दरभंगा / पटना / नई दिल्ली: आज से दरभंगा स्थित कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय और मिथिला विश्वविद्यालय की धरती पर मधुबनी लिटरेचर फेस्टिवल का चौथा अध्याय प्रारम्भ हो रहा है। साहित्य के इस ऐतिहासिक समारोह में मिथिला के ही नहीं, बिहार प्रान्त के ही नहीं, भारतवर्ष के ही नहीं, वल्कि विश्व से गणमान्य विद्वान और विदुषी पधार रहे हैं। सभी किताब और किताब से जुड़ी बातों पर चर्चा करेंगे। किताबों के पन्नों से आने वाली खुसबू से जीवन संवारने की बातें करेंगे। जिस तरह किताबों के पन्नों को एक धागे से बांधा जाता है, उसी तरह उन पन्नों में लिखे शब्दों से एक मनुष्य अपने जीवन को संवारने में कैसे कसीदाकारी करता है, इस बात पर भी अपना-अपना मंतव्य देंगे, क्योंकि जीवन में शिक्षा का क्या महत्व है यह वही बता सकता है जिसे शिक्षा की भूख अनवरत होती है।
इस मधुबनी लिटरेचर फेस्टिवल के अवसर पर आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम एक ऐसी महिला से आपको रूबरू करने जा रहा है, जो मिथिला ही नहीं, सम्पूर्ण प्रदेश और देश की वैसी सभी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिनका विवाह भले नवमी कक्षा और उससे भी कम शिक्षित अवस्था में हो गई हो, लेकिन शिक्षा की भूख और अपने बच्चों के विश्वास के कारण 14 वर्ष शिक्षा से दूर रहने के बाद भी – आज न केवल दो-दो गोल्ड स्वर्ण पदकों से अलंकृत हैं, बल्कि एक सफल गृहणी, एक सफल माँ, एक सफल पत्नी, एक सफल बहु और एक सफल प्राध्यापक भी हैं – नाम हैं श्रीमती सुनीता झा।
उन दिनों पटना से प्रकाशित ‘आर्यावर्त’ और ‘दी इण्डियन नेशन’ अख़बारों की कीमत 12 पैसे और 15 पैसे थे। पटना विश्वविद्यालय प्राध्यापक आवासीय कालोनी का अंतिम छोड़ पटना विधि महाविद्यालय के रास्ते रानी घाट के अंतिम छोड़ पर गंगा के किनारे समाप्त होता था। गंगा के दक्षिणी तट पर बसा पटना शहर के उत्तरी हिस्से में अनंतकाल से बहने वाली गंगा नदी में रानी घाट के इस बिंदु से 75 डिग्री कोण पर ऐतिहासिक गंडक नदी गंगा में मिलकर अपना अस्तित्व समाप्त करती थी। सन 1971 से सन 1975 के प्रारंभिक महीनों तक शायद ही कोई दिवस ऐसा रहा होगा, जिस दिन इस स्थान पर खड़ा होकर माँ गंगा का दर्शन नहीं करता था, साथ ही, मन-ही-मन गंगा की अविरल, निश्छल बहती धाराओं से अपने जीवन के बारे में बातचीत नहीं करता था। स्वयं से बात करता था, स्वयं गंगा नदी के एवज में जबाब भी देता था – मन ही मन यही प्रश्नोत्तर होता था – कुछ तो अच्छा होने वाला है। समय परीक्षा ले रहा है। उत्तीर्ण भी होना ही है।
