रेणुजी के बहाने: ‘ये आकाशवाणी पटना है….भयानक जल जमाव के कारण पटना ‘पनिया’ गई है, ‘तंत्र’ ढ़ीले हो गए हैं

ये आकाशवाणी पटना है (तस्वीर AIR ट्विटर के सौजन्य से)

पटना: सन 1975 में अगस्त महीने में पटना पनियाई थी। वजह सोन नदी से कोई 14.48 लाख क्यूसेक पानी का पटना शहर में ढुकना था । उसी वर्ष मार्च के महीने में पटना से प्रकाशित आर्यावर्त-इण्डियन नेशन समाचार पत्र में नौकरी की शुरुआत किये थे। जय प्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति वर्ष (18 मार्च, 1974) को माध्यमिक परीक्षा दिया था। कहने को ले-दे-के दसवीं कक्षा का प्रमाण पत्र हाथ में था। लेकिन नौकरी मिल गयी। मार्च महीने से अगस्त महीने के अंतिम सप्ताह तक पटना की सड़कों पर, पाटलिपुत्र कालोनी में, बेलीरोड में, कंकड़बाग में, राजेंद्र नगर में या यूँ कहें की पटना जिला के निचले क्षेत्रों में सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। तभी हमारे दफ्तर (आर्यावर्त-इण्डियन नेशन समाचार पत्र का कार्यालय) के प्रवेश द्वार और तत्कालीन स्थित केंद्रीय कारा के प्रवेश द्वार के बीचोबीच सड़क के बाएं कोने पर स्थित भूमिगत नाला से पानी का बुलबुला फ़्रेज़र रोड को धोना प्रारम्भ कर दिया। पहले तो सभी तत्कालीन मुख्यमंत्री को गलियाना प्रारम्भ किये। भूमिगत नालों को बनाने वाले अभियंताओं को ठूसना प्रारम्भ किये। धीरे-धीरे पहले सड़क भींगी, फिर लोगों के तलबे भींगे, फिर घुटने, फिर ठेंघुना और फिर जांघ को स्पर्श करने लगा। क्या मर्द, क्या महिला, क्या बच्चा, क्या जवान, क्या बूढ़ा, क्या बूढ़ी सबों ने प्रारम्भ में तो पानी का मजा लिए, लेकिन कोई 24-36 घंटे के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ जगन्नाथ मिश्र की राजधानी का अधिकांश हिस्से को अपने में समेट लिया। यानि पूरा पटना जलमग्न। जान -माल की कितनी हानि हुई, आंकना मुश्किल था। पनियाई पटना में पटना के संभ्रांत कितनी महिलाओं की भींगी वस्त्र को उतारे, इसे भी आंकना मुश्किल ही नहीं, ह्रदय विदारक था। 

हमारा दफ्तर भी पानी में डूब गया। प्रेस का हिस्सा, लाइनों, मोनो मशीन, रोटरी मशीन, लाखों टन न्यूजप्रिंट सभी पानी में समा गए। प्रकाशन ठप्प, लेकिन दफ्तर तो आना ही था। बाढ़ का यह पानी अशोक राज पथ पर सब्जी बाग़ से कुछ आगे बी एन कालेज तक था। नित्य हाथ में एक डंडा लिए सड़क के बीचो-बीच चला करते थे। जब गाँधी मैदान के कोने से बिस्कोमान से बाएं हाथ का रास्ता लेते थे, तब डिवाईडर को पकड़-पकड़ कर आगे बढ़ते थे। उसी तैरते पानी में मानव-मल नाव की भांति तैरते मिलता था। वैसे उस समय तक सुलभ शौचालय के डॉ बिंदेश्वर पाठक यदा-कड़ा दीखते थे। लेकिन उनके प्रागण में शंका दूर करने का अर्थ था “अपने है प्रसाद अपने ही सर”, क्योंकि पानी कमर तक थी। इसलिए लोग बाग़ जब तक पानी का स्तर नीचे सतह तक नहीं आया था, बैठकर शंका दूर करना या तो भूल गए थे, या फिर परहेज करने लगे  थे। बहुत भयानक स्थिति थी। 

