अगर ‘नेताजी की मृत्यु’ से सम्बन्धित ‘फाईलें’ खुल सकती हैं, तो ‘दीनदयाल जी’ की ‘मृत्यु-आलेख’ की भी तो पुनः जाँच हो सकती है 

यह तस्वीर अजमेर शहर में सर्किट हॉउस जाने वाली सड़क के पास है 

सन 1967 में जब महान समाज सुधारक श्री दीनदयाल उपाध्याय जी भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष थे, तत्कालीन आम चुनाव में कुल 35 सीट जीतकर भारतीय संसद में तीसरा नाम दर्ज किये । ऐसे थे दीनदयाल जी। उनके 53 वीं पुण्यतिथि वर्ष में भारतीय संसद के निम्न सदन में कुल 303 सम्मानित सदस्यगण हैं, जो भारतीय जनता पार्टी की टिकट पर आदरणीय प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की अगुआई में विजय प्राप्त किये। इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश विधान सभा में कुल 312 सम्मानित सदस्य हैं, जो भाजपा के हैं और माननीय श्री आदित्यनाथ योगी जी की अगुआई है । 

अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की “मृत्यु” से सम्बंधित “दस्तावेज” विभिन्न कारणों से “पुनः खुल सकते” हैं, लाल-कपडे में बँधे फाईलों के ऊपर जमी मिट्टी की परतों को झाड़ा-पोछा जा सकता है, सत्य और सत्यता की खोज के लिए; तो फिर श्री दीनदयाल उपाध्याय जी की “मृत्यु” से सम्बन्धित दस्तावेजों को, फाईलों को, कमिटी, कमीशन के निर्णयों को, न्यायालय के अन्तिम शब्दों को “पुनः” क्यों नहीं “जाँचा” जा सकता हैं? कहीं श्री दीनदयाल उपाध्याय की “मृत्यु” “राजनीतिक हत्या” तो नहीं थी ?

इसकी जाँच का आदेश आधुनिक भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में सिर्फ और सिर्फ प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र दामोदर मोदी ही दे सकते हैं, यानि, “मोदी जी तो मुमकिन है” – स्टेशन का नाम बदलने से, गाँव का नामकरण करने से सच तो नहीं सामने आएगा !! क्योंकिं, सिर्फ दिल्ली में ही नहीं, देश के दूर-दरस्त इलाकों में भी स्थापित आदरणीय दीनदयाल उपाध्याय जी की प्रतिमाओं को सम्मानित होने का उतना ही अधिकार हैं, जितना दिल्ली के दीन दयाल उपाध्याय मार्ग पर स्थित भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में उनकी प्रतिमा पर लोगों के विशालकाय श्रंखला द्वारा पुष्पांजलि प्राप्त करने का। परन्तु ऐसा होता नहीं – यह दुःखद है। भारत के लोगों को राजनीति से अलग एक मानवीय सोच भी रखना होगा राष्ट्र के उन तमाम सुधारकों के प्रति, चाहे उनका योगदान सामाजिक उत्थान में हो, आर्थिक रूप से राष्ट्र की नींव को मजबूत करने के लिए हो, न्यायिक व्यवस्था को देश के प्रत्येक नागरिकों के दरवाजे तक बिना किसी भेदभाव के पहुँचाने में हो, इत्यादि-इत्यादि। 

कल ही की तो बात है।  सम्पूर्ण राष्ट्र दिवंगत दीन दयाल उपाध्याय जी का 53 वीं पुण्यतिथि मनाया था। उनके आदर्शों पर चर्चा भी किया था। उनकी प्रतिमाओं पर पुष्पांजलि भी किया, माल्यार्पण भी किया – कुछ अन्तः मन से, कुछ ऊपरी मन से। कुछ देखा-देखि में तो कुछ सम्मान-स्वरुप।  कई उन्हें अपना आदर्श मानते हैं आज भी। कई इसलिए नमन किये कि उनके एल्बम में एक और तस्वीर सज जाय। कई तो इस फ़िराक में थे की उनकी सामाजिक-मानसिक योग्यता के अनुसार, पंचायत के नेता से दिल्ली के कल्याण मार्ग स्थित प्रधान मंत्री के साथ, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष के साथ एक तस्वीर खींच जाय और फिर उस तस्वीर को देश की राजनीतिक गलियारे में भुनाया जाय – स्वहित में। आदरणीय श्री दीनदयाल जी के विचारों को, आदर्शों को, भावनाओं को सामाजिक हित में वे कितना इस्तेमाल करेंगे, कर पाएंगे, यह तो वे भी नहीं जानते और दीन दयालजी का शरीर तो पार्थिव 53 वर्ष पूर्व हो गया था। 

