सामाजिक शब्दकोष से “इन-लॉज” को निरस्त करें, ‘बहुएं’ स्वतः ‘बेटियां’ हो जाएँगी और ‘सास’ ‘माँ”

आएं - एक शुरुआत करें - सामाजिक शब्दकोष से
आएं - एक शुरुआत करें - सामाजिक शब्दकोष से "इन-लॉज" को निरस्त करें, 'बहुएं' स्वतः 'बेटियां' हो जाएँगी और 'सास' 'माँ" इसलिए ' सम्बन्ध को तरासिये, सम्बन्ध के लिए तरसिये नहीं 

सरला देवी, सावित्री देवी, लीला सिंह, श्रीमती शफी, शारदा कुमारी, विंध्यवासिनी देवी, प्रियबंदा देवी, भगवती देवी, श्रीमती सरस्वती देवी, श्रीमती माया देवी, श्रीमती जिरियावती, श्रीमती शांति देवी, सुश्री शारदा कुमारी, सुश्री सरस्वती कुमारी, श्रीमती विरजी देवी, श्रीमती सुनीता देवी, श्रीमती राधिका देवी, श्रीमती वृंदा देवी, श्रीमती तारा देवी, श्रीमती रामस्वरूप देवी, कुमारी धातुत्तरी, सुश्री सुधा कुमारी – क्या बिहार के लोग, खासकर माता-पिता अथवा सास-ससुर इन वीरांगनाओं को जानते हैं ? क्या वे इन महिलाओं का नाम कभी सुने हैं? क्या कभी वे समाज की इन महिलाओं के बारे में अपने-अपने “पुरुष संतानों” को बताये हैं ? 

ये सभी महिलाएं बेटी भी थीं, फिर पत्नी बनी, फिर बहु बनी, फिर मां बनी, फिर सास बनी – लेकिन परिवार में कभी भी अपनी अगली पीढ़ी की महिलाओं के साथ “हिटलर” नहीं बनी। जानते हैं क्यों? न इनकी “बहुएँ” इन्हे “मदर-इन-लॉज” समझीं और ना ही, ये अपनी-अपनी बहुओं को “डाउटर-इन-लॉज” – इसलिए, न केवल बिहार, बल्कि अंग्रेजी शब्दकोष से ही “इन-लॉज” शब्द को “निरस्त” कर देना चाहिए – ताकि “सम्बन्ध” कानून के तहत नहीं हो; बल्कि सम्बन्ध दिल के बहुत पास हो – तभी बहुएँ बेटियाँ होंगी और सास माँ बन पाएंगी।  

दुर्भाग्य यह है कि आज के तथाकथित “पुरुष-प्रधान समाज में” जहाँ बेटियों को, बहुओं को माथे पर पल्लू लिए बगैर दरवाजे के चौखट से आगे सूर्योदय के समय आकाश में सूर्य की लालिमा देखने हेतु भी इजाजत नहीं है – फिर क्या पढेंगी, क्या बढ़ेंगी और क्या देश को एक नयी दिशा देंगी ? 

वैसे न केवल स्थानीय लोग, या फिर प्रदेश से बाहर विस्थापित लोग, या फिर प्रदेश की सरकार बहुत ही जोर-शोर से आवाज बुलंद करते हैं कि “अब सोच में बदलाव आया है”, यानि वे स्वयं को अब ‘खुले मानसिकता’ के लोगबाग स्वीकारते हैं; परन्तु, जैसे ही बात “अपने-अपने घरों से उठता है, अपनी-अपनी बहु-बेटियां पढ़ने-अब्बल होने की चुनौती देती है माता-पिता-सास-ससुर को, चुनौतियाँ खुद स्वीकारती है; खुला मानसिकता बंद हो जाता है, सोच संकीर्ण हो जाता है। ऐसा क्यों?

 आएं बच्चों को पढ़ाएं – तस्वीर: मैक्सरेड 

गाँव – देहात ही नहीं, दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता, चेन्नई, बैंगलोर, कानपूर, नागपुर, प्रयाग, काशी या यूँ कहें की भारत के विभिन्न प्रांतों में रहने वाले बिहार के लोग कहते हैं कि “आज-कल समाज में बहु-बेटियों के प्रति माता-पिता-सास-ससुर आदि के सोच में आमूल परिवर्तन हुआ है,” लेकिन “वास्तविकता तो यही है कि “शिक्षित बहु तो सबों को चाहिए, भले पुत्र अपना नाम अंग्रेजीं में लिखने में हिचकी लेने लगें; लेकिन बेटियों को भी शैक्षिक ज्ञान हो, घर, समाज, प्रखण्ड, अंचल, जिला, प्रदेश में वह भी अपने-अपने उम्र के ‘तथाकथित पुरुषों’ के ‘शैक्षिक-पुरुषार्थ को चुनौती दे सके’; यह सोच नहीं आया है । इतना ही नहीं, बहुओं के प्रति भी उनकी मानसिकता खुली नहीं है। 

