नीतीश कुमार तो खुद्दे ‘प्रभारी’ हैं, फिर दरभंगा के ‘प्रभारी’ वरीय आरक्षी अधीक्षक, दरभंगा के ‘कुमार-ब्रदर्स’ से न्याय की क्या उम्मीद करते हैं 

दरभंगा के "प्रभारी" वरीय आरक्षी अधीक्षक अशोक कुमार प्रसाद

“प्रभारी” चाहे ‘मुख्यमंत्री’ हो या ‘प्रधानमंत्री’, किसे कितनी शक्ति होती है, यह बिहार के लोग ही नहीं, देश के लोगों को, संविधान के विशेषज्ञों को, विधि के निर्माताओं को मालूम है। “प्रभारी” यानी “छपटकर” अधिकार। आप कुर्सी पर बैठ सकते हैं, लेकिन कुर्सी के आसान पर कील लगा मिलेगा। आप अपने टेबुल पर पड़े फाइलों को देख सकते हैं, लेकिन “हरे रंग” के स्याही से अपना निर्णय नहीं लिख सकते, क्योंकि आगे ”लाल कलम” के साथ कोई आपको देख रहा है। आपसे आपके प्रान्त के लोगबाग, मतदाता मिल सकते हैं अपनी-अपनी समस्यों को लेकर, लेकिन आप समाधान हेतु ”कड़ककर आदेश” नहीं दे सकते क्योंकि आपको अपने ऊपर के लोगों को जबाब देना होगा। 

चलिए आगे बढ़ते हैं। यदि दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह के प्रति मिथिला के लोगों का सम्मान होता तो वे 1952 के चुनाव में हारते नहीं। उनकी अगली पीढ़ियों को मिथिला के प्रति स्नेह होता तो आज मिथिला की यह स्थिति भी नहीं होती। वर्तमान काल में यदि बिहार के ऐतिहासिक मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार को अपने प्रदेश को तरक्की के रास्ते ले जाने, प्रदेश में कानून व्यवस्था दुरुस्त रखने में तनिक भी दिलचश्पी होती, तो सैकड़ों-हज़ारों सरकारी मुलाजिम ”प्रभारी” के रूप में कार्य नहीं करते। आपको हैरानी होगी कि विधानसभा और विधानपरिषद में कोई प्रभारी सदस्य नहीं हैं। आख़िर सम्मानित नीतीश कुमार ही क्या करेंगे – वे भी तो वैशाखी पर ही हैं। अब बिहार के मतदाता जब यह नहीं चाहते कि उनके प्रदेश की तरक्की हो, किसी एक व्यक्ति को, किसी एक पार्टी को सत्ता के सिंहासन पर बैठाएं – भले वह “एको हम दूजा नास्ति” में विश्वास करने लगे – तब तक “प्रभारी” शब्द प्रदेश को कोरोना-19, 20-21-22 क्रमशः जैसा दबोचे रहेगा और दरभंगा ही नहीं, प्रदेश के लोग “चिचियाते” रहेंगे। 

एक राष्ट्रीय रिपोर्ट के आधार पर भारत में करीब 77 लाख लोगों का जीवन उनके घर-खेत-जमीन-पुलिस-वकील और न्यायालय के बीच समाप्त हो जाता है। यह भी कहा जाता है कि भारत का करीब 25 लाख हेक्टेयर भूमि का भविष्य न्यायालय के लाल कपड़ों में बंद है। इतना ही नहीं, देश की निचली अदालतों को छोड़कर, भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जितने मुकदमों के मामले में निर्णय सुनाया जाता है, उसमें तक़रीबन 25 फीसदी मुकदमें और फैसले भूमि विवाद से सम्बंधित होती है। आखिर ‘भारत एक कृषि प्रधान देश है’ जहाँ भूमि सम्बन्धी ‘दीवानी’ मामले आये दिन ‘फौजदारी’ में बदल रहे हैं क्योंकि भूमि पर माफियाओं का साम्राज्य स्थापित हो रहा है। विडंबना यह है कि सिर्फ ‘क्रेता’ को ही ‘माफिया’ शब्द से अलंकृत किया जाता है, ‘विक्रेता’ तो जमींदारी जाने के बाद भी, राजा-महाराजाओं की प्रथा समाप्त होने के बाद आज भी हज़ारों-लाखों बीधा जमीन के स्वामी होने के बाबजूद समाज के ‘संभ्रांत’ कहलाते हैं। 

