विश्व भारती के बहाने प्रधान मंत्री बंगाल के मतदाताओं से कहा : “ओरे गृहो-बाशी खोल दार खोल….”

सम्मानित प्रधान मंत्रीजी बंगाल की जनता को, मतदाताओं को यह इशारा भी किये "ओरे गृहो-बाशी खोल दार खोल

कलकत्ता: हे विधाता,दाओ-दाओ मोदेर गौरब दाओ… गुरुदेव ने कभी ये कामना, छात्र-छात्राओं के उज्जवल भविष्य के लिए की थी। हे विधाता, दाओ-दाओ मोदेर गौरब दाओ…इस विश्वविद्यालय  के  100  वर्ष  होना, प्रत्येक भारतवासी के लिए बहुत ही गर्व की बात है। प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि उनके लिए भी  ये  बहुत  सुखद  है  कि  आज  के  दिन  इस  तपोभूमि  का  पुण्य  स्मरण  करने  का अवसर मिल रहा है। उन्होंने टैगोर के सबसे प्रेरणादायी मंत्र को भी बंगला में पढ़ें:  “जॉदि तोर डाक शुने केऊ न आशे तोबे एकला चलो रे”, और फिर हिन्दी में रूपांतरित भी किये और कहे: कोई भी साथ न आए,अपने लक्ष्य की प्राप्ति के  लिए अगर अकेले भी चलना पड़े, तो जरूर चलिए।

तभी तो समझूँ कि प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी कभी मैथिली बोलकर ताली कैसे बजबाते हैं तो कभी बंगाल चुनाव के मद्देनजर विश्वभारती विश्वविद्यालय के सौवें वर्ष पर गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर की पंक्तियों को बँगला में कैसे धारा-प्रवाह उच्चारित कर लोगों से ताली बजबा लिए। 

पत्र सूचना कार्यालय, नई दिल्ली द्वारा निर्गत विश्व-भर्ती विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह में प्रधान मंत्री के सम्बोधन के मूल पाठ में गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर की सभी पंक्तियाँ बंगला-लिपि में नहीं, बल्कि देवनागरी लिपि में लिखा है। स्वाभाविक है बेहतरीन बंगला में बोलेंगे ही। 

अब समझ में आया कि सम्मानित प्रधान मंत्रीजी लाखों-करोड़ों लोगों को उनकी भाषा में उन्हें भाषण कैसे देते हैं। सम्मोहन का बेहतरीन तरीका है यह, खासकर जहाँ पुरुषों का शैक्षिक दर और महिलाओं की शैक्षिक दरों में 20 फीसदी का फासला हो। और 20 फीसदी का फासला चुनावी-मतदाता-मतदान कर मतगणना में तो मायने रखता ही है। तभी तो नितीश जी विगत चुनाव में “सुटुक” गए और सम्मानित मोदीजी “चौड़ा” हो गए। 

वैसे भी दिल्ली के पत्र सूचना कार्यालय के पास तो “गरीब-गुरबा पत्रकारों की किल्लत नहीं है। दिल्ली में तो अंग्रेजी लिखने/बोलने वाले हिन्द महासागर, प्रशांत महासागर, अरब सागर की गहराई जैसा लबालब भरे पड़े हैं और अंग्रजी पत्रकारों के पास तो “लक्ष्मीजी” स्वतः आती हैं – चाहे दो पाँव से चलकर आएं या बैंक द्वारा प्रेषित संवाद की “टन की घण्टी” उनके मोबाईल फोन में बजने के साथ।  

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अगर सर्वे करेंगे तो दिल्ली में अंग्रेजी भाषा के महामहीम पत्रकारों को छोड़कर, देश के शेष 21 भाषाओँ, मसलन: असमी, बंगला, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिन्दी, कश्मीरी, कन्नड़, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी. मराठी, नेपाली, ओड़िया, पंजाबी, तमिल, तेलगु, संथाली, सिन्धी और उर्दू भाषाओँ में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों, टीवी चैनलों, पत्रिकाओं आदि से जुड़े पत्रकारों, लेखकों की स्थिति (अपवाद छोड़कर) हिन्दी साहित्य के हस्ताक्षर सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के “भिक्षुक” से किसी भी तरह से बेहतर नहीं है। 

