बिहार का शिक्षा विभाग ‘सफ़ेद हाथी’ है, ‘महावतों’ की औसत पदावधि 2 साल-8 महीने, नीतीश के कार्यकाल में 5 मंत्री बदले गए और 1961 से अब तक 25(भांग-3)

अघोर प्रकाश शिशु सदन के अध्यक्ष डॉक्टर (कैप्टन) दिलीप कुमार सिन्हा

पटना : आप माने या नहीं, आपकी मर्जी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कार्यकाल में अब तक छह शिक्षा मंत्रियों का “आया राम – गया राम” हुआ है। सन 1961 के बाद अगर अब तक 21 मुख्यमंत्री ‘मुख्यमंत्री कार्यालय’ में शोभायमान हुए हैं, तो शिक्षा मंत्रियों की संख्या मुख्यमंत्रियों की संख्या से चार अंक अधिक है। यानी सन 1961 के बाद अब तक 25 शिक्षा मंत्रियों को कुर्सी पर ‘आगमन’ और ‘प्रस्थान’ करना पड़ा है। औसतन समयावधि दो वर्ष आठ महीने। 

इन आंकड़ों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि बिहार में “शिक्षा” के क्षेत्र को “बेहद संवेदनशील प्रयोगशाला” बनाया गया। वैसे आम लोगों का कहना है कि प्रदेश में जितना ‘सीमेंट-बालू’ सहित सरकारी-कार्यों के लिए ‘ठेकेदारी प्रथा’ में राजनेताओं सहित ठेकेदारों का अभ्युदय हुआ है; शिक्षा का क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा। एक ओर जहाँ सरकारी क्षेत्र के विद्यालयों (चाहे आंगनवाड़ी वाला विद्यालय हो या खेत में खोले गए विद्यालय या फिर मुरही बांटने वाला विद्यालय) से लेकर महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों की स्थिति ”बद से बद्द्तर” हो गई, वहीँ निजी क्षेत्रों के शैक्षणिक संस्थाएं “दूधे नहाओ – पुते फलो” आशीष वचन से सार-गर्वित हो रहे हैं। होना भी स्वाभाविक है क्योंकि यहाँ “ना उधो को लेनी और ना माधो को देनी” वाली कहावत चरितार्थ होती है। मुख्यमंत्री कार्यालय से औसतन दो वर्ष आठ महीने के बाद शिक्षा मंत्री बदल जाते हैं। स्वाभाविक है मंत्री के बदलने से संतरियों की सीमा रेखा में भी फेरबदल होता है। शेष काम अधिकारी, कर्मचारी, बिचौलिए करते रहते हैं। 

इसे कहते हैं मनमुताबिक कानून। ब्रितानिया सरकार के समय जो कानून बना था, आज भी भारत की कानून व्यवस्था का अहम् हिस्सा है। स्वतंत्र भारत में जैसे-जैसे राजनेताओं को अपनी सुविधानुसार नियमों की आवश्यकता महसूस होती गई, उन कानूनों में समय-समय पर जोड़-घटाव-गुणा-भाग किया गया। व्यवस्था से जुड़े लोग उन परिवर्तनों को “जनता के लाभार्थ” बताते गए और “अशिक्षित आवाम” उसे शिरोधार्य करता गया। 

सम्पूर्ण देश की विधि-व्यवस्था की बात यहाँ करना औचित्य’ नहीं है, लेकिन बिहार के मामले में, जहाँ एक महिला प्रदेश में महिला-शिक्षा के लिए पहला कदम उठाई थी, बिहार में महिलाओं को शिक्षित होने के लिए आज से लगभग 130 वर्ष पहले पाटलिपुत्र की धरती पर मार्ग प्रशस्त की थी, आज बिहार के शिक्षा विभाग के अधिकारियों, मंत्रियों की नजर में “कानून-फर्स्ट” हो गया है और उस महिला का क्रिया-कलाप “लास्ट” । सन 1892 में जिस महिला ने पटना की धरती पर महिला शिक्षा के लिए बांकीपुर गर्ल्स स्कूल की स्थापना की थी, जय प्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति के पश्चात सं 1980 में पटना विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त करने वाले बिहार के शिक्षा मंत्री की अगुवाई वाले शिक्षा विभाग के अधिकारियों के लिए “कानून फर्स्ट” चरितार्थ हो रहा है। 