रिपोर्ट यह भी कहता है कि भारत के सभी न्यायालयों में, जिला स्तर से लेकर सभी राज्यों के उच्च न्यायालयों सहित दिल्ली के सर्वोच्च न्यायालय तक, 100 फीसदी दीवानी मामलों में 66 फीसदी दीवानी मामले प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से ‘भूमि-विवाद’ से संबंधित होते है । और सबसे मजेदार बात तो यह है कि इन दीवानी मामलों के मुकदमे कचहरी में दाखिला से लेकर निर्णय होने तक न्यूनतम दो दशक समय लेता है । यानी माँ के गर्भ से जन्म लेने वाला संतान भी राज्यों और संसद के विधान सभाओं और लोक सभा में मतदान करने लायक हो जाता है। ऐसी स्थिति में उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र के दरभंगा शहर की क्या औकात है जहाँ ‘कथित तौर पर’ एक खास समूह के लोग, जिसमें संभ्रांत भी हैं, बिचौलिए भी हैं, अपराधी भी हैं, खाकी वस्त्रधारी भी हैं, खादी वस्त्रधारी भी हैं, फुलपैंट वाले भी हैं, बेलबॉटम वाले भी है, जीन्स धारी भी हैं, अधिकारी भी हैं, समाजसेवी भी हैं – शहर और जिले में फैली जमीनों पर अधिपत्य ज़माने के लिए बगुले की तरह पैनी निगाह रखे 24 x 7 x 365 दंड पेलते रहते हैं कि कब मौका मिले और खरीद-बिक्री कर लें, हड़प लें । 

ये भी पढ़े   महात्मा गांधी, किसान, नील की खेती, चंपारण, फ़लक खान और चंपारण मटन = ऑस्कर में नामांकन

जो ‘सत्ता’ में हैं वे सत्ता का धौंस ज़माने में कोई कोताही नहीं करते। जो सत्ता पर कब्ज़ा करने हेतु दिन-रात-आठो पहर मेहनत और मसक्कत करने में थकते नहीं, वे भारतीय जिले के राजनीतिक बाजार के रास्ते प्रदेश के सिंघासन पर स्थापित होने हेतु कोई कसर नहीं छोड़ते। जो खाकी-धारी हैं वे ‘अपनी प्रतिभा’ से समाज के लोगों को ‘शांत’ करने में कोई कसर नहीं छोड़ते।  जिनके पास जमीन है वे निमोछिया होने के बाबजूद सुबह-शाम अपनी मूंछ पर घी चिपकाने में नहीं पीछे रहते। जो कभी विद्यालय में स्लेट-पेन्सिल पकड़े नहीं, वे कट्टा पकड़कर रातो-रात गरीब और निर्धन की तगमा को त्यागकर धनाढ्य बनने में कोई कसर नहीं छोड़ते – वैसी स्थिति में इस समूह विशेष को सिर्फ “माफिया” शब्द से अलंकृत करना ‘श्रेयस्कर’ नहीं होगा। क्योंकि विगत दो-तीन दशक में मनुष्य के चरित्र में जितनी गिराबट आई है, चाहे मिथिला का हों या पंजाब का, बिहार हो या बंगाल, दिल्ली हो या कश्मीर ‘भूमि-मूल्य’ में उतना ही उछाल आया है। कल तक मोहल्ले के लोग जिस डबरे में, पोखर में पौ-फटने से पहले और सूर्यास्त के बाद ‘दीर्घ-शंकाओं’ से मुक्त होते थे; जिन दीवारों पर, सड़क के किनारे खाली स्थान में ‘लघु-शंकाओं’ से मुक्त होते थे; आज उन स्थानों की कीमत एक आदमी की जिंदगी से अधिक हो गयी है। 

अशिक्षा, बेरोजगारी का अदृश्य भरमार हो गया है। गली-कूचियों में कुकुरमुत्तों की तरह नेताओं और अपराधियों का जन्म हो रहा है। ऐसी स्थिति में दरभंगा में पिंकी झा नामक एक गर्भवती महिला के गर्भ में 8-महीने के नौनिहाल सहित संजय नामक भाई की मृत्यु जमीन सम्बन्धी दीवानी मामला फौजदारी मामले में बदल गया, तो क्या हुआ? अगर स्थानीय पुलिस जीएम रोड बंगला संख्या – 4 में हुए ट्रिपल-मर्डर के मुख्य आरोपी को बिना मधुबनी पुलिस को आधिकारिक तौर पर ‘अपने विश्वास’ में लिए शिव कुमार झा को ‘गिरफ्तार’ कर देर रात दरभंगा लाती है; और ऐसे संगीन मामले में तहकीकात के लिए ‘पुलिस रिमांड’ पर लेने के बजाय, ‘जुडिशल रिमांड’ में बेनीपुर जेल भेज देती है – तो इसमें चौंकाने वाली बात क्या है? 