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पटना की एक महिला शिक्षिका पूर्णिमा सिंह कहती हैं: “मैं स्वयं शिक्षिका थी। मेरी तीन बहुएं हैं। एक डाक्टर हैं, एक शिक्षिका हैं और एक प्रशासनिक सेवा में हैं। तीनों अपने-अपने कार्यों में दक्ष हैं। एक शिक्षित बहु को या एक शिक्षित बेटी को महज रसोई-खाना तक बाँध कर रखना, या फिर बेटियों को यह कहना की अगर तुम्हारा पति, सास-ससुर चाहेंगे तो पढ़ना, अपने शैक्षणिक योग्यता के लिए चुनौती स्वीकार करना, नौकरी करना – गलत होगा।”

वे आगे कहती हैं: “हमारे समाज में बहुएँ ‘बेटियां’ इसलिए नहीं बन पा रही हैं क्योंकि ससुराल में उसके पति के माता-पिता उस नववधु को बेटी नहीं बना पाते। उनके मन में हमेशा वह ‘बहु’ ही होती है। वे भूल जाती हैं कि वे भी कभी बहु थीं। यदि इसे मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखेंगे, तो सास के मन में कहीं न कहीं एक भावना दमित होती है, जो बहु के आते ही प्रवल हो जाती है – उसे मन में यह भय होने लगता है कि यह औरत उसके बेटे को उससे छीन लेगी। उस समय वह भूल जाती हैं की जब वह आयी थीं, तब उन्होंने भी वही किया था और उनकी सास के मन में भी यही भावना जागृत हुयी थी।  इसे आप बदले की भावना भी कह सकते हैं।”

पूर्णिमा जी के अनुसार: “खाना बनाना या रसोई संभालना, बच्चे को संभालना सिर्फ महिला का ही विषय क्यों हो सकता है, पुरुष का क्यों नहीं ? आप नजर उठाकर देखिये, बिहार की तो बात ही नहीं करें, पूरे विश्व में जितने बड़े-बड़े होटल्स, मोटल्स हैं, उसके रसोई-खाना का प्रबंध पुरुष करता है। मेरी बहुएं बेहतरीन प्रशासनिक अधिकारी है, बेहतरीन शिक्षिका हैं और बेहतरीन डाक्टर हैं – इससे भी बड़ी बात यह है कि तीनो बेहतरीन बेटियां है, बेहतरीन माँ हैं, बेहतरीन पत्नियां है और बेहतरीन खाना भी बनाती हैं।” 

दिल्ली की एक मीडिया घराने में दसकों से कार्य करने वाली एक मोहतरमा कहती हैं: “सबसे पहले हमें अंग्रेजी शब्दकोष से ‘इन-लॉज’ शब्द को निरस्त कर देना चाहिए। हम समाज के लोग जब तक अपनी-अपनी बहु-सास-ससुर के सम्बन्ध के बाद  ‘इन-लॉज’ शब्द का इस्तेमाल करते रहेंगे, समाज में तब तक न तो बहुएं “बेटियां” बन सकती हैं और न “सास” कभी “माँ” बन पायेगी। 

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हरेक महिलाओं की अपनी-अपनी सोच होती है, अपनी-अपनी योग्यता होती है दक्षता को तरासने में। बिहार में औसतन महिलाओं को माता-पिता इसलिए भी नहीं पढ़ाते की अधिक पढ़ने/पढ़ाने पर योग्य वर नहीं मिलेगा ! अब इस सोच का क्या जबाब हो सकता है ? 

कई तो ऐसे मिलेंगे जो यह कहते भी नहीं थकते की मैट्रिक, आई ए, बी ए करा दो; अगर पति चाहेगा, सास-ससुर चाहेंगे, तो आगे पढ़ा लेंगे !! क्यों भाई ? यह क्या सोच है? 

अगर बेटी पढ़ी है, तो यह निश्चित है कि उसकी सोच अनपढ़ पुरुषों से बेहतर होगी। इसलिए बेटियों का पढ़ना – बढ़ना नितांत आवश्यक है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो आने वाली पीढ़ी, आने वाला नश्ल “भुसकोल” होगा, मानसिक तौर पर, जिसका फायदा तत्कालीन व्यवस्था के नेतागण उठाएंगे। 

अगर ऐसा होता तो आज बिहार में पुरुष:महिला शैक्षिक अनुपात में 20 फीसदी का फासला नहीं होता। प्रदेश सरकार उन आकंड़ों को भी सम्मिलित कर महिलाओं की शैक्षिक अनुपात को 51.53 फीसदी दिखती है जो भोजपुर, बक्सर, कैमूर, पटना, रोहतास, नालंदा,  सारण, सिवान, गोलगंज, पूर्वी चम्पारण, मुजफ्फरपुर, शिओहर, सीतामढ़ी, वैशाली, पश्चिम चम्पारण, अररिया, कटिहार, किशनगंज, पूर्णियां, बांका, भागलपुर, दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, मधेपुरा, सहरसा, सुपौल, अरवल, औरंगाबाद, गया, जहानाबाद, नवादा, बेगुसराई, जमुई, खगरिया, मुंगेर, लखीसराय, शेखपुरा आदि जिलों की सीमाओं को लांघकर देश के अन्य राज्यों में शिक्षा ग्रहण करती हैं और अखिल भारतीय स्तर पर संचालित परीक्षाओं में, चाहे प्रशासनिक सेवा हो या कोई अन्य सेवा – खुद को अर्पित करती हैं। 