इससे भी बड़ी बिडंबना यह है कि इस विद्यालय को ‘भाषाई अल्पसंख्यक विद्यालय’ के रूप में मान्यता मिली थी। इस विद्यालय को बिहार विद्यालय परीक्षा समिति से माध्यमिक स्तर की सम्बद्धता प्रदान किया गया था। साल था 2012 और दस वर्ष बाद बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अधिकारियों द्वारा विगत वर्ष “औचक निरिक्षण” कर “कुछ मानकों” में “कमी” के कारण सम्बद्धता समाप्त कर दिया जाता है। परिणाम सैकड़ों महिला छात्राओं का भविष्य अधर में लटक जाता है। इसकी चिंता न प्रदेश के मुख्यमंत्री को होती है, न शिक्षामंत्री को और ना ही अधिकारियों को। वे सभी “पढ़ेगी बेटी  बढ़ेगी बेटी” का नारा ठेकेदारी-प्रथा के तहत मजबूत करने में व्यस्त हैं। उन्हें मालूम है कि एक बार सिंहासन से विमुक्त होने पर जीवन पर्यन्त उस कुर्सी की ओर उन्मुख होना स्वप्न ही रह जायेगा।

बिहार में विद्वानों, विदुषियों, शिक्षाविदों की किल्लत न उन दिनों थी, न आज है; लेकिन आज तक किसी ने सवाल नहीं उठाया कि प्रदेश के महामहिम के दफ्तर के लिए, प्रदेश के मुख्यमंत्री के दफ्तर के लिए, प्रदेश के शिक्षा मंत्री के दफ्तर के लिए, प्रदेश के परीक्षा समिति के अध्यक्ष/सचिव के कार्यालय के लिए “नियमानुसार कितनी भूमि होनी चाहिए?” इस बात के लिए न तो कोई नियम बनाया गया और ना ही कानून। अगर दस वर्ष पूर्व वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल के प्रशांत कुमार शाही के शिक्षा मंत्री काल में क़ानूनी तौर पर उस विद्यालय को बिहार विद्यालय परीक्षा समिति द्वारा माध्यमिक स्तर की सम्बद्धता प्रदान की जा सकती है, तो सं 2020 में विजय कुमार चौधरी के शिक्षा मंत्री होने के साथ ही उसी नियम के तहत सम्बद्धता समाप्त कैसे हो सकती है? 

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अब अगर यह सवाल सम्मानित नीतीश कुमार से पूछा जाय तो वे दो-टूक जबाब दे देंगे: “हमको तो मालुमे नहीं है। हम तो प्रदेश के वरिष्ठ नेता को शिक्षा विभाग सौंप दिए ताकि वे प्रदेश में बेहतर शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध करा सकें। महिला शिक्षा को आगे ले जा सके। हम कितना काम करेंगे। हम तो खुद्दे चारो तरफ से घिर रहे हैं।  सब चाहते हैं कि कब कुर्सी खाली हो ……… यानी सवाल को महात्मा गांधी गंगा पुल से घुमाकर फतुहा पुल पर लेके चले जायेंगे और सवाल वहीँ का वहीँ रह जायेगा। इससे यह ज्ञात नहीं हो पायेगा कि वे खुद का बचाव कर रहे हैं, अपने शिक्षा मंत्री का बचाव कर रहे हैं, अधिकारियों का बचाव कर रहे हैं, दलालों का बचाव कर रहे हैं। अगर अधिक पूछ दिया तो हत्थे से कबड़ जाएंगे, चिल्लाने लगेंगे, थरथराने लगेंगे, धमकी देने लगेंगे। 

