भागलपुर: शहर के बीचो-बीच कोई 300 + बीघा में स्थित सैंडिस कम्पाउंड के एक कोने पर स्थित “स्टेशन क्लब” के बाहर सत्तर-अस्सी के ज़माने तक एक बोर्ड पर लिखा दीखता था : “Dogs and Indians are not allowed inside the Club.” अंग्रेजी हुकूमत के समय के प्रशासक फ्रांसिस बुचनान ने भागलपुर के बारे में लिखा था : “The town of Bhagalpur, means the abode of refugees and was a very sorry place”. यह कम्पाऊंड ब्रिटॉन के नाम पर पड़ा है। ब्रिटान उस समय भागलपुर के मेयर थे। यह कम्पाउंड उत्तर में क्लीवलैंड रोड, दक्षिण में सेन्ट्रल जेल रोड, पूर्व में सेन्ट्रल जेल और पश्चिम में बिटसन रोड से घिरा है। इसके आस-पास आदमपुर, कालीबाड़ी, खंजरपुर का इलाका है। फ़्रांसिसी बुचनान की लेखनी के कोई दो सौ साल और अधिक समय के बाद सन 1979-1980 के दशक में एक “अमानवीय”, “असंवैधानिक” घटना घटी। पुलिस तो ‘अपराधी’ कहती थी, लेकिन न्यायालय उसे तब तक अपराधी नहीं स्वीकार किया किया था । वे सभी महज आदमी था। पुलिस उसे पकड़कर उसकी आखों को फोड़कर, उसमें तेज़ाब डाल देती थी। कोई 33 लोग इस त्रादसी के शिकार हुए थे । सम्पूर्ण विश्व इस घटना से विचलित हो गया। मानवता भागलपुर की गलियों में, चौराहों पर, खेतों में, खलिहानों में रक्त-रंजीत हो गया। जो शिकारी थे, कुछ सजा पाए, तो कुछ प्रोन्नति। लेकिन भुक्तभोगी को ‘मानवीय’ दृष्टि से न्यायपालिका तो न्याय दिलाने की अथक कोशिश की, लेकिन उसे “क़ानूनी न्याय” नहीं मिला, जिसे न्यायपालिका को देना था। खैर। हम सभी देश के न्यायिक व्यवस्था का सम्मान करते हैं, चाहे वह जिला न्यायालय हो या देश का सर्वोच्च न्यायालय।
फिर, 1989, यानी कोई 30+वर्ष पहले हुए सांप्रदायिक दंगे में कोई 30000 से भी अधिक लोग, सभी भागलपुर के ही तो थे, दंगे के शिकार हुए और अपने ही शहर में शरणार्थी बने। पूरा शहर राख में तब्दील हो गया था। चतुर्दिक लाशें बिछी थी। कहीं हाथ कटे पड़े थे, तो कहीं पैर। कहीं ‘धर’ से ‘सर’ अलग था और आँखें टकटकी निगाहों से आसमान की ओर देख रहा था तो कहीं बच्चे माँ की गोद में चिपके, उसके स्तन को पकड़े ईश्वर के शरण में दुनिया देखे बिना अपनी उपस्थिति दर्ज कर दिया था। कहीं गर्भवती स्त्री मृत तो हो गयी थी, लेकिन उसके पेट में अंतिम सांस तक बच्चे छटपट कर रहे थे। शायद अपने आराध्य को कह रहे थे – हे ईश्वर यह क्या किया तूने? मेरी क्या गलती है? पुरे शहर में “लाल रंग का रक्त फैला था और यह आश्वस्त करना कठिन ही नहीं, नामुमकिन था (हुआ भी नहीं) कौन का कतरा “हिन्दू” का था, या कौन सा कतरा “मुसलमान” का या कौन सा कतरा “जैन” का और कौन सा कतरा “बंगाली” समुदाय के लोगों का। जो उस घटना में बच गए, भाग्यशाली थे। लेकिन आज भी उस क्षण को याद करते भागलपुर के लोग भय से कांपने लगते हैं। भागलपुर नरसंहार के बाद शहर एक अलग तरह के मानसिक यातनाओं से गुजरा था। इस घटना के बाद भागलपुर के लोग एक बार फिर रोए। शहर में एक हृदय-विदारक घटना घटी। पापरी बोस नामक एक छात्रा को राजनीतिक संरक्षण के एक व्यक्ति द्वारा पहले तो अपहरण किया गया फिर बाद में उसका पार्थिव शरीर उसके परिवार और परिजनों को सुपुर्द किया गया । यह सभी घटनाएं दिल दहलाने वाली थी और इस त्रादसी का शिकार हुई, होती गई भागलपुर के बंगाली समुदाय के लोग।
