विशेष रिपोर्ट: पटना का ‘सिन्हा लाइब्रेरी’ भारत का बेहतरीन सात-मंजिला पुस्तकालय होने वाला है

डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा

पटना :  विस्वस्त सूत्रों से के अनुसार लगभग 100-वर्ष पुराना भारत का ऐतिहासिक पुस्तकालय, जिसे विश्व के ”पढ़ने” वाले “सिन्हा लाइब्रेरी” के नाम से जानते हैं, वर्तमान भवन का जीर्णोद्धार कर सात-मंजिल का पुस्तकालय बनाने का प्रावधान हो रहा है। यह बहु-मंजला पुस्कालय अपने इतिहास और अस्तित्व को बरकरार रखते हुए डॉ सच्चिदानंद सिन्हा पुस्तकालय के नाम से ही जाना जायेगा। इस प्रताव से सम्बंधित फाईल प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कार्यालय में रखा है। इस पुस्तकालय में कोई दो लाख के आस-पास किताबें हैं, जिसमें तक़रीबन 50,000 से अधिक किताबें डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा का खुद का दान किया हुआ है। डॉ सच्चिदानंद सिन्हा शिक्षाविद, विधि-विद, संविधान सभा के अध्यक्ष तो थे ही, वे पटना से प्रकाशित “सर्चलाइट” अखबार के प्रणेता भी थे, जिसका प्रकाशन सन 1918 में प्रारम्भ हुआ था। 

सूत्रों का कहना है कि “इस दिशा में कुछ माह पूर्व से कार्य किया जा रहा है। वर्तमान भवन की रुग्णता, प्रदेश में आधुनिक तकनीक से युक्त पुस्तकालय की आवश्यकता को देखते हुए इस दिशा में विचार किया जा रहा है कि वर्तमान भवन का जीर्णोद्धार करने के बजाय उसके अस्तित्व को और मजबूत बनाने के लिए, डॉ सच्चिदानंद सिन्हा के ऐतिहासिक योगदान को स्वर्ण अक्षरों में लिखने के लिए एक बहु-मंजिला (न्यूनतम सात मंजिला) पुस्तकालय का निर्माण किया जाय।  इस प्रस्तावित पुस्तकालय में देश के किसी भी राज्यों, यहाँ तक की दिल्ली के पुस्तकालयों में उपलब्ध सभी सुविधाओं को मुहैया छात्र-छात्राओं-शोधकर्ताओं को उपलब्ध कराया जायेगा। इतना ही नहीं, इस बात पर भी विचार किया जा रहा है कि देश के सभी समृद्ध पुस्तकालयों के साथ डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा पुस्तकालय को जोड़ा जाय, ताकि पटना में रहकर भी “पढ़ने वाले” छात्र-छात्राओं-शोधकर्ताओं-शिक्षकों-शिक्षिकाओं को  पर्याप्त साधन और सुविधाएँ प्रदान किया जा सकते। 

सूत्रों के अनुसार, बिहार के मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा के समय काल में, यानी डॉ सिन्हा की मृत्यु के पांच वर्ष बाद, सन 1955 में बिहार सरकार सिन्हा लाइब्रेरी को अपने अधिकार में ले लिया। उस समय काल से लेकर आज तक प्रदेश कोई 22 मुख्यमंत्रियों का सेवाकाल देखा। दुर्भाग्य से किसी भी मुख्यमंत्रियों ने, किसी भी शिक्षा मंत्रियों ने इस ऐतिहासिक पुस्तकालय के तरफ मुड़कर नहीं देखा, जबकि यह पुस्तकालय बिहार विधान सभा और मुख्यमंत्री कार्यालय से कोई आधा किलोमीटर की दूरी पर उस समय भी स्थित था, आज भी है। 

सन 1963 में जब कृष्ण बल्लभ सहाय के बी सहाय सत्ता में आसीन हुए, प्रदेश के शैक्षिक क्षेत्र में जुड़े लोगों को थोड़ी उम्मीद जगी थी कि प्रदेश में शिक्षा का स्तर ऊँचा होगा।  स्वाभाविक है, प्रदेश के पुस्तकालयों की स्थिति भी सुधरेगी। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। के बी सहाय के बाद, प्रदेश में सभी मामले में शिक्षा का पतन महामाया बाबू के जिगर के टुकड़े से प्रारम्भ हो गया। महामाया प्रसाद सिन्हा, सतीश प्रसाद सिंह, बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल, भोला पासवान शास्त्री, हरिहर सिंह, दरोगा प्रसाद राय के समय काल में प्रदेश की शिक्षा और पुस्तकालयों की स्थिति पटना के गाँधी मैदान जैसा हो गया, जिसे जो चाहे रौंदते निकलते जाते थे। 

