पटना: बिहार में सत्तर-अस्सी दशक वाले नेता लोग आज खांसी होते ही ‘भयभीत’ हो रहे हैं, कहीं परिवार के लोगबाग उन्हें उन्ही के प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में दाखिला न करवा दे ! कहीं ईश्वर को प्राप्त हुए तो पार्थिव शरीर को गंगा में न बहा दे। संस्कार करेगा या नहीं, यह सोचकर लघुशंका, दीर्घशंका तो तीव्र हो ही रही है, रक्तचाप बढ़ रहा है, साँसे फुल रही हैं। वे इस बात से भी भयभीत हो रहे हैं कि प्रदेश में स्वास्थ्य व्यवस्था की हत्या के साथ-साथ शिक्षा-व्यवस्था का भी गला घोंटा गया है और विगत दशकों में बिहार के बच्चे देश के अन्य महत्वपूर्ण अस्पतालों में भी तैनात है। ऐसा न हो कि वे सभी अपने-अपने गाँव की चिकित्सा-शिक्षा व्यवस्था का बदला उतार ले, इसलिए भी भयभीत हैं।
श्रीकृष्ण सिन्हा से लेकर नीतीश कुमार तक बिहार को करीब 23 मुख्यमंत्री के रूप में “मुंडी” मिला। किन्ही के सर पर “बाल” था, तो किन्ही के सर पर कैमरे का फ्लैश चमकता था। कोई अपने मुंडी के अंदर वाले तरल-पदार्थों से मतदाताओं के कल्याणार्थ कुछ कर गुजरने की बात सोचते-सोचते ईश्वर को प्यारे हो गए। कोई सिर्फ अपने और अपने परिवारों के लिए, कुटुम्बों के लिए, ससुराल वालों के लिए, चेला-चपाटियों के लिए सोचे। उन महारथियों में भी कई परलोक सिधार गए, कई पंक्तिबद्ध हैं। मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना भी रहे हैं कि ले जाने से पूर्व शारीरिक कष्ट नहीं देना।
वजह है: वे जानते हैं कि प्रदेश में वर्तमान में जो भी स्वास्थ्य की स्थिति है, अस्पतालों में जो ही दबाइयाँ, कैंची, छुरी, रुई इत्यादि जंग-लगा उपलब्ध है, उन सभी पदार्थों के क्रय-काल में सम्बद्ध सरकारी अस्पतालों के हुकुमों से “चढ़ावा” प्राप्त किये थे। वे कभी नहीं चाहते कि “मरणासन्न” स्थिति होने पर प्रदेश के किसी भी सरकारी अस्पताल में दाखिला कर दे घर के लोग – अन्तःमन से भयभीत हैं भी हैं। कभी “चीनी चढ़ता” है तो कभी रक्तचाप”, कभी चीनी बढ़ने से शरीर फटने का संकेत आने लगता है तो कभी रक्तचाप बढ़ने से साँसे उखड़ने लगती है।
खासकर, जब से अख़बारों में, टीवी चैनलों पर कोरोना वायरस से संक्रमित मानवों को प्रदेश में उचित चिकित्सा सुविधाओं के आभाव में मृत्यु को प्राप्त करने की सूचना पढ़ रहे हैं, देख रहे हैं, मन विचलित हो रहा है। गंगा में उन ‘मानवों’ के शरीरों के पार्थिव स्वरुप को कपड़ों में, चीनी-गेंहू के बोरियों में, प्लास्टिक सीटों में बांधकर गंगा में तैरने की खबर पढ़ रहे हैं टीवी पर देख रहे हैं, रक्तचाप और तेज हो रहा है। कोई गुस्सा को नियंत्रित नहीं कर पाने के कारण ‘एम्बुलेंस’ को रजाई के नीचे ढँक रहे हैं तो कोई सम्पूर्ण अस्पतालों को।