दरभंगा में खाकी-वर्दी में छोटे पुलिस कर्मी से लेकर कप्तान साहब तक ‘खुलकर कोई प्रशासनिक कार्य करने में एक नहीं, दस नहीं, सौ बार सोचने पर विवश होते हैं – कहीं ऊपर से, पटना से, दिल्ली से आला-अधिकारी से लेकर आला-माला नेताओं का, गृह मंत्री कार्यालय से, मुख्यमंत्री कार्यालय से फोन की घंटी ट्रिंग-ट्रिंग नहीं होने लगे। कोई अनुशासनिक फरमान नहीं जारी हो जाए – बेचारे वे भी क्या करे? तभी तो दरभंगा पुलिस मुख्यालय से लेकर समाहरणालय तक सभी खैनी चुनाते फुसफुसा रहे हैं: “औ बाबू…. बबाल शांत करने के लिए अपराधी को पकैड़ कर जेल में बंद कर दिया गया है। इधर मामला शांत हुआ उधर शिव कुमार झा दरभंगा के राम बाग़ से लेकर लाल बाग़ तक, टावर से लेकर विश्वविद्यालय तक मटरगस्ती करेगा। क्योंकि न तो जिला में पुलिस का दल-बल सुदृढ़ है, न कचहरी में पर्याप्त न्यायिक अधिकारी है, न प्रदेश की सरकार को अपने राज्य को राम-राज्य में बदलने का कोई वजह है। फिर काहे को मारा-मारी।”

ये भी पढ़े   समस्तीपुर: (बिहार): पितौंझिया गाँव के गोकुल ठाकुर-रामदुलारी का ननकिरबा 'जननायक' कर्पूरी ठाकुर ''भारत रत्न'' बना

क्योंकि विगत 10 फरवरी की शाम और उसके बाद के दिनों में जिस कदर दरभंगा के लोग, दरभंगा का मीडिया, सोशल मिडिया पर दरभंगा के संभ्रांतों की उपस्थिति जीएम रोड बंगला संख्या – 4 की घटना को उछाले थे, आलोचना किये थे, भत्सर्ना किये थे, अपराधी को गिरफ्तार करने के लिए आवाज बुलंद किये थे, कबीले तारीफ़ थी। लेकिन गिरफ़्तारी के तुरंत बाद जिस कदर आवाज धीमी ही नहीं, शांत हो गयी, यह शुभ संकेत नहीं है। क्योंकि पुलिस खुद ‘रो रही’ है इसलिए कि उसे सम्पूर्णता के साथ ‘शक्ति’ नहीं है। घटना के बाद जीएम रोड बंगला संख्या – 4 में पीड़ित को देखने के लिए जिस कदर खादीधारी और स्थानीय नेता पदार्पित हो रहे हैं, पीड़िता को ‘द्रव्य’ से ‘मदद’ हेतु हाथ बढ़ा रहे हैं, स्थानीय अख़बारों में, सोशल मीडिया पर तस्वीरों की बाढ़ ला रहे हैं; अगर उतना ही समय, सोच स्थानीय प्रशासन को शसक्त करने, अपराधियों को कानून के गिरफ्त में लेकर नकेल कसने में देते, बिना किसी राजनीतिक रोटियों को सेके दरभंगा की सड़कों पर प्रशासन को पूरी शक्ति के साथ अलंकृत करने में, विश्वास स्थापित करने में लगाते, तो शायद जीएम रोड बंगला संख्या – 4 जैसी ह्रदय विदाराक घटना भी नहीं होती। खैर। 