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क्या प्रदेश के मुख्यमंत्री सच में महिला शिक्षा ही नहीं, प्रदेश को सचमुच शिक्षित करने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं ? अगर सन 2012 और 2021 का बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अधिकारियों के क्रियाकलापों को देखा जाय तो उत्तर ‘नकारात्मक’ दिखता है। बिहार के आज के सम्मानित लोग भले इस बात पर विश्वास कर लें, लेकिन आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम इस बात को स्वीकार करने में असमर्थ है कि प्रदेश में एक भी प्रशासनिक पत्ता प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अनुमति के बिना हिलता होगा चाहे शिक्षा विभाग हो या सड़क विभाग। 

वैसे नीतीश कुमार के डेढ़दशक+ के काल-खंड में अब तक छः राजनेता (बिशन पटेल- 2005-08, हरी नारायण सिंह – 2008-2010, प्रशांत कुमार शाही – 2010-2014, अशोक चौधरी – 2015-2017, कृष्ण नंदन प्रसाद वर्मा – 2017-2020 और विजय कुमार चौधरी – 2020 के लगातार) बिहार के शिक्षा मंत्री के कार्यालय में रखी कुर्सी पर विराजमान हुए हैं। अगर अवधि का औसत निकालें तो नीतीश कमर के समय काल में औसतन एक शिक्षा मंत्री दो वर्ष आठ माह से अधिक नहीं रहे हैं। इतना ही नहीं, दीप नारायण सिंह (द्वितीय मुख्यमंत्री) के कार्यकाल (सन 1961 से) नीतीश कुमार के मुख्यमंत्रित्व काल तक जिस तरह प्रदेश 21 मुख्यमंत्रियों को आते-जाते देखा है, प्रदेश के शिक्षा मंत्रियों की सूची में चार संख्या अधिक है। यानी बिहार सन 1961 के बाद आज तक 25 शिक्षा मंत्रियों को दफ्तर में ‘प्रवेश’ और ‘मुक्ति’ का चश्मदीद गवाह रहा है। 

अब सवाल यह है कि उस विद्यालय का बिहार विद्यालय माध्यमिक समिति के साथ सम्बद्धता का समय बिहार के शिक्षा मंत्रियों के औसतन कार्यकाल से चार गुना से अधिक समय का रहा। वैसी स्थिति में ‘अकस्मात निरीक्षण’ होना और निरीक्षण के तत्काल प्रभाव से सम्बद्धता को निरस्त कर देना – न केवल मुख्यमंत्री का महिला शिक्षा के प्रति उनके अन्तःमन के रवैया को दिखता है, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से इस बात को भी दर्शाता है कि आखिर क्या वजह है कि उनके शिक्षा मंत्री महोदय बिहार में सत्तर के दशक की “आया राम – गया राम” वाली राजनीतिक व्यवस्था को चरितार्थ कर रहे हैं। उन दिनों मुख्यमंत्री “आया राम – गया राम” का शिकार होते थे, आज शिक्षा मंत्री हो रहे हैं। कहीं तो कुछ “कमी” है, चाहे वह “विस्वास की कमी” हो, प्रशासन की कमी हो, “उद्येश्य की कमी” हो या फिर “लाभ की कमी” हो – क्योंकि  शिक्षा का क्षेत्र आज पटना ही नहीं, पूरे देश में बहुत बड़ी “दुधारू गाय” हो गयी है। अगर ऐसा नहीं होता तो सरकारी स्तर के विद्यालयों, महाविद्यालयों का यह हश्र नहीं होता और प्रदेश में शिक्षा का निजीकरण भी नहीं होता। खैर। 

