“सुलभ” बस नाम ही काफी है” – ‘सामाजिक बदलाव’ और ‘मानवीय विकास’ की दिशा में एक दृढ संकल्प का, एक अनन्त पहल का

आशीष में बहुत ताकत है : एक विधवा डॉ पाठक को आशीष देते हुए
आशीष में बहुत ताकत है : एक विधवा डॉ पाठक को आशीष देते हुए

आज ही नहीं, कल भी “मेरी आवाज ही पहचान है” – ये पांच शब्द सुनते ही माननीया लता मंगेशकर जी याद आतीं हैं, आएँगी। “मिसाईल” सुनते ही महान वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति दिवंगत ए पी जे अब्दुल कलाम साहेब याद आएंगे। क्रिकेट के मैदान में जब भी कोई खिलाड़ी “स्ट्रेट ड्राईभ” मारता है या मरेगा, उस ड्राईभ की तुलना महान क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर से की जाती है और की जाएगी। उसी तरह आज ही नहीं, कल भी और आने वाले समय में भी, जब भारत में स्वच्छता और भंगी-मुक्ति आन्दोलन, यानि “सामाजिक बदलाव” और “मानवीय विकास” के अग्रणी का नाम लिया जायेगा, तो सबों के जुबान पर एक ही नाम आएगा “सुलभ” और उनके संस्थापक “डॉ बिन्देश्वर पाठक” – बसर्ते तब तक ‘स्वच्छता’ शब्द का ‘कारपोरेटाइजेशन’ नहीं हो गया हो या फिर कोई कॉर्पोरेट राजनीतिक संरक्षण में इस शब्द का “पेटेंट” नहीं करबा लिया हो।

यही कारण है कि सुलभ के संस्थापक डॉ पाठक की तुलना इब्राहिम लिंकन से भी लोगों ने किया। लोगों का मानना है कि जिस तरह लिंकन अमेरिका में काले-गोरों में भेदभाव को मिटाने के लिए याद किये जाते हैं, डॉ पाठक भारत में समाज के दबे-कुचले, समाज से उपेक्षित सर पर मैला ढोने वाले महिला-पुरुषों को समाज की मुख्यधाराओं में जोड़ने के लिए और भारत के विभिन्न प्रांतों से बनारस और वृन्दावन में विधवा माताओं को सम्मानित जीवन देने के लिए याद किये जायेंगे, जिनके सन्तान जीवन उन महिलाओं को विधवा होते ही तिल तिलकर मरने के लिए छोड़ आते हैं।

राजनीतिक ब्रह्माण्ड पर जिस स्वच्छ भारत अभियान का आज जिक्र हो रहा है, उस अभियान की बुनियाद तो डॉ पाठक कोई पचास वर्ष पहले डाल चुके थे।

डॉ. पाठक ने १९७० में बिहार में सुलभ शौचालय संस्थान के नाम से एक स्वयंसेवी और लाभ निरपेक्षी संस्था की आधारशिला रखी। इसमें अनेक समर्पित कार्यकर्त्ता थे। इस संस्था ने डॉ. पाठक के सुयोग्य नेतृत्व में कमाऊ शौचालयों को कम लागत वाले फ्लश शौचालयों अर्थात् ‘सुलभ शौचालयों’ में बदलने का एक क्रान्तिकारी अभियान शुरू किया। परम्परागत कमाऊ शौचालय पर्यावरण को प्रदूषित करते थे और दुर्गन्ध फैलाते थे। साथ ही, उन्हें साफ करने के लिए सफाईकर्मियों की आवश्यकता पड़ती थी। कम लागत वाले सुलभ शौचालय उपयोग की दृष्टि से व्यावहारिक हैं, स्वास्थ्यकर हैं और इन्हें साफ करने के लिए सफाईकर्मियों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इस प्रकार यह एक व्यवहार्य विकल्प है जो इसका उपयोग करनेवालों के साथ ही सफाईकर्मियों के लिए भी वरदान सिद्ध हुआ है।

डॉ पाठक और सुलभ द्वारा विकसित टू-पिट पोर-कलश
डॉ पाठक और सुलभ द्वारा विकसित टू-पिट पोर-कलश

एक क्रियात्मक समाजशास्त्रविद् की कार्यशैली के अनुरूप ही डाक्टर पाठक भारतीय समाज की एक बहुत पुरानी सामाजिक समस्या – सफाईकर्मियों द्वारा कमाऊ शौचालय साफ करने तथा सिर पर मैला ढोने की अवमनावीय प्रथा का गहन अध्ययन कर सामाज को मुक्ति किया।

