काश !! राष्ट्रध्वज झंडोत्तोलन के लिए महारानी अधिरानी दरभंगा को कहा गया होता संविधान के सम्मानार्थ, अपने दिवंगत पति के सम्मानार्थ 

दरभंगा का राम बाग़ का प्रवेश द्वार 

चलिए, लगभग साठ साल बाद ही सही, स्वयंभू-प्रचार-प्रसार के लिए ही सही, दरभंगा राज के परिवारों को यह ज्ञात हुआ की देश में गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रध्वज का झंडोत्तोलन किया जाना चाहिए राम बाग के इस प्रवेश द्वार पर, जो दरभंगा के अंतिम राजा का बहुमूल्य कीर्तियों में एक था। लेकिन आज कोई 80 फीट ऊँचे राम बाग प्रवेश द्वार पर जो हुआ, वह नहीं होना चाहिए था। और जो होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। एक वृद्ध, विधवा और सबसे महत्वपूर्ण महाराजा की पत्नी के सम्मानार्थ, महाराजा साहेब के सम्मानार्थ झंडोत्तोलन का कार्य महाराजा के एकमात्र जीवित पत्नी के हाथों होना चाहिए था – समर्पण मानकर ही सही, पुष्पांजलि मानकर ही सही, अपने दिवंगत पति के सम्मानार्थ, उनके हस्ताक्षर के सम्मानार्थ जिसे उन्होंने भारत के संविधान पर लागू होने से पहले किया था । क्योंकि जिन्होंने यह कार्य किया – वे सभी गोतिया थे, दियाद थे। 

ऐसा लग रहा था जैसे महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की “आकस्मिक मृत्यु” के बाद सभी मुफ्त में मिली सम्पत्तियों में ऐसे लोट-पोट करने लगे की इस बात को भी भूल गए की स्वतन्त्र भारत का संविधान, जो भारत की आत्मा है, उस ऐतिहासिक संविधान पर दरभंगा के अंतिम राजा का भी हस्ताक्षर है और आज इस महत्वपूर्ण दिन को उनकी एकमात्र पत्नी जीवित भी हैं। संविधान पर हस्ताक्षर करना मिथिलाञ्चल के लोगों के लिए तो फक्र की बात उस समय भी थी, आज भी है, और आने वाली पीढ़ियों के लिए, जो मजदूरी-नौकरी-पेशा-मेहनत की कमाई से अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं, रहेगी। उन सभी लोगों के लिए महाराजाधिराज सर्वश्रेष्ठ और सम्मानित रहेंगे – लेकिन आज शायद वह सम्मान उनके बाद दरभंगा राज के परिवारों के लिए नहीं रही होगी। 

इन शब्दों को लिखते समय यह सोच रहा हूँ एक तरफ उस ऐतिहासिक पल को जो साठ बाद हो रहा है; और दूसरे तरफ उस हृदयहीन पहल पर जिसे महारानी को दर-किनार कर राम बाग़ परिसर में उनके पति के “दियादों” (गोतिया) ने हड़प लिया । अपनी दो पत्नियों के अलावे महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह को कोई अपना संतान नहीं था।  इस बात का जिक्र उन्होंने बहुत ही “दुःख़द” शब्दों में अपने “वसीयत” में लिखा है। चुकि सं 1947 में देश आज़ाद हो गया था और देश में जमींदारी प्रथा भी समाप्त हो गयी थी, अतः संतानहीन राजा के पास और क्या विकल्प हो सकता है जिसे “शायद अपनी मृत्यु का पूर्वाभास” भी था। पहली अक्टूबर, 1962  को नरगोना पैलेस के अपने सूट के बाथरूम के नहाने के टब में मृत पाये गए थे महाराजाधिराज। महाराजा का दाह संस्कार भी आनन्-फानन में दोनों महारानी की उपस्थिति में हो गया। महाराजा का कोई उत्तराधिकारी नहीं हुए। 

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आज जब प्रदेश ही नहीं, देश में राजनीतिक-व्यवस्था का स्वरुप और कमान में निरन्तर बदलाव आ रहा है, दरभंगा राज के लोग-बाग़ अकस्मात् “राष्ट्रध्वज” हो गए। उन्हें  याद आ गया कि 26 जनवरी को ही गणतंत्र दिवस मनाया जाता है। यह भी स्पष्ट कर लें – यह पहल उनकी नहीं थी जिन्होंने दरभंगा के अन्तिम राजा की सम्पत्तियों का मालिक – हिस्सेदार बने; बल्कि, जिले के कुछ युवकों का था जिसने नयी सोच को नयी दिशा दे रहा है। 