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम अघोर प्रकाश शिशु सदन के अध्यक्ष डॉक्टर (कैप्टन) दिलीप कुमार सिन्हा से बातचीत किया। डॉक्टर सिन्हा बिहार सरकार के अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष रह चुके हैं, साथ ही, वे बिहार-बंगला अकादमी, बिहार सरकार के पूर्व अध्यक्ष पद पर भी रह चुके हैं। यह विद्यालय पश्चिम बंगाल के दूसरे मुख्यमंत्री डॉ विधान चंद्र राय के खजांची रोड स्थित उनके जन्म स्थान पर स्थित है। पटना के बांकीपुर गर्ल्स स्कूल की स्थापना डॉ रॉय की माँ श्रीमती अघोर कामिनी देवी ने ही की थी। डॉ विधान चंद्र राय के नाम पर भारत के करीब 12 लाख से अधिक ऐलोपैथी चिकित्सक ‘डॉक्टर्स दिवस’ मानते हैं। डॉ विधान चंद्र रॉय का वह ऐतिहासिक स्थान और उस स्थान पर कई दशक से चल रही ‘बालिका विद्यालय’ का यह हश्र नहीं होता अगर विगत 75 वर्षों में सत्ता के सिंहासन पर बैठे ‘सफेदपोश’ राजनेताओं के साथ समाज के लोगों की मानसिकता सकारात्मक होती । कुल 16 शिक्षकों में 12 शिक्षकों को ‘चंदा कर मासिक वेतन’ नहीं दिया जाता। बिहार सरकार के शिक्षा विभाग के अधिकारी, प्रदेश के शिक्षा मंत्री इस ऐतिहासिक विद्यालय को सरकारी अनुदान, सहायता से इसलिए बंचित नहीं कर देते कि ‘विद्यालय के पास उपलब्ध जमीन में 40 वर्ग फीट जमीन कम है जो नियमानुसार आवश्यक है।”

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डॉक्टर सिन्हा कहते हैं: “खजांची रोड पटना में स्थित अघोर प्रकाश बालिका उच्च विद्यालय बिहार राज्य के लिए एक ऐतिहासिक धरोहर है। सन् 1949 में, भारत रत्न डॉ विधान चंद्र राय, जो उस समय पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे, अपनी पुश्तैनी मकान को, जहाँ बिहार में महिला शिक्षा का बीजारोपण किया गया था, अपने माता-पिता की याद में दान दिया था, जिससे समाज के वंचित जनों के बच्चों और बच्चियों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने के लिए अघोर प्रकाश शिशु सदन की स्थापना किया गया। इस विद्यालय को बिहार सरकार ने ‘भाषाई अल्पसंख्यक विद्यालय के रूप में मान्यता प्रदान किया। अघोर प्रकाश के बच्चे हर साल अच्छे परिणाम के कारण, बिहार विद्यालय परीक्षा समिति ने 2012 में इस विद्यालय को माध्यमिक स्तर तक सम्बद्धता प्रदान किया।”

डॉ विधान चंद्र रॉय अपनी माता, पिता और पूर्वजों द्वारा बिहार में शिक्षा, विशेषकर महिला शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर किये गए ऐतिहासिक कार्यों से सम्बंधित दस्तावेजों को दिखाते डॉ सिन्हा, एक लम्बे उच्छ्वास के बाद कहते हैं: “लेकिन दिनांक 20 दिसंबर, 2021 को बिहार विद्यालय परीक्षा समिति द्वारा गठित जांच हेतु समिति ने औचक निरीक्षण के दौरान इस विद्यालय के कुछ मानकों में कमी के कारण बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के साथ सम्बद्धता को समाप्त कर दिया और इस तरह, वर्ग 9 की 39 लड़कियों की अपने ही विद्यालय से माध्यमिक परीक्षा में बैठने, उत्तीर्ण होने की आशा एकाएक आधार में लटक गयी।”

