, गणेश पाइन, कार्तिक चन्द्र पाइन और गणेश हालोई जैसे बहुत से कलाकार हैं जिन्होंने अपने बचपन में भारत विभाजन का दंश को भोगा हैं, शरणार्थी जीवन के संघर्ष के ताप को महसूस किया है। शैशवास्था का तनाव इन कलाकारों का कामों में झलकता है। गणेश हालोई अद्भुत शैली में लैंडस्केप को चित्रित करते हैं। इनका लैंडस्केप देख कर ऐसा लगता है जैसे काफी ऊँचाई से अवलोकन कर चित्रित किया गया हो। गणेश हालोई बंगाल में अमूर्त शैली में काम करने वाले गिने चुने कलाकारों में से एक हैं।विकास भट्टाचार्य ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने मुख्यधारा सेमी-ऐब्सट्रैक्ट के विपरीत जाकर आकृति मूलक ओर पोर्ट्रेट में अपना विशिष्ट मुकाम बनाया है। ये कला में यथार्थ शैली के पक्षधर हैं। इसी तरह, बी आर पनेसर ’कोलाज शैली’ के महत्वपूर्ण कलाकार हैं। रंगों के बजाय वे कागज़ के टुकड़े को चिपकाकर पेंटिंग बनाते हैं। उन्होंने ग्राफ़िक माध्यम में भी बहुत अच्छे काम किये है। पनेसर जी ने शकीला जैसे फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का कलाकार बनाने में योगदान दिया है, जो उन्हें विशिष्ट बनाता है।
इन्ही कलाकारों, कलाओं, ब्रशों, रंगों में श्री मानवेंद्रनाथ डे और श्रीमती मीरा डे का पुत्र अशोक नाथ डे भी पले, बड़े हुए। स्वाभाविक है, रंगों का रंग तो मन और मष्तिष्क पर चढ़ेगा ही। डे साहेब बंगाल के “सरकार” परिवार से आते हैं। “सरकार” का अर्थ जो “पैसे का हिसाब-किताब” रखे। कलकत्ता का इतिहास गवाह है कि इनका परिवार और पूर्वज, मुद्दत से चाहे बंगाल मुगलों के अधीन हो या अंग्रेजों के अधीन, इनके परिवार के पूर्व ही तत्कालीन शासकों आर्थिक हिसाब किताब रखे। और यही कारण है कि आज भी कोलकत्ता में इनके पूर्वजों के सम्मानार्थ “गोविन्द सरकार लेन” नामक सड़क सेन्ट्रल कोलकत्ता में स्थित है, जहाँ आज भी ये रहते हैं।
ब्रिटिश इण्डिया के शासनकाल में सन 1696 और उसके बाद जान फोर्ट विलियम बनने के समय इनके पूर्वज इस इलाके में आये थे। “गोविन्द बाबू”, जिनके नाम पर गोविन्द सरकार लेन है, अपने ज़माने के कला-सस्कृति के प्रवर्तक थे। वे स्वयं एक बेहतरीन कलाकार भी थे। वे अक्सरहां नाटक का आयोजन करते थे। बंगाल के इतिहास में यह भी दर्ज है कि गोविन्द बाबू की अगुआई में ही पहली बार कलकत्ता में “कॉमर्सिअल बंगाली ड्रामा” का आयोजन हुआ था। कलकत्ता का इतिहास भी इस बात का गवाह है कि उन दिनों ब्रिटिश साम्राज्य में जितने भी बाबू लोगों की नियुक्ति होती थी, उनके लिए सबसे बड़ी शर्त यह होती थी की ‘अभ्यर्थी’ का ‘चरित्र’ चौबीस-कैरेट सोने जैसा हो, उसे कला और संस्कृति के बेपनाह मुहब्बत हो, वह ईमादारी के उत्कर्ष पर हो – और यह सभी गुण अशोक नाथ डे के पूर्वजों में था। तभी तो परदादा और उनके पहले से पूर्वजों से लेकर दादाजी नरेन्द्रनाथ डे ‘सरकार’, अमरेंद्र नाथ डे ‘सरकार’ सभी मुख्य खजांची (चीफ कैशियर) रहे। अशोक नाथ डे के पिता भी बंगाल सरकार में ड्राफ्ट्समैन की नौकरी की शुरुआत किये और जीवन पर्यन्त बने रहे। देश की राजनीतिक स्थिति परतंत्रता से स्वतंत्रता की ओर बढ़ती गयी और देश आज़ाद हो गया।