बहरहाल, उस समय मेरा जन्म नहीं हुआ था जब उनकी शादी हुई थी कोई सत्तर साल पहले। अपने पिता की सबसे लाडली बेटी थी। कहते हैं बेटियों का भाग्य ‘विधाता’ स्वयं लिखते हैं। उनको भी लिखे। जब 12 साल की थी, उनकी शादी भागलपुर के नील हाता निवासी श्री दुर्गा नंदन सिंह के मझले पुत्र के साथ हुई। माँ-बाबूजी कहते थे प्रारंभिक दिनों से ही वे अपनी ससुराल के सभी लोगों के लिए आँख का तारा थी । आम तौर पर गरीबों को बेटी देने से पूर्व ईश्वर उस बेटी में कुछ न कुछ ऐसे गुण गढ़ देते है जो उसके प्रारब्ध को गढ़ता है – ईश्वर उन्हें भी गढ़े – स्वभाव और सुन्दरता। धनाढ्यों के घरों में तो सुन्दरता होती ही है, लेकिन जब गरीब की बेटी भी सुन्दर हो, तो “समानता” हो जाती है।भागलपुर स्थित टी एन बी कॉलेज से पिछले छः दशक में जो भी छात्र-छात्राएं शिक्षा ग्रहण किये होंगे और उनका कॉलेज के पुस्तकालय में आना-जाना रहा होगा, वे उषा नन्दन सिंह यानि उषा बाबू को जरूर पहचानते होंगे।
उस दोपहर राज कपूर की ‘तीसरी कसम’ का यह गीत बज रहा था: “लाली-लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया – पिया की पियारी भोली-भाली रे दुल्हनिया – मीठे बैन, तीखे नैनोंवाली रे दुल्हनिया – पिया की पियारी भोली-भाली रे दुल्हनिया” और कंधे पर उनका पार्थिव शरीर और मुख से “राम-नाम-सत्य-है – ॐ नमः शिवाय” का उच्चारण हो रहा था। कंधे पर सम्पूर्ण माँग सिंदूर से भरा, लाल चुनरी में लिपटा शरीर, दोनों कान में कर्णफूल, नाक में नौंग, गले में हार, भर-हाथ लाल-हरी चूड़ियां, पैर की अँगुलियों में बिछिया, सम्पूर्ण पैर में अलता (लाल रंग का श्रृंगार) लगा, गुलाब-गेंदा फूलों से ढंका पार्थिव शरीर लेकर एक तरफ छोटा भाई (माता-पिता का सबसे छोटा संतान) और दूसरे तरफ मैं अपनी सबसे बड़ी बहन को महादेव के पास पहुँचाने के लिए नांगलोई शवदाह गृह की ओर उन्मुख था। हम दोनों भाइयों का पुत्र, उनका नाती, दामाद, भतीजा और समाज के “मन और आत्मा से जीवित लोग” समय-समय पर कन्धों को बदलने में मदद कर रहे थे।
अनंत यात्रा पर निकलने और अंतिम विदाई से पूर्व दरवाजे के अंदर नब्बे वर्षीय उसका पति विस्तर पर निःशब्द, अश्रुपूरित, हतास, निः संचार शरीर को लिए टुकुर-टुकुर कमरे के छत को देख रहे थे। फिर, अपनी बड़ी बेटी और अन्य परिजनों की मदद से दरवाजे तक आये । सम्पूर्ण माँग में पुनः सिंदूर लगाए। बिन्दी माथे पर चिपकाये। हाथ से दोनों गाल को छूकर रोने लगे। “तुम क्यों पहले चली गयी। 12 वर्ष की आयु में तुम्हे विवाह कर लाया था कोई 70 साल पहले। इन सत्तर वर्षों में हमारी एक-एक सांस तुम्हारी साँसों के साथ चलती थी, ह्रदय धड़कता था, हम दोनों एक-दूसरे के पुरक थे – अब मैं तुम्हारे बिना कैसे सांस ले पाउँगा, साँसों की कड़ी तो टूट गयी न । मुझे भी अपने साथ ले चलो।” फिर निःशब्द। शायद महादेव भी इस विरह-वेदना को महसूस कर रहे थे। तीन माह बाद उन्हें भी अपने शरण में बुला लिए। चार-कन्धों में अन्य परिजन, मोहल्ले के मानवीय लोग, युवक, वृद्ध सभी अपना-अपना भागीदारी दे रहे थे जैसे किसी जन्म में विधाता यह उन दोनों के लिए प्रारब्ध लिख दिए हों। नहीं तो नांगलोई से कोई 1357 किलोमीटर दूर भागलपुर के नील हाता स्थित प्रेम-कॉटेज, डॉ बिटशन रोड के कोने पर सफ़ेद रंग के मकान में रहने वाला यह दंपत्ति, जो बिहार के पूर्णियाँ जिला के श्रीनगर, चम्पानगर, रामनगर, गढ़बनैली, सुल्तानगंज राजबाड़ों में, जहाँ के लोग बेपनाह प्यार करते थे उन दोनों को; का अंतिम संस्कार नांगलोई शवदाह गृह में कैसे होता ? उन्होंने ने तो अपने जन्मस्थान वाले सफ़ेद घर के चारो तरफ दीवारों पर “बॉर्डर” के रम में “काला-पट्टी” भी खिंचवाए थे, कोने पर मिट्टी की एक घड़े में भी काला-सफ़ेद निशान बनबाये थे, ताकि किसी की नजर नहीं लगे। नांगलोई की गली नंबर 13 स्थित अपनी सबसे छोटी बेटी (दिवंगत) के घर अपनी अंतिम सांस कैसे लेते – आखिर यही तो प्रारब्ध है।