विगत दिनों बारिश के कारण बिहार की राजधानी में जलजमाव के कारण जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। उसी क्रम में कुछ तस्वीरें ढूंढ रहे थे, तभी अचानक पटना आकाशवाणी की यह तस्वीरें दिखी। इन तस्वीरों के देखते ही दो बातें मानस पटल पर राजधानी एक्सप्रेस की गति से टकराई। एक: सन 1967 में फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ जी की ‘रिक्सा-यात्रा’ और दूसरा” सन 1975 के इसी महीने के अंतिम सप्ताह में पटना के डाक बंगला चौराहे पर नाव का चलना। सन 1967 की त्रादसी तो नहीं देखा था, लेकिन सन 1975 की त्रादसी भी लगभग बराबर थी। वैसे दो त्रादसी को आंकना मानवता से पड़े है, क्योंकि जान एक की जाय या हज़ार की – पटना वाले रोने में पीछे नहीं रहते। ह्रदय के अन्तः कोने से रोते हैं। हां, आंसू पोछने के बाद एक-एक बून्द से राजनीति करने में, पंचायत से विधान सभा और विधान परिषद् तक ढुकने में कोई कसर नहीं छोड़ते। 
 
पहले रेणु जी की बातें करते हैं। सं 1975 की बाढ़ से पहले भी पटना शहर में 1967 में भयानक जलजमाव हुआ था। आकाशवाणी की यह तस्वीर शायद उस जलजमाव से काम था। रेणुजी लिखते हैं कि “जब अट्ठारह घंटे की अविराम वृष्टि के कारण पुनपुन का पानी राजेंद्र नगर, कंकड़बाग तथा अन्य निचले हिस्सों में घुस आया था। अर्थात् बाढ़ को मैंने भोगा है, शहरी आदमी की हैसियत से। इसलिए इस बार जब बाढ़ का पानी प्रवेश करने लगा, पटना का पश्चिमी इलाका छाती-भर पानी में डूब गया तो हम घर में ईंधन, आलू, मोमबत्ती, दियासलाई, सिगरेट, पीने का पानी और कांपोज की गोलियां जमाकर बैठ गये और प्रतीक्षा करने लगे।”

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फणीश्वरनाथ ‘रेणु” (तस्वीर: ‘सिर्फसच’ के सौजन्य से)

“ऋणजल – धनजल” में रेणु जी ने लिखा है: “सुबह सुना, राजभवन और मुख्यमंत्री-निवास प्लवित हो गया है। दोपहर में सूचना मिली, गोलघर जल से घिर गया है! (यों, सूचना बंगला में इस वाक्य से मिली थी – “जानो! गोलघर डूबे गेछे !”) और पांच बजे जब कॉफी हाउस जाने के लिए (तथा शहर का हाल मालूम करने) निकला तो रिक्शेवाले ने हंसकर कहा – “अब कहां जाइयेगा? कॉफी हाउस में तो ‘अबले’ पानी आ गया होगा।”

“चलो, पानी कैसे घुस गया है, वही देखना है,” …कहकर हम रिक्शा पर बैठ गये। साथ में नयी कविता के एक विशेषज्ञ व्याख्याता-आचार्य-कवि मित्र थे, जो मेरी अनवरत अनर्गल-अनगढ़ गद्यमय स्वगतोक्ति से कभी बोर नहीं होते (धन्य हैं!)।

मोटर, स्कूटर, ट्रैक्टर, मोटरसाइकिल, ट्रक, टमटम, साइकिल, रिक्शा पर और पैदल लोग पानी देखने जा रहे हैं, लोग पानी देखकर लौट रहे हैं। देखने-वालों की आंखों में, जुबान पर एक ही जिज्ञासा – ‘पानी कहां तक आ गया है?’ देखकर लौटते हुए लोगों की बातचीत – “फ्रेजर रोड पर आ गया! आ गया क्या, पार कर गया। श्रीकृष्णपुरी, पाटलिपुत्र कॉलोनी, बोरिंग रोड, इंडस्ट्रियल एरिया का कहीं पता नहीं…अब भट्टाचार्जी रोड पर पानी आ गया होगा..छाती-भार पानी है। विमेंस कॉलिज के पास ‘डुबाव-पानी’ है।…आ रहा है!… आ गया !!… घुस गया…डूब गया…डूब गया…बह गया !”