आज़ाद भारत में आज़ादी के 25 वें साल आते-आते देश का कोई 220-साल पुराना कोयला खनन का इतिहास, जो सन 1774 में राजीगंज में मेसर्स समनेर एण्ड हीट्ली ऑफ़ ईस्ट इण्डिया कंपनी द्वारा प्रारम्भ किया गया था, राष्ट्रीयकरण की ओर उन्मुख हो गया था। कई कारणों से पहली मई (श्रमिक दिवस) 1972 को कुल 226 कोकिंग कॉल माईन्स का राष्ट्रीयकरण हो गया और सभी भारत कोकिंग कॉल लिमिटेड के अधीन आ गए। इसका प्रभाव अशोक नाथ डे के परिवार पर भी पड़ा। पिता मानवेंद्रनाथ डे का हस्तानांतरण धनबाद हो गया। अशोक नाथ डे की शिक्षा दीक्षा माउंट कार्मेल और डिनोबिली स्कूल में हुई। अशोक नाथ डे के दादाजी को कला-संस्कृति-पेंटिंग से बहुत लगाव था, स्वाभाविक है, पोता पर इसका असर पड़ेगा ही। अपने दादा के छत्रछाया में अशोक नाथ डे एक बेहतरीन पेंटर बनने लगे। इस बीच, जब एक शिक्षक ने इनका पेंटिंग देखे, वे प्रदर्शनी लगाने को कहे। घर में सभी मजाक उड़ा दिया। चौथी-पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा के पेंटिंग का प्रदर्शनी? साल 1978 था। शिक्षक और माता-पिता कलकत्ता के ऐतिहासिक एकेडमी ऑफ़ फ़ाईन आर्ट्स की अध्यक्षा श्रीमती रानी मुखर्जी के पास पहुंचे। प्रथम दृष्टि में श्रीमती मुखर्जी भी हंसी, लेकिन जब अशोक नाथ डे का पेंटिंग देखीं, वे तत्काल हां कह दी। एक नई शुरुआत हुई अशोक नाथ डे की। लेकिन समय को कुछ और मंजूर था और अशोक नाथ डे का प्रारब्ध भी कुछ और था।
आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते अशोक नाथ डे कहते हैं: “एक मनुष्य चाहे लाख जतन करे, उसका प्रारब्ध उसका साथ नहीं छोड़ता, बशर्ते वह व्यक्ति अपने प्रारब्ध की अहमियत को नहीं समझे। मेरे अन्न-प्रासन के दिन (आम तौर पर एक बच्चा जब पहली बार अन्न खाता है) मेरे मामा, जो भारतीय सेना में थे, मुझे “आग्फा क्लिक – 3 कैमरा” गिफ्ट में दिए थे। उस दिन उस समारोह में उपस्थित सभी लोगों ने उनका मजाक उड़ाया। इतने छोटे बच्चे को कैमरा? मामा सबों की बातों को सुने और मुस्कुरा दिया। कुछ देर बाद जब माहौल शांत हुआ, कहते हैं कि “आज आप सभी मेरा, मेरे इस उपहार का और अशोक का मजाक कर दिए ….. कल यही कैमरा अशोक के जीवन का हिस्सा होगा। सबसे बड़ा मित्र होगा। यही उसकी पहचान होगी। धनबाद ही नहीं, कलकत्ता ही नहीं, दिल्ली ही नहीं, देश – विदेश में अशोक की पहचान और लोगों से उसकी मुलाक़ात कैमरा ही कराएगा। लिख लीजिये ।” ऐसा ही हुआ।
अशोक आगे कहते हैं: “स्कूल के ज़माने से जैसे-जैसे उच्च शिक्षा प्राप्त करते गए, पेंटिंग में तो ज्ञान बढ़ता ही गया; लेकिन मन में कैमरा बसने लगा था। मामा जो कैमरा दिए थे उसमें छः निगेटिव आता था। पिताजी इस्तेमाल करते थे। मैं कभी-कभी चोरी-चोरी एक-दो क्लिक-क्लिक कर देता था। जब निगेटिव की सफाई होती थी, प्रिंट बनाते थे पिताजी; उस प्रिंट को देखकर, जिसे वे खींचे नहीं होते थे; चकित हो जाते थे। पिताजी के मन में यह इक्षा जरूर थी कि मैं पेंटिंग में आगे बढूं । लेकिन कलकत्ता में जब सड़कों के किनारे, मुहल्लों में, बड़े-बड़े समारोहों में, हॉलों में कलकत्ता के बड़े-बड़े कलाकारों को देखता था, तो मन खिन्न हो जाता था। लोग कहते थे कि बहुत बड़ा कलाकार हैं, लेकिन जब उन्हें देखता था, तो लगता था की वे कई दिनों से नहाये नहीं हैं, लम्बे-लम्बे वस्त्र, बिना-कंघी का बड़ा-बड़ा बाल, बड़ी-बड़ी मूंछें – उनके शारीरिक पहनावे को देखकर मन में विरक्ति होने लगी। मैं सोचने लगा अगर मैं भी पेंटर बनूँगा तो मुझे भी ऐसे ही रहना होगा …. इन सभी बातों के कारण कैमरा के प्रति मेरा आकर्षण बढ़ने लगा। मैं मामा के कैमरे पर ही हाथ साफ़ करने लगा। क्योंकि हमें क्या खींचना है, कितना खींचना है, मैं क्या चाहता हूँ उस तस्वीर में – ये सभी बातें हम चाहे छोटे कैमरा से खींचे या बड़े कैमरा से – विषय तो यही होगा। गान गुणवत्ता में फर्क पड़ेगा। मेरे सामने सबसे बड़ी समस्या थी कि कैमरा के बारे में, फिल्म के बारे में कहाँ से ज्ञान अर्जित करूँ ?”