भय हो भी कैसे नहीं ? बिहार के बनने के बाद से श्री अनुग्रह नारायण सिंह से लेकर मंगल पांडेय तक वाया नवमी कक्षा वाले तेज प्रताप यादव जैसे स्वास्थ्य मंत्रियों ने प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था को “फांसी” पर ही लटकाये। विगत सात दशकों में प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था को यहाँ के चिकित्सकों, चाहे बकरी के डाक्टर हों या घोड़े के, भैंस के डाक्टर हों या आदमी के, जनाना वार्ड के डाक्टर हों या मर्दाना वार्ड के, हड्डी रोग के डाक्टर हो या प्रसव-कक्ष के – सबों ने “समाजवाद” बरकरार कर राजनेताओं के साथ हाथ-में-हाथ मिलाकर, “मिले सुर मेरा तुम्हारा तो स्वास्थ्य बने खटारा” गा कर प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था को शहादत देते गए।
इधर जैसे-जैसे प्रदेश में सरकारी चिकित्सालयों, दवाखानों में “जंग लगता गया”, गाँव-घर के दूर-दरस्त इलाकों में बने चिकित्सालयों के दीवारों की ईंटें मंत्रियों, अधिकारीयों के घरों के बाउंड्री वाल में इस्तेमाल होने लगे, चौखट, दरवाजे निकलते गए, चिकित्सालयों में गाय-बैल-बकरी बंधने लगे; उधर निजी क्षेत्र में मजबूत-सीमेंट वाला दीवार ऊँचा होता गया। इधर सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा के निमित्त यंत्रों-उपकरणें कबाड़खाना में आठ-आने किलो बिकता गया, उधर सरकारी डाक्टरों के राजनीतिक-संरक्षित निजी क्षेत्रों के अस्पतालों में स्टील फ्रेम के साथ ‘अनब्रोकेबल’ काले शीशे वाले भवन प्रदेश का “लैंडमार्क” बनता गया।
प्रदेश के मतदाता से लेकर, समाज के संभ्रांत, शिक्षित लोग बाग़ तक, विद्वानों से लेकर विदुषियों तक, मूर्खों से लेकर अपराधियों तक, कानून-निर्माताओं से लेकर कानून के संरक्षकों तक – सभी जानते हैं की प्रदेश का यह हाल क्यों हुआ? बिहार के अररिया, अरवल, औरंगाबाद, बांका, बेगूसराय, भागलपुर, भोजपुर, बक्सर. दरभंगा, पूर्वी चम्पारण, पश्चिमी चम्पारण, गोपालगंज, जमुई, गया, भोजपुर, जहानाबाद, कैमूर, कटिहार, खगरिया, किशनगंज, मधेपुरा, लखीसराय, मुंगेर, मुजफ्फरपुर, नालंदा, नवादा, पटना, पूर्णिया, रोहतास, सहरसा, समस्तीपुर, सारण शेखपुरा, शिवहर, सीतामढ़ी, सिवान, सुपौल, वैशाली आदि जिलों में सडकों के किनारे जहाँ लोग-बाग़ सुबह-सवेरे नित्यक्रिया से निवृत होते थे, खेतों में जहाँ किसान फसल लगाते थे, सरकारी-गैर-मजरुआ जमीनों पर जहाँ गाय-भैंस-बकरी सभी घास चरते थे – उन तमाम जमीनों को डाक्टरों-नेताओं-अधिकारियों-निवेशकों ने पैसा कमाने के लिए पैसा का निवेश किया। कुछ बॉलीवुड के कलाकार भी इन कार्यों में डांस किये।
स्वाभाविक है इन अस्पतालों में अगर मरीज मर भी जाता है तो उनके पार्थिव शरीर को तब तक उनके परिवार और परिजनों को सुपुर्द नहीं किया जायेगा, तब तक वह परिवार अपने गाँव के चौराहे पर, शहरों की गलियों की नुक्कड़ों पर, चौराहों पर खुद को नीलाम कर उन “संरक्षित चिकित्सा गृहों” का भुगतान नहीं कर दें। कहते हैं “पैसा कमाने के लिए जब पैसों का निवेश किया जाता है, तब निवेशकर्ता, चाहे जिस समुदाय के हों, अपनी आत्मा को भी पार्थिव कर देते हैं।” वह शरीर से तो जीवित रहता है, लेकिन उंगलियां सिर्फ रुपये गिनने के लिए होती है। परन्तु वे सभी यह नहीं जानते कि वे भी शनि महाराज के सीसीटीवी के अधीन 24 x 7 होते हैं। अगर विश्वास नहीं हो तो प्रदेश के उन सभी लोगों से पूछिए क्या उन्हें मृत्यु से डर नहीं लगता?