दरभंगा समाहरणालय

“प्रभारी” चाहे ‘मुख्यमंत्री’ हो या ‘प्रधानमंत्री’ किसे कितनी शक्ति होती है, यह बिहार के लोग ही नहीं, देश के लोगों को, संविधान के विशेषज्ञों को, विधि के निर्माताओं को मालूम है। अगर ऐसा नहीं होता तो दिवंगत गुलजारीलाल नंदा का नाम भी पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसा इतिहास के पन्नों में दर्ज होता। छोड़िये देश को, अपने बिहार में भी ‘आया-राम-गया-राम’ वाले मुख्यमंत्रियों को, मसलन दीप नारायण सिंह, सतीश प्रसाद सिंह, भोला पासवान शास्त्री, हरिहर सिंह जैसे सम्मानित महानुभावों को प्रदेश के लोग जानते। ऐसी स्थिति में दरभंगा के ‘प्रभारी’ वरीय आरक्षी अधीक्षक को कितनी शक्ति होगी, या वे उनमें निहित शक्तियों का कितना पालन कर सकते हैं, ये सबसे बेहतर वे जानते हैं।  इतना ही नहीं, अपराधियों पर नकेल कसने में ‘प्रभारी’ के रूप में वे कितना सशक्त हो सकते हैं, हैं या होंगे – दरभंगा के लोगों से कई लाख गुना बेहतर वे स्वयं जानते हैं। तभी तो मन ही मन मुस्कुराते स्थानीय मीडिया को भी कहते हैं कि वे दरभंगा के सभी थाना प्रभारियों को आदेश दिए हैं कि इस दिशा में कार्रवाई करें। सर्वोच्च न्यायालय की तरह वे भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि  हिंसा की ज्यादातर घटनाएं भूमि विवाद को लेकर होती हैं, इसलिए इस पर नियंत्रण रखना बहुत जरूरी है।

पिछले दिनों ‘प्रभारी’ वरीय आरक्षी अधीक्षक कहे थे: “शिवकुमार झा घटना के अगले ही दिन नेपाल भाग गया। मोबाइल सर्विलेंस के आधार पर उसका पता लगाया गया और उसे पकड़ने के लिए जाल बिछाया गया। उसे मधुबनी जिले के सहर घाट में नेपाल से घर जाते समय पकड़ा गया।” अब सवाल यह है कि अगर मोबाइल सर्विलेंस के आधार पर शिवकुमार झा पुलिस के गिरफ्त में आ सकता है, तो स्वाभाविक है कि दरभंगा पुलिस के पास शहर और जिले में विभिन्न अपराधों में लिप्त और फरार सभी अपराधियों की सूची होगी, उसका मोबाइल नंबर भी होगा (नहीं होने पर ज्ञात भी किया जा सकता है), फिर उन अपराधियों के मोबाइल को सर्विलेंस पर डालकर, उसके आवागमन को जांच-पड़ताल कर उसे क्यों नहीं गिरफ्तार किया जाता है ? उसे न्यायालय के सामने क्यों नहीं प्रस्तुत किया जाता? उसे जेल के अंदर क्यों नहीं डाला जाता है ताकि दरभंगा में पुलिस के द्वारा न्याय की परिभाषा को बेहतरीन तरीके से परिभाषित किया जा सके ? 

ये भी पढ़े   बुद्ध का विपरण और बोधगया की सड़कों पर पेट-पीठ एक हुए रोता, बिलखता भिखारी😢

शिवकुमार झा की गिरफ्तारी और उसे कारावास भेजने को लेकर दरभंगा के एक वरिष्ठ नागरिक कहते हैं: “मैं नहीं जानता कि स्थानीय पुलिस के कर्मी ‘रिमांड’ शब्द से वाकिफ है अथवा नहीं, चाहे ‘पुलिस रिमांड’ हो या ‘न्यायिक रिमांड’ – लेकिन शिव कुमार झा को मधुबनी से गिरफ्तार किया जाता है और दरभंगा लाकर कारावास में बंद कर दिया जाता है। कहा जाता है की वह ‘जुडिसियल रिमांड’ पर जेल में है। सवाल यह है कि ट्रिपल-मर्डर केस का मुख्य अपराधी को ऐसी स्थिति में पूछ-ताछ के लिए पहले पुलिस रिमांड पर लेनी चाहिए थी, ताकि जिले में मकड़े की जाल की तरह बढ़ रहे भू-सम्बन्धी अपराधियों पर नकेल कसा जा सके। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वजह भी है। जिले में पुलिस की संख्या कितनी है, यह तो जिले के पुलिस कप्तान भी जानते हैं और जिलाधिकारी भी। वैसे दरभंगा में आधिकारिक तौर पर आज ‘प्रभारी’ वरीय आरक्षी अधिकारी को छोड़कर कोई भी मोख्तार नहीं हैं। दर्जनों पुलिस थाने में थाना प्रभारी नहीं हैं। पुलिसकर्मियों की किल्लत ही नहीं, सुखाड़ है । वैसी स्थिति में यह क्रिया-प्रक्रिया तो महज वर्तमान हो-हल्ला को शांत करने हेतु किया गया है । कल ‘लाइफ गोज ऑन’ हो जायेगा। किसे कितना न्याय मिल पाएगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।”  