अपनी यात्रा को आगे बढ़ाते अशोक आगे कहते हैं: “एक दिन मैं आनंद बाजार पत्रिका में एक विज्ञापन देखा जिसमें एक वीडियो कैमरा बेचने की बात की गई थी। मैं अपने दो दोस्तों के साथ वहां पहुंचा। अपनी बात उन्हें बताया और कहा की मुझे कैमरा का ज्ञान चाहिए, फोटोग्राफी सीखना है, चाहे वीडियो हो या आम कैमरा। वह मुझे सिखाया। डार्करूम का काम, प्रिंट बनाने का काम फ़ाईन प्रिन्ट बनाने का काम सभी सीखा। बीच-बीच में मैं कुछ तस्वीरें खींचकर कलकत्ता के छोटे-छोटे अख़बारों में देने लगा। मेरी पहली तस्वीर “सत्ययुग” नामक बांग्ला पत्रिका में प्रकाशित हुआ। वह तस्वीर बाढ़ से सम्बंधित थी। इस बीच जहाँ मैं वीडियो सीखता था, उन्हें सिक्किम के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरबहादुर भंडारे का एक प्रोजेक्ट का वीडियोग्राफी करना था। मैं असिस्टेंट के रूप में उनके साथ गया था। लेकिन जो मुझे सीखाते थे और जिन्हे यह प्रोजेक्ट मिला था, उनकी तबियत अचानक ख़राब हो गई। प्रारब्ध मुझे एक बेहतरीन मौका लेकर खड़ा था। मैं उनकी अनुपस्थिति में ही कर्म किया, निडर होकर। बहुत बेहतर परिणाम था। सभी खुश थे। यह मुझमें एक आत्मविश्वास लाया और मैं कलकत्ता की सड़कों पर कैमरा लेकर उतर गया – फ्रीलांसिंग करने। कलकत्ता और आस-पास के इलाकों से प्रकाशित बहुत सारे छोटे-छोटे अख़बारों में, पत्रिकाओं में मेरी तस्वीरें छपने लगी।
नब्बे के दशक के प्रारम्भ में दी इण्डियन एक्सप्रेस-जनसत्ता कलकत्ता से प्रकाशित होना प्रारम्भ हुआ। मैं जनसत्ता के लिए पहले से फ्रीलांसिंग करता था, अतः वे मुझे “स्ट्रिंगर” बना दिए। सं 1991 में जब फाइनेंसियल एक्सप्रेस कलकत्ता से प्रकाशित होना प्रारम्भ हुआ, तत्कालीन संपादक प्रभु चावला मुझे अपने अखबार में नौकरी दे दिए। इधर हुगली नदी में पानी का प्रवाह और धारा का स्वरुप बदल रहा था, और उधर मेरी जिंदगी भी बदल रही थी। कुछ साल बाद मुझे दिल्ली ले आया गया। दिल्ली में प्रवीण जैन बहुत बेह्तरीन एसाइनमेंट्स दिए। सिखने से लेकर काम दिखाने का भरपूर मौका मिला। इस समूह में कोई 11-वर्ष काम करने के बाद कलकत्ता से दी हिंदुस्तान टाईम्स का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ और मैं सन 2000 में फिर कलकत्ता आ गया दी हिंदुस्तान टाइम्स अखबार में। टी नारायण साहेब मुझे बहुत मौक़ा दिए यहाँ। उस ज़माने में कश्मीर और बंगाल साइक्लोन की तस्वीरें मुझे बेहतर पहचान दी। खेल में विशेष अभिरुचि होने के कारण मैदान में, खेल-खिलाडियों का अनंत फोटो किये। सन 2017 का विश्वकप भी कवर किये। इन वर्षों में फोटो-जर्नलिज्म का काम करते-सीखते एक बात मन में बैठा कि क्यों नहीं प्रोजेक्ट्स पर भी काम किया जाए, जिससे दो पैसे की आमदनी तो हो ही, नाम, पहचान, शोहरत भी मिले। अपनी तस्वीरों से अपनी बातों को पाठकों को, देखने वालों को बता सकूं।
अशोक नाथ डे “गंगा इरोजन”, “कलकत्ता का रिक्शावाला” “कलकत्ता का पुराना घर/हवेली” पर बहुत बेहतरीन कार्य किये हैं, कर रहे हैं। उनकी तस्वीरें दिल्ली, कोलकाता, लन्दन में भी प्रदर्शनी में दिखाए गए हैं। अब तक इनके जिम्मे 32 राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मान आये हैं।