सबसे छोटी बेटी, जो दिवंगत हो गयी थी, घर से नांगलोई शवदाह गृह तक पहुँचने में गली-सड़क के दोनों ओर क्या बच्चे, क्या जवान, क्या बुजुर्ग, क्या दुकानदार, क्या यात्रीगण सभी दोनों दिवस शवयात्रा को देखकर अपने-अपने दोनों हाथों से प्रणाम करते हुए दोनों दिन दोनों को अंतिम विदाई कर रहे थे। उसकी तीनो बेटियों का जन्म भागलपुर के खुखराज राय पथ से लगा नील हाता परिसर में उसके ससुसार की पुस्तैनी घर में ही हुआ था। उस शवदाह गृह में जिस छः नंबर सय्या पर उसे स्थान मिला था अग्नि के रास्ते महादेव के पास पहुँचने के लिए, कुछ दिन बाद उसी छः नंबर सय्या से उसका पति भी अग्नि के रास्ते उसके पास पहुंचे। उस दिन भी नागलोई की सड़कों पर रेडियो एफएम पर तीसरी कसम गीत की अंतिम पक्तियां फिर बज रही थी: “दूल्हेराजा रखना जतन से दुल्हन को – कभी ना दुखाना तुम गोरिया के मन को – नाज़ुक है, नाज़ों की है पाली रे दुल्हनिया – लाली-लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया – पिया की पियारी भोली-भाली रे दुल्हनिया।”
आज भागलपुर वह भागलपुर नहीं है जो सन पचास के दशक में और उसके बाद था। ना वह सैंडिस कम्पाउंड है, ना वह कंबाइंड बिल्डिंग का वह आकर्षण, ना वह छोटी खंजरपुर का माहौल है, ना आदमपुर का वह आकर्षण, ना गंगा किनारे पानी का वह सुगंध है और ना ही खंजरपुर चौक पर वह दही-रसगुल्ला वाला, न छोटी खंजरपुर के दाहिने कोने पर अंग्रेजों के ज़माने में बनाया गया सार्वजानिक नल । भागलपुर में आज बदलाव भले आधुनिक परिवेशों के अनुसार हुआ हो, आज के समाज के अनुसार हुआ हो, लेकिन आज भी भागलपुर के समाज में जो भी तीन-दशक के उम्र में और अधिक के हैं, वे “अपना भागलपुर ढूंढते” हैं। लगता है कहीं गम हो गया। ना अब वह भाषा है और ना ही वह संस्कृति। अब तो शहर में “अंगिका” भाषा-भाषी लोग भी विलुप्त हो रहे हैं। जहाँ-तहाँ सुन रहा हूँ “शहर अब स्मार्ट सिटी की श्रेणी में पंक्तिबद्ध हो गया है।”
उषा बाबू और उनकी पत्नी महज एक दृष्टांत हैं भागलपुर से तत्कालीन समाज के संभ्रांतों के पलायन का। उषा बाबू अपनी पत्नी के साथ तीन वर्ष पहले भागलपुर से निकल गए थे। जहाँ वे जन्म लिए थे। जहाँ की की मिट्टी में वे अपना बचपन बिताये थे। शिक्षा-दीक्षा लिया था। भागलपुर उनका जन्म स्थान और कर्म स्थान दोनों रहा । जिस मिट्टी पर उनकी पत्नी पहली बार मिथिला के दूर गाँव से अपना पैर रखी थी। आज भागलपुर से ब्राह्मणों की बात अगर छोड़ भी दें, तो भागलपुर का बंगाली समुदाय का 90 से अधिक फीसदी लोग, परिवार “त्राहिमाम” के साथ अपने-अपने पुस्तैनी जमीनों को, घरों को, बेचकर, छोड़कर शहर से बाहर निकल गए। शेष जो 10 फीसदी लोग हैं वे अन्तःमन से “अपना भागलपुर ढूंढते हैं”, परन्तु ‘समय’ और ‘परिवेश’ के सामने हार स्वीकार कर जीने हेतु सांस ले रहे हैं – क्योंकि उनकी माँ दूर्गा, माँ काली, ईष्टदेवता जिन्हें उनके पूर्वजों ने सैकड़ों वर्ष पहले गंगा के तट पर बसा इस समृद्ध संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत वाली मिट्टी में लाये थे, पूजा-अर्चना का जीवन यापन कर रहे हैं। माँ भगवती भी वर्तमान परिस्थितियों से वाकिफ हैं। इसलिए वे भी मुस्कुराकर उन सभी बंगबंधुओं का अभिवादन स्वीकारती रहती हैं।