हम जब कॉफी हाउस के पास पहुंचे, कॉफी हाउस बंद कर दिया गया था। सड़क के एक किनारे एक मोटी डोरी की शक्ल में गेरुआ-झाग-फेन में उलझा पानी तेजी से सरकता आ रहा था। मैंने कहा –“आचार्यजी, आगे जाने की जरूरत नहीं। वह देखिए-आ रहा है…मृत्यु का तरल दूत !”

आतंक के मारे मेरे दोनों हाथ बरबस जुड़ गये और सभय प्रणाम-निवेदन में मेरे मुंह से कुछ अस्फुट शब्द निकले (हां, मैं बहुत कायर और डरपोक हूं !)।

रिक्शावाला बहादुर है। कहता है – “चलिए न – थोड़ा और आगे !” भीड़ का एक आदमी बोला – “ए रिक्शा, करेंट बहुत तेज है। आगे मत जाओ !”

मैंने रिक्शेवाले से अनुनय-भरे स्वर में कहा – “लौटा ले भैया। आगे बढ़ने की जरूरत नहीं।”

ये आकाशवाणी पटना है (तस्वीर AIR ट्विटर के सौजन्य से)

रिक्शा मोड़कर हम ‘अप्सरा’ सिनेमा-हॉल (सिनेमा-शो बंद!) के बगल से गांधी मैदान की ओर चले। पैलेस होटल और इंडियन एयर लाइंस दफ्तर के सामने पानी भर रहा था। पानी की तेज धारा पर लाल-हरे ‘नियन’ विज्ञापनों की परछाइयां सैंकड़ों रंगीन सांपों की सृष्टि कर रही थी। गांधी मैदान की रेलिंग के सहारे हजारों लोग खड़े देख रहे थे। दशहरा के दिन रामलीला के ‘राम’ के रथ की प्रतीक्षा में जितने लोग रहते हैं उससे कम नहीं थे…गांधी मैदान के आनंद-उत्सव, सभा-सम्मेलन और खेल-कूद की सारी स्मृतियों पर धीरे-धीरे एक गैरिक आवरण आच्छादित हो रहा था। हरियाली पर शनैः शनैः पानी फिरते देखने का अनुभव सर्वथा नया था।

कि इसी भीच एक अधेड़, मुस्टंड और गंवार जोर-जोर से बोल उठा- “ईह ! जब दानापुर डूब रहा था तो पटनियां बाबू लोग उलटकर देखने भी नहीं गये…अब बूझो !”

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मैंने अपने आचार्य-कवि मित्र से कहा – “पहचान लीजिए। यही है वह ‘आम आदमी’, जिसकी खोज हर साहित्यिक गोष्ठियों में होती रहती है। उसके वक्तव्य में ‘दानापुर’ के बदले ‘उत्तर बिहार’ अथवा कोई भी बाढ़ ग्रस्त ग्रामीण क्षेत्र जोड़ दीजिए…”

शाम के साढ़े सात बज चुके और आकाशवाणी के पटना-केंद्र से स्थानीय समाचार प्रसारित हो रहा था। पान की दुकानों के सामने खड़े लोग चुपचाप, उत्कर्ण होकर सुन रहे थे…

“…पानी हमारे स्टुडियो की सीढ़ियों तक पहुंच चुका है और किसी भी क्षण स्टुडियो में प्रवेश कर सकता है।”

समाचार दिल दहलानेवाला था। कलेजा धड़क उठा। मित्र के चेहरे पर भी आतंक की कई रेखाएँ उभरीं। किंतु हम तुरंत ही सहज हो गये यानी चेहरे पर चेष्टा करके सहजता ले आये, क्योंकि हमारे चारों ओर कहीं कोई परेशान नजर नहीं आ रहा था। पानी देखकर लौटे हुए लोग आम दिनों की तरह हंस-बोल रहे थे; बल्कि आज तनिक अधिक ही उत्साहित थे। हां, दुकानों में थोड़ी हड़बड़ी थी। नीचे के सामान ऊपर किये जा रहे थे। रिक्शा, टमटम, ट्रक और टेंपो पर सामान लादे जा रहे थे। खरीद-बिक्री बंद हो चुकी थी। पानवालों की बिक्री अचानक बढ़ गयी थी। आसन्न संकट से कोई प्राणी आतंकित नहीं दिख रहा था।