उस सुबह बारिश हो रही थी। साल था 1971 और महीना जुलाई का। पटना के गाँधी मैदान से आगे, चिड़ियाखाना जाने वाले रास्ते के बीच में, प्रदेश की राजनीती और राजनेता कब करबट ले लेंगे या कब उन्हें दरबाजे से बाहर का रास्ता दिखा दिया जायेगा, यह मिथिला के तांत्रिक और ज्योतिषी भी नहीं बता सकते थे। मोबाईल युग, गूगल युग नहीं होने के बावजूद, पटना और दिल्ली के बीच संवाद की गति बहुत तीब्र थी। आप विश्वास नहीं करेंगे। लेकिन जैसे ही आप आज के गूगल पर बिहार के मुख्यमंत्रियों की सूची देखेंगे, आप हमारी बातों पर ताली ठोक देंगे। ”आया-राम-गया-राम” का जमाना था। बीच-बीच में बाधा-दौड़ की गति पर रूकावट डालने के लिए ‘राष्ट्रपति शाशन’ लगाने का उत्तम प्रावधान था। सन 1971 और 1975 के बीच पांच मुख्यमंत्रियों का आना-जाना और बीच में राष्ट्रपति शासन का लगना, इसका गवाह है।
कभी कर्पूरी ठाकुर कुर्सी पर बैठे थे तो कभी भोला पासवान शास्त्री, कभी केदार पांडेय जी चिपकते थे कुर्सी से तो कभी अब्दुल गफूर साहब। ‘स्टॉप गैप’ के लिए बलुआ बाजार वाले मिश्र जी तो तत्पर रहते ही थे। खैर। हम अख़बार वालों के लिए, चाहे अखबार में लिखते हों, या संपादन करते हों, या छापाखाना में काम करते हों, या ज्यादा-गर्मी-बरसात में अखबार बेचते हों; बीसो-उंगलियां घी में और शरीर कराही में रहता था। खूब अखबार छपता था, खूब अखबार बिकता था। गूगल बाबू तो गर्भ में भी अवतरित नहीं हुए थे, इसलिए कुकुरमुत्तों की तरह न तो पत्रकारिता पढ़ने-पढ़ाने, सीखने-सीखाने वाले संस्थानों का जन्म हो रहा था और ना ही गली-कूची में छायाकारों की चहल-कदमी होता था। सड़कों पर जब भी किसी स्कूटर पर, साइकिल पर किसी अख़बार का फोटोग्राफर दीखता था, सभी सम्मान और इज्जत के साथ उन्हें तारते थे।
रानी घाट स्थित पटना विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों के लिए बने दो मंजिले आवासीय भवनों का अंतिम भवन के ऊपरी तल्ले पर दाहिने तरफ मेरे एक बहुमूल्य ग्राहक भी थे, अभिभावक भी थे, शिक्षक भी थे, सम्मानित महामानव भी थे। उनकी नजर में हम सभी भाई-बहनों का, माँ का, बाबूजी का सम्मान अपने उत्कर्ष पर रहता था। वे हमेशा इस बात पर बल देते थे कि मेरे माता-पिता एक आर्थिक बीमारी से ग्रसित हैं और घर के सभी बच्चे इस बीमारी से छुटकारा पाने के लिए कटिबद्ध हैं, प्रतिबद्ध हैं। वे यह भी जानते थे की आर्थिक बीमारी का सिर्फ और सिर्फ एक ही इलाज है – शिक्षित होना। शिक्षा ग्रहण करना और शिक्षा के माध्यम से अपने-अपने जीवन में आमूल परिवर्तन लाना।
उनकी अर्धांगिनी, उनकी दोनों बेटियां, उनके पुत्र, सबों की निगाहों में मेरा, मेरा माता-पिता का, भाई-बहनों का बहुत सम्मान था। स्वाभाविक है हम सभी भी उतने ही सम्मान करते थे, उन लोगों को। जानते हैं वे कौन थे और किसका परिवार था ? पटना विश्वविद्यालय के मैथिली विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ आनंद मिश्र। आनंद मिश्र साहेब के यहाँ हम दो अखबार – ‘आर्यावर्त’ और ‘दी इण्डियन नेशन’ देते थे। उन दिनों ‘आर्यावर्त’ अखबार का मासिक बिल तीन रुपये नब्बे पैसे के आस पास और ‘दी इण्डियन नेशन’ का चार रुपये सत्तर पैसे होता था। यानी दोनों अखबारों का कुल आठ रुपये बासठ-चौंसठ पैसे होता था। प्रत्येक माह के तीन तारीख को मुझे सुबह-सुबह दस रुपये मिल जाते थे। शेष अतिरिक्त पैसे कॉपी-पेन्सिल-कलम-इत्यादि के लिए होता था। वैसे अप्रत्यक्ष रूप से प्रत्येक माह एक रुपये चालीस पैसे अतिरिक्त मिलना इस बात का भी गवाह होता था की उन दिनों आटा मीलों से चालीस पैसे किलो आटा भी मिलता था।
श्री आनंद बाबू की पत्नी श्रीमती सीता देवी, जिन्हें हम सभी बहन कहते थे, मुझे जुलाई के महीने में भी थरथराते देखीं। मेरा पूरा शरीर भींगा था। लेकिन उनका अखबार मैं भींगने नहीं दिया था। वे तत्काल मुझे वस्त्र बदलने को कहीं, ताकि बीमार नहीं हो जाएँ। चौथे-पांचवें दिन, दोपहर को वे मेरे घर दस्तक दी। उन दिनों हम सभी पटना कॉलेज मुख्य द्वार के ठीक सामने ननकू होटल के ऊपर किराये के मकान में रहते थे। माँ का उनसे बहुत मिलन-सम्मेलन होता था। खूब बातें करती थी दोनों। वे हमेशा माँ का हौसला बनाकर रखती थी ताकि वह हिम्मत न हार दे। फिर अपने झोले से एक मैरून रंग का स्वेटर निकाली और मेरे हाथों में देते बोली – गर्मी में भी अगर मौसम ठीक नहीं रहे तो साथ में इसे रखना। अगर बारिश होती हो, तो पानी रुकने का इंतज़ार किया करना। अखबार दो घंटे बाद भी लोग पढ़ लेंगे, लेकिन तुम्हे स्वस्थ रहना बहुत जरुरी है। फिर मेरे माथे पर हाथ फेरती आशीष दी। मैं स्तब्ध था। निःशब्द था। उनके घर में शायद ही कोई अवसर हुआ होगा जब माँ के साथ जाने के बाद भूखे पेट वापस आये हों। शायद ही कभी ऐसा अवसर हुआ होगा जब खाने-पीने का सामान, कुछ बना हुआ तो कभी कच्चा, मोटरी में नहीं मिला हो।
आनंद बाबू और सीता बहन हमेशा यही कहती थी – हिम्मत नहीं हारना जीवन में । तुम समय को पछाड़ोगे, आज लिखबा लो। जीवन में तुम बहुत आगे जाओगे, आज लिख लो। अनेकानेक बातें हैं, सैकड़ों दृष्टान्त हैं जहाँ मैं उस परिवार के प्रति एहसानमंद हैं। उन बातों को शब्दबद्ध नहीं कर सकते हैं हम।
दो दिन पहले आनंद बाबू – सीता बहन के बड़ी बेटी की तस्वीर देखा। मेरे पास उनका कोई संपर्क नहीं था। कोई चौदह वर्ष की आयु में सन 1975 में उसकी शादी हो गई थी। उस समय वह नवमी कक्षा की छात्रा थी पटना के बांकीपुर बालिका विद्यालय में। उनकी छोटी बहन भी उसी विद्यालय की छात्रा थी। बाबूजी की मृत्यु (1992) में अंतिम बार उन लोगों से मुलाकात हुई थी। मैं बाबूजी के देहावसान से कोई चार वर्ष पूर्व रोजी-रोटी की तलाश में, अपनी पत्रकारिता को और मजबूत करने के इरादे से पटना की भूमि छोड़ दिया था और दक्षिण बिहार के रास्ते पश्चिम बंगाल की राजधानी कलकत्ता से प्रकाशित दी टेलीग्राफ / संडे पत्रिका के रास्ते दिल्ली की ओर उन्मुख हो रहा था। मैं तो महज एक अदना सा मनुष्य था। ब्रह्माण्ड रूपी पिता का हाथ भी सर से उठ चुका था – लेकिन अपनी मेहनत को पूंजी मानकर दिल्ली की ओर उन्मुख हो गया था।