अगर भारत सरकार, या फिर प्रधान मंत्री स्वयं इस मसले की जांच के लिए कोई कमिटी बैठा दें तो निश्चित रूप से कमिटी के सम्मानित सदस्यगण सरकार से मिलने वाली राशि से कुछ अंश हिन्दी के दीन-निरीह पत्रकारों के दरवाजे पर रखकर अवश्य जाएंगे ताकि अँग्रेजी भाषा छोड़कर भारत के अन्य सभी देशज भाषाओँ के पत्रकार बंधू-बांधव अपने बच्चों का फ़ीस, दवाई पर खर्च कर सकें। सम्मानित सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला” जब  इन शब्दों को गूंथते होंगे तो वे रोए जरूर होंगे। क्योंकि बिना दर्द के ऐसे शब्द न तो मगज में आता है और ना ही कलमबद्ध हो पाता है।
 

सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला” 

वह आता-
दो टूक कलेजे को करता, पछताता
पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को — भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता —
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,
बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए !

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ठहरो ! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा
अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम
तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।

लेकिन क्या प्रधान मंत्री सम्मानित नरेन्द्र मोदी जी इस पीड़ा को समझेंगे?

चुनाव से पहले माननीय प्रधान मंत्री बिहार के मिथिलाञ्चल में भी महानंदा, कोशी, बागमती, बूढ़ी गंडक, गंडक, गंगा के किनारे प्रत्येक वर्ष बाढ़ की पानी में दहने वाले, अन्न के दाना के लिए तड़पने वाले, शिक्षा के लिए निजी संस्थानों के मालिकों के चँगुल में फंसने वाले, रोजगार के लिए किसी-भी हद तक कर्म करने वाले करोडो-करोड़ लोगों को “मैथिली” भाषा में अपने सम्बोधन की शुरुआत किये। इसी तरह, गंगा के किनारे बसे भागलपुर इलाके में “अंगिका” भाषा में भाषण की शुरुआत किये। उपस्थित लोगों ने जमकर ताली बजाये। समयांतराल सभी तालियां मतपेटी में गिरे, ईवीएम मशीन पर गिरे – मोदी जी की पार्टी, उनके सहयोगियों की पार्टी के नेताओं के चेहरे पर मुस्कान आया। बतीसी बाहर निकला और सम्मानित नितीश कुमार जी सातवें बार प्रदेश के हुकुम बने। 

खैर, विश्व भारती के सौवें वर्ष गांठ पर अपने भाषण में प्रधान मंत्री कहते हैं: विश्व भारती की सौ वर्ष की यात्रा बहुत विशेष है। विश्वभारती,  माँ  भारती  के  लिए  गुरुदेव  के  चिंतन,  दर्शन  और  परिश्रम  का एक साकार अवतार है। भारत के लिए गुरुदेव ने जो स्वप्न देखा था, उस स्वप्न को मूर्त रूप देने के लिए देश को निरंतर ऊर्जा देने वाला ये एक तरह से आराध्य स्थल है। अनेकों विश्व प्रतिष्ठित गीतकार-संगीतकार, कलाकार-साहित्यकार, अर्थशास्त्री- समाजशास्त्री, वैज्ञानिक अनेक वित प्रतिभाएं देने वाली विश्व भारती, नूतन भारत के निर्माण के लिए नित नए प्रयास करती रही हैं। इस संस्था  को इस ऊंचाई पर पहुंचाने  वाले प्रत्येक व्यक्ति को मैं आदरपूवर्क नमन करता हूं, उनका अभिनंदन करता हूं। मुझे खुशी है कि विश्वभारती, श्रीनिकेतन और शांतिनिकेतन निरंतर उन लक्ष्यों की प्राप्ति का प्रयास कर रहे हैं जो गुरुदेव ने तय किए थे। विश्वभारती द्वारा अनेकों गांवों में विकास के काम एक प्रकार से ग्रामोदय का काम तो हमेशा से प्रशंसनीय रहे हैं।

केंद्रीय शिक्षा मंत्री डॉ रमेश पोखरियाल वीडियो कांफ्रेंसिंग पर प्रधान मातृ से जुड़ते हुए 

