✍ एक देश, एक तिरंगा 🇮🇳 एक संविधान 📙 फिर ‘एक सार्वभौमिक पुलिस अधिनियम’🪖क्यों नहीं ?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

नई दिल्ली : पिछले दिनों जब देश के गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने लोक सभा में एक लिखित प्रश्न का उत्तर देते यह कहा कि देश के कुल 17,535 कार्यरत थानों में से 63 पुलिस थानों में कोई वाहन नहीं है, तो सुनकर, पढ़कर कोई आश्चर्य नहीं लगा था। आज एक तरफ जहाँ देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी पूरे देश में तकनीकी और संचार के जगत में क्रांति लाने की बात कर रहे हैं, वहीँ उनके की मंत्रिमंडल के मंत्री यह भी स्वीकार किया कि देश में 628 पुलिस थानों में ‘संचार’ की कोई व्यवस्था नहीं है, यानी 628 थानों में ‘टेलीफोन’ की भी सुविधा नहीं है। अतः स्वाभाविक है कि ये सभी 628 थाने देश की पुलिसिंग की मुख्यधारा से कटे हैं। 

आगे सुनिए। मंत्री महोदय यह भी जवाब दिए कि देश के 285 पुलिस स्टेशनों में ‘वायरलेस सेट’ या ‘मोबाइल फोन’ भी नहीं है। अगर सरकारी आंकड़े सही हैं तो विगत 9 दिसंबर, 2022 तक दूरसंचार विभाग के डैशबोर्ड पर उपलब्ध कराए गए मोबाइल टावरों की संख्या के अनुसार, दूरसंचार नेटवर्क चलाने वाले चार ऑपरेटरों द्वारा नवंबर 2022 तक 7.37 लाख टावरों और 23.7 लाख बेस स्टेशनों का उपयोग किया जा रहा है। दिसंबर 2017 से टावरों और बीटीएस में क्रमशः लगभग 60 प्रतिशत की वृद्धि और 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 

सरकारी आंकड़े यह भी कहते हैं कि सालाना, टावरों को लगभग स्थिर दर पर जोड़ा जा रहा है, जिसमें साल-दर-साल 45,000-55,000 जोड़े जाते हैं। टेलीकॉम टावर की तरफ और बीटीएस की तरफ 50,000-65,000 नेट जुड़ता है। जबकि केंद्रीय गृह राज्य मंत्री ने कहा कि 17,535 पुलिस स्टेशनों में से सिर्फ 14,834 पुलिस स्टेशनों में सीसीटीवी उपलब्ध हैं। झारखंड के 564 पुलिस स्टेशनों में से 47 में कोई वाहन नहीं है, 211 में कोई टेलीफोन कनेक्शन नहीं है और 31 बिना मोबाइल फोन या वायरलेस सेट के हैं।

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यह तो आंकड़े की बात हुई। अब जरा पैसे की बात देख लें। सांख्यिकी के अनुसार केंद्र हर साल ‘पुलिस स्टेशनों के मॉडलाइजेशन के लिए राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को आर्थिक मदद करता है। 2019-20 में सरकार ने 781.12 करोड़ रुपये जारी किए। वहीं 2020-21 में 103.25 करोड़ रुपये और 2021-22 में 158.57 करोड़ रुपये जारी किए। यानी पैसा केंद्र से लें, और नियम अपना चलाएं। 

विश्व में पहला केंद्रीय रूप से संगठित और वर्दीधारी पुलिस बल 1667 में किंग लुईस XIV की सरकार द्वारा पेरिस शहर, जो उस समय यूरोप का सबसे बड़ा शहर था, की निगरानी के लिए बनाया गया था। लॉर्ड कार्नवालिस (1786-1793) ने पुलिस सुधारों के एक भाग के रूप में दरोगा प्रणाली की शुरुआत की। प्रत्येक जिले की पुलिस को जिला न्यायाधीश के अधीन रखा गया। प्रत्येक जिले को थाने/पुलिस सर्किलों में विभाजित किया गया था, जिसका नेतृत्व एक भारतीय अधिकारी दरोगा करेगा, जिसकी सहायता कांस्टेबलों द्वारा की जाएगी। 

देश की आज़ादी के लिए सन 1857 का विद्रोह तत्कालीन भारत की कानून व्यवस्था को झकझोड़ दिया। उस आंदोलन को कुचलने का सम्पूर्ण प्रयास किया गया। तत्कालीन वाइसराय वॉरेन हास्टिंग ने पुलिस व्यवस्था में सुधार की आवशयकता समझे इसलिए आज भी उन्हें पुलिस सुधार शुरू करने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने ही 1861 के पुलिस अधिनियम बनाया। आज भी स्वतंत्र भारत में पुलिस के मामले में जो अधिनियम है वह उसी 1861 अधिनियम पर आधारित है। उस पुलिस अधिनियम के तहत पुलिस को लोकतांत्रिक मूल्यों, मानवाधिकारों और कानून के शासन के सम्मान के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करने की परिकल्पना की गई है। 

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स्वतंत्र भारत में उक्त पुलिस अधिनियम की उपस्थिति में भी प्रत्येक राज्यों को यह अधिकार दिया गया कि वे अपने प्रदेश में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए अपने तरह से विधि-विधान बनायें। लेकिन 1861 का अधिनियम भी रहेगा। अब सवाल यह है कि 1861 अधिनियम के होते हुए अगर राज्य सरकार अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार पुलिस नियम बनाये/बनाएंगे, वैसी स्थिति में 1861 अधिनियम का क्या औचित्य रह जायेगा।?

अब प्रश्न यह है कि अगर देश एक है, देश का राष्ट्रीय ध्वज एक है, देश का संविधान एक है जिसके तहत भारत का प्रत्येक नागरिक है ‘बराबर’ है, वैसी स्थिति में पूरे राष्ट्र के लिए एक पुलिस अधिनियम क्यों नहीं है? कहने को तो वॉरेन हस्टिंग के कालखंड में निर्मित 1861 पुलिस अधिनियम है, लेकिन भारत के राज्यों में अपनी अलग-अलग पुलिस नियम हैं? ऐसा क्यों?  भारत के राष्ट्रपति, देश के प्रधानमंत्री, देश का संसद भारत के संविधान के अधीन एक ऐसी व्यवस्था करें जिससे भारत के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की पुलिस ‘एक अधिनियम’ के तहत आएं।

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