फिर अपने सगे-सम्बन्धियों से, शुभचिंतकों से आनंद बाबू के बड़ी बेटी – श्रीमती सुनीता झा – का नंबर प्राप्त किया। फिर श्रीमती पुनिता झा से भी बात किये। कुछ शब्दों के बाद ही हम सभी पचास वर्ष पूर्व रानी घाट के उसी आवास के बाहर, गंगा की ओर मजबूत इरादों के साथ पुनः देखने लगे, अपने-अपने कार्यों को अपनी-अपनी नज़रों से आंकने लगे। खुद का पीठ थपथपाने लगे। खुद हंसने लगे और अपने-अपने दिवंगत माता-पिता-आनंद बाबू, सीता बहन और उन दिनों के सभी लोगों को याद कर अन्तःमन से उन्हें नमन करने लगे – क्योंकि निःसंदेह मेहनत हमारी थी, लेकिन शुभकामनाएं उन सबों का था। बाबूजी कहते भी थे – जीवन में महिलाओं का और बच्चों का आशीष और शुभकामनाएं बटोरने में कभी किल्लत नहीं करना। जीवन में उत्कर्ष पर रहेंगे।
बातचीत के दौरान जब श्रीमती सुनीता झा अपने बारे में बतायी, मैं हतप्रत रह गया। मैं स्वयं को उसके सामने ‘बौना’ समझने लगा। यह बात उसे बताया नहीं, लेकिन मन ही मन उसके चरणों का वंदन किया और तय कर लिया यह बात लिखूंगा ताकि आज ही नहीं, आने वाली पीढ़ियों के लिए, खासकर मिथिला की बालिकाओं के लिए, जिनकी शादी कम उम्र में हो जाती है – सुनीता झा, उनकी सोच, उनकी मेहनत और उनके ससुराल के लोगों का सहयोग, उनके बच्चों का अपनी माँ के प्रति शैक्षिक सम्मान एक मील का पथ्थर है। श्रीमती सुनीता झा अपनी मेहनत से यह सिद्ध कर दिया कि एक विवाहित महिला भी, बच्चों की माँ भी – अगर शिक्षित होना चाहे, पढ़ना चाहे, आगे निकलना चाहे – वह कर सकती है, क्योंकि उन्होंने तीन बच्चों की माँ होने के बाबजूद, ससुराल में वृद्ध सास-ससुर की पुतोहु होने के बाद भी शिक्षा के प्रति अपनी भूख को शांत नहीं होने दी। इतना ही नहीं, इन शब्दों के साथ मैं श्रीमती सुनीता झा के तीनों पुत्रों – श्री कुमुद जी, श्री प्रवीण जी और श्री प्रतिक जी – को धन्यवाद देता हूँ कि वे सभी अपनी नवमी कक्षा पास माँ को, जो कोई चौदह वर्ष किताब से दूर रही, किताबों के प्रति आकर्षण जागृत कर, उसे माध्यमिक, इंटर, स्नातक, स्नातकोत्तर, गोल्ड मेडलिस्ट ही नहीं बनाया, बल्कि मिथिला विश्वविद्यालय में मैथिली विषय का प्राध्यापक भी बना दिया।
आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम मधुबनी लिटरेचर फेस्टिवल के चौथे श्रृंखला के अवसर पर जो दरभंगा स्थित मिथिला विश्वविद्यालय – कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय प्रांगण में होने जा रहा है, श्रीमती सुनीता झा से बातचीत किया। उनकी बातों को सुनकर, उनके पति श्री कलानाथ झा ‘जीवन’ की बातों को सुनकर श्रीमती सुनीता झा मिथिला की सैकड़ों, हज़ारों, लाखों महिलाओं के लिए एक दृष्टान्त मानता हूँ – जो विवाहोपरांत भी, बच्चे होने के बाद भी, पढ़ने की भूख को मरने नहीं दी।