कहते हैं पहले के राजा-महाराजा बिना सहयोग से “करवट” भी नहीं लेते थे, पानी पीने-लोगों से मिलने-जुलने, हँसने-हंसाने की बात तो कोसों दूर। वैसे मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसे लोग अपने से ज्ञानी, मेहनतकश, बुद्धिमान, शिक्षित, विचारवान लोगों से मिलते-जुलते नहीं – एक दूरी रखते हैं । कानों पर अधिक विस्वास रखते हैं । उनकी हमेशा यही इक्षा होती है कि उनकी बातों में हाँमी भरते रहें लोग-बाग़। कोई भी सही बात भी नहीं बताये उन्हें। कोई उनकी बात को काटे नहीं।  जो वे कहें उसे ब्रह्मवाक्य माना जाय – क्योंकि वे स्वयं-भू  “पालन-हारा” मानते हैं। उन्हें यह मालूम नहीं होता की भारत के लोग अब न तो अंग्रेजी शाशन के अधीन हैं और न ही मुगलों का सामाज्य है और ना ही दास-प्रथा । वे इस इस बात को मानने को तैयार नहीं होते की समय बहुत बदल गया है। 

श्री रमन दत्त झा के अनुसार: “26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था। संविधान के निर्माण के लिए बनी संविधान सभा में दरभंगा के डा कामेश्वर सिंह, सांसद, और इण्डियन एक्सप्रेस पत्र समूह के मालिक श्री रामनाथ गोयनका सदस्य थे। संविधान की एक कॉपी दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फ़ाउंडेशन में है । संविधान का पहला संशोधन दरभंगा के कारण हीं हुआ था जब तत्कालीन सरकार को जनता को दिए गये सम्पति के अधिकार में संशोधन करना पड़ा l संविधान और दरभंगा का रिश्ता पुराना है संविधान की मूल कॉपी में नन्दलाल बोस ,मशहूर चित्रकार के चित्र है ,श्री बोस का जन्म बिहार में हुआ था और उनके पिता दरभंगा राज के पदाधिकारी थे।”

दस्तावेजों के अनुसार, राजकुमार शुभेश्वर सिंह और राजकुमार यजनेश्वर सिंह वसीयत लिखे जाने के समय नाबालिक थे और उनकी शादी नहीं हुई थी सबसे बड़े राजकुमार जीवेश्वर सिंह की दूसरी शादी नहीं हुई थी। अतः कोलकाता उच्च न्यायालय द्वारा वसीयत सितम्बर 1963 को प्रोबेट हुई और पं. लक्ष्मी कान्त झा , अधिवक्ता, माननीय उच्चतम न्यायालय, पूर्व मुख्यन्यायाधीश पटना हाई कोर्ट ग्राम – बलिया ,थाना – मधुबनी पिता पंडित अजीब झा वसीयत के एकमात्र एक्सकुटर बने और एक्सेकुटर के सचिव बने पंडित द्वारिकानाथ झा । वसियत के अनुसार दोनों महारानी के जिन्दा रहने तक संपत्ति का देखभाल ट्रस्ट के अधीन रहेगा और दोनों महारानी के स्वर्गवाशी होने के बाद संपत्ति को तीन हिस्सा में बाँटने जिसमे एक हिस्सा दरभंगा के जनता के कल्याणार्थ देने और शेष हिस्सा महाराज के छोटे भाई राजबहादुर विशेश्वर सिंह जो स्वर्गवाशी हो चुके थे के पुत्र राजकुमार जीवेश्वर सिंह ,राजकुमार यजनेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह के अपने ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न संतानों के बीच वितरित किया जाने का प्रावधान था ।

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स्व . महाराजाधिराज के तथाकथित परिवार के सदस्यों ने माननीय उच्चतम न्यायालय में एक फॅमिली सेटलमेंट नो . 17406-07 ऑफ़ 1987 में फॅमिली सेटलमेंट हुआ। जिसमे महाराजा के वसीयत के विपरीत छोटी महारानी के जिन्दा रहते कुल संपत्ति का एक चौथै हिस्सा पब्लिक चैरिटी को मिला और 1/4 छोटी महारानी, 1/4 राजकुमार शुभेश्वर सिंह और उनके दोनों पुत्र को और 1/4 में मंझले राजकुमार के पुत्रों और बड़े राजकुमार के 7 पुत्रियों को मिला। द रभंगा राज का क्रियाकलाप महाराजा के मृत्यु के बाद मुख्यतः लक्ष्मीकांत झा, दुर्गानन्द झा और पंडित द्वारिका नाथ झा के इर्द -गिर्द था । 