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डॉ पाठक का मानना है कि स्वच्छता के बिना व्यक्ति सम्मान और बेहतर स्वास्थ्य हासिल नहीं कर सकता और सुलभ का आरम्भ इसी दृष्टि से हुआ। समय के साथ-साथ यह एक आंदोलन में बदल गया और दुनिया में स्वच्छता का काम करने वाले गैर-सरकारी संस्थानों में ​अपना नाम दर्ज किया।

इसमें 60,000 स्वैच्छिक कार्यकर्ता ​हैं। यह आंदोलन दो प्रमुख उद्देश्यों पर केंद्रित है – एक: स्वच्छता के लागत-प्रभावी उपायों के जरिए पर्यावरण और जल प्रदूषण को रोकना तथा मानव-मल की सफाई में लगे अस्पृश्य कहे जानेवाले लोगों की मुक्ति और पुनर्वा​स।

​आपको जानकार आश्चर्य होगा की पिछले पांच दसकों के अथक प्रयास से न केवल भारत की राजधानी या विभिन्न राज्यों के शहरी क्षेत्रों में, बल्कि देश के दूर-दरस्त गावों के लोगों में जागरूकता उत्पन्न हुआ है और लोग “सुलभ” शब्द को स्वीकार किये हैं।

यह अलग बात है की सरकार की ढुलमुल नीति के कारण आज भी भारत के 12,30,00,000 घरों में शौचालय नहीं हैं और 80,00,00,000 की आबादी खुले में शौच करती ​है।

इस दिशा में सुलभ अभी तक हमने 12,00,000 घरेलू और 8,500 सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण किया है. 10,000 से अधिक स्कैवेंजरों को मुक्त करवाया है।

​डॉ पाठक का जन्म 1943 में बिहार के वैशाली जिले के एक गांव में एक रूढि़वादी ब्राह्णण परिवार में हुआ था। अपनी जीवनी में उन्होंने लिखा है कि “जब मैं 6 वर्ष का था तो मैंने एक कथित अस्पृश्य महिला को छू दिया और रूढि़वादी अस्पृश्यता को मानने वाली मेरी दादी ने शुद्ध करने की बात कहकर जबरन मुझे गाय का गोबर और गौ मूत्र पिलाया , जिसका कड़वा स्वाद आज भी मेरे मुंह में है।”

​डॉ पाठक के अनुसार वे जिस घर में पीला-बढे उसमे वैसे नौ कमरे ​तो ​थे, ​परन्तु एक भी शौचालय नहीं ​था। जब वे सोते थे तो सुवह-सवेरे अद्र्धनिद्रा में कुछ आवाजें ​सुनते थे, कोई बाल्टी उठा रहा ​होता था, कोई पानी भर रहा ​होता ​था और महिलाएं सूर्योदय से पहले शौच के लिए बाहर जा रही होती ​थीं। कोई महिला बीमार पड़ जाती तो उसे एक मिट्टी के बर्तन में ही शौच करना पड़ता ​था। कई महिलाओं के सिर में दर्द रहता क्योंकि उन्हें दिनभर अपने शौच को रोककर रखना पड़ता ​था।

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​यह कहानी महज उनके घर या गाँव की नहीं बल्कि ​यही कहानी भारत के 7,00,000 गांवों और सैकड़ों शहरों की ​थी। ​उनकी शिक्षा चार स्कूलों में हुई और दुर्भाग्यवश किसी में भी शौचालय नहीं ​था।

पटना विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में स्नातक ​करने के बाद उन्हें 1968-69 में बिहार गांधी जन्म शताब्दी समारोह समिति के भंगी मुक्ति विभाग में काम करने का मौका ​मिला। समिति ने ​उन्हें सुरक्षित और सस्ती शौचालय तकनीक विकसित करने और दलितों के सम्मान के लिए काम करने को कहा ताकि उन्हें मुख्य धारा में शामिल किया ​जाय। ब्राह्मण परिवार के जन्म लिए एक व्यक्ति के लिए यह सबसे “नीच कार्य” समझा जाता था, परन्तु डॉ पाठक इसे सहर्ष स्वीकार किया – यह स्वीकार्यता न केवल उनके व्यक्तित्व में बदलाव ​लाया परन्तु उनके जीवन को एक नयी दिशा भी दिया।

​डॉ पाठक के जीवन में ​नया मोड़ तब आया, जब ​वे बेतिया की दलित बस्ती में तीन महीने के लिए उनके बीच रहने ​गए। उस समय देश में जाति-प्रथा ​उत्कर्ष पर ​थी। उनके साथ रहते हुए ​डॉ पाठक ने ​जो देखा-सीखा-पीड़ा का अनुभव किया, वह सभी बातें इन्हे अपने जीवन को ​स्कैवेंजरों के लिए समर्पित करने की ​ओर उन्मुख कर दिया – ​पश्चिमी देशों में इस्तेमाल हो रही महंगी ​कलश और सीवर व्यवस्था के विकल्प के रूप में प्रभावी और सस्ती शौचालय व्यवस्था का विकास कैसे किया जाए, ताकि स्कैवेंजिंग प्रथा रोकी जा सके और उन्हें किसी ​दूसरे कार्य में पुनर्वासित किया जा ​सके।