श्रीमती सुनीता झा कहती हैं: सन 1975 में मैं नवमी कक्षा में पटना के बांकीपुर बालिका उच्च विद्यालय में पढ़ती थी। मिथिला में बेटियों की शादी को लेकर जो सोच आज से पचास वर्ष पहले थी, आज ‘कुछ परिवर्तन के अलावे’, आम तौर पर वही है। अपवाद छोड़कर, विवाह के मामले में, आज भी लड़कियां अपने माता-पिता के निर्णयों का सम्मान करती हैं। प्रत्येक माता-पिता यह चाहते हैं कि उनकी बेटी का विवाह किसी अच्छे घर में, संस्कारित घर में हो जहाँ न केवल उसे सम्मान मिले, बल्कि दो परिवारों के बीच रिश्तों का डोर और भी मजबूत हो। आज जो भी महिलाएं ससुराल में किसी भी नवविवाहिता की सास होती हैं, वह कल उसी स्थान पर, उसी घर में एक नवविवाहिता रही थी। स्वाभाविक है कि इन दो पीढ़ियों के बीच सास-बहु का सम्बन्ध, उनकी मानसिकता, उनकी सोच में जब तक पूर्णतया समन्वयन नहीं होगा, न लड़की सुरक्षित रहेगी और ना ही परिवार शांत रह पायेगा। इन तमाम संबंधों में लड़की के मायके और वर पक्ष के परिवारों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। अनावश्यक रूप से लड़की के ससुराल में उसके माता-पिता का हस्तक्षेप होना, परिवार को अस्थिर कर देता है।
श्रीमती सुनीता झा के अनुसार: “मैं बहुत भाग्यशाली थी। मेरे पिता न केवल एक बेहतरीन शिक्षक थे, न केवल अपने विषय के मूर्धन्य हस्ताक्षर थे, न केवल समाज के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे; वे एक बेहतरीन इंसान भी थे और अपने दायरे को, अपनी जवाबदेही को बखूबी जानते थे। जब मेरी शादी की बात हुई, मेरे पिता बहुत ही स्नेह के साथ मुझसे कहे कि ऐसा परिवार नहीं मिलेगा। अल्प आयु में तुम्हारी शादी होने जा रही है, लेकिन शिक्षा के प्रति अपनी भूख कभी कम नहीं होने देना। समय आने पर तुम खुद-ब-खुद शैक्षिक धारा में प्रवेश पा जाओगी, यह पिता का आशीष है। कहते हैं प्रत्येक बच्चे का पिता उस बच्चे और परिवार के लिए एक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड होता है। मेरे लिए मेरे मायके में और ससुराल में दोनों पिता – ब्रह्माण्ड ही थे।”
सुनीता झा आगे कहती हैं: “विवाहोपरांत जब ससुराल आई तो उस उम्र में सामाजिक और पारिवारिक जवाबदेही सर पर आई। हमारे लिए ससुराल मेरा परिवार था। यहाँ माता-पिता (सास-ससुर) थे। नया समाज था। नए कुटुंब थे। मेरे ससुर ‘शिक्षा के पक्षधर’ थे। उन्हें इस बात की ग्लानि थी कि विवाह के कारण मेरी शिक्षा बाधित हो गई है। वे हमेशा चाहते थे कि मैं अपनी शिक्षा को आगे ले चलूँ। लेकिन शायद समय कुछ और चाहता था। उत्तरोत्तर मेरे तीन बच्चे हुए। समय बीत रहा था। यह नहीं कहूँगी कि शिक्षा के प्रति भूख समाप्त हो रही थी, लेकिन