कर्पूरी ठाकुर का ‘पास विदआउट इंगलिस’ शिक्षा की रीढ़ की हड्डी को तोड़ दिया। केदार पांडेय, अब्दुल गफूर ने जलते लौ में घी डाला। शिक्षा और पुस्तकालय दोनों नेस्तनाबूद हो गया।  जगन्नाथ मिश्र का पटना साइन्स काॅलेज और दोनवार हाट कालेज को बराबर का दर्जा देना ‘शिक्षा के प्रति उनके लगाव को, प्रतिबद्धता को खुलेआम डाकबंगला चौराहा पर नाच कराया। राम सुन्दर दास, चंद्र शेखर सिंह, भागवत झा ‘आज़ाद’, सत्येंद्र नारायण सिन्हा का बिहार की शिक्षा-व्यवस्था में योगदान को काले अक्षरों में लिखा जायेगा। लालू यादव – राबड़ी देवी राज के दौरान शिक्षा की क्या स्थिति हुई, उनके दोनों पुत्रों की ‘वर्तमान शैक्षिक योग्यता ज्वलंत दृष्टान्त’ है। 

शिक्षा विभाग से जुड़े एक उच्च-स्तरीय सूत्र का कहना है की “बिहार में के बी सहाय के बाद से जितने भी राजनेता मुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री के कार्यालय में बैठे, सबों ने शिक्षा को अपने पैरों के तले रौंदा। प्रदेश में शिक्षा की स्थिति, विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों की स्थिति, पुस्तकालयों की स्थिति घीरे-घीरे बंजर होती गई। शिक्षकगण, छात्रगण पढ़ाने -पढ़ने की अपेक्षा नेतागिरी करने में अधिक विस्वास रखते गए। लोग मंत्री भी बने और शिक्षक पद कर भी बने रहे – ताकि नौकरी बची रहे। 

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विगत 22 मुख्यमंत्रियों के काल में ऐसी कोई घटना नहीं हुई जो प्रदेश की शिक्षा को आकर्षित बना सकें, फैकल्टी को मजबूत बनाए जा  सके – परिणाम यह हुआ कि मेधावी छात्र/छात्राओं का पलायन होने लगा, आज भी हो रहा है। नीतीश कुमार  भी अब तक ऐसी कोई साहसिक कार्य नहीं किये हैं शिक्षा के क्षेत्र में, वे भी परंपरा को आगे बढा रहे हैं । अब शिक्षकों  का पढाना जरूरी नहीं है, उपस्थित रहना जरूरी है । एक  उदाहरण के तौर पर सी एम साइंस कॉलेज के केमिस्ट्री विभाग में 1980 मे करीब 30 शिक्षक थे वहीं अब सिर्फ 2 शिक्षक बचे है । इसके अलावा  दो से चार अतिथि शिक्षक हैं । लेकिन, यदि नीतीश कुमार प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था की ओर साहसिक कदम उठा रहे हैं, सिन्हा लाइब्रेरी को बेहतरीन बनाने का संकल्प लिए हैं – इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता है। समय आ गया है कि हम प्रदेश से मेधावी छात्र-छात्रों का पलायन रोकें, शिक्षा व्यवस्था को जरूरत से अधिक अनुशासित करें, और बेहतरीन पुस्तकालय पहला कदम होगा ।”

सन 1894 में सच्चिदानंद सिन्हा की मुलाकात छपरा के जस्टिस खुदाबक्श खान से हुई।  उन्होंने पटना में 29 अक्टूबर, 1891 में खुदाबक्श लाइब्रेरी की बुनियाद रखी, जो भारत के सबसे प्राचीन पुस्तकालयों में से एक है। जब जस्टिस खुदाबक्श खान से सच्चिदानंद जुड़े उसके बाद बहुत सारे कामों में डॉ सिन्हा उनकी मदद करते थे। खुदाबख्श के तबादले के बाद उनकी लाइब्रेरी की पूरी जिम्मेदारी सिन्हा ने अपने कन्धों पर ले ली। उन्होंने 1894-1898 तक खुदाबक्श लाइब्रेरी के सेक्रेटरी के हैसियत से नई जिम्मेदारी को संभाला।खुदाबक़्श पुस्तकालय की शुरुआत मौलवी मुहम्मद बक़्श के निजी पुस्तकों के संग्रह से हुई थी। वे स्वयं कानून और इतिहास के विद्वान थे और पुस्तकों से उन्हें खास लगाव था। उनके निजी पुस्तकालय में लगभग चौदह सौ पांडुलिपियाँ और कुछ दुर्लभ पुस्तकें शामिल थीं। 