…पानवाले के आदमकद आईने में उतने लोगों के बीच हमारी ही सूरतें ‘मुहर्रमी’ नजर आ रही थीं। मुझे लगा, अब हम यहां थोड़ी देर भी ठहरेंगे तो वहां खड़े लोग किसी भी क्षण ठठाकर हम पर हंस सकते थे – ‘जरा ईन बुजदिलों का हुलिया देखो?’ क्योंकि वहां ऐसी ही बातें चारों ओर से उछाली जा रही थीं – “एक बार डूब ही जाये !…धनुष्कोटि की तरह पटना लापता न हो जाये कहीं !… सब पाप धुल जायेगा…चलो, गोलघर के मुंडेरे पर ताश की गड्डी लेकर बैठ जायें…विस्कोमान बिल्डिंग की छत पर क्यों नहीं? …भई, यही माकूल मौका है। इनकम टैक्सवालों को ऐन इसी मौके पर काले कारबारियों के घर पर छापा मारना चाहिए। आसामी बा-माल…”

राजेंद्रनगर चौराहे पर ‘मैगजिन कॉर्नर’ की आखिरी सीढ़ियों पर पत्र-पत्रिकाएं पूर्ववत् बिछी हुई थीं। सोचा, एक सप्ताह की खुराक एक ही साथ ले लूं।

क्या-क्या ले लूँ? …हेडली चेज, या एक ही सप्ताह में फ्रेंच/जर्मन सिखा देनेवाली किताबें, अथवा ‘योग’ सिखाने वाली कोई सचित्र किताब? मुझे इस तरह किताबों को उलटते-पलटते देखकर दुकान का नौजवान मालिक कृष्णा पता नहीं क्यों मुस्कराने लगा। किताबों – को छोड़ कई हिंदी-बंगला और अंग्रेजी सिने पत्रिकाएं लेकर लौटा। मित्र से विदा होते हुए कहा – “पता नहीं, कल हम कितने पानी में रहें।…बहरहाल, जो कम पानी में रहेगा वह ज्यादा पानी में फंसे मित्र की सुधि लेगा।”

फ्लैट में पहुंचा ही था कि ‘जनसंपर्क’ की गाड़ी भी लाउडस्पीकर से घोषणा करती हुई राजेंद्रनगर पहुंच चुकी थी। हमारे ‘गोलंबर’ के पास कोई भी आवाज, चारों बड़े ब्लॉकों की इमारतों से टकराकर मंडराती हुई, चार बार प्रतिध्वनित होती है। सिनेमा अथवा लॉटरी की प्रचार-गाड़ी यहां पहुंचते ही – ‘भाइयों’ पुकारकर एक क्षण के लिए चुप हो जाती है। पुकार मंडराती हुई प्रतिध्वनित होती है- भाइयों ..भाइयों भाइयों…! एक अलमस्त जवान रिक्शाचालक है जो अक्सर रात के सन्नाटे में सवारी पहुंचाकर लौटते समय इस गोलंबर के पास अलाप उठाता है – ‘सुन मोरे बंधु रे-ए-ए…सुन मोरे मितवा-वा-वा-य।’

गोलंबर के पास जनसंपर्क की गाड़ी से ऐलान किया जाने लगा- ‘भाइयों!’ ऐसी संभावना है …कि बाढ़ का पानी …रात्रि के करीब बारह बजे तक … लोहानीपुर, कंकड़बाग …और राजेंद्रनगर में …घुस जाये । अतः आप लोग सावधान हो जायें।

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(प्रतिध्वनि। सावधान हो जायें ! सावधान हो जायें !!…)
मैंने गृहस्वामिनी से पूछा – “गैस का क्या हाल है?”

ये आकाशवाणी पटना है (तस्वीर AIR ट्विटर के सौजन्य से)

“बस, उसी का डर है। अब खत्म ही होनेवाला है। असल में सिलिंडर में ‘मीटर-उटर’ की तरह कोई चीज नहीं होने से कुछ पता नहीं चलता। लेकिन, अंदाज है कि एक या दो दिन…कोयला है। स्टोव है। मगर किरासन एक ही बोतल…”

“फिलहाल, बहुत है …बाढ़ का भी यही हाल है। मीटर-उटर की तरह कोई चीज नहीं होने से पता नहीं चलता कि कब आ धमके।” – मैंने कहा।