​सर्वप्रथम इन्होने ​1968 में एक टू-पिट पोर-कलश, डिस्पोजल कंपोस्ट शौचालय का आविष्कार किया, जो सरलतापूर्वक स्थानीय वस्तुओं से, कम लागत पर बनाया जा सकता​ था। यह आगे चलकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानव-अपशिष्ट के निपटान के लिए बेहतरीन वैश्विक तकनीकों में से एक माना ​गया। इसकी सार्थकता दिखाने के लिए ​इन्हे लंबा संघर्ष करना पड़ा जो 1973 में ​आया।

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शौचालय का प्रयोग सफल हुआ और इसने लोगों का ध्यान आकर्षित ​किया। इससे प्रोत्साहित होकर ​डॉ पाठक ने 1974 में शहरी क्षेत्रों में ‘भुगतान और उपयोग’ के आधार पर सामुदायिक शौचालयों की अवधारणा विकसित ​किया। इसे सबसे पहले बिहार और फिर पूरे भारत में लोकप्रियता ​मिली। धीरे-धीरे ​डॉ पाठक ने इस व्यावहारिक नीति का विकास किया कि एक गैर-सरकारी संगठन सरकार, स्थानीय निकायों, नागरिकों और लाभार्थियों के मध्य किस प्रकार एक उत्प्रेरक के तौर पर काम कर सकता ​है। इस रास्ते को अपनाकर सुलभ ने सरकारी, गैर-सरकारी संगठन की साझेदारी का सफल उदाहरण दिया। ​इतना ही नहीं, ​स्वच्छता के साथ ही ​सुलभ ने दलित बच्चों की शिक्षा के लिए पटना, दिल्ली और अन्य जगहों पर स्कूल खोले जिससे स्कैवेंजिंग और निरक्षरता के उन्मूलन में सहायता ​मिली। महिलाओं और बच्चों को आर्थिक अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से ​सुलभ ने व्यावसायिक प्रशिक्षण-केंद्रों की स्थापना ​भी ​की। सुलभ ने जाति-बंधन को तोडऩे के उद्देश्य से स्कैवेंजरों को मंदिरों में ले जाने, उच्च वर्गों और स्कैवेंजरों का एक दूसरे के घर में आने-जाने, अंतरजातीय सम्मेलन और गोष्ठियां ​भी ​आयोजित ​की। इसका परिणाम यह हुआ की इससे जातिवादी मानसिकता में बदलाव आया, सामाजिक बंधन शिथिल हुए और जाति-प्रथा को तोडऩे की प्रक्रिया शुरू ​हुई।

इसके बाद सुलभ ने बायोगैस, जैव-उर्वरक, द्रव और कचरा-प्रबंधन, गरीबी-उन्मूलन के काम में पदार्पण ​किया और सुलभ इंटरनेशनल सेंटर फॉर ऐक्शन सोशियोलॉजी, सुलभ इंटरनेशनल एकेडमी ऑफ एन्वायर्नमेंटल सैनिटेशन और दिल्ली में एक अनोखे म्युजियम ऑफ ट्वॉयलेट्स की स्थापना ​की गयी जो अपने आप में अजूबा है। यह म्युजियम प्राचीनकाल की शौचालयों की विकास की कहानी बताता है।

​वैसे ​2019 तक खुले में शौच की परंपरा खत्म करना संभव है, ​यह सुलभ का ही नहीं, सरकार की भी योजना है ​लेकिन चुनौतियां अधिक ​है। सिर्फ राज्य और कॉर्पोरेट घरानों के तालमेल से यह मुमकिन नहीं होगा, जैसा कि प्रधानमंत्री ने संकेत दिया है। इसमें जीवंत लोगों की भागीदारी और सुनियोजित योजनाओं की भी जरूरत ​है।

यदि स्वच्छता को राष्ट्रीय प्रयोजन के तौर पर अपनाने की राजनैतिक इच्छाशक्ति हो और जरूरी पूंजी का इंतजाम हो तथा 50,000 प्रशिक्षित प्रेरकों के साथ मिलकर एक प्रभावी आंदोलन किया जाए तो देश के हर घर में शौचालय उपलब्ध ​हो पायेगा। (क्रमशः)

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