19वीं शताब्दी से अब तक भागलपुर की मुख्यधारा में शामिल होकर यहां के सामाजिक व सांस्कृतिक उत्थान में गहरा योगदान देने वाले बंगाली समुदाय के लोग आज भी ‘अपना भागलपुर’ ढूंढते हैं जहाँ सामाजिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक विरासतों का संरक्षण व संवर्धन हुआ करता था। किसकी नजर लग गई भागलपुर पर। उन दिनों की बात याद कर आँखें अश्रुपूरित हो जाती है। अपने उस दर्द को, व्यथा को आज की पीढ़ियों को बता भी नहीं सकते – क्योंकि वह उसके सोच से परे है। भागलपुर अब ‘स्मार्ट सिटीज’ की गिनती में आ गया है।
लेकिन, बिहार बंगाली समिति की भागलपुर इकाई, भागलपुर दुर्गाबाड़ी तथा बंगीय साहित्य परिषद सहित कुछ अन्य संस्थाओं के प्रतिनिधियों का कहना है कि जिले के बंगालियों को इस बात का गहरा मलाल है कि 19वीं शताब्दी में महान समाज सुधारक राजा राममोहन राय, कथाशिल्पी शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, महर्षि अरविंद घोष के बड़े भाई मनमोहन घोष, महिला कथाकार रोकैया बेगम, अमर कृति पथेर पांचाली उपन्यास के रचनाकार विभूति भूषण बंधोपाध्याय, बांग्ला के मशहूर कथाकार व उपन्यासकार बलाय चांद बनफूल, बांग्ला फिल्म जगत की मशहूर चरित्र अदाकारा छाया देवी, जाने-माने फिल्म निर्माता-निर्देशकतपन घोष, हिन्दी फिल्मों के अमर चितेरे दादा मुनि अशोक कुमार, पार्श्वगायक किशोर कुमार, गांधीजी को बांग्ला सिखाने वाली व 1955 में इंग्लैंड में टू-सीटर प्लेन चलाने वाली पहली भारतीय महिला तथा प्रख्यात समाज सुधारक केशवचंद्र सेन की बहू मृणालिनी सेन सरीखे अनेक बंगाली विभूतियों ने भागलपुर में बांग्ला साहित्य व संस्कृति की जो गगनचूंबी राजप्रासाद खड़ा किया था, वह उचित राजकीय संरक्षण व संवर्द्धन के अभाव में शनै-शनै विस्मृति के गर्भ में समाता जा रहा है।
कभी बहुसंख्यक नहीं तो बराबर के हिस्सेदार थे भागलपुर के समाज में बंगाली समुदाय। आज स्वयं को “अप्ल्संख्यक” कहने को मजबूर हो गए हैं। इतना ही नहीं, कल तक जिनकी संस्कृति की तूती बोली जाती थी, आज उनकी सांस्कृतिक विरासत मृतप्राय हो गई है। बंगाली समुझाय के विद्वानों को, विदुषियों को, संभ्रांतों को स्थानीय नेताओं की ओर, चाहे पंचायत के नेताओं हों या विधान सभा-विधान परिषद् या लोक सभा के, बंगाली समुदाय के विद्वानों को, विदुषियों को, टकटकी निगाहों से देखना पड़ता है, यह शुभ सकते नहीं है समाज के लिए – चाहे आज का समाज हो या आने वाले कल का । बांग्ला भाषी समाज को अपने शहर चतुर्मुखी विकास, चाहे शैक्षिक हो, सांस्कृतिक हो, आध्यात्मिक हो, आर्थिक हो, सामाजिक हो, देखने के लिए मन ललक रहा है। वे अपनी सांस्कृतिक विरासतों को न केवल उन्नत देखना चाहते हैं, बल्कि बचाना भी चाहते हैं। लेकिन मन हताश है। यह शहर जिन प्रसिद्ध बांगला साहित्यिकारों की कर्मभूमि रही है आज की नई पीढ़ी उससे अनभिज्ञ है। किसे दोषी ठहराया जाए, किसे नहीं, यह कहना कठिन है। ऐसा माना जा रहा है कि विगत तीन-चार दशकों में भागलपुर से कोई पचास हज़ार से अधिक बंगाली परिवार पलायित हुए हैं। आज भागलपुर का माणिक सर्कार रोड, काली बाड़ी के क्षेत्र, आदमपुर, खंजर पुर, बंगाली टोला, मसूरगंज, खरमनचक जैसे बीरान को गया है।