खुदाबक्श खान को यह संपत्ति अपने पिता से विरासत में प्राप्त हुई जिसे उन्होंने लोगों को समर्पित किया। खुदाबक़्श ने अपने पिता द्वारा सौंपी गयी पुस्तकों के अलावा और भी पुस्तकों का संग्रह किया तथा 1888 में लगभग अस्सी हजार रुपये की लागत से एक दो मंज़िले भवन में इस पुस्तकालय की शुरुआत की और 1891 में 29 अक्टूबर को जनता की सेवा में खुदाबक्श ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी के रूप में समर्पित किया। उस समय पुस्तकालय के पास अरबी, फ़ारसी और अंग्रेजी की चार हजार दुर्लभ पांडुलिपियां थीं। सन 1969 में भारत सरकार ने संसद में पारित एक विधेयक के जरिये खुदा बख्श लाइब्रेरी को राष्ट्रीय महत्व के संस्थान के तौर पर मान्यता दी। लाइब्रेरी में फ़िलहाल अरबी, फारसी, संस्कृति और हिंदी की लगभग 21,000 से अधिक पांडुलिपियां और 2.5 लाख से अधिक किताबें हैं- उनमें से कुछ बहुत ही दुर्लभ हैं। फिर अपनी पति के नाम से ‘श्रीमती राधिका सिन्हा संस्थान एवं सचिदानंद सिन्हा पुस्तकालय की स्थापना की।जब संविधान की पहली बैठक हुई जिसमें कांग्रेस के अध्यक्ष जे बी कृपलानी अस्थायी अध्यक्ष के लिए डॉ सच्चिदानंद सिन्हा के नाम का प्रस्ताव रखा, जिसे आम सहमति से पारित किया गया। डॉ सिन्हा पहले और एक मात्र भारतीय थे जिसे सरकार में एक्ज्यूक्युटिव काउंसिलर के बतौर फाइनेंस मेंबर बनने का अवसर मिला था। जब संविधान की मूल प्रति तैयार हुयी तब डॉ सिन्हा की तबियत काफी ख़राब हो गई थी। उनके हस्ताक्षर के लिए मूल प्रति दिल्ली से विशेष विमान से डॉ राजेंद्र प्रसाद पटना लाये। डॉ राजेंद्र प्रसाद डॉ सिन्हा को अपना गुरु मानते थे। फरवरी 14, 1950 को डॉ सिन्हा ने संविधान की मूल प्रति पर डॉ राजेंद्र प्रसाद के सामने हस्ताक्षर किये। बिहार विधान सभा की  जमीन डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा ने दान दिया था। जय प्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की जमीन भी डॉ सिन्हा साहेब की ही थी, दान दे दिए। या फिर बिहार विद्यालय परीक्षा समिति भवन भी डॉ सिन्हा ने दान दिए थे। 

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वैसे अभिभाजित भारत राष्ट्र के मानचित्र पर बक्सर का नाम बिहार के नामकरण के कोई 148 वर्ष पहले आ गया था जब ईस्ट इण्डिया कंपनी के हेक्टर मुर्नो की अगुआई में बक्सर में मीर कासिम, सुजाउद्दौला शाह आलम – II के बीच सं 1764 में युद्ध हुआ था, जिसे बैटल ऑफ़ बक्सर के नाम से जाना जाता है । बाद में सं 1912 में अंग्रेज सरकार बंगाल प्रेसीडेन्सी को काटकर 22 मार्च, 1912 को बिहार को अपना एक अलग पहचान दिया। लेकिन शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि 1912 से कोई 19-वर्ष पहले बक्सर का ही एक व्यक्ति बिहार का नामकरण कर दिए थे। वह व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि पटना के टी के घोष अकादमी के पूर्ववर्ती छात्र और भारत के संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा थे। 