बदलाव लेन के लिए खुद आगे आना होगा – तस्वीर: मुवेंद्री इंटरनेशनल 

फिर देखिये माता-पिता-सास-ससुर ही नहीं, प्रदेश के लोगों के हाथों में लहराता झंडा – वह बिहार की बेटी है – वह बिहार की बहु है – और खुद को उसकी सफलता के लिए “सेहरा” बांधते। अगर सच पूछिए तो ऐसे लोग “लज्जा भी घोलकर पी जाते हैं” – ये सभी समाज के वे लोग होते हैं, जो शुरूआती दिनों में ही नहीं, उसके अब्बल आने तक उसके पैरों में जंजीर बांधकर रखते हैं और अगर उनका बस चले तो जीवन-पर्यन्त उसे जंजीरों में जकड़कर रख देंगे। 

बंगलोर में पदस्थापित श्री प्रियदर्शन शर्मा जी का कहना है की “पिछले दो दशक में बड़ा बदलाव आया है। अब शायद ही लोग मिलेंगे जो शिक्षित बहु बेटी को नौकरी करने से रोकते हैं। वो कहते हैं न ‘पेड़ सबको छाया देता है, लकड़हारे को भी’  । परन्तु वही आनन्द चौधरी का कहना है:  “अब थोड़ी सोच बदली है, लेकिन अभी भी अट्ठारहवीं सदी में जीने वाले लोगों की कमी नहीं है।”

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ठाकुर प्रतीक्षा मिश्रा कहती हैं: “कई लोग सपोर्ट तो कर रहे हैं। लेकिन अभी भी कुछ लोग ऐसे हैं, जिनकी मानसिकता अभी भी पुराने जमाने की है। उन लोगों को पढ़ी लिखी बहू तो चाहिए पर काम करने वाली नहीं और अगर वह लोग काम करने के लिए इजाजत भी देंगे तो ऐसा सोशल सर्विस जैसे कि एसएससी, बीपीएससी, यूपीएससी या फिर टीचिंग।”

सुश्री मिश्रा आगे कहती हैं: “कई लोगों का मानना है कि टीचिंग की एक सबसे अच्छा विकल्प औरतों के लिए है। और उनके हिसाब से जो औरत घर के बाहर 12 घंटा काम कर रही है वह घर पर आकर भी सब काम बहुत अच्छे से करें। और यही एक कारण है जिस वजह से वह अपनी बहुओं को बाहर जाकर नए परिवेश में काम नहीं करने देना चाहती हैं। अभी भी कुछ लोग ऐसे हैं जो यह सोचते हैं कि औरत का घर पर रहना ही अच्छा है वह घर संभालने में ही अच्छा करती हैं। औरत का पैसा खाना उनके लिए शोभा नहीं देता है। उन लोगों का दिमाग अभी तक इतना विकसित नहीं हुआ है कि औरत कहीं और जगह पर भी अपना काम कर सकती हैं और नाम कमा सकती हैं खासकर देखा जाए तो यह ऐसे लोग हैं जो दिखाते तो है कि हम भाई बहुत फॉरवर्ड हैं लेकिन असल में इन लोगों का सोच अभी भी बहुत ज्यादा संकीर्ण है।”

बैद्यनाथ झा का कहना है कि “सामाजिक परिवर्तन को देखते हुए अब गाँव-समाज में ग्रामसेविका तक नौकरी करने की छूट मिली है। स्वाभाविक है – उपार्जनक का लोभ । ” जबकि रोहित कुमार झा का मानना है की “आज के समय में लगभग 90-95% मैथिल बेटी-बहु को नौकरी करने से नहीं रोकते हैं। यह विगत 10-15 सालों से देख रहे हैं।” जबकि, बिहार शरीफ के अनूप कुमार मिश्रा कहते हैं: “आज भी शिक्षित बेटी को 80%और बहु को 50%नौकरी करने देना चाहते हैं, बिहारी । ये मेरा अनुभव है।”  जबकि गोविन्द झा का कहना है: “मेरे मुताबिक बहू की नौकरी के खिलाफ किसी को नहीं होना चाहिए! अगर स्तिथि कुछ संवेदनशील हो फिर सोचना चाहिए।”

2 COMMENTS

    • अपनेक आभार।  अपनेक स्वागत अछि यदि लिखवाक मन हुए 

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