सारे राजेंद्रनगर में ‘सावधान-सावधान’ ध्वनि कुछ देर गूंजती रही। ब्लॉक के नीचे की दुकानों से सामान हटाये जाने लगे। मेरे फ्लैट के नीचे के दुकानदार ने पता नहीं क्यों, इतना कागज इक्ट्ठा कर रखा था। एक अलाव लगाकर सुलगा दिया। हमारा कमरा धुएँ से भर गया।

फुटपाथ पर खुली चाय की झुग्गी दुकानों में सिगड़ियाँ सुलगी हुई थीं और यहां बहुत रात तक मंडली बनाकर जोर-जोर से बातें करने का रोज का सिलसिला जारी था। बात के पहले या बाद में बगैर कोई गाली जोड़े यहां नहीं बोला जाता – “गांधी मैदान (सरवा) एकदम लबालब भर गया…(अरे तेरी मतारी का) करंट में इतना जोर का फोर्स है कि (ससुरा) रिक्शा लगा कि उलटियै जायेगा …गांजा फुरा गया का हो रामसिंगार? चल जाय एक चिलम ‘बालुचरी-माल’ – फिर यह शहर (बेट्चः) डूबे या उबरे।”

बिजली ऑफिस के ‘वाचमैन साहेब’ ने पश्चिम की ओर मुंह करके ब्लॉक नंबर एक के नीचे जमी दूसरी मंडली के किसी सदस्य से ठेठ मगही में पूछा-“का हो! पनिया आ रहलौ है?”

जवाब में एक कुत्ते ने रोना शुरू किया। फिर दूसरे ने सुर में सुर मिलाया। फिर तीसरे ने। करुण आर्त्तनाद की भयोत्पादक प्रतिध्वनियां सुनकर सारी काया सिहर उठी। किंतु एक साथ करीब एक दर्जन मानवकंठों से गलियों के साथ प्रांतवाद के शब्द निकले –“मार स्साले को। अरे चुप…चौप ! (प्रतिध्वनि : चौप ! चौप ! चौप !!)

कुत्ते चुप हो गये। किंतु आनेवाले संकट को वे अपने ‘सिक्स्थ सेंस’ से भांप चुके थे…अचानक बिजली चली गयी। फिर तुरंत ही आ गयी…शुक्र है!
भोजन करते समय मुझे टोका गया – “की होलो? खाच्छो ना केन ?”

“खाच्छि तो … खा तो रहा हूं।” – मैंने कहा – “याद है! उस बार जब पुनपुन का पानी आया था तो सबसे अधिक इन कुत्तों की दुर्दशा हुई था।”

हमें ‘भाइयों! भाइयों!’ संबोधित करता हुआ जनसंपर्कवालों का स्वर फिर गूंजा। इस बार ‘ऐसी संभावना है’ के बदले ‘ऐसा आशंका है’ कहा जा रहा था। और ऐलान में ‘खतरा’ और ‘होशियार’ दो नये शब्द जोड़ दिये थे …आशंका! खतरा ! होशियार…।

रात के साढ़े दस-ग्यारह बजे तक मोटर-गाड़ियां, रिक्शे, स्कूटर सायकिल तथा पैदल चलनेवालों की ‘आवाजाही’ कम नहीं हुई। और दिन तो अब तक सड़क सूनी पड़ जाती थी!… पानी अब तक आया नहीं? सात बजे शाम को फ्रेजर रोड से आगे बढ़ चुका था।

ये आकाशवाणी पटना है (तस्वीर AIR ट्विटर के सौजन्य से)

“का हो रामसिंगार, पनियां आ रहलौ है?”
“न आ रहलौ है।”

सारा शहर जगा हुआ है, पच्छिम की ओर कान लगाकर सुनने की चेष्टा करता हूं। हां, पीरमुहानी या सालिमपुर-अहरा अथवा जनककिशोर-नवलकिशोर रोड की ओर से कुछ हलचल की आवाज आ रही है। लगता है, एक डेढ़ बजे रात तक पानी राजेंद्रनगर पहुंचेगा।

सोने की कोशिश करता हूं। लेकिन नींद आयेगी भी? नहीं, कांपोज की टिकिया अभी नहीं। कुछ लिखूं? किंतु क्या लिखूं कविता? शीर्षक-बाढ़ की आकुल प्रतीक्षा? धत्त!

नींद नहीं, स्मृतियां आने लगीं – एक-एक कर। चलचित्र, के बेतरतीब दृश्यों की तरह !…

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