बीते समय में भागलपुर भारत के दस बेहतरीन शहरों में से एक था। भागलपुर को चंपावती के नाम से भी जाना जाता था। इस काल में गंगा के मैदानी क्षेत्रों में भारतीय सम्राटों का वर्चस्व था। इसे अंग प्रदेश भी कहते थे जो 16 महाजनपदों में से एक था। महाभारत में काल में इस प्रदेश को एक तीर्थ स्थल के रूप में पेश किया गया है। जबकि रामायण के अनुसार यह वही स्थान है जहां कामदेव ने अपने अंग को काटा था। यहीं विश्व प्रसिद्ध विक्रमशिला विश्वविद्यालय है। जिसका निर्माण पाल वंश के शासक धर्मपाल दो चीजों से प्रभावित होकर निर्माण कराया था। पहला, एक लोकप्रिय तांत्रिक केंद्र था जो कोसी और गंगा नदी से घिरा हुआ था। यहां मां काली और भगवान शिव का मंदिर भी स्थित है। दूसरा, यह स्थान उत्तर वाहिनी गंगा के समीप होने के कारण भी श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र बना रहता है। भागलपुर से कुछ दूरी पर कहलगांव है। कहा जाता है कि जह्नु ऋषि के तप में गंगा की तीव्र धारा से यहीं पर व्यवधान पड़ा था। इससे क्रोधित होकर ऋषि ने गंगा को पी लिया। बाद में राजा भागीरथ के प्रार्थना के उपरांत उन्होंने गंगा को अपनी जांघ से निकाला। तत्पश्चात गंगा का नाम जाह्नवी कहलाया। बाद से गंगा की धाराएं बदल गई और यह दक्षिण से उत्तर की ओर गमन करने लगी।
भागलपुर के पिक्चर पैलेस के मालिक के चौथी पीढ़ी के वंशज राजेश सहाय कहते हैं की भागलपुर अब वह भागलपुर नहीं रहा जो दो-तीन दशक पहले था। सहाय जी के पूर्वज नवादा जिले के नरभीगंज के रहने वाले थे। भागलपुर के सुजागंज में उनका ननिहाल था। नवादा से पलायित होकर इनके पूर्वज राय बहादुर शिवशरण सहाय भागलपुर आ गए। शिक्षा-दीक्षा यहीं प्राप्त कर वे उस ज़माने में अधिवक्ता बने। उन दिनों ज़मींदारी प्रथा और राजबाड़ी के कारण राजस्व संग्रह का कार्य तो महत्वपूर्ण था ही, राजस्व संग्रह का भुगतान उससे भी अधिक महत्वपूर्ण था और इस कार्य में अधिवक्ताओं का स्थान सर्वाधिक महतवपूर्ण होता था। राय बहादुर शिव शरण सहाय के तीन बेटे – कमलेश्वरी सहाय, अखिलेश्वरी सहाय और नकुलेश्वरी सहाय – थे। प्रारंभिक काल में जब भारत में “साइलेंट सिनेमा” का प्रारम्भ हुआ था, इनके पूर्वज मछली बाजार के पास एक स्थान पर सिनेमा दिखाने का कार्य प्रारम्भ किये। बाद में जब “टॉकीज” प्रथा की शुरुआत हुई, पिता श्याम शंकर सहाय “पिक्चर पैलेस” की स्थापना किये।
राजेश सहाय कहते हैं: ” मैं विज्ञान विषय में स्नातक किया टी.एन.बी.कालेज, भागलपुर से। फिर खानदानी पेशा “लॉ” की पढाई किये। उसी दौर में सिनेमा हॉल के प्रबंधन में दिलचस्पी लेने लगे। उस ज़माने में भागलपुर में अंग्रेजी सिनेमा और बांग्ला सिनेमा के लिए बंगाली समुदाय उमड़ पड़ते थे। सभी शिक्षित थे। उनकी संस्कृति भी बहुत बेहतर था। हमने भागलपुर में ‘नून शो’ का प्रचलन किया। फिर रविवार को मॉर्निंग शो की शुरुआत हुई । सत्तर के दशक में सभी सात दिन यह शो होता था। आज लोग यह विश्वास नहीं करेंगे की एक जमाना था जब भागलपुर के पिक्चर पैलेस में रविवार के दिन प्रातःकालीन और अपराह्न काल के शो में भारत में उपलब्ध ‘इत्र’, ‘सेंट’ ‘परफ्यूम’ की खुशबू सम्पूर्ण इलाके को सुगंधित कर देता था। ऐसा लगता था जैसे विवाह का अवसर हो। सम्पूर्ण माहौल मदमस्त रहता था। रंग-बिरंगे परिधान में भागलपुर का बंगाली समुदाय, अंग्रेजी के अच्छे जानकार युवक, युवतियां, महिला, पुरुष, वृद्ध सबों का ठिकाना पिक्चर पैलेस होता था। उन दिनों भागलपुर के इस ऐतिहासिक छवि-गृह में “बंगला” और “अंग्रेजी” फ़िल्में दिखाई जाती थी। सम्पूर्ण वातावरण खुशबूदार रहता था। वह दृश्य और अवस्था भागलपुर की उन्नत, समृद्ध, गरिमामय संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत का एक जीता-जागता दृष्टान्त था। क्या नहीं था भागलपुर में उन दिनों – आज सोच से परे हैं।