10 नवंबर 1871 को मुरार गांव, (चौंगाईं- डुमराव) ज़िला आरा (अब बकसर) के एक मध्यम वर्गीय सम्मानित कायस्थ परिवार में उनका जन्म हुआ और प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हासिल कर मैट्रिक की परीक्षा उन्होंने ज़िला स्कूल आरा से अच्छे नम्बरों से पास किया। डॉ सिन्हा  देश का प्रसिद्द सांसद, शिक्षाविद, पत्रकार, अधिवक्ता, संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष, प्रिवी काउन्सिल के सदस्य, एक प्रान्त का प्रथम राज्यपाल और हॉउस ऑफ़ लॉर्ड्स का सदस्य डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा आज तक एकलौता बिहारी रहे जिनका नाम प्रदेश के नाम से पूर्व आता है यानि बिहार का इतिहास सच्चिदानन्द सिन्हा से शुरू होता है क्योंकि राजनीतिक स्तर पर सबसे पहले उन्होंने ही बिहार की बात उठाई थी। कहते हैं, डा. सिन्हा जब वकालत पास कर इंग्लैंड से लौट रहे थे। तब उनसे एक पंजाबी वकील ने पूछा था कि मिस्टर सिन्हा आप किस प्रांत के रहने वाले हैं। डा. सिन्हा ने जब बिहार का नाम लिया तो वह पंजाबी वकील आश्चर्य में पड़ गया। इसलिए क्योंकि तब बिहार नाम का कोई प्रांत था ही नहीं। उसे यह कहने पर कि बिहार नाम का कोई प्रांत तो है ही नहीं, डा. सिन्हा ने कहा था, नहीं है लेकिन जल्दी ही होगा। यह घटना फरवरी, 1893 की बात है। डॉ. सिन्हा को ऐसी और भी घटनाओं ने झकझोरा, जब बिहारी युवाओं (पुलिस) के कंधे पर ‘बंगाल पुलिस’ का बिल्ला देखते तो गुस्से से भर जाते थे। डॉ. सिन्हा ने बिहार की आवाज को बुलंद करने के लिए नवजागरण का शंखनाद किया। 

उन दिनों सिर्फ ‘द बिहार हेराल्ड’ अखबार था, जिसके संपादक गुरु प्रसाद सेन थे। तमाम बंगाली अखबार बिहार के पृथक्करण का विरोध करते थे। पटना में कई बंगाली पत्रकार थे जो बिहार के हित की बात तो करते थे लेकिन इसके पृथक् राज्य बनाने के विरोध कर रहे थे । बिहार अलग राज्य के पक्ष में जनमत तैयार करने या कहें माहौल बनाने के उद्देश्य से 1894 में डॉ. सिन्हा ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ ‘द बिहार टाइम्स’ अंग्रेज़ी साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया। स्थिति को बदलते देख बाद में ‘बिहार क्रानिकल्स’ भी बिहार अलग प्रांत के आंदोलन का समर्थन करने लगा। 

इसी बीच 26-29 दिसम्बर 1888 के दौरान इलाहाबाद में हुए कांग्रेस अधिवेशन में उनकी गहरी रुचि को देखते हुए उनके परिवार ने उन्हें 1889 में बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेज दिया। वे पहले बिहारी कायस्थ थे, जो पढ़ने के लिए विदेश गए। वहाँ उनकी जान पहचान मज़हरुल हक़ और अली इमाम से हुई, और वे उनकी संस्था अंजुमन-ए- इस्लामिया की बैठकों में भाग लेने लगे। जब वे बैरिस्टर बनकर भारत वापस लौट रहे थे तभी पानी के जहाज़ में उनकी बहस कुछ लोगों से हो गयी जब उन्होंने अपना परिचय “ बिहारी “ के रूप में दिया। उन्हें चिढ़ाने के लिये लोगों ने पूछा कि “ बिहार कहाँ है? नक़्शे पर दिखाओ?” जब उन्होंने भारत के नक़्शे पर आरा दिखाया तब लोगों ने मज़ाक़ किया , “अरे , यह तो बंगाल राज्य के सबसे पिछड़े इलाकों में एक है। डॉक्टर सिन्हा ने उसी समय ठान लिया कि वे बिहार को बंगाल से अलग राज्य बनाकर ही दम लेंगें। 1893 में भारत वापिस आ कर उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रैक्टिस शुरू कर दी। भारत वापस आते ही उन्होंने अलग बिहार राज्य के लिये आंदोलन शुरू कर दिया और वकालत के अतिरिक्त पूरा समय उसी में देने लगे।अपनी वकालत की ज्यादा आमदनी भी बिहार आंदोलन पर ही खर्च करते। अंततः 1912 में उन्होंने बिहार को बंगाल से अलग करवा कर ही दम लिया। उन्होने बिहार आन्दोलन को गति प्रदान करने के लिये ही ‘द बिहार टाइम्स’ के नाम से एक अंग्रेज़ी अख़बार भी  निकाला जो 1906 के बाद ‘बिहारी’ के नाम से जाना गया। 