घर-परिवार-बच्चे में कुछ इस कदर उलझती जा रही थी कि पढ़ने के अभिलाषा के प्रति लालसा कमजोर होने लगी थी। मेरे ससुर हमेशा चाहते थे कि मैं पढूं। वे घर में विभिन्न प्रकार के उपदेश दिया करते थे। संस्कृत के, मैथिली साहित्य के अनेकानेक दृष्टांतों को उद्धृत करते थे। मैं भी जानती थी कि वे सभी बातें इसलिए कह रहे हैं ताकि शिक्षा के प्रति लालसा कमजोर नहीं हो। वे सभी चाहते थे कि मैं ‘उत्तर मध्यमा’ से शिक्षा को आगे बढ़ाऊं। लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहती थी। मैं जानती थी कि ‘उत्तर मध्यमा’ से शिक्षा प्राप्त करने में मैं अपनी नजर में वह सम्मान नहीं प्राप्त कर पाउंगीं जो मैं चाहती थी।”
“कुछ पल रुक कर, एक लम्बी उच्छ्वास लेती”, सुनीता झा कहती हैं: “मेरा मझला बेटा बहुत बदमाश था बचपन में। पढ़ने में अब्बल तो था, लेकिन वह सिर्फ अपने पिता की भाषा को समझता था। इसलिए जब पढ़ने-पढ़ाने की बात होती थी, उसके पिता ही सामने होते थे। लेकिन उनके साथ भी समय की किल्लत थी। वे नौकरी करते थे। एक दिन पढ़ाने के लिए मैं उसे लेकर बैठी। बदलते वक्त में शिक्षा के क्षेत्र में बहुत परिवर्तन हुए हैं। पढ़ते-पढ़ाते समय एक आम बच्चे की तरह वह कहता है कि उस विषय को मैं नहीं जानती, मैं नहीं पढ़ा पाउंगीं। जिस समय उसके जिह्वा से यह शब्द निकला था, मुझे ऐसा लगा जैसे साक्षात् माँ सरस्वती उससे यह शब्द कह रही है। शायद मेरी पढाई का बीजारोपण उन्हीं शब्दों से होना था। हम दोनों माँ-बेटा एक-दूसरे को एक नजर देखे। मेरे चेहरे को वह बालक पढ़ लिया। शायद वह समझ गया कि उसकी बात मुझे अच्छा नहीं लगा, लेकिन मैं उसे कैसे कहें कि तुमने हमारे जीवन का एक अर्थ दे दिया है।”
सुनीता झा फिर कहती हैं: “घर में अन्य लोग भी उपस्थित थे। तभी मेरे ससुर और पति दोनों एक साथ कहते हैं – तुम भी क्यों न पढ़ती हो? अब तो बच्चे के साथ तुम भी शिक्षा ग्रहण कर सकती हो। मिथिला में, या यूँ कहें की बिहार में, औसतन एक लाख में शायद दस ही महिलाएं ऐसी होंगी जिन्हे विवाहोपरांत, बच्चे होने के बाद भी, ससुराल के लोग, पति, सास-ससुर आगे पढ़ने में सहायक होते हैं। मैं यहाँ एक बात और कहना चाहूंगी कि लड़कियों को भी विवाहोपरांत, बच्चे होने के बाद भी शिक्षा की ललक नहीं रहती है। महिलाएं भी विवाहोपरांत पढ़ने की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहती हैं। शायद इन शब्दों को पढ़कर आज की शादीशुदा महिलाएं मेरी बात को स्वीकार नहीं करेंगी, या फिर मेरी आलोचना करेंगी; लेकिन हज़ारों-लाखों मैथिला की लड़कियों में, जिन्हे मैं जानती हूँ, मैं अकेली हूँ जो विवाहोपरांत नवमी कक्षा से आगे बढ़कर, आगे पढ़कर आज प्राध्यापक हूँ, अपने पैरों पर खड़ी हूँ।