वैसे प्रदेश ही नहीं देश के शिक्षाविद, ज्ञानी-महात्मा अधिक ज्ञान देंगे, जब बिहार के रेलवे स्टेशन पर बैठकर, खेत-खलीहाओं में हल चलाते, पटना चिकित्सा महाविद्यालय के शल्य चिकित्सा विभाग में मरीजों के गंदगी को साफ़ करते, अपने-अपने माथे पर बिहार के संभ्रांतों, अधिकारियों का मल-मूत्र उठाकर फेंकने वाला, पटना के गाँधी मैदान के कोने पर जूता सिलने वाले का बेटा-बेटी या समाज के दबे-कुचले-उपेक्षित लोगों का संतान जब  अखिल भारतीय स्तर की परीक्षाओं में अव्वल आते हैं, तो बिहार के ‘लाट-साहब से लेकर मुख्यमंत्री से लेकर, शिक्षा मंत्री से लेकर समाज के सभी तबके के लोग, खासकर राजनेता उस अभ्यर्थी को सम्मानित करने में एक इंच पीछे नहीं रहते, ताकि अखबार में आम और तस्वीर छपे, सोसल मिडिया पर चहलकदमी करें – लेकिन कुछ वर्गमीटर जमीन की कमी के कारण सम्बद्धता जब रद्द होती हैं, इस विद्यालय के लिए सभी मूक-वाधिर्दिव्यांग हो जाते हैं। 

डॉ सिन्हा कहते हैं: “विद्यालय के भवनों का कुल क्षेत्रफल 450 वर्ग मीटर होना चाहिए। लेकिन अघोर प्रकाश बालिका उच्च विद्यालय की भवनों का कुल क्षेत्रफल 375 वर्ग मीटर है। सोचिये, 75 वर्ग मीटर की कमी को पूरा करने के लिए हमने (प्रबंधन समिति) तीसरी मंजिल बनाने का वादा भी किया।  लेकिन जांच समिति के अधिकारीगण उसी 75 वर्ग मीटर को आधार मानकर रद्द कर दिया। लेकिन दस वर्ष पूर्व भी वही नियम था। वही मुख्यमंत्री भी थे। हाँ, शिक्षा मंत्री वे नहीं थे। 

डॉ राय की माँ या फिर डॉ रॉय इस बात से अनभिज्ञ थे कि आने वाले समय में, जिस 75 वर्गमीटर की किल्लत होने के बाद भी, जिस जमीन पर प्रदेश में महिला शिक्षा का बीजारोपण किया गया था, वह कमी आने वाले दिनों में बिहार के शिक्षा विभाग के अधिकार, मंत्री की नजर में प्रमुख हो जाएगा और महिलों की शिक्षा को कूड़ेदान में फेंक दिया जायेगा। यह अत्यंत दुखद है।”

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बिहार में शिक्षा मंत्रियों का औसत कार्यकाल दो साल आठ महीने के करीब है। स्वाभाविक है कि वर्तमान शिक्षा मंत्री का ‘विदाई’ का समय नीतीश कुमार निर्धारित कर लिए हैं

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम को डॉ सिन्हा आगे कहते हैं: “खजांची रोड को आप भौगोलिक दृष्टि से विगत पांच दशक से अधिक समय से देखते आये हैं। अघोर प्रकाश शिशु सदन मध्य विद्यालय और अघोर प्रकाश बालिका उच्च विद्यालय के दो भवनों के बीच एक प्रांगण है और दोनों विद्यालयों का एक ही खेल की मैदान है। कोई सौ मीटर की दुरी पर स्थित आर्य कन्या उच्च विद्यालय और पचास मीटर दूरी पर राम मोहन राय सेमिनरी के, प्रबंध समिति के साथ हमारी बात चल रही है कि हम खास अवसरों पर उनके खेल के मैदानों का इस्तेमाल कर सकें। हमारे दोनों विद्यालयों के बीच कोई चार दीवारी नहीं है। जमीनी भूखंड की अनुपलब्धता हमारी मज़बूरी है क्योंकि आज से सात दशक और अधिक समय पहले बना-बनाया हुआ कमरों के साथ यह भवन मिली थी – महिला शिक्षा के प्रक्घारप्रसार के लिए। डॉ विधान बाबू का यह समर्पण था अपने माता-पिता के लिए। वैसी माता के लिए उन्होंने उन दिनों महिला शिक्षा का बीजारोपण किया था।”