फिर उन्होंने भाषा को चुनावी-मैदान में खींचते कहते हैं: गुरुदेव ने दशकों पहले ही भविष्यवाणी की थी उन्होंने कहा था: “ओरे नोतून जुगेर भोरे, दीश ने शोमोय कारिये ब्रिथा, शोमोय बिचार कोरे, ओरे  नोतून  जुगेर  भोरे, ऐशो ज्ञानी एशो कोर्मि नाशो भारोतो-लाज हे, बीरो धोरमे पुन्नोकोर्मे बिश्वे हृदय राजो हे। गुरुदेव के इस उपदेश को इस उद्घोष को साकार करने की जिम्मेदारी हम सभी की है।

विश्व भारती विश्वविद्यालय के 100 वर्ष मना रहे हैं, तो उन परिस्थितियों को भी याद करना आवश्यक है जो इसकी स्थापना का आधार बनी थीं। ये परिस्थितियां सिर्फ अंग्रेजों की गुलामी से ही उपजीं हों, ऐसा नहीं था। इसके पीछे सैकड़ों वर्षों का अनुभव था, सैकड़ों वर्षों तक चले आंदोलनों की पृष्ठभूमि थी। आप विद्वतजनों के बीच, मैं इसकी विशेष चर्चा इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि इस पर बहुत कम बात हुई है, बहुत कम  ध्यान दिया गया है। इसकी चर्चा इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि ये सीधे-सीधे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और विश्वभारती के लक्ष्यों से जुड़ी है।

समय की मांग थी कि ज्ञान के अधिष्ठान पर आजादी की जंग जीतने के लिए  वैचारिक आंदोलन भी खड़ा किया जाए और साथ ही उज्ज्वल भावी भारत के निर्माण के लिए नई पीढ़ी को तैयार भी किया जाए और इसमें बहुत बड़ी भूमिका निभाई, उस समय स्थापित हुई कई प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों ने, विश्वविद्यालयों ने। विश्व  भारती  यूनिवर्सिटी  हो, बनारस हिंदु विश्वविद्यालय हो, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी  हो,  नेशनल कॉलेज हो जो अब लाहौर में है, मैसूर यूनिवर्सिटी हो, त्रिचि नेशनल कॉलेज हो, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ हो, गुजरात विद्यापीठ हो, विलिंगडन कॉलेज हो, जामिया मिलिया इस्लामिया हो, लखनऊ यूनिवर्सिटीहो, पटना यूनिवर्सिटी हो, दिल्ली विश्वविद्यालय हो, आंध्रा यूनिवर्सिटी हो, अन्नामलाई यूनिवर्सिटी हो, ऐसे अनेक संस्थान उसी एक कालखंड में देश में स्थापित हुए।
 
इन यूनिवर्सिटीज़ में भारत की एक बिल्कुल नई विद्वता का विकास हुआ। इन शिक्षण संस्थाओं ने भारत की आज़ादी के लिए चल रहे वैचारिक आंदोलन को नई ऊर्जा दी, नई दिशा दी, नई ऊंचाई दी। भक्ति आंदोलन से हम एकजुट हुए, ज्ञान आंदोलन ने बौद्धिक मज़बूती दी और कर्म आंदोलन ने हमें अपने हक के लिए लड़ाई का हौसला और साहस दिया। सैकड़ों वर्षों के कालखंड में चले ये आंदोलन त्याग, तपस्या और तर्पण की अनूठी मिसाल बन गए थे। इन आंदोलनों से प्रभावित होकर हज़ारों लोग आजादी की लड़ाई में बलिदान देने के लिए एक के बाद एक  आगे आते रहे।

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और अंत में, गुरुदेव की पंक्तियों को दुहराते सम्मानित प्रधान मंत्रीजी बंगाल की जनता को, मतदाताओं को यह इशारा भी किये “ओरे गृहो-बाशी खोल दार खोल, लागलो जे दोल, स्थोले, जोले, मोबोतोले लागलो  जे दोल, दार खोल, दार खोल!”, यानि देश में नई संभावनाओं के द्वार आपका इंतजार कर रहे हैं आप आगामी चुनाव में मोमता दीदी को नहीं कमल पर बटन दबाएं, भारतीय जनता पार्टी को बंगाल का टाईगर बनायें।  

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