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भारत में प्रतिमाविज्ञान एवं प्रतिमा कला या मूर्तिकला का जन्म तथा विकास एवं प्रोल्लास देवार्चा से पनपा। सभी ध्यानी, योगी, ज्ञानी नहीं हो सकते थे, अत: ‘भावना’ के लिये प्रतिमा की कल्पना हुई। कालांतर पाकर पौराणिक पूर्तधर्म (देवतायननिर्माण, देवप्रतिष्ठा एवं देवार्चन) ने प्रतिमानिर्माण की परंपरा में महान योगदान दिया। देवमंदिरों के निर्माण में न केवल गर्भगृह के प्रधान देवता के निर्माण की आवश्यकता हुई वरन् देवगृह के सभी अंगों, भित्तियों, शिखरों आदि पर भी प्रतिमाओं के चित्रणों का एक अनिवार्य अंग प्रस्फुटित हुआ। इस प्रकार प्रधान देवों के साथ साथ परिवार देवों तथा भित्तिदेवताओं की भी प्रतिमाएँ बनने लगीं। मंदिर की भित्तियाँ पौराणिक आख्यानों के चित्रणों से भी विभूषित होने लगीं। अत: हिंदू प्रासाद या विमान पुरुषाकार (विराट् पुरुष के उपलक्षण पर विनिर्मित या प्रतिपादित) हैं अत: नाना उपलक्षणों, प्रतीकों, की पूर्ति के लिये यक्ष, गंधर्व, किन्नर, कूष्मांड, ऋषिगण, वसुगण, शार्दूल, मिथुन, सुर, सुंदरी, वाहन, आयुध आदि भी चित्रित होने लगे जिनकी प्रतिमाएँ भारतीय मूर्तिकला के समुज्वल निदर्शन हैं।

प्रधानमंत्री ने कहा, “हमारे शास्त्रों में कहा गया है- “स्वदेशो भुवनम् त्रयम्” अर्थात, अपना देश ही हमारे लिए सब कुछ है, तीनों लोकों के बराबर है। जब हमारा देश समर्थ होगा, तभी तो हम दुनिया की सेवा कर पाएंगे। एकात्म मानव दर्शन को सार्थक कर पाएंगे। दीनदयाल उपाध्याय जी ने भी यही लिखा था-‘एक सबल राष्ट्र ही विश्व को योगदान दे सकता है।’ यही संकल्प आज आत्मनिर्भर भारत की मूल अवधारणा है। इसी आदर्श को लेकर ही देश आत्मनिर्भरता के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है।”  प्रधान मन्त्री ने कहा कि सामाजिक जीवन में एक नेता को कैसा होना चाहिए, भारत के लोकतन्त्र और मूल्यों को कैसे जीना चाहिए, दीनदयाल जी इसके भी बहुत बड़ा उदाहरण हैं। एक ओर वो भारतीय राजनीति में एक नए विचार को लेकर आगे बढ़ रहे थे, वहीं दूसरी ओर, वो हर एक पार्टी, हर एक विचारधारा के नेताओं के साथ भी उतने ही सहज रहते थे। हर किसी से उनके आत्मीय संबंध थे।  

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उन्होंने कहा कि कोरोनाकाल में देश ने अंत्योदय की भावना को सामने रखा और अंतिम पायदान पर खड़े हर गरीब की चिंता की। आत्मनिर्भरता की शक्ति से देश ने एकात्म मानव दर्शन को भी सिद्ध किया, पूरी दुनिया को दवाएं पहुंचाईं और आज वैक्सीन पहुंचा रहा है। उन्होंने कहा कि 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान, भारत हथियारों के मामले में विदेशों पर निर्भर हुआ करता था। दीनदयाल जी ने उस समय कहा था कि हमें ऐसा भारत बनाने की जरूरत है जो ना केवल कृषि के क्षेत्र में बल्कि रक्षा एवं शस्त्रों के मामले में भी आत्मनिर्भर ह। आज भारत देख रहा है कि रक्षा गलियारे बनाये जा रहे हैं, स्वदेशी हथियार एवं तेजस जैसे युद्धक विमान बनाये जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि प्रकृति के साथ सामंजस्य का दर्शन दीनदयाल जी ने हमें दिया था। भारत आज इंटरनेशनल सोलर अलायन्स का नेतृत्व करके दुनिया को वही राह दिखा रहा है।