डॉ सिन्हा आगे कहते हैं: हम जब ‘नकारात्मक’ सोच को लेकर आगे बढ़ेंगे तो स्वभाविकम है कि हम सिर्फ कमियां ही ढूढेंगे, वही हुआ। जांच कर्ता यह नहीं देखे की विगत सात दशकों में पटना की कितनी महिला निरक्षर, अनपढ़, अशिक्षित छात्राओं को यह 75 वर्गमीटर की कमी वाला विद्यालय न केवल शिक्षित, ज्ञानी, विदुषी बनाया; बल्कि कई पीढ़ियों के लिए एक महिला को शिक्षित कर समाज में आमूल परिवर्तन लाया। यह बात वर्तमान काल में किसी को नही दीखता, यह दुर्भाग्य है। हम ‘अर्थ’ से सज्ज नहीं हैं, इसलिए विद्यालय में बहुत तरह की वस्तुओं, सेवाओं को उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं। हमारी शैक्षिक शुल्क निजी विद्यालयों की तुलना में नगण्य है। हम लोगों से भिक्षाटन कर लड़कियों को पढ़ाते हैं, शिक्षकों को वेतन देते हैं। आज कहमे पास 16 शिक्षक है। हम 12 शिक्षकों को भिक्षाटन कर वेतन देते हैं और प्रदेश में ‘पढ़ेगी बेटी  बढ़ेगी बेटी’ नारे के बीच शिक्षा का खुलान राजनीतिकरण हो रहा है, यह दुर्भाग्य है।”

बिलखते डॉ सिन्हा कहते हैं: “जिस कंप्यूटर के नाम पर जांच समिति अपनी रिपोर्ट में चर्चा करती है और नकारात्मक टिप्पणी करती है समबद्धता समाप्त करने के लिए; यह अत्यंत दुखद है। आज पटना ही नहीं, बिहार के 80 फीसदी से अधिक छात्र-छात्राएं जो सरकारी विद्यालओं में पठन-पाठन करते हैं, ‘कम्यूटर’ नहीं देखे होंगे, चलाने की बात, हार्डडिस्क की बात, माऊस की बात, की-बोर्ड की बात, प्रिंटर की बात, फैक्स की बात, ईमेल की बात छोड़ दें। 

इस विद्यालय में समाज के निर्धन, बंचित, उपेक्षित परिवारों की बच्चियां पढ़ती हैं जिसके घर में दो वक्त की रोटी की सुविधा उपलब्ध नहीं है। दो रोटी में छः भाग बांटता है। उसी रोटी से वृद्ध दादा-दादी, माँ-बाबूजी और बच्चे खाकर जीवन यापन करते हैं। माता-पिता, घर के बड़े-बजुर्ग यही चाहते कि उनकी बेटियां किसी तरह पढ़ ले ताकि अपनी जिंदगी की सिलाइ-बुनाई  अपनी तरह से कर सके। लेकिन सरकारी कार्यालयों में बैठे महानुभाव लोग नहीं चाहते हैं कि वे बच्चियां भी पढ़े। क्योंकि उनकी बच्चियां तो शहर के बड़े-बड़े विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करती हैं और उनकी मासिक आय उतनी होती है कि वे मोटे मोटे शुल्क के साथ अपने संतानों को ‘जेब खर्च’ भी दे सकें। यहाँ तो जेब भले फटी हो, बड़े आकार के दिलों के साथ हम महिला को शिक्षित कर रहे हैं बिना किसी नारे के कि पड़ेगी बेटी तो बढ़ेगी बेटी। 

आगे पढ़ें: बिहार की शिक्षा और सफ़ेद हाथी : आखिर जांच समिति वाले या उनके ऊपर वालों की क्या चाहत होती है, बोलते क्यों नहीं 

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