एक बहुत बड़ा माफिया है सम्पूर्ण स्वास्थ्य व्यवस्था के पीछे। देश की स्वास्थ्य व्यवस्था “आंकड़ों” पर चलता है और देश में “आंकड़ों का ही तो खेल” है – आंकड़े ठीक है तो “सरकार उनकी” और जब सरकार उनकी है तो शेर जैसा दहाड़ेंगे। लेकिन जैसे ही आंकड़ा कम हुआ, भींगी बिल्ली जैसे वर्ताव करने लगेंगे। कान होने के बावजूद “बहरे” जैसा बर्ताव करेंगे। आँख होते हुए भी “अंधे” बने रहेंगे। मुंग में जिह्वा भी हो ही और 32-दांत भी, लेकिन मूक बने रहेंगे। यानी सम्पूर्णता के साथ “दिव्यांग” – वजह: कुर्सी का सवाल है। चिपके रहना है। और मतदाता की तो बात ही छोड़ दें।
हमारे बिहार में पुरुष:महिला साक्षरता दरों में 20 फीसदी का फासला है। पुरुष साक्षरता दर जहाँ 72 फीसदी है, महिला साक्षरता दर 52 फीसदी। हमारे प्रदेश के बड़े साहेब, यानी मुख्य मंत्री इसी 20 फीसदी के फासले पर राजनीति करते हैं। क्योंकि चाहे शहरों में, महिलाओं की जो “विशेष टोली” है, अंग्रेजी में “सोसलाइट्स” भी कहते हैं उन्हें, “महिला सशक्तिकरण पर जितना ढिंढोरा पीट लें, राष्ट्रीय टीवी चैनलों पर गोल-गोल बातें कर सत्तारूढ़ और विपक्षों की बातों को कभी बेचें, कभी पछाड़ें – सच तो यह है कि आज भी बिहार की महिलायें मीलों दूर हैं विकास से।
बिहार की महिलाओं की स्वास्थ्य के बारे में सोचने के साथ ही आँखें अश्रुपूरित हो जाती है। इसलिए गाँव-घर में बड़े-बुजुर्ग कहते हैं: “बाँझ क्या जाने प्रसूति की पीड़ा?” हमारे प्रदेश में स्वास्थ्य विभाग में चपरासी से लेकर डाक्टरों के रास्ते, अधिकारियों को लांघते मंत्री-संत्री तक स्थिति इससे बेहतर नहीं है। अगर ऐसा नहीं होता तो “राजनीति शास्त्र” में स्नातक मंगल पाण्डे या फिर नवमीं कक्षा वाले विद्यार्थी तेज प्रताप यादव सम्मानित नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री नहीं होते !! लेकिन प्रदेश के लोगों को अमेरिका, फ़्रांस, जर्मनी, जापान इत्यादि देशों जैसी स्वास्थ्य व्यवस्था, सुविधा चाहिए।
सन 1980 के उत्तरार्ध में देश के महान डिमोग्राफर और इकोनॉमिक एनालिस्ट आशीष बोस बिहार के अलावे उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश को “बीमारू राज्य” के रूप में भारत ही नहीं, विश्व के राजनीतिक, आर्थिक, स्वास्थ्य इत्यादि-इत्यादि मानचित्र पर हैशटैग लगा दिया था। आशीष बोस तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को एक रिपोर्ट पेश किये थे। इसके बाद इस शब्द का बार-बार इस्तेमाल किया गया। समाज के संभ्रांत इसे बुरा माने, बोस की आलोचना किये। लेकिन समाज के विकास में, प्रदेश के विकास में अपना योगदान क्या किये, यह आज का विकास-दर गवाह है। यह अलग बात है कि उस ज़माने में न “हैशटैग” नामक “निर्जीव” पदार्थ की उत्पत्ति नहीं हुई थी जिस विश्व के लोग, भारत के “जीवित लोग” इस “निर्जीव पदार्थ” का इस्तेमाल कर अपनी-अपनी आवाज बुलंद करते। आज यह निर्जीव पदार्थ मानव जीवन का एक हिस्सा हिस्सा हो गया है – आप माने या नहीं। बोस की मृत्यु 7 अप्रैल, 2014 को एक शल्य-चिकित्सा के दौरान हुई।
डॉ दिनेश सिंह (1985) के बाद बिहार में डॉ महावीर प्रसाद, डॉ शकील अहमद, शकुनि चौधरी, चंद्र मोहन राय, नन्द किशोर यादव, अश्विनी कुमार चौबे, तेज प्रताप यादव और मंगल पांडेय जैसे “तथाकथित योद्धाओं” पर स्वास्थ्य विभाग का भर दिया गया। विगत 36 वर्षों में एक भी मंत्री, एक भी कार्य का उल्लेख नहीं कर सकते हैं जिससे प्रदेश के लोगों का स्वास्थ्य ठीक हुआ हो। एक आंकड़े के मुताबिक, स्वास्थ्य के मामले में 21 बड़े प्रदेशों में बिहार की हालत सबसे ज़्यादा खस्ता है और उनकी रैंकिंग 20वीं है। यानी यहाँ स्वास्थ्य व्यवस्था का संकट अधिक गहरा है। लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि स्वास्थ्य के मामले में बिहार का हाल पिछले 40 सालों से बहुत बुरा रहा है। कुछ सुधार हुआ है लेकिन ज़रूरत के मुताबिक नहीं। कारणों की सूची बहुत लम्बी हो सकती है, लेकिन सबसे बड़ी बात है कि बिहार में एक तरफ प्रशासन जहाँ बहुत कमज़ोर है, वहीँ भ्रष्ट भी। (क्रमशः)