सहाय आगे कहते हैं : “वैसे बंगाल की दुर्गापूजा का भारतीय त्योहारों में अहम स्थान है। माँ की आराधना का यह एक महज पर्व नहीं होता, बल्कि बंगाल की सामाजिक-धार्मिक जीवन की अंतिम गहराई तक आस्था का एक प्रतीक होता है। सत्तर के दशक और उसके कुछ वर्ष बाद तक भी, भागलपुर में बंगाली समुदाय की बाहुल्यता के कारण यहाँ की शैक्षिक, सांस्कृतिक माहौल बहुत सुदृढ़ था। यहाँ के लोग विभिन्न विषयों पर “ड्रामा” करते थे। अपनी कला, संस्कृति के प्रति लोगों का इतना गहरा लगाव था कि यहाँ की संस्कृति अपने उत्कर्ष पर थी। सम्पूर्ण शहर और आस-पास के इलाकों में एक आकर्षक माहौल रहता था। उस ज़माने तक सिनेमा घरों में जो भी दर्शक होते थे, 70 से 80 फीसदी लोग बंगाली समुदाय के होते थे = फिल्म चाहे अंग्रेजी में हो या बांग्ला में। किसी भी प्रकार का “भय” समाज में नहीं आया था। सौहार्द का वातावरण था। लेकिन सत्तर के दशक के बाद अकस्मात् शहर को किसी की नजर लग गयी। शहर की भाषा-संस्कृति-सांस्कृतिक विरासत-शिक्षा-मानवता में अचानक परिवर्तन होने लगा। शहर को भय का वातावरण ग्रस्त कर लिए। यहाँ के भद्र लोग, महिलाएं, युवक उस सदमे को बर्दास्त नहीं कर सके। कुछ पारिवारिक तो कुछ सामाजिक और परिवेश के कारण उनकी सम्पत्तियों को लोग हड़पने की नजर से, कौड़ी की भाव में खरीदने के लिए भय का वातावरण बनाने लगे। जिसका इस समाज पर बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। मुद्दत से रहने वाले लोग कलकत्ता वापस होने लगे या औने-पौने भाव में सम्पत्तियों को बेचकर देश के दूसरे हिस्सों में बसने चले गए।”
राजेश सहाय का मानना है कि “सत्तर के ज़माने में या उसके कुछ समय तक यहाँ जिस तरह का शैक्षिक वातावरण था, बंगाली समुदाय के द्वारा शिक्षा-संस्कृति के विकास और संरक्षण से समबन्धित जितनी भी संस्थाएं थी, उनका पतन होता चला गया। गंगा पुल बनने के बाद नौगछिया और भागलपुर की दूरी न्यूनतम से भी कम हो गयी। एक ओर यातायात की दृष्टि से यह दूरी जहाँ कम की, वहीँ गंगा के दूसरे पार से, यानी नौगछिया इलाके से पैसे वालों का, दबंगों का, संरक्षित अपराधियों का भागलपुर इलाके में प्रवाह गंगा की धारा जैसी होने लगी। कहलगांव से सुल्तानगंज तक सभी ऐतिहासिक पुराने मकानों पर, खेत-खलिहानो पर जैसे-जैसे उनकी नजर पड़ती गयी, भागलपुर के भद्रा लोक, बंगाली समुदाय उन्हें बेचकर, छोड़कर अपनी आंसुओं को पोछते, जीवन की शेष साँसों को बचाते निकलते गए। तकलीफ इस बात की रही कि प्रशासन और सरकार की ओर से इस “ह्रदय-विदारक पलायन को रोकने के लिए कोई भी साहसिक कदम नहीं उठाया गया जो बंगाली समुदाय को विश्वास दिला सके।
पत्रकार विकास पांडेय अपने एक लेख में लिखते हैं: “हिंदी के प्रचार-प्रसार व धर्म साहित्य के महत्व के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए भागलपुर के कलाकारों ने 1926 में रामकृष्ण आपेरा पार्टी के नाम से देश में पहली हिंदी यात्रा पार्टी की स्थापना की थी। भागलपुर के गजेटियर में भी इसका उल्लेख है। बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में करीब चालीस वर्षों तक धूम मचाने के बाद हिंदी फिल्म की चकाचौंध, महंगाई आदि के कारण 1965 में उसका अवसान हो गया था। इसके संस्थापकों में स्थानीय चंपानगर के प्रसिद्ध कलाकार शारदा प्रसाद आचार्य, गोपाल चंद्र आचार्य, किशोरी मोहन चक्रवर्ती, जेठो शर्मा, उपेंद्र नारायण सिंह आदि शामिल थे। उसमें राधाकृष्ण संप्रदाय के मशहूर संकीर्तनाचार्य कृष्ण चंद्र आचार्य उर्फ किस्टो बाबू व प्रसिद्ध साहित्यकार हंसकुमार तिवारी का सक्रिय सहयोग मिलता था। 