जोड़ों से ठहाका लगाती सुनीता झा फिर कहती हैं: “जब मैं इंटर में पढ़ती थी, मेरा बेटा स्नातक (विज्ञान) का छात्र था। अक्सरहां, हम दोनों एक साथ कालेज जाते थे। मैं पहले आ जाती थी वापस, जबकि वह कॉलेज में ही रहता था अन्य कक्षाओं के लिए। एक दिन उसके कुछ दोस्त उससे पूछ बैठे कि जो महिला तुम्हे साथ रहती है, क्या वह तुम्हारी बहन या कोई रिश्तेदार है? मेरा बेटा जोर से हंसा और फिर अपने दोस्तों को कहा: “वह मेरी माँ” है और वह अपनी पढ़ाई पूरी कर रही है। उसके सभी दोस्त पहले तो आश्चर्चकित हुए, फिर मेरे बेटे से कहे कि ऐसी माँ वह पहली बार देखा हैं। कितनी अच्छी बात है कि माँ इस उम्र में भी पढ़ना चाहती है, अपनी पढाई पूरी करनी चाहती है। आज हमारे समाज में ऐसी माँ कहाँ मिलती है। स्नातक (प्रतिष्ठा) में मैथिली विषय में बेहतरीन अंक प्राप्त हुए। फिर उसी विषय में स्नातकोत्तर की। अव्वल परीक्षा फल हुआ। फिर पी.एचडी की और “नेट” में अव्वल आयी। जब पीएचडी कर रही थी, उस समय विषय को लेकर मन में अनेक अनेक प्रश्नोत्तर उठ रहा था। लेकिन मैं विषय कुछ अलग चुनी – मैथिली साहित्य में कला लेखिका का योगदान। सबों को बहुत पसंद आया।”
अपनी बातों को आगे बढ़ाते श्रीमती सुनीता झा कहती है: पढ़ना मेरे लिए बहुत आवश्यक था। पढ़ने से हम न केवल उस विषय में ज्ञान प्राप्त करते हैं, बल्कि जब आप-हम किसी दो विद्वद्जन या विदुषी के सामने खड़े होते हैं तो सामने वाले की सोच में बदलाव आता है। आम तौर पर महिलाओं को ‘गृहणी” से ही सम्बोधन मिलता है। मैं भी एक गृहणी ही थी, लेकिन तनिक हटकर। घर सभी सदस्यों की नजर में मैं मेहनतकश महिला थी। जो ठान ली थी, उसे पूरा भी की। इससे हमारे प्रति घर के प्रत्येक सदस्यों की सोच में सकारात्मक बदलाव आया। उससे भी अधिक मैं खुद अपनी नजर में अव्वल आई। आईने के सामने खड़ी होकर खुद को देख सकती थी। नौकरी करना मेरे लिए जरूरी नहीं थी। पति बेहतरीन नौकरी में थे। लेकिन समय कुछ और चाहता था। बिहार में विगत दो दशक से अधिक समय से किसी भी सरकारी कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में अथवा विश्वविद्यालय से संबद्धता प्राप्त कॉलेजों में प्राध्यापकों की नियुक्ति नहीं हुई थी। कोई विज्ञापन नहीं निकल रहा था। अचानक बिहार लोक सेवा आयोग प्राध्यापकों की नियुक्ति की घोषणा की। साल था 2016 और नियुक्ति लिखित परीक्षा और अन्तर्वीक्षा के आधार पर थी। मेरे पति, बच्चे, ससुराल के सभी लोग मुझे परीक्षा में बैठने को प्रेरित किये। एक और परीक्षा दी और अव्वल आ गयी। फिर क्या था नवमी कक्षा पास सुनीता झा मिथिला विश्वविद्यालय की एक प्राध्यापिका हो गई।
आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम जब उनसे पूछा कि जिस विषय में आप पढ़ाई की और प्राध्यापक बनी, उसी विषय में आपके पिता पटना विश्वविद्यालय के हस्ताक्षर थे। क्या लोगों ने यह तो नहीं कहा कि पिता के बल पर आगे पढ़ी है, नौकरी प्राप्त की है? श्रीमती सुनीता झा जोर से पहले हंसी और फिर आँचल की खूंट से अपनी आंखों को पोछती कहती है: “समाज में ऐसे लोगों की किल्लत नहीं है जो इस तरह की बातें सोचते हों। लेकिन जिस दिन नौकरी की चिठ्ठी मेरे हाथों में थी, उस दिन से कोई 108 माह पूर्व, यानी 2007 में ही मेरे पिता महादेव के शरण में अपनी उपस्थिति दर्ज कर दिए थे। मैं जो कुछ भी हासिल की वह मेरी खुद की मेहनत, मेरी खुद का संकल्प, नैहर और ससुराल वालों की शुभकामनाओं का परिणाम है। आज मेरे माता-पिता, भाई, मेरे सास-ससुर-इष्ट-अपेक्षित, सम्बन्धी जो भी इस पृथ्वी पर नहीं है, वे सभी स्वर्ग से मुझे जरूर देखते होंगे और फक्र करते होंगे।
सुनीता झा से जब उनके परिवार के बारे में पूछा तो वे कहती हैं: पति का साथ हमेशा रहा। कुछ दिन पहले मधुबनी ग्रामीण बैंक से शाखा प्रबंधक के रूप में अवकाश प्राप्त किये हैं। मेरे तीन पुत्र हैं। कुमुद, एक सॉफ्टवेयर इंजिनियर है और यूनाइटेड बैंक ऑफ़ स्विट्जरलैंड में कार्यरत है। दूसरा, प्रवीण, जो मेरी पुनःशिक्षा के सूत्रधार है, वह नॉर्वे में रेडियोलॉजिस्ट है और तीसरा प्रतीक, आईआईटी, रुड़की में एसोसिएट प्रोफ़ेसर (केमिकल इंजीनियरिंग) है। आज जब अपने बचपन के जीवन को पटना के रानीघाट स्थित गंगा के किनारे से आंकती हूँ तो अपने ऊपर फक्र महसूस करती हूँ। गंगा की अविरल धारा को कोई दो दशक तक रानीघाट के उस दो-मंजिले मकान से देखती थी। मैं भी समय की धारा में बहती चली गयी, लेकिन किनारे (शिक्षा) का साथ कभी नहीं छोड़ी – न मन से और ना ही आत्मा से। परिणाम आज सामने हैं।
(इस आलेख के लेखक शिवनाथ झा को आप इन लिंको पर देख सकते हैं। https://www.facebook.com/aryavartaindianationpatna / https://www.facebook.com/savemartyrsfamilies
सौ. सुनीताके जीवनगाथा, बहुतही सत्य एवं सुन्दर रूपमे प्रस्तुत की गईहै।कुछ सुधार अपेक्षित है-सुनीताके श्वसुरके देहान्त, सुनीताके पतिके अनुपस्थितिमे सुनीताकेँश्वसुर कोडकैतोने डंडोसे पीटे ।श्वसुरके अत्यन्त सेवा-सुश्रुषा करने के बाद भी उसी वर्ष(1979)मे ही उनके श्वसुर का निधन हुआ।श्वसुर-सास के मृत्यु के उपरान्त सुनीता शिक्षा प्रारंभ की। पुत्र प्रवीण को तो पढ़ने की ललक बचपन से ही था, उनके माता-पिता पढाइ रोककर सुलाते थे ।तीसरे, प्रतीक शिक्षाके प्रेरणा-श्रोत।
आभार
सुन्दर एवं प्रेरणादायक। सौ. सुनीता के पतिके अनुपस्थितिमे 1979डकैती-मारपीट हुई ।वर्ष 1979मेहुई।सुनीता घरसे निकलकर संघर्षकिए।
श्वसुरके देहान्त हृदयाघात के कारण वर्ष1979मे हो गए।सुनीता,श्वसुर-सासके मृत्यु के बाद पुन:शिक्षा प्रारंभ किए ।
छोटा लाड़ला लड़का, प्रतीक को पढाने के लिए उन्हे पढ़ना पड़ा ।पति बैंक कार्यमे इतने व्यस्त रहते थे कि बच्चो के देखभाल के सम्पूर्ण भार सुनीता पर ही देकर चले जातेथे।
आभार