आदरणीय श्री दीन दयाल जी मथुरा जिला के नागला चन्द्रवं गाँव में जन्म लिए। पिता एक ज्योतिषी थे और माँ एक कुशल द्रष्टा, खासकर हिन्दू प्रथा की। शिक्षा पिलानी (राजस्थान), कानपूर-आगरा (उत्तर प्रदेश) से प्राप्त किये। सं 1937 के करीब वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक माननीय श्री के बी हेडगेवार जी से मिले। मुलाकात इनके जीवन-रेखा को कुछ अलग, कुछ करने की ओर मोड़ दी। बाद में ये पूर्णकालीन रूप से संघ से जुड़ गए और जीवन-पर्यन्त प्रचारक बन गए। जब श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी सन 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना किये, श्री दीन दयाल जी कानपूर के महासचिव बने, फिर अखिल भारतीय महासचिव बनाये गए। लगभग 15 लगातार वर्षों तक वे महासचिव रहे। सं 1963 में वे जौनपुर लोक सभा क्षेत्र से चुनाव लड़े। लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी। सन 1967 के आम चुनाव में जनसंघ को कुल 35 सीट प्राप्त हुए और संसद में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। समय बदलता गया।  श्री दीन दयाल जी जनसंघ के अध्यक्ष बने, साल 1967 था। ये पांचजन्य के संपादक भी रहे। 

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राजनीतिक हवाएं बदल रही थी। श्री दीन दयालजी भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बनने के महज दो महीने के अंदर ही 10 फरवरी, 1968 को सियालदह एक्सप्रेस ट्रेन से लखनऊ से पटना यात्रा हेतु ट्रेन पर सवार हुए। ट्रेन देर रात कोई 2 . 10 बजे मुगलसराय स्टेशन पहुँची। लेकिन श्री दीन दयालजी उस ट्रेन में नहीं थे, अलबत्ता, उनका पार्थिव शरीर स्टेशन के ट्रेक्शन पोल संख्या 748 के पास पड़ी मिली। जीवन का समय यहाँ पूर्ण-विराम लगा दिया था। कहा जाता है वे अंतिम बार जीवित, सांस लेते जौनपुर स्टेशन पर देर रात देखे गए थे। मृत्युपरांत अनेकानेक अन्वेषण हुए, कमिटी बानी, कमीशन बनी, कुछ संदिग्ध पकड़ाए, कुछ संदिग्ध छोड़े गए, और अंततः क्या हुआ यह प्रश्न अनुत्तर रहा, आज तक। 

प्रधानमंत्री ने कहा, “हमारे शास्त्रों में कहा गया है- “स्वदेशो भुवनम् त्रयम्” अर्थात, अपना देश ही हमारे लिए सब कुछ है, तीनों लोकों के बराबर है। जब हमारा देश समर्थ होगा, तभी तो हम दुनिया की सेवा कर पाएंगे। एकात्म मानव दर्शन को सार्थक कर पाएंगे। दीनदयाल उपाध्याय जी ने भी यही लिखा था-‘एक सबल राष्ट्र ही विश्व को योगदान दे सकता है।’ यही संकल्प आज आत्मनिर्भर भारत की मूल अवधारणा है। इसी आदर्श को लेकर ही देश आत्मनिर्भरता के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है।” 

प्रधान मन्त्री ने कहा कि सामाजिक जीवन में एक नेता को कैसा होना चाहिए, भारत के लोकतन्त्र और मूल्यों को कैसे जीना चाहिए, दीनदयाल जी इसके भी बहुत बड़ा उदाहरण हैं। एक ओर वो भारतीय राजनीति में एक नए विचार को लेकर आगे बढ़ रहे थे, वहीं दूसरी ओर, वो हर एक पार्टी, हर एक विचारधारा के नेताओं के साथ भी उतने ही सहज रहते थे। हर किसी से उनके आत्मीय संबंध थे।

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