1926 में हिंदी यात्रा का पहला मंचन भागलपुर के चंपानगर स्थित दशभुजा दुर्गा मंदिर में हुआ था। उसमें बांग्ला लेखक गिरिश चंद्र घोष की सीता के पाताल प्रवेश कृति का हिंदी रूपांतरित नाटक का सफल मंचन किया गया था। 1927 में यहां के टीएनबी कालेज के प्रांगण में अखिल भारतीय संकीत्र्तन समारोह हुआ था। उसमें किस्टो बाबू की मौजूदगी में सीता का पाताल प्रवेश प्रवेश हिंदी यात्रा की प्रस्तुति की गई थी। उसे देखने हजारों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। इसके संस्थापकों में से एक गोपाल चंद्र आचार्य (अब स्वर्गवास)से कुछ समय पूर्व मिली जानकारी के अनुसार पहली हिंदी यात्रा 1926 में उनके बड़े भाई शारदा प्रसाद आचार्य ने रामकृष्ण आपेरा पार्टी के नाम से खोली थी। उनके अवकाश ग्रहण पर 1944 में उसका नाम बदल कर गोपाल आपेरा पार्टी हो गया था। गोपाल चंद्र आचार्य सिद्धस्त अभिनेता व संकीर्तनाचार्य थे।”
हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार गौतम सरकार के पूर्वज हावड़ा के डोमजूर इलाके के जमींदार थे । कहा जाता है कि कोई ढ़ाई-सौ साल पहले परिवार के सभी लोग हुगली नदी के सहारे हावड़ा से बनारस आ रहे थे। जल मार्ग ही एक मात्र सजह मार्ग था उन दिनों। जब वे सभजी अप-स्ट्रीम में आये तो भागलपुर में डेरा डाला ताकि जलावन के लिए लकड़ियां, खाद्य सामग्री, सब्जियां एकत्रित जकर सकें। इस्ट इण्डिया कंपनी का आगमन हो चूका था। इनके पूर्वज लन्दन में पढाई-लिखाई कर वापस आये थे। कहते हैं की भागलपुर पड़ाव के समय उनके पूर्वजों को नील खेतों में मैनेजर कार्य के लिए अंग्रेजी अधिकारियों ने कहा। इनके पूर्वज पहले तो नकारात्मक उत्तर दिए, लेकिन जब अंग्रेजी अधिकारी इस बात को स्वीकार किये कि उन्हें किसी भी किसानों को प्रताड़ित करने को नहीं मजबूर किया जायेगा, तभी वे नौकरी की शुरुआत किये। और इसके बदले उन्हें जमींदारी, खेत-खलिहान मुहैय्या किया गया। वे सभी उस काल से ही भागलपुर में बस गए।
गौतम सरकार कहते हैं: “मेरे पूर्वज बन्ना पाड़ा से अपने इष्ट देवता माँ दुर्गा को साथ लाये थे। साल शायद 1779 था। हम सभी उनके 10 वीं पीढ़ी हैं। आज तक बिना रुके माँ दुर्गा की आराधना, पूजा, पंडाल करते आये हैं। लेकिन इस बात से इंकार नहीं कर सकते हैं कि उत्सव का माहौल जो सत्तर के दशक तक था, आज नहीं है। वैसे इस बात को भी इंकार नहीं कर सकते कि समयांतराल शिक्षा, रोजगार के क्षेत्र में शहर में बढ़ते किल्लत को देखते, कल की पीढ़ियां, आज की पीढ़ियां भागलपुर से बाहर रहना बेहतर समझती है, ताकि उसका व्यक्तिगत और पारिवारिक विकास और संरेखण हो सके। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं कर सकते कि भागलपुर में बंगाली समुदाय को संपत्ति से सम्बंधित विवादों में इस कदर दबोचा जा रहा है, उनकी सम्पत्तियों पर कब्ज़ा किया जा रहा है – इस समुदाय के लोगों को शहर छोड़कर बाहर निकलने के अलावे कोई विकल्प भी नहीं रहा। आज भागलपुर का जो दृश्य है, देखने में भले विकसित ;लगे, लेकिन यह विकास हज़ारों-हज़ार बंगाली समुदाय के रुदन पर आधारित है।