लोगों का कहना है की महाराजा की मृत्यु के बाद उनके गोतिया जिन्हें सम्पत्तियों का हिस्सा मिला, अपनी-अपनी आकस्मिक मिली सम्पत्तियों में इतने मसगुल हो गए की महाराजा की “मानसिक विरासत” को ही भूल गए। 
बहरहाल, सबसे पहले तीनो राजकुमार (महाराजा के भतीजा) ने बेला पैलेस सहित 80 एकड़ का 1968 में सौदा किया और दरभंगा में बिना आवास के हो गए। बड़ी महारानी राजलक्ष्मी जी ने सबसे छोटे राजकुमार शुभेश्वर सिंह को अपने रामबाग में रखा। वसियत के अनुसार बड़ी महारानी राजलक्ष्मी जी के मृत्यु के बाद उनके महल पर राजकुमार शुभेश्वर सिंह का स्वामित्व होगा। बड़े कुमार जीवेश्वर सिंह घर का नाम बेबी राजनगर रहने लगे और उनकी बड़ी पत्नी राजकिशोरी जी अपनी दोनों बेटी के साथ और मझले राजकुमार यजनेश्वर सिंह अपने परिवार के साथ यूरोपियन गेस्ट हाउस ऊपरी मंजिल पर उत्तर और दझिण भाग में आ गए। फिर एक-एक कर सब बिकने लगे – जो कल तक दरभंगा राज का था, महाराजा का था, मिथिलाञ्चल के लोगों का था, किसी और का होता चला गया। हाँ, शर्तों के अनुसार कुछ जगह “दरभंगा” का नाम लिखा आज भी दिख रहा है, शेष जगहों में कहीं “द” शब्द गिरा, तो कहीं “र”, कहीं “भं” निरस्त हुआ तो कहीं “गा” – बड़ी महारानी सन अपने पति की मृत्यु के कोई 14-वर्ष बाद सन  1976 में ईश्वर के पास गए। फिर 1978 में पंडित लक्ष्मी कान्त झा का निधन हुआ दरभंगा राज का कार्य ट्रस्ट के अधीन हो गया। फिर सं 1983  में श्री दुर्गानंद झा का देहांत हुआ .समय बदलता गया, ट्रस्टी बदलते गए। फिर पटल पर आये कुमार शुभेश्वर सिंह जहाँ से अन्य सम्पतियों, उद्योगों का मिटटी में मिलने का समय प्रारम्भ हो गया। महाराजा का बेहतरीन उपहार आर्यावर्त-इण्डियन नेशन की भी साँसे रुकने लगी इनके समय में ही, जो बाद में, इनकी अगली पीढ़ी मिटटी में मिला दिया। 

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अब अकस्मात् मिली इन सम्पत्तियों के अम्बार के सामने कौन महाराजा को देखता है, कौन राष्ट्रध्वज को । आज तो सभी उपस्थित लोग इस बात को भी भूल गए की महाराजा साहेब की दूसरी पत्नी महरानीअधिरानी कामसुन्दरी देवी आज भी जीवित हैं। अगर उपस्थित लोग महारानी अधिरानी के हाथों कोई छः दसक बाद ही सही, राष्ट्रध्वज में बंधे रस्सी को खोलने, राम बाग़ के द्वार पर दरभंगा के अंतिम राजा के सम्मानार्थ, अपने पति के सम्मानार्थ उन्हें कोई आमंत्रित करता तो शायद इन शब्दों को लिखते समय उतनी तकलीफ नहीं होती, ह्रदय थरथराता नहीं, शरीर में कम्पन नहीं होता, आँखें अश्रुपूरित नहीं होती – लेकिन इस वेदना की संवेदना को कौन समझेगा ? 

इससे से बड़ी बिडम्बना और क्या हो सकती है कि यह पहल रामबाग परिसर की ओर से नहीं, बल्कि दरभंगा की सड़कों पर, मिथिलांचल के लोगों के लिए, युवकों के लिए, युवतियों के लिए लड़ने वाले मिथिला स्टूडेंट्स युनियन के छात्र-छात्राओं द्वारा की गयी। मिथिला स्टूडेंट्स युनियन के अनुसार दरभंगा और मिथिलांचल के छात्र-छात्राओं ने इस स्थान को सन 2018 में देखा था। उसने सोचा इस स्थान पर राष्ट्रध्वज का झंडोत्तोलन करने से दरभंगा के अलावे सम्पूर्ण मिथिलांचल में राष्ट्र के प्रति लोगों में एक जागरूकता लाया जा सकता है। वैसे यह प्रयास राम बाग़ परिसर में रह रहे, या दरभंगा राज के वंशजों, परिवारों की ओर से लेना चाहिए था, परन्तु विगत साठ वर्षों में कभी ऐसा पहल नहीं लिया गया। यह दुर्भाग्य है। पहली बार तो मिथिला स्टूडेंट्स युनियन के छात्रों ने ही यह पहल किया। लेकिन जान स्थानीय अख़बारों में इस बात की खबर छपने लगी, फिर राम बाग़ परिसर में रहने वाले लोगों में सुगबुगाहट आई। वजह भी था: वे भी प्रचार-प्रसार चाहते थे, चाहते हैं। 

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