कहते हैं जब “अंदर का शासन-प्रशासन-अभिभावक नितांत कमजोर रहे, तो बाहर वाले लूट में शामिल होंगे ही। बिहार के घुटने-कद के नेता से लेकर आदम-कद नेता तक, जो अपने जीवन में कभी राज दरभंगा के चौखट पर खड़े होने के काबिल नहीं थे, भौंकना शुरू कर दिए। जो कभी दरभंगा राज को देखा नहीं था, रेवेन्यू-स्टाम्प पर सम्पत्तियों को खरीदने, जमीन को खरीदने का दस्तावेज बनाने लगे।  संस्थान में लोभियों, अवसरवादियोंको “ईशारा” करने लगे, जाल बिछाने लगे। कुछ फंस गए, कुछ निकल गए। परन्तु ‘फंसने वालों की संख्या’, निकलने वालों की संख्या पर बहुत भारी पड़ा।  एक समय था जब राजा-महाराजा, उनके परिवार और परिजन अपने राज में, राजधानी में, शहर में निकलते थे तो लोगों की भीड़ उमड़ती थी उनकी एक झलक पाने के लिए। लोग अपने को सौभाग्यशाली समझते थे जब उनकी ओर उन महात्मनों की नजर उठती थी। आज समय बदल गया है। 

दरभंगा से पटना के रास्ते देश की राजधानी दिल्ली तक उन राजा, महाराजाओं को, उनके परिवार और परिजनों को देखने वाला, समझने वाला, मिलने के लिए लालायित होने वाला कोई नहीं है। चाहे दरभंगा के रामबाग पैलेस के खुले मैदान में भ्रमण-सम्मलेन करें या पटना के गाँधी मैदान में या फिर दिल्ली के लोदी गार्डन या राजपथ पर सुबह का शेर करें – समाज के उच्च वर्ग से लेकर माध्यम वर्ग के रास्ते निम्न वर्ग तक कोई नहीं जानता, कोई नहीं पहचानता। आज समय ऐसा हो गया है कि दरभंगा राज के घरों में, कोठियों में अपने सगे-संबधी मृत्यु को प्राप्त करते हैं, अपनी मौसेरी बहन की मृत्यु होती है, लोग-बाग़ अपना दरवाजा खोलने के बजाय बंद कर निकल जाते हैं।

बहरहाल, सन 1960 के अक्टूबर माह के पहली तारीख को महाराजा का असामयिक अंत होता है। महाराजा  के  अंतिम  सांस  के  साथ  ही,  दरभंगा  राज  से  जुड़े  लोग  बाग़,  जो  प्रत्यक्ष  अथवा  परोक्ष  रूप  से  राज  घराने  की  सम्पत्तियों से “घी” से स्नान करते थे, “मूल-सम्पत्तियों” पर ध्यान केंद्रित करने लगे, सल्तनत की दीवारों से ईंटें खींचने लगे, मुख्य द्वार को खोलने-बंद करने वालों से लेकर तिजोरियों को खोलने, बंद करने और सुरक्षित रखने वालों तक-सभी मृत्युपरांत राज  के  अस्तित्व को सुरक्षित रखने के  बजाय,  महाराजाधिराज के सम्पत्तियों के बंटबारे, उचित हिस्सा प्राप्त करने, मिलने पर केंद्रित हो गए। होना भी स्वाभाविक था । विश्वास नहीं होता की आज के बिहार के कुल 94,163 वर्गकिलोमीटर क्षेत्र में दरभंगा राज का कभी 8380 किलोमीटर क्षेत्र पर आधिपत्य था। दर्जनों सर्किल थे। कोई 4,495 गाँव दरभंगा नरेश के शासन में थे। और आज – जो शेष है उसे लोग बाग़ बेचने पर आमादा हैं। 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here