गौतम सरकार आगे कहते हैं: “पापरी बोस अपहरण और हत्या के बाद भागलपुर के बंगाली समुदाय के लोगों का विश्वास डोल गया। यह क्षेत्र वृहत-बंग प्रदेश का हिस्सा था। बांग्ला साहित्य के विकास के लिए 1904 में विभाजन के बाद रविंद्रनाथ टैगोर ने दो बंग साहित्य परिषद की स्थापना किये। एक – रंगपुर (अब बांग्लादेश) में है और दूसरा भागलपुर में। रविंद्र नाथ टैगोर के नजर में आज से कोई 115 साल पहले भी भागलपुर बांग्ला साहित्य के विकाश के लिए एक उन्नत शाली स्थान था। आज इस स्थान पर ऐसा कोई अवसर नहीं है, संस्थान नहीं है जहाँ पढ़े-लिखे शिक्षित लोगों को रोजगार मिले, ताकि वे अपने शहर को छोड़कर कहीं अन्यत्र जाने को मजबूर नहीं हों। लेकिन आज सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक, आध्यात्मिक या यूँ कहें कि सर्वांगीण उपेक्षा के कारण आज बंगला साहित्य के साथ साथ, बांग्ला संस्कृति और बंगाली समुदाय सबों का विनाश हो गया है, हो रहा है।
लेकिन तिलका मांझी विश्वविद्यालय की मनोविज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष और अशोक कुमार-किशोर कुमार-अनूप कुमार की भांजी प्रोफ़ेसर रत्ना मुखर्जी का कहना है कि “मैं भागलपुर में मुद्दत से रहती हूँ, मुझेयह शहर अच्छा लगता है।मैं कलकत्ता जा सकती हूँ, लेकिन जाउंगी नहीं क्योंकि यहाँ मुझे बहुत सम्मान मिलता है। भागलपुर बंगाली एसोसिएशन की अध्यक्षा श्रीमती मुखर्जी का मानना है कि भागलपुर में शिक्षा तो है, लेकिन नियोजन के अवसर नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि आज की पीढ़ी के बच्चे, बाहर में बेहतर शिक्षा प्राप्त कर वहीँ नियोजन का भी बंदोबस्त करते हैं। यह स्वभाविक भी है। यह कतई जरुरी नहीं है कि उनकी मनोवृति हमारे अनुरूप हो। वे अपना जीवन अपने तरह से जीने के लिए स्वतंत्र हैं। वैसी स्थिति में भागलपुर शहर में स्थित उनके पैतृक संपत्ति की देखरेख करने भागलपुर में रहें, या अपनी जीवन का निर्माण करें। एक बात और है और वह यह कि जिनके बच्चे भागलपुर से बाहर चले गए हैं, उनके माता-पिता-दादा-दादी एक समय तक, जब तक उनका शरीर चलते रहता है, तब तक तो ठीक है; लेकिन जैसे ही शरीर चलना असहाय हो जाता है अथवा उनमें से कोई विधवा या विधुर हो जाते हैं; वैसे स्थिति में बंगाली परिवार को कमजोर समझकर लोग उनके जमीन, जायदाद, मकान हड़पने के लिए अनेकानेक तिकड़म का प्रयोग करते हैं। आज वह प्रयोग बहुत मामले में फलीभूत भी हो रहा है।”
जब रत्ना जी से पूछा आखिर शरत चंद्र जी की, किशोर कुमार की ननिहाल का राज बाटी का क्यों ऐसा हश्र हुआ? रत्न जी कहती है: “कुछ तो हम लोगों की गलती के कारण और कुछ समय का बदलता स्वरुप। इरा दीदी (बड़ी दीदी) अशोक कुमार-किशोर कुमार-अनूप कुमार की अपनी ममेरी बहन के पति की मृत्यु के बाद वह कलकत्ता जाने से इंकार कर दी। कलकत्ता में सरे परिवार थे। अपनी देखरेख के लिए एक सज्जन रखे थे। प्रारंभिक दिनों में उन्हें कहा भी था कि आने वाले समय में इन सम्पत्तियों पर कोई न कोई अधिपत्य कर लेगा। हम लोग भी उतना सचेत नहीं हुए। अशोक कुमार के पिता जबलपुर (मध्य प्रदेश) के थे और उनकी माँ का घर यह राज बाटी था। राज बाटी 19 वीं और 20 वीं शताब्दी में अपने उत्कर्ष पर था। यहीं स्टेज भी था जहाँ सभी नाटक भी करते थे।”
बहरहाल, चाहे शहर में जितना भी बदलाव को, सकारात्मक हो और हमारी कोशिश अवश्य रहे कि घन-संपत्ति की लालच में न तो हम बांग्ला भाषा-भाषी समाज के प्रति नकारात्मक सोच रखें और ना ही अंगिका भाषा-भाषी का पतन होने दें। सभी गंगा किनारे ही अवस्थित हैं और सबों को उसी के प्रवाह में अपने-अपने अस्तित्वों को समाप्त करना है।