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1911 में अपने मित्र सर अली इमाम से मिलकर केन्द्रीय विधान परिषद में बिहार का मामला रखने के लिए उत्साहित किया। 12 दिसम्बर 1911 को ब्रिटिश सरकार ने बिहार और उड़ीसा के लिए एक लेफ्टिनेंट गवर्नर इन काउंसिल की घोषणा कर दी। यह डॉ. सिन्हा और उनके समर्थकों की बड़ी जीत थी। डॉ. सिन्हा का बिहार के नवजागरण में वही स्थान माना जाता है जो बंगाल नवजागरण में राजा राममोहन राय का। उन्होंने न केवल बिहार में पत्रकारिता की शुरुआत की बल्कि सामाजिक चेतना और सांस्कृतिक विकास के अग्रदूत भी । 1908 में बिहार प्रोविंशियल कांफ़्रेंस का गठन हुआ और 1910 में हुए चुनाव में सच्चिदानन्द सिन्हा इम्पीरियल विधान परिषद मे बंगाल कोटे से निर्वाचित हुए। फिर 1921 में वे केन्द्रीय विधान परिषद के मेम्बर के साथ इस परिषद के उपाध्यक्ष भी रहे। उनकी अनुशंसा पर ही सर अली इमाम को लौ मेंबर बनाया गया, फिर काफ़ी जद्दोजहद के बाद जब हिंदुस्तान की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली कर दी गयी और 22 मार्च 1912 को बिहार को बंगाल से अलग कर दिया गया। फिर 1916 से 1920 तक डा. सिन्हा बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे। 

1918 में उन्होंने अंग्रेजी का अख़बार सर्चलाइट निकाला, तथा 1921 में 5 वर्षों के लिए अर्थ सचिव और कानून मंत्री बनाए गए। वे पहले हिंदुस्तानी थे जो इस पद तक पहुँचे। फिर वे पटना विश्वविद्यालय के प्रथम उपकुलपति बनाए गए। 1924 में उन्होंने अपनी स्वर्गीय पत्नी राधिका सिन्हा की याद में राधिका सिन्हा इंस्टीट्यूट और सिन्हा लाइब्रेरी की बुनियाद रखी, और 10 मार्च 1926 को एक ट्रस्ट की स्थापना कर लाइब्रेरी की संचालन का जिम्मा ट्रस्ट को सौंप दिया। उन्होंने एमिनेंट बिहार कौनटेम्पोररीस और सम एमिनेंट इंडीयन कौनटेम्पोररीस के नाम से दो किताबें भी लिखीं। 9 दिसम्बर 1946 को जब भारत के संविधान का निर्माण प्रारम्भ हुआ तो उन्हें उनकी काबिलियत की वजह से ही सर्वसम्मति से उसका अध्यक्ष मनोनीत किया गया। उन्होंने ही डॅा. भीमराव अम्बेडकर को ड्राफ्टिंग कमेटी का सॅंयोजक चुना। जब संविधान की मूल प्रति तैयार हुई उस समय उनकी तबियत काफ़ी ख़राब हो गई थी , तो मूल प्रति को दिल्ली से विशेष विमान से पटना लाया गया और 14 फरवरी 1950 को उन्होंने उस मूल प्रति पर संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद के सामने हस्ताक्षर किए। 6 मार्च 1950 को 79 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया।

1 COMMENT

  1. We people spend so much time abusing Gandhi, Nehru and Savarkar that we all forget all of their contribution and national pride. So as Sanskrit disavow and culture deteriorated. Now all these things have no meaning, Everyone is starting to see their own selfishness.

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